सफ़रनामा | पेशावर से काबुल तक
दिल्ली से हेलसिंकी जाते समय आरंभ में विचार काबुल और मास्को के रास्ते विमान से ही जाने का था. अवसरवश दिल्ली में पाकिस्तान के राजदूतावास के एक सज्जन से भेंट हुई. उन्होंने उलाहना दिया – ‘भारतीय लेखक हेलसिंकी – मास्को की ही बात सोचते हैं….ख़ासकर पंजाबी लेखकों को तो लाहौर-पेशावर नहीं भुला देना चाहिए.’
मैंने उत्तर दिया – ‘पाकिस्तान का परवाना राहदारी मिल सके तब न!’
आधे घंटे में ही मुझे सपत्नीक पाकिस्तान में से यात्रा करने का अनुमति-पत्र मिल गया. विमान में रखवाई हुई जगह कटवाई और रेल से पेशावर तक और पेशावर से आगे सड़क से यात्रा के लिए कमर बाँध ली.
दिल्ली में पाकिस्तानी राजदूतावास के जिन सज्जन ने मुझे पेशावर के मार्ग से अफ़गानिस्तान जाने के लिए उत्साहित किया था, वे यशपाल को लेखक के ही रूप में जानते थे. पेशावर में जिन पुलिस अफ़सरों से पाकिस्तान की सीमा लाँघकर अफ़गानिस्तान में प्रवेश की अनुमति का पत्र लेना था, वे हिन्दी के लेखक यशपाल को तो कम परंतु लाहौर षड्यंत्र के मामले में, भगतसिंह के साथी और बहुत दिन फ़रार रहने वाले ख़तरनाक यशपाल को ही अधिक पहचानते थे. पुरानी फाइलें उलट-पलट कर देखी जाने लगीं.
पेशावर में पुलिस के अफ़सरों को सुझाव दिया, यदि मुझे पाकिस्तान से अफ़गानिस्तान में प्रवेश का अनुमति-पत्र न दिया गया तो मैं पाकिस्तान में फिर साढ़े तीन सौ मील यात्रा कर भारत लौटूँगा. अफ़गानिस्तान जाने के लिए तो केवल पैंतीस मील का ही सफ़र मुझे पाकिस्तान में करना होगा. अस्तु, पाकिस्तान की सीमा लाँघकर अफ़गानिस्तान की सीमा में प्रवेश की आज्ञा तो मिली परंतु पेशावर से विदाई के समय काफी ख़ुफिया पुलिस मौजूद थी. इन पैंतीस मील के आधे में जमरूद के क़िले पर मोटर लारी के पहुँचते ही सशस्त्र पुलिस सिपाहियों ने स्वागत किया – ‘हिंदुस्तानी जर्नलिस्ट यशपाल कौन है?’ और अफ़सरों के बहुत से सशंक प्रश्नों का समाधान करना पड़ा.
अंतिम चौकी लंडीखाना पर और भी सतर्कता दिखाई दी. मैं, मेरी पत्नी और अफ़गान प्रजा का एक सिक्ख परिवार एक साथ यात्रा कर रहे थे. चौकी के लोगों ने बहुत कड़ी निगाह से हमारी जाँच-परख की. उस समय इसके लिए कारण भी था. उन दिनों पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में कुछ अधिक तनातनी चल रही थी. अमरीकन जान पड़ने वाले अफ़सरों और सशस्त्र पाकिस्तानी सिपाहियों से भरी जीपें तेजी से सीमांत और पेशावर के बीच आ-जा रही थीं.
चौकी चुंगी की जाँच-पड़ताल समाप्त हो जाने पर हम लोग सीमांत के सूखे नालों और फर्लांग भर की लावारिस अर्थात ‘नौमैन्स लैड’ को पार करने का उपाय सोच रहे थे. पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में तनातनी के कारण इस ओर की सवारियाँ उस ओर, और उस ओर की सवारियाँ इस ओर नहीं आ-जा सकती थीं. हम लोग एक गधे वाले से असबाब दूसरी ओर पहुँचा देने का सौदा कर रहे थे कि पाकिस्तानी सैनिकों ने चेतावनी दी – ‘पहले सियासी चौकी से इज़ाजत ले लो तब उधर जाने की बात करना.’
धक्का सा लगा, क्या यहाँ तक आकर भी लौटना पड़ सकता है! सिपाहियों के साथ फूस की छत से ढके सफ़ेदी किए छोटे बंगले में पहुँचे. सिपाही जाँच करने वाले अफ़सर कुछ मिनट बाद आए. गहरा चश्मा लगाए, दुबले-पतले नौजवान थे, चेहरे पर अफ़सरी की खुश्की. मुझे हैट-पतलून पहने देखकर मुझे ही संबोधन किया – ‘पासपोर्ट!’
