क्रांतिकारी राधामोहन गोकुल को भूल गए खोही के ही लोग

28 सितम्बर को नीलू के साथ बरेली से चलकर राठ (हमीरपुर) चला आया. नीलू का परिवार अब धनबाद से इधर आ गया है. राठ पहले भी एक बार आया था. यह कालापानी जाने वाले क्रांतिकारी पंडित  परमानंद की जन्मस्थली है. उनकी एक प्रतिमा यहां लगी है. वैसे उनका एक आदमक़द बुत महोबा में भी लगाया गया है. देख रहा हूं कि प्रायः प्रतिमाएं ठीक से नहीं उकेरी जातीं. खानापूरी की जाती है. लोगों में कलाबोध नहीं है.

4 अक्टूबर को बाँदा से केशव तिवारी को मैंने यहां बुला लिया था. उनके साथ पहले खोही गांव गया, जहाँ रहते हुए 3 सितम्बर 1935 को क्रांतिकारी राधामोहन गोकुल का निधन हुआ था. वहीं खेतों में उनकी समाधि है जो अब पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है. इसे खोजने के लिए बीस वर्ष पहले मैं यहां आया था. इस बार कुछ गांव वालों को इकट्ठा किया और अजनर से खोही जाने वाले मोड़ पर राधा मोहन जी की याद में एक स्मृति-शिला लगवाना तय किया. देर शाम को वहां से ही केशव के साथ बाँदा उनके घर चला गया. अगले रोज वह स्मृति-शिला वहीं बनने दे दी. उम्मीद है कि रविवार तक उसे लगवाकर संक्षिप्त कार्यक्रम कर दूंगा.

क्रांतिकारी और लेखक-पत्रकार राधामोहन गोकुल इलाहाबाद, रीवा, कलकत्ता और नागपुर होकर कानपुर में रहकर अरसे तक मजदूरों के बीच काम करते रहे. 25 दिसम्बर 1925 को कानपुर में हुई कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कांफ़्रेंस के आयोजन में उनका और हसरत मोहानी का महत्वपूर्ण योगदान रहा. कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह की सोहबत बनी रही. भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ 1931 में लिखा, इसके पहले राधामोहन गोकुल ‘ईश्वर का बहिष्कार’ और  ‘धर्म और ईश्वर’ लेख लिख चुके थे. ‘ईश्वर का बहिष्कार’ नवम्बर 1925 से फरवरी 1926 के बीच ‘माधुरी’ के चार अंकों में और ‘धर्म और ईश्वर’ का प्रकाशन 1932 में ‘भविष्य’ के जुबली अंक में हुआ.

उनकी किताब ‘देश का धन’ 1908 में छपी थी. निराला उन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे तो प्रेमचंद ने उन्हें ‘आधुनिक चार्वाक’ कहा था. प्रेमचंद के साथ ही डॉ. रामविलास शर्मा, क्रांतिकारी शिव वर्मा, सत्यभक्त और कर्मेंदु शिशिर ने राधामोहन जी पर लिखा. उनकी रचनाओं का समग्र भी छपा.

लाहौर में हुए साण्डर्स कांड के बाद वह पुलिस की निगाह में चढ़ गए और 1930 में अंततः गिरफ़्तार कर लिए गए. दो साल की सज़ा काटकर लौटे तो सेहत बेहद ख़राब थी. अपने सहयोगी सत्यभक्त के पास रहने वह इलाहाबाद ज़रूर गए मगर पुलिस ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. पुलिस से बचने के लिए उन्होंने खोही गांव में आश्रम बनाया. उनसे मिलने के लिए देश भर से क्रांतिकारी वहां आते रहते और जब हुकूमत को पता चला तो कलेक्टर ने उन्हें बुलवा भेजा. रास्ते में तबियत बिगड़ने पर वह खोही लौट आए. यहीं उनका देहान्त हुआ था. गोकुल जी की समाधि का हाल तो तकलीफ़ हुई ही मगर यह भी कम तकलीफ़देह है कि गाँव के लोगों को भी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं.

मैं यह भी जानता हूं कि स्मृति-शिला लगाने से बहुत कुछ नहीं बदलने वाला मगर ऐसा करके मुझे सन्तोष ज़रूर होगा. बरेली के वकील अनूप नारायण श्रीवास्तव के साथ हरिद्वार यात्रा के बारे में निरंकार देव सेवक का लिखा वह प्रसंग याद आता है, जिसमें सेवक जी ने लिखा कि गंगा जाते हुए अनूप नारायण ने रास्ते में फूल-माला ख़रीदी और नदी किनारे पहुंचकर उन्हें प्रवाहित करते हुए अपनी जेब से एक काग़ज़ निकालकर उस पर रख दिया. सेवक जी के पूछने पर उन्होंने बताया कि पत्नी के नाम ख़त है, जिसमें मैंने लिखा है कि उनसे किया आख़िरी वायदा मैंने पूरा कर दिया. हमारा बेटा उस समय बहुत छोटा था और उन्होंने वायदा लिया था कि मैं उसका ध्यान रखूंगा. अनूप जी ने कहा था – मैं जानता हूं कि यह ख़त उन तक नहीं पहुंचेगा मगर ऐसा करके मुझे संतोष मिला है. स्मृति-शिला के बहाने मुझे वही संतोष मिल जाएगा.

पाँच को बाँदा की कचहरी गया. वकीलों के बैठने के ठिकानों के बीच केदारनाथ अग्रवाल की प्रतिमा लगी है. प्रतिमा का हाल देखकर मन खिन्न हुआ. आसपास इतने सारे वकील हैं, जिनके बिस्तरों पर रोज़ सुबह झाड़पोंछ होती ही है मगर नहीं लगता कि अपने इस पुराने साथी के बुत पर पड़ी धूल उनमें से किसी की चेतना पर कोई असर डालती है. देर शाम अंधेरे में उनके घर की तरफ़ भी गया, जो अब लापता है. पता लगा कि उसे रात में ही जेसीबी से गिरा कर उनका सामान बाहर फेंक दिया गया था. अब उस मकान पर किसी और का कब्ज़ा है. कई साल पहले जब यहां आया, तब वह बरकरार था. केदार की केन नदी भी  ख़ालीपन से निहारता रहा जो अब गंदला कर सौन्दर्यविहीन हो चुकी है. उस उदासी का सबब मुमकिन है यह भी हो कि मैं उनके घर का हाल देखकर वहां गया था. और शाम भी हो चुकी थी. नदी किनारे पत्थरों पर सीमेंट की भद्दी सी दीवार बनाकर उस पर ‘केन आरती स्थल’ लिखा देखा. अपने स्वार्थ के लिए कुदरत से छेड़छाड़ करने में हम किसी हद तक जा सकते हैं. यह भी उसी का एक नमूना है.

यहां आकर मैंने अपने मित्र चंद्रशेखर से भी भेंट की जो इन दिनों बाँदा में एडिशनल कमिश्नर हैं. मैंने उनसे बाँदा में जन्मे शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के अभिन्न साथी क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन का स्मारक बनवाने का प्रस्ताव रखा, जिस पर वे सहमत हो गए हैं. कल राठ लौटकर मैंने वैशम्पायन जी का पूरा विवरण और चित्र उन्हें प्रेषित कर दिया है.

अभी मैं कुछ दिन राठ रहूंगा.

आवरण | बाँदा कचहरी में लगी केदारनाथ अग्रवाल की प्रतिमा
सभी फ़ोटो | सुधीर विद्यार्थी


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