इंफाल में फ़ास्टफ़ूड की तलाश का वह दिन

  • 11:18 am
  • 19 June 2024

(कथाकार डॉ.प्रेम कुमार की इंफाल यात्रा एक संगोष्ठी में शिरकत के निमित्त हुई थी. वहाँ बिताये हुए कुछ दिनों के अपने अनुभवों को उन्होंने ‘यात्रा पूरब के स्वीट्ज़रलैंड की’ नाम के सफ़रनामे में दर्ज किया. हालांकि यह कोई चौदह-पंद्रह साल पुरानी बात है, मगर उनके सफ़रनामे को पढ़ते हुए नहीं लगता है कि इतना वक़्त गुज़र चुका है. उसी किताब से एक छोटा-सा अंश…सं)

आँख खुली तो सिरहाने रखे मोबाइल में समय देखा-चार चालीस. पहली चिंता, बड़ी चिंता-जगने के तुरंत बाद की, उस दिन की सबसे बड़ी चिंता-पेट की, केवल पेट की चिंता. जगने के साथ ही लगा कि चावल महाराज को अपने भारीपन का असर तो दिखाना ही दिखाना है. दिखाया भी-ख़ूब जी भर के. लगभग घंटे भर की प्रतीक्षा-प्रार्थनाओं-प्रयासों के बाद भी नतीजा शून्य. पेट था कि जैसे अंदर का सब कुछ जम गया था. जैसे भारी विकट-सा कोई जाम लग गया हो अंदर. कई लोगों से सुना काफ़ी कुछ याद आना शुरू हुआ-हमें पेट साफ़ करने को यह करना पड़ता है, वह करना पड़ता है. आधा घंटा लगता है कि एक घंटा लगता है. वहां अख़बार साथ ले जाते हैं या फिर कोई किताब साथ ले जाते हैं. राजेन्द्र जी के एक कथन और कहे जाने के समय की मुख-मुद्रा का ध्यान आया तो मनःस्थिति में भी हंसी आए बिना नहीं रह सकी. कई दिनों की लंबी बातचीत के बीच मैंने यूं ही पूछ लिया था कि आपको ईर्ष्या किससे होती है. सुनने के साथ ही राजेन्द्र जी पहले हँसे. फिर कुटिल होती सी उनकी वह हँसी सिकुड़-सिमटकर जल्दी ही मुस्कान हो गई-हाँ, ईर्ष्या उससे होती है और बहुत होती है, जो कहता है कि मैं टॉयलेट में यूं जाता हूँ और तुरंत बस यूँ आ जाता हूँ. और पेट एकदम साफ़. लम्बी-सी चुप्पी के बाद रुक-रुककर बताया गया था – हाँ इसलिए कि मैं कब्ज़ का बहुत पुराना मरीज़ हूँ. मुझे देर-देर तक बैठना पड़ता है टॉयलेट में. दुखती-सी देह और बीमार से मन के साथ नहा-धोकर तैयार हुआ. महसूस होता रहा कि रोज़ के सहज-निश्चित क्रम में कोई बदलाव-अवरोध आ जाने का मन और तन पर क्या कैसा बुरा प्रभाव पड़ता है. सात बजे तक आ जाने को कहा था इग्नो ने. सात बीस तक नहीं आया तो सोचा क्यों न खुद ही चलकर इग्नो की बताई जगह पर पूड़ियों की कुछ जुगत बिठाई जाए.

गेस्ट हाउस से बाहर सड़क पर आते ही सबसे पहले असम राइफ़ल्स के जवानों को लेकर जाती एक गाड़ी दिखी. भय का मुन्ना-सा एक भाव अंदर-अंदर कुलबुलाया-कसमसाया. अकेले कहीं न जाने को लेकर मिली अनेक नसीहतें याद हो आईं. पेट की चिंता और इंफाल के थोड़े कुछ को ख़ुद से देख-जान लेने की इच्छा ने ज़ोर न मारा होता तो शायद मैं वहीं से लौट आता. ज़रा आगे बढ़ते ही दिखा कि यूनिवर्सिटी के प्रवेश द्वार पर बड़ी तादाद में असम राइफ़ल्स के जवान ड्यूटी पर मुस्तैद हैं. मुस्तैदी भी कुछ इतनी और ऐसी कि जिसे देखते ही कोई डर-सिहर जाए. इधर-उधर, अलग-अलग दिशाओं की ओर मुँह किए अकड़े तने से खड़े सजग-सन्नद्ध हथियारबंद जवान. गेट के ऊपर भी और नीचे इस-उस तरफ़ भी. यूनिवर्सिटी की सड़क पर भी और उससे सटकर जाते उस राष्ट्रीय मार्ग पर भी. स्थानीय पुलिस को साथ लिए यहां-वहां खड़े वे दर्जनों जवान. हर आने-जाने वाले को रोकते-रोकते, उससे सवाल करते-तलाशी लेते वे जवान. ज़रा-ज़रा दूरी पर कतारबद्ध से खड़े वे जवान. राजमार्ग पर ज़रा-ज़रा देर बाद गुज़रतीं असम राइफ़ल्स की गाड़ियाँ. कुछ देर सड़क के किनारे चुप खड़े रहकर ग़ौर से देखा. वे सारे के सारे जवान सचमुच में ही जवान थे. उम्र में भी और जिस्म के आधार पर भी. मासूम से चेहरे पर थकान और उदासी की कुछ पर्तों के साथ ज़रा दूर पर खड़े उस ख़ूबसूरत जवान से बातें करने का मन हुआ. झिझकते-सहमते से उसकी ओर क़दम बढ़ाए. पता नहीं क्या कैसा व्यवहार मिले. हिन्दी जानने के बारे में एक सवाल किया. चहकता-सा एक आत्मविश्वास सुनाई दिया उसकी आवाज़ में – हाँ, आती है न हिन्दी. तब तक एक और जवान वहाँ आ पहुँचा. उसकी पहले वाले जवान से हिन्दी में होती बातों को सुनकर ख़ुशी हुई. मैंने पूड़ी की दुकान के बारे में पूछा तो हाथ के इशारे से बताया – उधर, सड़क के पार…