मेज के समीप खड़े-खड़े पासपोर्ट उनके सामने बढ़ा दिया. उन्होंने पासपोर्ट को ग़ौर से देखा – ‘आप जर्नलिस्ट और ऑथर हैं. नाम… यशपाल?’
‘जी.’
‘तशरीफ़ रखिए.’ उन्होंने कुर्सी की ओर संकेत किया और चेहरे का भाव बदल गया.
‘आप फिसाना नवीस (कथाकार) भी तो हैं?’
स्वीकार किया – ‘जी हाँ.’
अफ़सर बोले – ‘मुझे याद है, आपकी कुछ कहानियों का अनुवाद मैंने उर्दू में पढ़ा है. बहुत अच्छी कहानियाँ थीं. इस इलाक़े में आप कुछ समय ठहर कर इसे देखते तो यहाँ काफी लिखने योग्य सामग्री पा सकते थे.’
सड़क पार सामने एक ऊँचे टीले की ओर उन्होंने संकेत दिया – ‘मेरे विचार में खुदाई हो तो इसे टीले के नीचे बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री मिल सकेंगी. जब भी वर्षा होती है, जानवर चराने के लिए वहाँ जाने वाले लड़कों को कई चीजें, उदाहरणतः पकाई हुई मिट्टी के छोटे-छोटे खिलौने, नक्क़ाशीदार बर्तनों के टुकड़े वहाँ धरती से निकले मिलते है. यह चीजें बौद्धकाल की मालूम होती हैं. आपको जल्दी न हो तो एक प्याला चाय पीजिए!’
चाय के लिए उनसे क्षमा माँगी. विचार प्रकट किया – ‘सीमा के उस पार क्या होगा; कुछ मालूम नहीं. सवारी कैसे कब मिलेगी; इसका भी भरोसा नहीं. जितना जल्दी पहुँच जाएँ, अच्छा ही होगा.’
‘आपका विचार ठीक है.’ उन्होंने स्वीकार किया, ‘एक मिनट तो ठहरिए, अभी हाज़िर होता हूँ.’ वे भीतर चले गए. एक ही मिनट बाद लौट आए. अँजली चमेली के फूलों से भरी थी. बोले, ‘यह मेरी शुभकामना के रूप में स्वीकार कीजिए. याद रहे तो कभी इस इलाक़े के बारे में भी लिखिएगा.’ सीमांत लाँघने की अनुमति की मोहर पासपोर्ट पर लगा दी गई.
सीमांत की लावारिस या अनाथ भूमि को कड़ी धूप में एक कुत्ते की ऊँचाई के गधे पर असबाब लादकर पार किया. अफ़गान सीमा में फिर पासपोर्ट और प्रवेश का अनुमति पत्र दिखाने की रीति हुई. यहाँ पाकिस्तान और भारत की सीमाओं की तरह चुस्त चौकी-चुंग और चुस्त वर्दी पहने सिपाही न थे, न उतनी सतर्कता. बेपरवाही से फटी-सी वर्दियाँ पहने सिपाही मजनू के पेड़ों के नीचे खाटों पर बैठे और लेटे थे. मिट्टी का हुक्का बोल रहा था. चुंगी-चौकी का दफ़्तर एक छप्पर की छत की उदास-सी कोठरी में था. एक हिलती हुई मेज और वैसी ही बेंच. हमारे साथी सरदारजी दो-तीन बार पहले भी यहाँ पासपोर्ट दिखा चुके थे. उन्हीं ने सब रस्में पूरा करा दीं.
यहाँ नियमित रूप से कोई सवारी उन दिनों नहीं आती-जाती थी. पेशावर से लंडीखाना तक दर्रा ख़ैबर को पार करती रेल की लाइन तो है उसके अतिरिक्त समानांतर दो बहुत बढ़िया सड़कें भी है. आवश्यकता के समय सेनाओं और सामान का आना-जाना अविराम हो सकता है. यह सब प्रबंध भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार ने किया था. अफ़गानिस्तान की सीमा में प्रवेश करने पर सड़क के नाम पर मोटर-लारियों के आने-जाने से बन गई लकीरें ही थीं, जहाँ-तहाँ छोटे-बड़े पत्थरों से भरी हुई. अब अफ़गानिस्तान की सरकार भी आवश्यकता समझकर सड़कें बनवाने का यत्न कर रही थी. यहाँ से पाँच-सात मील दूर सड़क बनाने वालों का एक कैंप के लिए पानी के लिए एक ट्रक आता-जाता था. सौभाग्य से तुरंत ही ट्रक में रखे पानी के दस-बारह पीपों के साथ ही हम लोग भी असबाब रखकर उस पर बैठ गए. झकोलों के कारण बैठते न बना तो ट्रक पर वर्षा के समय तिरपाल डालने के लिए लगी लोहे की छड़ों को पकड़कर खड़े हो गए. यह सवारी अफ़गान सीमा के भीतर बीस मील ढक्का गाँव तक ही गई.
