इलाहाबाद | मुहल्लों के नाम की दास्तान और दुनिया में मेल बैग की पहली हवाई उड़ान

तजुर्बेकार कहते हैं कि कि अगर किसी नगर, स्थान या क्षेत्र का इतिहास जानना हो तो पहले उसके नाम का इतिहास जानना चाहिये क्योंकि नाम में उसकी ऐतिहासिकता की सही पहचान निहित होती  है. इलाहाबाद के पुराने मोहल्लों के नामों पर ग़ौर करें तो यह बात एकदम सही लगती है. मुट्ठीगंज, कीडगंज, रामबाग़, चौक, खुल्दाबाद, जानसेनगंज, गढ़ीसराय, सरायमीर ख़ां, शाहगंज, रोशनबाग़, अहियापुर, कटरा, सिविल लाइंस, ममफ़ोर्डगंज जैसे बहुत पहले आबाद हुए मोहल्ले हैं. पुराने मोहल्लों में से कुछ मुग़लों के दौर में आबाद हुए तो कुछ अंग्रेज़ों के.

सौ बरस पहले और आज के इलाहाबाद में ज़ाहिर है कि ज़मीन-आसमान का अंतर है. आज का भीड़-भाड़ वाला चौक इलाक़ा सदी भर पहले एक मामूली गांव सा हुआ करता था. यहां मुग़लों के समय की बनी दो सराय थीं –  ख़ुल्दाबाद सराय और गढ़ी सराय.

शहर के सबसे ख़ास कारोबारी इलाक़ों में शामिल मुट्ठीगंज का नाम अंग्रेज़ी हुकूमत के पहले कलेक्टर मिस्टर आर.अहमुटी के नाम पर पड़ा था. जबकि शहर की पहचान माने जाने वाले पंडों व प्रयागवालों के परंपरागत क्षेत्र कीडगंज का नाम क़िले के अंग्रेज़ कमांडेंट जनरल कीड के नाम पर पड़ा. मुगल शासक शाहजहां का बड़ा बेटा दारा शिकोह था, जिसके नाम पर गंगा किनारे दारागंज मोहल्ला आबाद हुआ.

सन् 1906 के आसपास संयुक्त प्रांत के उपराज्यपाल मिस्टर जेम्स डिग्स लाटूश ने स्टेशन के आगे सरकारी कर्मचारियों के रहने के लिए एक मोहल्ला बसाया, जिसका नाम उन्होंने गवर्नमेंट प्रेस के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट मिस्टर एफ.लूकर के नाम पर लूकरगंज रखा. इलाहाबाद आर्कियोलॉजिकल सोसायटी के लिए हिन्दुस्तानी एकेडमी से छपे ‘प्रयाग प्रदीप’ में डॉ. शालिग्राम श्रीवास्तव ने चौक व इसके आसपास के इलाक़ों की तत्कालीन दशा पर लिखा है – ‘ जहां आज चौक मोहल्ला है, वहां चारों ओर कच्चे घर थे. कोई-कोई मकान पक्के और कुछ बिना प्लास्टर की पक्की ईंटों के बने थे. बीच में एक पक्की गड़ही (तालाब) थी, जिसमें आस-पास का पानी इकट्ठा होता था तथा कूड़ा-करकट फेंका जाता था. लोग उसे लाल डिग्गी कहते थे. उसके किनारे कुछ बिसाती, कुंजड़े और अन्य छोटे-छोटे दुकानदार चबूतरों पर बैठते थे. जांस्टनगंज घनी बस्ती थी. चौक से कटरे की ओर जाने के लिए ठठेरी बाज़ार, शाहगंज, लीडर रोड का रास्ता था.’

सन् 1864 के आसपास जिले के कलेक्टर मि.विलियम जान्स्टन ने चौक की पुरानी बस्ती की जगह नया बाज़ार व पक्की सड़क बनवाई थी, जिसे जान्स्टनगंज कहा जाने लगा. चौक में जहां बरामदा के नाम से सौंदर्य प्रसाधन की दुकानें हैं, वहां पहले एक विशाल कुआं था. इसके ठीक सामने गिरजाघर के पास नीम के सात पेड़ों का समूह था, जिन पर अंग्रेज़ी पुलिस हिन्दुस्तानी क्रांतिकारियों को फांसी देती और फिर कुएं में दफन कर देती थी. 1873 में लाल डिग्गी की गड़ही को शहर के माने हुए रईस बाबू रामेश्वर राय चौधरी ने पटवाकर सब्ज़ी मंडी बनवाई. बाबू साहब कचहरी के प्रसिद्ध गुमाश्ता थे. सब्ज़ी मंडी के पास ही यहां की मशहूर तवायफ़ जानकी बाई इलाहाबादी उर्फ छप्पन छुरी की कोठी थी.