सड़क पार करने से पहले कुछ देर अपने आस-पास को ढंग से देखा. सड़क पर ख़ाली या सवारियां लेकर आ-जा रहे रिक्शे, टैम्पो, थ्री व्हीलर, स्कूटर, गाड़ियाँ ड्राइव करती आ-जा रहीं लड़कियाँ-महिलाएँ. लगा कि जैसे मैं अलीगढ़ में ही हूँ. बहुत सारी चीज़ें हमारी ज़िंदगियों में अब सभी जगह लगभग एक जैसी ही हैं. ये दुकानें, टिन की छतें और गेट. छोटे-छोटे घर-दुकानें. दुकानों पर शांत बैठे लोग, बतियाते प्रौढ़, काम करतीं औरतें. हाईवे के पार सामने वाली सड़क पर दोनों ओर दूर तक दुकानें ही दुकानें. तरह-तरह की चीजों को बनाने-बेचने की. पूछते पाछते पूड़ी की दुकान तक पहुँचा. बंद मिली. बंद दुकान के पास खड़े लोगों ने हाथ के इशारे से एक और दुकान बता दी. वहाँ गया वह भी बंद. एक दुकानदार ने जो अच्छी तरह हिन्दी समझ-बोल रहा था, बताया सात तीस से पहले बंद हो जाती हैं ये दुकानें. कोई और दुकान बताने का आग्रह किया तो बोला-वो इस हाइवे पर जाकर फ़ास्टफ़ूड वाली दुकान देख लो. शायद वो खुली हो अभी.

बताए रास्ते पर चलने से पहले ज़रा देर को ध्यान आया कि मैं इंफाल में हूं और अकेला बिल्कुल अपरिचित इलाक़े और लोगों के बीच जा रहा हूँ. डरा कि कहीं डर न जकड़-दबोच ले. सोचते ही डर को थोड़ा बहुत तो लगना ही था सो लगा. पर मैं रुका नहीं, लौटा नहीं. दोनों ओर की दुकानों और उन पर बैठे-काम करते लोगों को अब फिर देखा. ज़रा गौर से और बेझिझक बनकर देखा. जीवन को जीने – उससे जूझने की इन लोगों की दिन-प्रतिदिन की ऐसी ये कशमकश. बाज़ार में शहरों वाली वो चमक-दमक, समृद्धि या भीड़-भाड़ नहीं दिख रही है. सरल, शांत, कोमल दिखते से ये इन बाल-वृद्धों, स्त्रियों के चेहरे. अपने-अपने काम में जुटे इन सबकी ऐसी ये क्रियाएँ-मुद्राएँ. तरह-तरह की फुटपाथ पर लगी-रखीं ये छोटी-बड़ी दुकानें…. वही सब… दिन के शुरू होते ही सड़कों पर दौड़ते ये वाहन. आते-जाते लोग, खुली दुकानें, खाते-खरीदते ग्राहक और माल बनाने-बेचने में व्यस्त दुकानदार. दुकानदार यानी कि ज्यादातर स्त्रियाँ. स्त्रियाँ यानी की अधिकांशतः प्रौढ़ाएँ-वृद्धाएँ. सुशील का बाज़ार के समय के बारे में कहा – बताया ध्यान हो आया.