ढक्का में बस्ती के सब घर मिट्टी की दीवारों के ही हैं. केवल सरकारी तहसील की इमारत पक्की है. गाँव ढक्का नदी के किनारे पहाड़ियों के आँचल में हैं. निर्मल नीले आकाश के नीचे प्राकृतिक दृश्य सुंदर हैं. नदी के किनारे मजनू के वृक्षों का उपवन है. सरदारजी एक गाँव में पहले रह चुके थे. वे अपनी दुकान और लेन-देन के अतिरिक्त गाँव में सबसे रईस होने के नाते सरकारी लगान जमा रखने का भी काम करते थे. उनका रोब और रसूख भी था. यहाँ भी पासपोर्ट और अफगानिस्तान में प्रवेश का अनुमति-पत्र दिखाना जरूरी था. मैं तहसील के बरामदे में ही खड़ा रहा. सरदारजी मेरा, प्रकाशवती का और अपने परिवार के पासपोर्ट लेकर आगे बढ़े. अफ़सर की खिड़की से तीन हाथ दूर से ही कमर झुकाकर लंबा सलाम किया और फिर फौजी सलूट भी लिया ओर सब पासपोर्ट पर मोहर लगवा लाए.
सरदारजी को स्वयं ही जलालाबाद पहुँचने की जल्दी थी. वे इस प्रदेश से परिचित भी थे. बोले – ‘चलिए टेलिफोन करके पता लें कि वहीं से कोई लारी या ट्रक इस ओर आ सकता है या नहीं.’
मिट्टी की दीवारें और धन्नियों पर थमी वैसी की छत. भीतर एक ओर ढलकी हुई मेज और उस पर एक बक्से में बैटरियाँ और पुराने ढंग का टेलीफ़ोन. मेज़ के समीप दरारें पड़े तख़्ते जड़कर बनाई बेंच पर मुड़े सिर और सफेद दाढ़ी वाला पठान उकड़ू बैठा फ़ोन के चोंगे में पश्तों में चिल्ला रहा था. यह ढक्का का ‘टेलीफोन एक्सचेंज’ था. सरदारजी ने परिचय के अधिकार से कहीं से लारी या ट्रक के इधर आ सकने के विषय में पता करने के लिए अनुरोध किया.
ख़ान ने झल्ला कर कहा – ‘क्या पता कर लें. फ़ोन मिल ही नहीं रहा है. सीमांत पर फ़ौजी टुकड़ियाँ फैली हुई है. वे लोग टेलीफ़ोन को पल भर के लिए छोड़ें तब तो.’ अब समझ में आया कि हम कैसी अवस्था में पृथ्वी के झगड़ों से ऊपर ही ऊपर उड़ जाने वाली विमान की सुरक्षित यात्रा छोड़कर सड़क के अनुभव प्राप्त करने आए हैं पर अब तो आ चुके थे.
सरदारजी के पूर्व परिचितों ने नदी किनारे मजनू के उपवन में कुछ पलंग और खाटें पहुँचा दी थीं. कुछ ख़रबूजे और रोटी भी ले आए थे. जून का महीना था. देहली और लाहौर में लू हु-हू कर धुल उड़ा रही थी परंतु इस बर्फानी नदी के किनारे मजनू के उपवन में वसंत की प्यारी हवा चल रही थी. गाँव के दूसरे बहुत से लोग भी अपनी खाटें लेकर मजनू की छाँव में सो रहे थे परंतु मर्द ही, स्त्री एक भी नहीं. स्त्रियाँ उस दोपहर में भी घरों में बंद थीं.
