यशपाल | हिंदी कहानी को आधुनिक बनाने वाले विप्लवी लेखक
यशपाल की शख़्सियत के कई पहलू हैं. क्रांतिकारी आंदोलन के वह अहम स्तंभ रहे, पत्रकारिता की, नई पीढ़ी को मार्क्सवाद में प्रशिक्षित किया. प्रेमचंद के बाद वे हिंदी के सबसे बड़े कथाकार हुए. उनकी कहानियां हो या फिर उपन्यास, जन पक्षधरता, यथार्थवाद और सामाजिक सरोकार साफ़ दिखाई देता है.
हिंदी साहित्य में यथार्थवादी परम्परा को एक वैचारिक आधार दिया. मजदूरों और मध्य वर्ग की कहानियां कहीं. एक ज़माना था, जब नौजवान उनका साहित्य पढ़कर मार्क्सवाद की ओर उन्मुख होते थे. उन्होंने न सिर्फ समकालीन बल्कि आने वाली पीढ़ी को भी अपने क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित किया. उनमें मार्क्सवादी चेतना और नज़रिया पैदा किया. वह कभी कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर नहीं रहे लेकिन वामपंथी विचारों से उन्होंने कभी नाता नहीं तोड़ा. उनकी नज़र में कम्युनिज़्म सर्वसाधारण की मुक्ति का साधन और वैज्ञानिक विचारधारा था. यशपाल का संपूर्ण लेखन रूढ़िवाद, धार्मिक कर्मकांड, अंधविश्वासों और धर्म के नाम पर होने वाले अन्याय-अनाचार के प्रतिरोध का साहित्य है. अपने साहित्य से उन्होंने हमेशा पाठकों में एक वर्ग चेतना विकसित की.
कांगड़ा के एक छोटे से गांव में जन्मे यशपाल को उनके माता-पिता आर्य धर्म का तेजस्वी प्रचारक बनाना चाहते थे और इसी सोच के तहत यशपाल का दाख़िला गुरुकुल कांगड़ी में करा दिया गया. आज़ादी आंदोलन में यशपाल की भागीदारी की शुरुआत आर्यसमाज के सुधारवादी आंदोलन से हुई. अपने माता-पिता के साथ उन्होंने साल 1920 में असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. लेकिन चौरी-चौरा कांड के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन अचानक वापस लेने के क़दम से चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के साथ उन्हें भी धक्का लगा.
अपनी किताब ‘सिंहावलोकन’ में वह लिखते हैं – गांधीवादी आंदोलन में भरोसा न कर सकना ही क्रांतिकारियों को सशस्त्र क्रांति के प्रयत्नों की ओर ले जा रहा था. लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते हुए यशपाल क्रांतिकारियों के संपर्क में आए. भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा भी उनके साथ पढ़ रहे थे. इन क्रांतिकारियों का लक्ष्य सशस्त्र क्रांति के ज़रिये ब्रिटिश साम्राज्य का ख़ात्मा करना था. इसके लिए उन्हें हिंसा से भी कोई गुरेज़ न था. यशपाल वैचारिक तौर पर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह से सबसे ज्यादा प्रभावित थे. चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के साथ उन्होंने ‘हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ का गठन किया. संगठन का घोषणापत्र बनाने में मदद की. चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के बाद वे इस संगठन के कमांडर-इन-चीफ़ चुने गए.
यशपाल कई तूफ़ानी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे. क्रांतिकारी संगठन ने ‘बम का दर्शन’ नाम की जो घोषणा तैयार की, उसमें यशपाल की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी. 23 दिसम्बर, 1929 को उन्होंने एक दुःसाहसिक कदम उठाते हुए वायसराय लॉर्ड इरविन की ट्रेन के नीचे बम रखकर उसे उड़ा दिया. हालांकि वायसराय इस हमले में बच गए. यशपाल बम बनाने में माहिर थे. ‘हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ ने लाहौर, रोहतक, कानपुर और दिल्ली समेत कई और जगहों पर बम बनाने के जो ठिकाने बनाए, उसमें यशपाल की बड़ी भूमिका थी.
23 जनवरी, 1932 को यशपाल इलाहाबाद में एक पुलिस मुठभेड़ में अंग्रेज़ सरकार की गिरफ्त में आए. गिरफ्तार होने से पहले पुलिस का मुक़ाबला उन्होंने रिवाल्वर की आख़िरी गोली तक किया. उन्हें 14 साल के कठोर कारावास की सज़ा मिली. जेल में रहकर वह मार्क्सवाद और विश्व क्रांतिकारी आंदोलन का अध्ययन करते रहे और भरपूर लेखन किया, जो बाद में उनके अलग-अलग संकलनों में छपा. यशपाल की चर्चित कहानी ‘मक्रील’ जेल में ही लिखी गई थी. उनकी ख़ुशक़िस्मती थी कि छह साल के बाद ही संयुक्त प्रांत की सरकार, ख़ास तौर पर रफ़ी अहमद किदवई की कोशिशों से सन् 1938 में उन्हें जेल से रिहाई मिल गई.