हाईवे पर सड़क के किनारे-किनारे दाहिंनी ओर और आगे चला. एक साथ बहुत कुछ जान लेने की इच्छा, लेकिन जितना जो बिल्कुल साफ़-साफ़ दिख रहा था उसे भी ढंग से न देखा जा रहा था, न जान-समझ पा रहा था. सुनी बातों और मिली नसीहतों का तरह-तरह का असर. किसी से कुछ पूछने में डर, बात करने में भय. कहीं कोई यह न समझ बैठे, यह न कह-कर बैठे. बगल से गुज़रते उस रिक्शे को चलाने वाले ने ध्यान खींचा. टहलने जैसी धीमी-मस्त चाल से चल रहा वो रिक्शा. बमुश्किल उसे चला पा रहा वो फटेहाल रिक्शे वाला. अच्छी खासी उम्र, भला-चंगा सा शरीर. कान में वायर लगाए गाने सुनता गाता अपनी धुन में मस्त न जाने क्या सोचता सा वह पैडल घुमाए जा रहा है. रिक्शा ज़रा आगे निकला तो पैडल पर रखे उस रिक्शे वाले के पैरों में पड़ी चप्पलों की ओर ध्यान गया. समझ ही नहीं आया कि उसके पैर पैडल को चला रहे हैं या फिर पैडल उसके पैरों को घुमा रहे हैं. दुकानों घरों पर लगे बोर्ड पर ज्यादातर अंग्रेज़ी में लिखा था. उस लिखे को पढ़ता-बूझता, डरा-सहमा सा मैं आगे की ओर बढ़ा जा रहा था. चलने की दिशा में एक पेट्रोल पंप दिखा. एकदम ख़ाली, बंद पड़ा सा. न कोई व्यक्ति, न कोई वाहन. शायद आज इसकी छुट्टी रहती हो. शायद इनके खुले रहने का यह समय ही न हो. अचानक दिखा कि सामने अंग्रेज़ी में लिखा टँगा है – फ़ास्टफ़ूड. जान पड़ गई हो जैसे पूरे बदन में. चलो आना सफल हुआ. सड़क के किनारे नाले जैसी एक नाली. लकड़ी रखकर उस पर पुल की तरह से बनाया गया आने-जाने का वह रास्ता. पुल पार कर दुकान तक पहुँचा तो पाया कि वह दुकान भी बंद है. तेज़ एक झटका-सा लगा. मन खिन्न हुआ. खड़ा सोचने लगा कि अब और क्या किया जा सकता है. कुछ न सूझा तो इधर-उधर देखा तलाशा. शायद कोई ऐसा दिखे-मिले जो कुछ और बताए. दुकान से सटे खुले हिस्से में एक भद्र-आकर्षक सी महिला बाल्टी लटकाए अपनी ओर आती दिखी. लगा कि जैसे साड़ी बाँधे है. बहुत आत्मीय-सी मुस्कान. अच्छी लम्बी-सी काया. मेरे सामने उसके आ खड़ा होने ने मुझे यह भुलवा ही दिया कि मैं कहीं बाहर हूँ. इंफाल-मणिपुर में हूँ. उस जगह तो बिल्कुल नहीँ हूँ, जहाँ के बारे में डरावना-भयानक सा काफी कुछ सुना है पिछले इन दिनों में. मैंने मान लिया था कि इन्हें हिन्दी नहीं आती होगी. दुकान की तरफ इशारा करते हुए जानना चाहा कि वह बंद क्यों है और कब खुलेगी. उन्होंने उतने उस इशारे से ही जैसे मेरे मन की बात समझ ली थी और अनकहे मेरे शब्दों को भी सुन लिया था. और पास आकर बहुत शिष्ट ढंग से पूछा-क्या चाहिए? उनके उस तरह हिन्दी में बोलने ने मुझे चौंकाया भी और राहत जैसा एक एहसास भी कराया…. खाने का कुछ भी.. गर्दन पीछे घुमाकर जैसे आवाज़ दी है किसी को. शायद बुलाया है किसी को.

आवाज़ के साथ ही स्वस्थ्य, सुंदर, प्यारा सा एक युवक निकलकर आया अंदर से. महिला अंदर चली गई है. युवक ने विनम्र शिष्ट अंदाज में, प्यारी, मीठी आवाज़ में, उतने उन्हीं शब्दों में वही पूछा है जो ज़रा पहले उस महिला ने पूछा था. क्या चाहिए? मैंने कहा-खाने का कुछ. लगा कि वह इंकार करने वाला है. कहेगा कि दुकान बंद है. लेकिन सुनाई दिया-खाने को क्या? मैंने प्रार्थना जैसे स्वर में कहा- कुछ भी. उसने मेरे मनःस्थिति को समझ लिया था, शायद मेरी ज़रूरत को भांप लिया था. जो भी था अपनी उस मुस्कान में वह मुझे एकदम अपना लगा. बहुत करीब आ गया-सा लगा. कुछ न कुछ करने जैसी भावना से ओत-प्रोत. गर्दन के इंगित पर सिर के नीचे-ऊपर आने-जाने के बीच उसके शब्द सुनाई दिए. कुछ भी…. वेज-चाऊमीन है थोड़ा…. बिना कुछ बोले तेज़ी से मुड़ा. अच्छा आइए. दुकान के अंदर की ओर चला उसके पीछे-पीछे चुपचाप चलता गया मैं. ख़ुश-ख़ुश जिज्ञासा और उतावली से भरा-भरा. शंका या भय जैसा दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं. छोटे से दरवाज़े से दुकान के हिस्से में प्रवेश किया. सिर से ज़रा ऊंची उस दुकान की छत. लकड़ी की छत. चार-पांच मेज़ें, कुछ कुर्सियां. चौड़ा ऊंचाई से भी कम. इतनी कम ऊंचाई पर पारकर दुकान बना दिया गया एक बरामदा. घर में अंदर जाने के लिए एक और छोटा सा दरवाज़ा. दरवाज़े पर लटका झीना-सा एक पर्दा. पर्दे के पार दिखती दीवार से सटी-सटी छत की ओर को जाती लकड़ी की सीढ़ियां. और छत की टिन का दिखता वह ज़रा सा सफेद हिस्सा. ठीक है देखता हूं कहकर युवक अंदर गया. बाहर मिली महिला दरवाजे के अंदर आ गई है. शायद युवक की मां है वह. उनसे बात करते-करते युवक ने पूछा-खाना है या पैक कराना है? मैंने पैक कराने को कह दिया है. दुकान में अकेला बैठा तब इस-उस ओर अंदर बाहर देखता मैं सोच रहा था कि आख़िर इस दुकान में, इस घर में आने-बैठने के बाद मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं अपने किसी सुपरिचित अत्यंत आत्मीय के घर बैठा हूं. अलीगढ़ की रामलीला मैदान के सामने वाली विनोद चायवाले की दुकान का स्मरण हो आया. बेरोज़गारी के दिनों में बरसों-बरस भूख मिटाने के लिए वहां जाते रहे हैं हम. ऐसी ही उन छोटी-छोटी कुर्सी-मेज़ों पर जा बैठकर ख़ूब चाय पी है. ब्रेड-बटर खाया है वहां. ऐसी ही पतली लम्बी सी वह दुकान. ऐसा ही रोशनी मिला-सा उसका वह अंधेरा.