सन् 1874 में कोतवाली बनी. कोतवाली के पीछे रानी मंडी है, जिसका नामकरण इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की शुरुआत की याद में रखा गया. रानी मंडी व भारतीय भवन पुस्तकालय के पीछे पहले एक पठार था, जिसे ख़ुशहाल पर्वत कहा जाता था. इसी नाम से वहां पर एक बस्ती अब भी आबाद है. पास ही में पहले साधु गंगादास रहते थे, जिनके नाम पर चौक गंगादास मोहल्ला बसा. ख़ुशहाल पर्वत से नीचे की तरफ की ख़ाली जगह में मालवीय लोगों के डेरा जमा लेने से मालवीय नगर मोहल्ला बसा. इसी के पास दक्षिण की ओर पहले किसी सती (देवी) का चौरा (चबूतरा) था, जिसे सत्ती चौरा मोहल्ला कहा जाता है. राजा अहिच्छत्र के नाम पर अहियापुर मोहल्ला बसा. दरिया (यमुना) के किनारे होने के कारण मुगलकाल से ही दरियाबाद नाम से एक मोहल्ला आबाद है.

जहां अब कंपनी बाग़ है, पहले वहां सम्दाबाद और छीतपुर नाम के दो गांव आबाद थे. 1857 के दिनों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सम्दाबाद के मेवातियों और छीतपुर के लोगों के उपद्रव से नाराज़ कंपनी की पलटन ने उनके गांवों को तबाह कर दिया. इन्हीं दो गांवों के मलबे की जगह पर सन् 1870 में कम्पनी बाग़ (अल्फ़्रेड पार्क) की नींव रखी गई. लेफ़्टिनेंट-गर्वनर सर विलियम म्योर के बुलावे पर आए एडनबरा के ड्यूक प्रिंस अल्फ़्रेड ने इस पार्क का संग-ए-बुनियाद ख़ुद रखा.  इंग्लैंड से इलाहाबाद भेजे गए सर विलियम म्योर को इलाहाबाद बहुत सुहाया. माना जाता है कि उन्हीं के ज़माने में इलाहाबाद सबसे ज़्यादा चमका. हाईकोर्ट का विशाल भवन (पुराना), गवर्नमेंट प्रेस, रोमन कैथोलिक चर्च, पत्थर गिरजा (आल सेंट्स कैथेड्रल) तथा सबसे महत्वपूर्ण म्योर सेंट्रल कॉलेज उन्हीं के समय में बना. उनके नाम से म्योराबाद बस्ती भी बसाई गई. इलाहाबाद के सबसे पुराने अख़बार ‘पायनियर’ के संस्थापक सर जॉर्ज एलन व म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन रहे मिस्टर ममफोर्डगंज के नाम पर एलनगंज व ममफोर्डगंज मोहल्ले बसे.

मुग़ल शासक अकबर के उत्तराधिकारियों में औरंगजेब की ख्याति कट्टर इस्लामी शासक की रही. संत मलूकदास ने भी उसे एक नाम ‘मीर राघव’ दिया था. इसी के नाम पर चौक के बगल में सराय मीर ख़ां मोहल्ला बसा, जो बाद में भगवान शंकर के नाम पर लोकनाथ कहा जाने लगा. शायद मीरापुर और मीरगंज मोहल्ले भी इसी नाम पर बने. परन्तु इसकी कोई लिखित दास्तान उपलब्ध नहीं है.

सन् 1909 में सोहबतिया बाग़ में हिन्दुस्तानियों के लिए नया सिविल लाइन्स बसाया गया और इसे नाम मिला – जॉर्ज टाउन. शहर के मशहूर घंटाघर के बनने की कहानी भी ख़ासी दिलचस्प है. दिसम्बर, 1910 में यमुना किनारे क़िले के पश्चिम में एक नुमाइश लगी. तीन महीने तक चली इस नुमाइश के साथ माघ मेले का संयोग बन जाने से वहां ख़ूब भीड़भाड़ रही. कहते हैं कि दुनिया भर से लोग इस नुमाइश को देखने के लिए जुटे. इस नुमाइश में एक क्लॉक टॉवर का एक मॉडल भी रखा गया था. चौक और जान्स्टनगंज के बीच 1913 में जो घंटाघर हम देखते हैं, वह नुमाइश में रखे मॉडल की हूबहू प्रतिकृति है और इसका श्रेय शहर के रईस रायबहादुर लाला रामचरन दास तथा उनके भतीजे लाला विशेशर दास को है, जिन्होंने अपने बेटे की स्मृति में इसे बनवाने की ठानी.