जेल से छूटने के बाद एक अख़बार के संवाददाता ने उनसे सवाल पूछा कि अब उनका भावी राजनैतिक या सामाजिक कार्यक्रम क्या होगा? इस पर यशपाल का जवाब था – जो कुछ बुलेट से करता रहा हूं, अब बुलेटिन (लेखन) से करने का यत्न करुंगा. अपने इस क़ौल पर क़ायम रहते हुए सशस्त्र क्रांति की राह छोड़कर वह क़लम की क्रांति की तरफ़ आ गए. पत्रकार, संपादक और लेखक के तौर पर उन्होंने वही किया, जो वे क्रांतिकारी जीवन में कर रहे थे. अपने मासिक पत्र ‘विप्लव’ के ज़रिए उन्होंने भारतीयों के बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ी. यशपाल साम्राज्यवाद को एक शोषणकारी व्यवस्था के तौर पर देखते थे. अख़बार के जरिये उन्होंने इस वैचारिक लड़ाई को आगे बढ़ाया.
‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी अख़बार था. इसके पहले पन्ने पर छपता – तुम करो शांति समता प्रसार, विप्लव गा अपना अमर गान. ‘विप्लव’ के नवम्बर, 1938 में आए प्रवेशांक के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा था – “हे विप्लव की अग्नि ! हे दलित और पीड़ित जनता के उद्गार, भारत के निःशक्त और ठंडे पड़े ख़ून को गर्म कर दे. उसे उत्पीड़न के कीचड़ से निकालकर समता और शांति की समतल भूमि पर खड़ा कर उसके सामने मनुषत्व के विकास का मार्ग खोल दे.”
यशपाल ‘विप्लव’ में ‘मार्क्सवाद की पाठशाला’, चाय की चुस्कियां’ और ‘चक्कर क्लब’ जैसे अलग-अलग स्तंभों में वह ‘एक मजदूर’ एक किसान’ और ‘एक विद्यार्थी’ से लिखते थे. ‘विप्लव’ का वे उर्दू संस्करण भी निकालते थे, जिसका नाम ‘बाग़ी’ था. इन अख़बारों का नौजवानों पर ख़ूब असर था. अंग्रेज़ी हुकूमत भी इन अख़बारों से घबराती थी. यही वजह है कि उसकी निगाह हमेशा ‘विप्लव’ पर रहती थी. अंग्रेज़ हुक्मरान जब-तब अख़बार पर जप्ती की कार्यवाही करते रहते थे. बार-बार की जप्तियों और भारी जमानतों की वजह से 1939 में आख़िरकार उन्हें ये दोनों अख़बार बंद करने पड़े.
‘विप्लव’ बंद हुआ तो वे पूरी तरह से रचनात्मक लेखन में आ गए. लेकिन उनका उद्देश्य साफ़ था. यशपाल के लेखन के बारे में राजेन्द्र यादव लिखते हैं – “यशपाल मार्क्सवाद के घोषित प्रवक्ता हैं. इस दिशा में उन्होंने अपने साथी सरदार भगत सिंह के चिंतन को ही अधिक धार और विश्लेषण दिया है. उन्होंने सामाजिक बदलाव की मानसिकता गढ़ने के लिए कथा माध्यम चुना है.”
‘चक्कर क्लब’ के अपने एक निबंध में ख़ुद यशपाल लिखते हैं – “कोई साहित्य उस समय तक महान नहीं हो सकता और जनता का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सकता. जब तक उसका महान सामाजिक उद्देश्य न हो.” गोया कि यशपाल का सारा साहित्य, सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित है. ‘पार्टी कामरेड’ दादा कामरेड’ देशद्रोही’ दिव्या’ मेरी तेरी बात’ अमिता’ मनुष्य के रूप और ‘झूठा-सच’ जैसे उनके उपन्यास एक विचारधारा से ही प्रेरित होकर लिखे गए हैं. यशपाल का सारा साहित्य वैचारिक संघर्ष का साहित्य है. उन्होंने हमेशा ही पुरातनपंथी और प्रतिक्रियावादी मूल्यों पर प्रहार किया.