मन था कि कुछ और देर बैठूं-बात करूं. अपनी मंशा उसे बताई. वह एकदम राज़ी-ख़ुश. अच्छा ठीक है, कहने के साथ ही मेरे सामने वाली मेज पर आसीन- हां, ज्यादा नहीं. इंटर के बाद बंद. फिर डिप्लोमा. अब एनजीओ… और यह फ़ास्ट फ़ूड सेंटर. अब तक सब कुछ आराम इत्मीनान से चल रहा था. लेकिन जैसे ही मैंने मणिपुर के युवा, वहां की ग़रीबी-बेरोज़गारी के बारे में जानने की कोशिश की, दुकान के अंदर के काफ़ी कुछ में तेज़ एक बदलाव आता-सा दिखा. मेरे सामने बैठे उस युवक का न अब चेहरा पहले जैसा था, न उसकी आंखें और आवाज़ ही अब उतनी सरल, प्रसन्न और प्रफुल्ल सी लग रही थी. पल-पल में बदलती उसकी मुख मुद्राएं. इसकी वजह कोई नशा तो नहीं है? सुशील कुमार की चेतावनी याद आई… यहां का आदमी नशे में हो तो उसके सामने यस, यस कर जाने में ही बाहर वाले की भलाई है. उसके चेहरे को फिर गौर से देखा. नशे जैसी कोई वजह नज़र नहीं आई. आंखों में नफ़रत, ग़ुस्सा या चेहरे पर की थकी हताश हुई सी इस उम्मीद या कि इसकी आवाज़ में शिकायत मिले मलाल की ज़रा सी भी कोई वजह नशा जैसा तो कुछ नहीं ही है. हिन्दी में धारा प्रवाह इसका यह बोलना. बेहतरीन उच्चाररण. बीच-बीच में अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग…यस, ये ग़रीबी, ये बेरोज़गारी-सबके पीछे ओनली करप्शन. केवल करप्शन. आप देखिए कि ये सब कुछ यहां इस फ़ोर्स से कराना चाहते हैं. फ़ोर्स से कैसे हो सकता है सब. यहां आदमी रात-दिन पसीना बहाता है. कैसे-कैसे फ़ैमिली पाल रहा है अपना. और यंग, यंग की मुश्किल तो और भी बड़ी. उसे नहीं पता कि कब उसे फ़ोर्स पकड़ लेगी या मार देगी. क्या पता कि सरकार से लड़ रहा कोई गुटवाला ही पकड़ ले या मार दे. जिसकी न मानो वो ही दुश्मन. सबकी निगाह यंग पर है. सबका ज़ोर यंग पर, और सबको डर भी यंग से. पढ़ने-लिखने के बाद भी ढंग का कोई काम नहीं, नौकरी नहीं. आप मुझे ही देखिए न, आठ साल से क्या कुछ नहीं किया. कैसे-कैसे चल पा रहा है यह सब. जी सर शादी हो गया. वो-वो अभी पढ़ रही है… नौकरी? बताया न आपको नौकरी मिलता कहां है. इनकम टैक्स, टीचिंग, पोलिस सभी जगह करप्शन. कुछ दिन पहले एक-एक जगह का सिक्स टू ऐट लैक्स तक चला था. कहां से ला सकता है कोई अनएम्प्लाइड ऐट लैक्स. पॉलिटिक्स? क्या बताएं सब ठीक हैं. आप सही बोला- दिल्ली से पैसा मिलता है, पर यह सब यहां के नेता की जेब में चला जाता है. एक-एक नेता पर कितना-कितना पैसा है आप सोच नहीं सकता. हां, सीएम यहां पापुलर है…लेकिन यहां जो फ़ौज लगा रखी है, उससे क्या होना है? फ़ोर्स से कुछ नहीं होना है.