एरियल पोस्ट की ख़ास मुहर

शहर को घंटाघर की सौग़ात के साथ ही यह नुमाइश दुनिया की पहली आधिकारिक ‘एरियल मेल’ के रिकॉर्ड के नाते भी इतिहास में दर्ज है. तारीख़ – 18 फरवरी, 1911. इलाहाबाद के पोलो ग्राउण्ड से 6000 पोस्टकार्ड और चिट्ठियों का झोला लेकर फ़्रेंच पायलेट हेनरी पिक़े ने अपने हम्बर बायप्लेन से क़रीब 13 किलोमीटर की उड़ान भरी और डाक का थैला यमुना पार नैनी तक पहुंचाया. डाक ले जाने वाली दुनिया की यह पहली हवाई उड़ान थी. दरअसल एक ब्रिटिश उड़ाका वॉल्टर विन्ढम की पहल पर हेनरी पिक़े नुमाइश (यूनाइटेड प्रॉविंसेज़ एग़्ज़ीबिशन) के मौक़े पर हवाई उड़ान का प्रदर्शन करने के लिए हिन्दुस्तान आए हुए थे. यह हिन्दुस्तान में पहली हवाई उड़ान भी थी.

होली ट्रिनीटी चर्च के पादरी डब्ल्यू.ई.एस. हॉलेंड ने इसके पहले विन्ढम से एक नया हॉस्टल बनवाने में मदद के लिए आग्रह किया था. विन्ढम को ही ‘एरियल-मेल’ का विचार सूझा तो उन्होंने पोस्टमास्टर-जनरल ऑफ़ इंडिया से बात करके इसकी औपचारिक मंज़ूरी ली. इस सेवा के टिकट रद्द करने के लिए ख़ास मुहर बनवाई गई. पहली बार यह सब करने के लिए किस क़दर हड़बड़ी रही होगी, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगा सकते हैं कि दुनिया में डाक टिकट संग्रह करने वालों के पास दो अलग रंग की मुहर वाले लिफाफ़े हैं – किसी पर मैजेंटा और किसी पर काले रंग की मुहर लगी है. एरियल-मेल की चिट्ठियों पर प्रचलित दर के टिकटों के साथ ही सरचार्ज भी लिया गया और सरचार्ज की यह रक़म चर्च के हॉस्टल के लिए दान स्वरूप थी.

रायबहादुर के नाम पर बहादुरगंज मोहल्ला बसा तथा इस प्रांत के उप राज्यपाल रहे सर जॉर्ज हिवेट के नाम पर हिवेट रोड (विवेकानंद मार्ग) बनी. जबकि उस समय के ख्याति प्राप्त अंग्रेज़ी अख़बार लीडर के नाम पर लीडर रोड (स्टेशन रोड) मोहल्ला बसा. इसका प्रकाशन वहीं होता था, जहां से आजकल दैनिक आज अख़बार निकलता है. तब हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील और कुछ समय तक डिप्टी कलेक्टर रहे शहर के जैन रईस बाबू शिवचरण लाल के नाम पर एक सड़क राधा थिएटर मानसरोवर सिनेमा के सामने बनाई गई थी, जो अब भी इसी नाम से जानी जाती है.

म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन रहे कामता प्रसाद कक्कड़ के नाम पर केपी कक्कड़ रोड (ज़ीरो रोड) बनी. 1931 में रोशन बाग मोहल्ला नवाब सर बुलंद खां के नायब रोशन खां के नाम पर बसा. मुगल शासक जहांगीर ने अपनी पदवी बादशाही के नाम पर पहले बादशाही मंडी बनवाई थी जो अब मोहल्ला बन गया है.

सिविल लाइन्स पहले एक पिछड़ा हुआ इलाका था. इसका विकास सन् 1858 में शुरू हुआ, जो 17 वर्षों तक चलता रहा. पहले इसे कैनिंग टाउन (कैनिंगटन) कहा जाता था. 1920-21 के पहले अंग्रेज़ी सेना के कर्नल व अन्य अधिकारी आनंद भवन के आसपास रहते थे, जिसे कर्नलगंज कहा जाने लगा. लेकिन बाद में उन्हें दूसरी जगह बसा दिया गया, जिसे छावनी क्षेत्र (कैंटोनमेंट) कहा जाता है. यहां के तत्कालीन कमिश्नर मिस्टर थार्नहिल के नाम पर थार्नहिल रोड (दयानंद मार्ग) बना.