सरदारजी प्रायः पिछली पीढ़ी से यहाँ हैं परंतु छुआछूत के नियम में कट्टर हैं. अफ़गानिस्तान में सभी हिंदू-सिखों में यह कट्टरता है. संभवतः इसी कट्टरता से वे अपना हिंदूपन बचाए हैं. अस्तु हमने कुछ रोटी भी खाई और खरबूज़े भी. सरदारजी फिर मुझे साथ ले लारी या ट्रक का पता लेने गाँव में घूमने चल दिए. गाँव में घूमते समय बच्चों में छह-सात बरस की दो-तीन लड़कियाँ ही दिखाई दीं. पर्दे का अनुशासन इस गाँव में बहुत कड़ा था. सरदारजी की पत्नी और दो बच्चे भी साथ थे. पेशावर में चलते समय ही सरदारनी ने अपना सिर मुँह और शरीर एक ख़ूब बड़ी चादर में लपेट लिया था. उसने प्रकाशवती को बताया कि अफ़गानिस्तान में रहते समय उन्हें भी बुरका पहनता पड़ता है. कोई भी स्त्री बिना पर्दे के दिखाई नहीं देती. प्रकाशवती के मुँह न ढकने से सभी लोगों की आँखें बहुत विस्मय से उसकी ओर टिक जातीं. विवश हो उसे भी घूँघट निकाल लेना पड़ा. उस परिस्थिति में कुसंस्कारों की उपेक्षा कर अपनी धारणा पर दृढ़ रहने का साहस करते न बना.
अवसरवश एक और ट्रक आ पहुँचा. यह ट्रक जलालाबाद वापस लौट रहा था. सरदारजी ने ट्रक के मालिक को लंबा सलाम कर बातचीत की. मेरी ओर इशारा कर भी कुछ कहा. कुछ छोटा कद, कुछ मैले सलवार-कमीज, रोएँदार खाल की टोपी ओर धूप का चश्मा पहने यह कोई बड़ा ख़ान या प्रभावशाली व्यक्ति था. सभी लोग उससे तीन-चार हाथ की दूरी पर खड़े होकर और झुक-झुककर बात करते थे. सरदारजी ने काम बना लिया.
खुले ट्रक पर पहले हमारा असबाब रखवाया और फिर सरदारजी का. प्रकाशवती और मेरे लिए सरदारजी के बँधे बिस्तरों पर बैठने की जगह बनाई गई. फिर सरदारजी के परिवार के लिए, तब ख़ान का अमला ट्रक की जमीन पर लद गया. ख़ान स्वयं ड्राइवर के साथ बैठा.
दो पर्वत मालाओं के बीच पथरीली घाटी में से पश्चिम की ओर चले जा रहे थे. सड़क की लकीर कभी ढक्का नदी के किनारे चलती कभी फेर बचाने के लिए कुछ दूर सीधे. बस्तियां कम और दूर-दूर थीं. फसल उजड़ी-उजड़ी सी. दक्षिण ओर की पर्वत माला पर स्थान-स्थान पर गढ़िया दिखाई दे जाती थीं. गढ़ियों की दीवारों में आत्मरक्षा के लिए मोर्चें बने हुए थे. मार्ग में पाँच-सात बंदूकचियों के साथ एक और ख़ान दिखाई दिए. ट्रक रुक गया. सरदारजी से मालूम हुआ कि यह इलाके के थानेदार हैं. वर्दीं की कोई पाबंदी नहीं थी. थानेदार साहब ट्रक के आगे ड्राइवर और मालिक ख़ान के साथ बैठ गए. झकोलों के कारण मेरे लिए बिस्तर पर बैठे रहना भी कठिन था. ट्रक के ऊपर तिरपाल तानने की छड़ पकड़कर खड़ा रहा. सरदारजी ने बताया कि इस प्रदेश में लूटमार नहीं होती. क़त्ल-ख़ून कभी-कभी ही होते हैं. लूटमार का भय दक्षिणी पर्वत माला के परे अफरीदी, वजीरी और मोहमंद इलाकों में ही रहता है.
ट्रक सड़क की सीधी लकीर छोड़कर उत्तर की ओर चलने लगा. मिट्टी की खूब ऊँची मोर्चा बनी दीवारों की एक गढ़ी के सामने जाकर रुके. यह इलाक़े का थाना था. यहाँ थानेदार साहब को पहुँचाने के लिए ही आए थे. चमड़े का हुक़्क़ा आया. थानेदार साहब और ख़ान साहब खाट पर बैठे. हम पश्चिम की ओर ढलते सूर्य की ओर देख विकल हो रहे थे. अभी जलालाबाद साठ मील दूर था लेकिन ख़ान थानेदार का आतिथ्य स्वीकार किए बिना आगे न बढ़ सकते थे. समय का विचार यहाँ नमाज के वक़्तों से ही होता है.