मुझे लगा कि जैसे मैं अपने कॉलेज में, अपने शहर में हूं और जैसे कि मैं अपने घर में बैठा हूं. मेरे सामने बैठा यह युवक जैसे मेरा विवाहित-बेरोज़गार बेटा है या फिर बेरोज़गारी की मार झेल रहे मेरे बेटे-शिष्यों-परिचितों में से कोई एक है. तसल्ली देता-सा मन मैं बीच-बीच में उसे समझाता-बताता रहा था कि लगभग लाइलाज हो चली करप्शन की यह बीमारी केवल यहीं नहीं-भारत भर में है. हां, यूपी, बिहार, दिल्ली में भी. सब जगह बेरोज़गारों की फ़ौज और नौकरियों के नाम पर लाखों-लाख कमाने-दबाने वाले दलाल, अफ़सर और नेता उधर भी ख़ूब इफ़रात में हैं. नेताओं अफ़सरों की जेबों में होने वाले पैसों का हाल यह है कि उसका हिसाब शायद ख़ुद उन्हें भी मालूम नहीं होगा. यहां-वहां होते रहने वाले घोटालों की रकम भी इतने-इतने लाख करोड़ या करोड़-अरबों में कि उसकी सही संख्या लिखने में ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूटने लगें. अंकों के आगे लगे शून्यों को दस बार गिनने के बाद भी भरोसा न हो कि सही लिखा है. शायद यह उस करने बताने का ही अस था कि उसके चेहरे पर के तनाव और आंखों में के संकोच में अधिक नहीं तो थोड़ी कमी ज़रूर आई थी.

चलने को हुआ तो उसने मेरे इंफाल आने की वजह और ठहरने की जगह के बारे में जानना चाहा. यूनिवर्सिटी में आने की सुनकर जैसे वह कुछ और विनम्र हुआ. आप यहां ठीक तो है न? मैंने खाने की परेशानी बताई. सुनकर दरवाज़े से पहले ही थमा-सा खड़ा हो गया. ठीक है-कल दोपहर में ये चपाती और शाम को आलू का पराठा हम देगा आपको. हम करेगा यह. चपाती और आलू के पराठे का नाम सुन लेने भर से बहुत राहत मिली. उम्मीद जगी. उसके उन शब्दों पर, कहने के अंदाज़ पर, उतने उस अपनत्व और आदर पर बेहद प्यार उमड़ा. ढेरों-ढेर लाड़ आया. लगा कि आंखें जैसे डबडबाईं कि पलक झपकते ही अब डबडबाईं. गर्दन झुकाए धीमे-धीमे वह मेरे साथ चल रहा था. मेरा दाहिना हाथ नहीं मालूम कब उसके बाएं कंधे पर जा टिका था. अब उसकी आवाज़ की गति भी मंद थी और स्वर भी धीमा था. … नहीं .. शादी दो साल पहले हुआ. जी, क्यों नहीं… फ़ैशन है बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है. नहीं, नहीं आदमी औरत को सताता नहीं है. क्यों सताएगा वो उसे? उसे घर नहीं चलाना क्या? यहां की औरत के बारे में क्या कुछ जाना और पढ़ा आपने? शर्मिला इरोम का नाम तो सुना ही होगा आप. उदास-सी एक ख़ास मनःस्थिति में बोझिल से क़दमों से मैं गेस्ट हाउस की ओर लौट रहा था. चाहकर भी तब मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरी आंखें आख़िर तब डबडबाने को क्यों हो आईं थीं? क्या मणिपुरी उस युवा की किसी व्यथा, वेदना, पीड़ा, बेबसी से जुड़ने या व्यक्त होने के कारण? या घर से इतनी दूर परदेश में उससे मिले अच्छे, अप्रत्याशित से उस व्यवहार पर?

यूनिवर्सिटी के गेट के अंदर-बाहर जवान अब भी उसी मुद्रा में खड़े थे. लेकिन मैं अब पहले की तरह डर से तंग नहीं था. रुककर उन जवानों से बात करने मन हुआ. जिससे बात करनी चाही उस जवान ने ज़रा भी रुचि नहीं दिखाई. उसके पास खड़े युवक की आवाज़ सुनाई दी- मिल गई पूड़ी? तब समझ आया कि पहचानने में ग़लती हो गई. वैसे भी पहाड़ियों, गोरखाओं, चीनियों या अन्य कई देशों के लोगों की शक्लें इतनी मिलती-जुलती सी लगती हैं कि उनमें से किसी एक-दो बार मिल देख लेने के बाद यूं ही अलग से पहचान लेना आसान नहीं होता. ड्रेस पहने हों तो वैसे भी सब एक जैसे ही लगते हैं-चाहे वे युवा सैनिक हों, स्कूल के बच्चों हों, पुलिस वाले हों या फिर एक सीमा तक डॉक्टर, नर्स, वकील या फिर वर्दीधारी मजदूर, ड्राइवर हों. वैसे भी यहां खड़े इन जवानों में से ज्यादातर पर से तो अभी किशोरावस्था का रंग भी नहीं उतरा है. जिस युवक से जाते समय बात हुई थी, दरअसल वह जवान यह था. मुझे आया देख अच्छी हिन्दी बोलने वाला वह जवान भी हमारे पास आ गया. आशंका हुई कि बातों के लालच में कहीं अनचाहा, अप्रिय सा ऐसा-वैसा कुछ सुनने को न मिल जाए. फिर भी बात शुरू हुई. छोटे-छोटे सवाल. उनके मन से, ढंग से दिए गए छोटे-छोटे जवाब-लगेगा क्या? सब ठीक है. जॉब है न. हां, असम राइफ़ल. क्यों? असमिया होने से क्या? हम तो नेशन को करेगा न. जो ऑर्डर मिलेगा वो करेगा न. हां, मैं उत्तरांचल से हूं… चमोली से. सब ठीक लगता है. हमारी नौकरी ही ऐसी है. अब जो नौकरी है वो तो करेंगे आप? हां भी गया था पिछले महीने घर. यहां ऐसा ही है. वैसे आजकल तो कम है. अगर हम ऐसे नहीं रहेगा, इतना मुस्तैद नहीं रहेगा तो….मारा जाएगा. हां, बिल्कुल वो फ़ौज का आदमी मारता है. फ़ोर्स का आदमी पर वार करता है. जो हो, हमें तो ये करना पड़ेगा न. और क्या वो अटैक करते हैं हम पर हथियार लूटने को. ये यहां धारी में हिन्दू हैं न. ऊपर वाला आदिवासी, मुस्लिम और और भी सब. यहां पर यह कि पहाड़ वाला और यहां धारी वाला चलता रहता है आपस में. नहीं, आजकल तो कम है. हां, ये सब तो है-पर आपको तो सावधान रहना ही होगा. क्या बताएं हम? हमें पता ही नहीं हा कि वो क्यों करता है यह सब? नहीं सब ठीक है. हमें कोई परेशानी नहीं है खाने, पीने, रहने की.