यशपाल ने अपनी पहली कहानी ‘अंगूठी’ बारह साल की उम्र में लिखी, जब गुरुकुल में पढ़ते थे. क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की वजह से कुछ अरसे तक लेखन छूटा रहा लेकिन बाद में लेखन ही उनकी ज़िंदगी हो गया. प्रेमचंद के लेखन से वह बहुत प्रभावित थे. अपने एक पत्र में उन्होंने यह बात स्वीकार की थी – “प्रेमचंद की सप्रयोजन लिखने की प्रवृत्ति और कला कौशल का मेरे मन में बहुत आदर है.” लेखन की इसी राह पर वह भी चले.
उनका पहला कहानी संग्रह ‘पिंजड़े की उड़ान’ साल 1939 में छपा था. उन्होंने तीन सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं. एक दर्जन उपन्यास और तीन नाटक लिखे. ‘गांधीवाद की शव-परीक्षा’ और ‘रामराज्य की कथा’ किताबों में यशपाल के गांधी दर्शन पर आलोचनात्मक लेख शामिल हैं. ‘न्याय का संघर्ष’, ‘मार्क्सवाद’ आदि किताबों में उनके राजनीतिक निबंध हैं. तीन खंडों में उनकी किताब ‘सिंहावलोकन’ क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास है.
सोवियत संघ और यूरोपीय देशों की यात्रा पर उन्होंने ‘लोहे की दीवार के दोनों ओर’ जैसा यात्रा-वृतांत लिखा. कई विदेशी उपन्यास, कहानियों और राजनैतिक निबंधों का हिंदी में अनुवाद किया. प्रगतिशील लेखक संघ से उनका शुरू से ही नाता रहा. लखनऊ में उनके घर और ‘विप्लव’ के दफ़्तर पर प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकें होतीं.
यशपाल ने अपने कुछ साथियों के साथ लखनऊ में एक नाट्य ग्रुप भी बनाया था और कुछ नाटक भी किए. ‘नशे नशे की बात’ नाटक में उन्होंने रघुवीर सहाय, देवकी पांडे और फिरोज़ हसन के साथ अभिनय भी किया. यशपाल की सभी किताबें उनके खुद के ही प्रेस ‘साथी प्रकाशन’ से छपतीं. उनकी पत्नी प्रकाशवती प्रकाशन का सारा काम देखती थीं. उनकी किताबों के कवर हमेशा लाल रंग के होते. और इसके पीछे उनकी मार्क्सवादी विचारधारा थी. लाल रंग को वह क्रांति का सूचक और सर्वहारा के संघर्ष का प्रतीक मानते थे. किताबों के दाम भी काफ़ी कम रखने का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों तक किताबें पहुंचाना ही था.
कालजयी उपन्यास झूठा-सच में बंटवारे और उसके बाद के भारत का जो चित्र उन्होंने खींचा है, वह एक इतिहास की तरह है. उन्होंने ख़ुद बंटवारे का दंश भोगा ही, और जानकारी इकट्ठा करने के लिए वे उन इलाकों में गए जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे. दंगा प्रभावितों और शरणार्थियों से मिले. कथानक की विश्वसनीयता और उपन्यास की समग्र प्रभावशीलता की वजह से यह उपन्यास समूचे दक्षिण एशिया में ख़ूब चर्चित हुआ. अंग्रेज़ी, उर्दू के साथ ही कई और ज़बानों में इसका अनुवाद हुआ.
हिंदी साहित्य को आधुनिक बनाने में यशपाल का बड़ा योगदान है. उनके लेखन का मूल्यांकन करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है – “यशपाल में आधुनिकता की एक सतत प्यास है और उसी ने हिंदी कहानी को आधुनिक बनाया है..यशपाल की रचनाओं ने हमारे पाठकों का स्वरूप बदला और उन्हें ज़िंदगी के प्रयोजन का अनुभव दिया. यशपाल ने प्रत्येक पाठक के मानस की सांस्कारिक और परंपराबद्ध ग्रंथियों को खोलकर, उन्हें नए और आधुनिक को स्वीकार करने लायक बनाया.”
यशपाल स्वाभिमानी व्यक्ति थे. अपनी ज़िंदगी में उन्होंने न कभी कोई सरकारी सहायता मांगी और न ही कोई पद ग्रहण किया. सरकार ने भी आज़ादी के इस सिपाही की उपेक्षा ही की. उनकी ज़िंदगी के आख़िर में साहित्य अकादमी को उनका ख़्याल आया. तो साहित्य अकादमी अवार्ड जो उनके उपन्यास ‘झूठा-सच’ को मिलना था, वह ‘मेरी तेरी बात’ के लिए मिला.
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