जयपुर के राजा महाराज जयसिंह ने औरंगजेब द्वारा दी गई जागीर पर इलाहाबाद सहित कई ज़िलों में कटरा मोहल्ला बसाया. यहां के पुराने आमिल (दीवान) राजा नवल राय के नाम से कीडगंज व बैरहना के बीच मोहल्ला तालाब नवल राय बना. दीवान नवलराय लखनऊ की शिया रियासत के वज़ीर और सिपहसालार थे. अवध की सूबेदारी और हुकूमत के वे मजबूत स्तंभ थे और अवध के नवाब के भरोसेमंद सामंतों में गिने जाते थे. इन्होंने दारागंज में राधाकृष्ण का एक मंदिर बनवाया था. मंदिर में पूजा के लिए जिस ख़ूबसूरत फुलवारी से फूल लिए जाते थे, वह फुलवारी रोड (कच्ची सड़क दारागंज) कहा जाता है.

शहर की मशहूर पथरचट्टी रामलीला कराने के लिए डेढ़ सौ साल पहले शहर के कारोबारियों में माने हुए सेठ लाला दत्ती लाल कपूर ने मुट्ठीगंज के आगे लंबी चौड़ी ज़मीन ख़रीदकर उसका नाम रामबाग रखा. बाद में इसी नाम से यहां एक मोहल्ला आबाद हुआ. मुग़ल काल और इससे पहले इलाहाबाद की ख्याति धर्म व मजहबी तौर पर ज्यादा थी. बहुत कम लोग जानते हैं कि अकबर ने शहर के मंदिरों, मठों, अखाड़ों, मुस्लिम दायरों, दरगाहों, संतों, फक़ीरों, सूफ़ियों व औघड़ों को देखकर पहले इसका नाम फक़ीराबाद रखा था. बाद में कुछ समय तक यह इलाहाबास (सरकारी गज़ेटियर में भी यही नाम मिलता है) नाम से जाना गया. मजहबी प्रेरणा से ही अकबर ने इस नगर को अंत में ‘अल्लाह से आबाद ‘ कहा, जो बाद में इलाहाबाद हो गया. हाल ही में सरकारी तौर पर इसे ‘प्रयागराज’ का नाम दिया गया मगर बोलचाल की ज़बान में इलाहाबाद अब भी बसा हुआ है. रेलवे स्टेशन, हाई कोर्ट और यूनिवर्सिटी के साथ जुड़ा इलाहाबाद का नाम अभी बदस्तूर चला आ रहा है.

धार्मिक वजहों से कुछ और मोहल्ले भी जाने गए. कल्याणी देवी, अलोपी देवी और सूर्यकुंड जैसे प्राचीन मंदिरों के नाम से कल्याणी देवी, अलोपीबाग़ और सूरजकुंड मोहल्ले बने. अत्रि ऋषि और अनसुइया आश्रम होने के कारण अतरसुइया मोहल्ला बसा.

शहर के पुराने पुरोहित पंडित नवरंग महराज के अनुसार गंगागंज व बेनीगंज मोहल्ले करीब डेढ़ सौ साल पहले गंगेश्वर नाथ महादेव के भक्त पं. गंगाराम तिवारी और पं. बेनी प्रसाद के नाम पर बसाए गए थे. जबकि पुराने समय में यमुना के किनारे गउओं (गायों) का मेला लगने के कारण गऊघाट मोहल्ला बसा.

शहर के दक्षिणी भाग का नाम नैनी पहाड़ों की देवी (नयना देवी) के नाम पर पड़ा. सरकारी अभिलेखों के अनुसार 1868 व 1896 में यमुना पार इलाक़े में भयंकर अकाल पड़ा. इसी दौरान कुमाऊं व गढ़वाल से कुछ पहाड़ी लोग यहां काम की तलाश में आए. वे अपने साथ नयना देवी की मूर्ति लाए और उसे यहीं स्थापित करके देवी के नाम पर इस जगह को नयनी (नैनी) कहने लगे. इसके पहले यहां सिर्फ़ जंगल हुआ करता था.

शहर के कुछ और मोहल्ले स्थानीय काम-धंधों के नाम से जाने जाते थे, और उनके नाम अब भी चलन में हैं. इनमें शामिल है ठठेरी बाजार (बर्तन), घास सट्टी, भूसौली (भूसा) टोला, गाड़ीवान टोला, बजाजा (कपड़ा) पट्टी, इत्यादि.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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