हॉस्टल के अपने कमरे की ओर क़दम बढ़ाते ही हाथ में लटके पूड़ियों के पैक का ध्यान आया. ध्यान आते ही लगा कि जैसे मेरी भूख और चाल एकदम से तेज़ हो चली है. दोनों की उतनी उस तेज़ी में भी न तो फ़ास्टफ़ूड वाले यंग की शक्ल और बातें मेरे दिमाग से हट पा रहीं थीं और नहीं असम राइफ़ल्स के गेट पर खड़े इन युवा जवानों से हुई ये बातचीत को ही मैं अपने मन से हटा-निकाल पा रहा था. बेरोज़गार यंग और बारोज़गार यंग. यहां का यंग बाहर का यंग. दोनों को उस और वो की चिंता है. उनका डर है, जान जाने या पकड़े जाने के भय से एक पल को वो स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता. वो और उसको इन जवानों का डर है. उनके हमले के केंद्र में ये जवान है. मज़ेदार बात यह कि इन दोनों यंग्स में से किसी को नहीं पता कि वह वैसा-वैसा क्यों कर रहा है या कि उसका ‘वो’ या ‘उस’ ऐसा क्यों कर-करा रहा है. सबने अपनी-अपनी तरह से सोच-मान लिया है कि जो जैसा वो कर रहे हैं वो देश की सेवा है, सुरक्षा है, आतंक और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई है, ऊपर का आदेश है या फिर नीचे वालों की मांग है, चाहत है, ज़िद है. सबसे मज़ेदार बात यह कि ग़रीबी, बेरोज़गारी, देशभक्ति या आतंकवाद जैसे शब्दों में समय-समय पर अलग-अलग मनचाहे अर्थ रंग भरने वालों के बारे में न फ़ास्टफ़ूड वाले उस यंग जैसे युवाओं को कुछ पता है और न यूनिवर्सिटी गेट पर तैनात अथवा जंगल-जंगल , पर्वत-पर्वत भटकते भागते उनके प्रतिपक्षी हथियारबंद जवानों को ही ज्यादा कुछ पता है. वे अपने भी बॉस, उनके भी बॉस और बॉस के रूप में न जाने किन-किन कैसी-कैसी संज्ञाओं, शक्तियों, विकृतियों या प्रवृत्तियों के आज्ञा पालन को ही अपना सर्वोच्च कर्तव्य, धर्म और मोक्ष मान बैठे हैं. और अपनी इस ज़िंदगी को अनूठी मानकर कदम-कदम पर मर-मरकर लगभग मशीनी अंदाज़ में बरसों-बरस से ऐसे बस यूं ही जिए चले जा रहे हैं.

कमरे में आते ही दरवाज़ा अंदर से बंद किया. पैक खोला. सब्जी-पूरी पैक वाली पॉलीथीन पर रखकर मेज़ पर लगा ली. बिना समय गंवाए खाने पर जैसे टूट ही पड़ा था. अपनी तरह की पूड़ी की शक्ल और स्वाद की याद ने भूख को जैसे और भी भड़का दिया था. तीन दिनों में सहे-झेले कष्टों ने एक-एककर याद आना शुरू किया. पहला गस्सा तोड़ने के साथ ही लगा कि ये पूड़ी उस तरह की तो नहीं ही है. फिर भी अपरिचित उस सब्जी के रसे में भिगोकर पहला वह निवाला मुंह में रखा. लगा कि जैसे मैंने नान के टुकड़े को दांतों के बीच दबाना-चबाना शुरू किया है. यानी कि यह पूड़ी अपनी तरफ़ जैसी नही हैं. पूड़ी की शक्ल पा लेने या कहे जाने मात्र से ये अपनी तरफ की गेहूं वाली पूड़ी तो नहीं हो जाएंगी. न रूपाकृति में, न स्वाद में. इनका भी आटा वो ही है-चावल का. खाने का उछाह चट से फुर्र हो गया. सोचा इतनी दूर से बमुश्किल लाया हूँ, भूख भी लगी ही है, पेट पाटना है इसीलिए कुछ निवाले जैसे-तैसे गले से नीचे उतारे.

सुबह जल्दी एयरपोर्ट पहुंचने की हड़बड़ी ने आज और भी जल्दी जगा दिया है. जगने के ज़रा बाद से ही बारिश शुरू हो गई है. जाने से पहले एक बार फ़ास्टफ़ूड की दुकान वाले उस युवक और सायमी से मिल लेने का बहुत मन हो रहा है. बारिश थमते ही साढ़े सात बजे निकल पड़ा हूं, उस युवक की फ़ास्टफ़ूड वाली दुकान की ओर. यूनिवर्सिटी गेट पर असम राइफ़ल्स के जवानों की उसी तरह की तैनाती-मुस्तैदी. सड़क पर आते जाते वाहन-लोग. सामने पूड़ियों की दुकान वाला हिस्सा, उस दिन से कुछ ज्यादा भरा-भरा सा, गुलज़ार सा. आज मैं भी उस दिन की तरह सहमा-डरा सा नहीं, कुछ तेज़-तेज़ चल रहा हूं. वहां का वह सब आज परिचित अच्छा-सा लग रहा है. नाला पार करने के तुरंत बाद आज भी सबसे पहले उस युवक की मां से ही मुलाकात हुई है. मैंने हाथ जोड़कर अभिवादन किया तो पल-भर में जैसे लाल-गुलाल हो गईं. झिझकी-शरमाई सी जैसे समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहें, क्या करें. दौड़ती सी अंदर गईं. दो-ढाई मिनट में ही वह युवक मेरे सामने उपस्थित. हाथ जोड़े, विनम्र, बहुत ख़ुश-ख़ुश. कुर्सी पर बैठा ही था कि उस युवक की पत्नी भी आज मेरे पास तक आई. हाथ जोड़कर प्रणाम किया है. लौटकर अंदर गई. पानी का गिलास लेकर ख़ुद दुकान के उस हिस्से तक आई. गिलास मेज पर रखकर तुरंत वापस. लौटी तो हाथ में तौलिया था-बहुत पसीना आ रहा है, पोंछ लो. कि जैसे मैं इस घर का बहुत प्रिय या पुराना संबंधी हूं. अंदर दीवार से सटी खड़ी युवक की मां मेरी समझ में न आ सकने वाली भाषा में युवक और युवती से पूछे बतियाए जा रही है. कम सुंदर तो यह युवक और इसकी मां भी नहीं है, पर पत्नी और अधिक सुंदर है. एकदम गोरी-लम्बी. अपनी उम्र के तमाम रंगों-आकर्षणों से सम्पन्न. पकौड़ा खाना है क्या? विस्मित-आह्लादित-सा मैं न ना कर सका, न हां. पति से जल्दी बनाने की सुनकर वह अंदर चली गई. युवक उस दिन की तरह मेरे एकदम पास सामने की मेज़ पर बैठा ज़रा देर में न जाने क्या-क्या कितना कुछ बता देने की जल्दी में है. जी सर, सॉरी सर. हम प्रामिज़ किया पर आपके कमरे पर पहुंचा नहीं. पता है कि क्यों? यूनिवर्सिटी गेट पर जो फ़ोर्स लगा है, वो पूछेगा, तलाशी लेगा. अब हम पढ़ता तो है नहीं वहां. पता नहीं क्या तो सुनेगा और क्या समझ लेगा वो.

घर के अंदर ले जाने वाला वह दरवाज़ा दिखा रहा है. अंदर गैस के चूल्हे के इधर-उधर दोनों सास-बहू कुछ बनाने की तैयारी में जुटी हैं. सहज प्रसन्न भाव के साथ. जल्दी से बना-तल देने की कोशिश में. ऐसे जैसे कि कोई महिला मायके से आए कोई अपने भाई-भतीजे के लिए नाश्ता-खाना बनाते समय लगती है. भावुकता की नन्ही सी एक बदली इधर आई और उधर उड़ गई. मुझे अंदर की तरफ़ देखते देख युवक ने अपने उस बोलने का विषय झट से बदल दिया. यस सर, पकौड़ा-बोड़ा भी बोलते हैं-तैयार हो रहे हैं आपके लिए. मटोई-पालक की तरह डालकर और बेसन मिलाकर. दोनों का ज़रा-ज़रा टेस्ट मिलेगा आपको. नहीं आपको देर नहीं होना.

पकौड़े सामने आते ही भूखा नदीदा-सा मैं बिना कुछ कहे-पूछे उन्हें खाने पर टूट पड़ा. पकौड़े सचमुच स्वादिष्ट थे. अंदर तक सुनी जा सकने वाली आवाज़ में मैंने पकौड़ों की तारीफ़ की. और बाद में आई वह चाय-प्यारी सी गंध, अच्छा-सा स्वाद. मैंने चाय की गंध और स्वाद की जी भर सराहना की. सामने बैठे युवक ने वह सब सुना ही नहीं था. वह बहुत कुछ कह-बता देने की जल्दी में था. मैंने उसका नाम पूछा. दौड़ते से अंदाज में कह दिया गया-जयदेव. और उसके बाद उसी तरह अपनी अपने घर की वर्तमान, अपने भविष्य की बातें-अगनिगत बातें-जी सर, हम दोनों को नौकरी मिला होता तो हम ज़रूर करता. ये दुकान, दुकान तो बस यूं ही है. ये भी न होती तो हम सब क्या खाता? कैसे रहता? हम उस दिन भी आपको बताया यहां का. सीएम इबोबी सिंह हो या दिल्ली का कोई लीडर-यंग्स को सब बहकाया. जब तक यंग्स का कुछ नहीं करेगा, तब तक न तो पीस आएगा और न ही मणिपुर का ग़रीब-आम जनता का कुछ भला होगा. क्या-क्या नहीं किया हम घर चलाने की ख़ातिर. सब किया-बहुत कुछ किया. सब बेकार. मेरी जगह दूसरा होता तो एक्सट्रीमिस्ट हो गया होता. जी बहुत पहले का. हम भी थोड़ा-सा पैसा निकालकर म्यांमार से चावल लाकर यहां सेल किया. सोचा काम चलेगा. पर जगह-जगह इंडिया का सिक्योरिटी फ़ोर्स पकड़ता है, तंग करता है हमें. पूछता है-क्यों लाता है? कहां से लाता है? अभी दूसरा हाईवे ठीक से नहीं चल पा रहा इसलिए बहुत प्राब्लम होती है. ,बस पहले यूनिवर्सिटी गेट से-पहाड़ी से ये फ़ोर्स का आदमी हटाया जाना चाहिए. और क्या-फ़ोर्स का जब चाहें किसी को पकड़ कर मार देने का, कहीं की भी तलाशी लेने लगने का, राइट तो जितनी जल्दी हो ख़त्म कर देना चाहिए सर.

उसकी आंखें कुछ ग़ुस्सैल सी होने लगीं. चेहरे पर लाचार-सी असहायता का सा भाव आ जगा, ज़रा सा एक बच्चा साथ है सर. मैं कहां जाऊं उसे यहां छोड़कर? जाऊं भी तो क्या कहीं काम मिलेगा? नहीं सर-दिल्ली तो बिल्कुल भी नहीं. हम कभी गया नहीं. सुना है यहां का आदमी को दिल्ली वाला तंग करेगा, मारेगा, रहने नहीं देगा. ऐसा नहीं होता तो दिल्ली का सरकार यहां की आम पब्लिक की बात ज़रूर सुनता-समझता. पहले दवा बीस-बाइस में लाता था हम और अब तीस-बत्तीस में. अब सत्ताईस-अट्ठाईस का चावल खा रहा है-तब अट्ठारह था. सर्विस क्लास, नौकरी वाला, पुलिस उन्हें प्राब्लम नहीं. कॉमन मैन क्या खाएग. उसे तो एक दिन के खाने की भी प्राब्लम है. चावल, गैस, दवाइयां सब लाना-खरीदना बहुत महंगा. ब्लॉकेड कोई खोलना नहीं चाहता – तो फिर मंहगाई कैसे कम होगा. ब्लॉकेड से नेता, आतंकी, अफसर, सब रिच हो रहा है. कॉमनमैन ग़रीब हो रहा है. और यंग के सामने तो जैसे सब अंधेरा ही अंधेरा है. भूखों मरो या पुलिस या एक्सट्रीमिस्ट के हाथों मरो. उनके मरने-जीने की तो किसी को भी चिंता नहीं है.

मेरे चलने को उठ खड़ा होने तक जयदेव का बोलना रुका नहीं था. वह लगातार तेज़-तेज़ ऐसे बोले जा रहा था जैसे मुझसे कहने को अभी बहुत कुछ उसके पास बाकी है. मैंने सौ का नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए पकौड़ों के पैसे काट लेने को कहा. बोलना तुरंत थम गया. परेशान हो उठी निगाह से मेरी ओर देखा और दोनों हाथ जोड़कर मेरी ओर खड़ा हो गया. मैंने ज़िद की. हर बार वही मुद्रा – कोई शब्द नहीं. मेरी आवाज़ सुनकर उसकी मां और पत्नी दरवाजे के पास आ खड़ी हुईं थी. मैंने पत्नी की ओर नोट बढ़ाया… मां की ओर नोट बढ़ाया. पैसे ले लेने की प्रार्थना की. नोट किसी ने छुआ तक नहीं. दोनों हाथ जोड़े पता नहीं क्या-क्या बोलती रहीं. हम लोग दुकान से बाहर नाले तक आ गए थे. ज़रा पहले अनरुके लगातार बोलते जाने वाला जयदेव शब्द शून्य-सा हाथ जोड़े मेरे सामने खड़ा था. मन हुआ कि कुछ कहूं- पर शब्दों ने साथ नहीं दिया. लकड़ी के तख्ते से बना लिए गए उस पुल को अबोले पार कर मैं नाले के इस ओर चला आया. वे तीनों अभी भी उस पार हाथ जोड़े चुप खड़े थे. पता नहीं कहां देखते से न जाने क्या कुछ सोचते से. सड़क की ओर क़दम बढ़ाते ही जयदेव की आग्रह-सा करती वह मंद आवाज़ सुनाई दी- फिर आना तो घर ज़रूर आना सर. सड़क के अगले मोड़ तक के रास्ते में मैंने कई बार पीछे मुड़कर देखा. हर बार वे वहीं खड़े दिखे और उन तीनों का दांया हाथ हवा में तेज हिलता दिखा. ऐसे जैसे कि वे अपने घर के किसी अत्यंत अंतरंग-आत्मीय को भरे-भारी मन से दूर कहीं बाहर जाने के लिए विदा कर रहे हों.

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