दस-पंद्रह मील चलकर ट्रक फिर एक धुएँ से काली दुकान के आगे खड़ा हो गया. यहाँ सड़क के किनारे हमारे पहाड़ी प्रदेशों की तरह हर पाँच-सात मील पर दो-तीन दुकानें नहीं दिखाई दे जातीं. दूर दिखाई देते गाँवों में तो दुकानें होंगी ही. गाँवों में दुकान प्रायः अफ़गान हिंदू या सिख ही करते हैं. सड़क किनारे ढक्का से चलने के बाद यहीं दुकान मिली. ख़ान के लिए तुरंत एक बड़ा पलंग बिछ गया. मैं और प्रकाशवती ट्रक पर ही बैठे रहे. शेष सब लोग ख़ान के प्रति आदर में ट्रक से उतरकर पलंग के चारों ओर कुछ अंतर से खड़े हो गए. कुछ खरबूज़े लाए गए. ख़ान ने जेब से चाकू निकाला और खरबूज़े तराशे. पहली दो फाँके प्रकाशवती और मुझे भेंट की गईं. इसके बाद ख़ान ने चार-पाँच फाँकों के ऊपर का बहुत नरम भाग स्वयं खाया. कुछ फाँके दो-तीन और लोगों को दीं और उठ गए. शेष बचे खरबूज़े लोगों ने बाँट लिए और ट्रक चला.
खूब अँधेरा हो गया. सड़क की लकीर पर ट्रक का प्रकाश कुछ दूर तक आगे-आगे चल रहा था. कभी ही कोई गधा सवार मार्ग पर दिखाई दे जाता. ट्रक पत्थर की सड़क पर नहीं, उखड़े-बिखरे पत्थरों पर चल रहा था तो हिचकोलों की क्या शिकायत होती. पश्चिम से अच्छी ठंडी तेज हवा चलने लगी थी. ट्रक ही छड़ पकड़े हाथों में छाले पड़े और फूट गए. जेब से रूमाल निकाल छड़ पर रखकर सहारे के लिए पकड़ लिया. हाथ बदलते समय रूमाल हवा के झोंके में कटी पतंग की तरह उड़ गया. सरदारजी ने पुकारा – ‘रोको! कपड़ा उड़ गया!’ मैंने तुरंत कहा, ‘नहीं, रुकिए नहीं चीथड़ा था!’ सोच रहा था किसी तरह यह रास्ता समाप्त तो हो.
रात दस बजे के लगभग जलालाबाद पहुँचे. घने अँधेरे में कहीं-कहीं हरीकेन लालटेन जलते दिखाई दिए. चारदीवारी से घिरे कुछ बंगले भी मालूम पड़े परंतु प्रकाश नहीं था. अँधेरे में भी वायु में नमी, नालियों में बहते जल के शब्द और वृक्षों से स्थान के खूब हरे-भरे होने का अनुमान हो रहा था. बस्ती एक मंजिले छोटे-छोटे घरों की थी. बाज़ार में एक जगह गैस भी दिखाई दिया. ट्रक रुका. तीन-चार सिख सरदारजी की अगवानी के लिए मौजूद थे. सरदारजी का सामान और परिवार उतरा तो हम भी उतर जाना चाहते थे कि उन्हीं के सहारे कहीं रात कट लें. मैं एक बार पहले यूरोप और रूस हो आया था. जानता था वहाँ बिस्तरा साथ लेकर यात्रा का रिवाज नहीं है. रेल, होटल में सब जगह बिस्तर मिलता है इसलिए बिस्तर साथ नहीं थे.
सरदारजी ने कहा – ‘आप लोग ट्रक में बैठिए. ख़ान आपके लिए इंतजाम कर देंगे.’ ख़ान कैसा इंतजाम कर देंगे इसका अनुमान नहीं था परंतु इतना तो स्पष्ट था कि सरदारजी अब हमारा स्वागत नहीं कर रहे थे. प्रकाशवती की इच्छा रात हिंदू-सिख परिवार के साथ ही बिता सकने की थी परंतु मजबूरी में चुप रहे, जो होगा देखा जाएगा.
ट्रक बंद हो चुके बाज़ार से कुछ दूर दोनों ओर ऊँचे सफेदों से घिरी सूनी सड़क पर चला और एक प्रकाशमान ऊँची इमारत के हाते में प्रवेश किया. प्रकाश बहुत मध्यम था परंतु था बिजली के बल्बों का. ख़ान ने हाथ मिलाकर कहा – ‘यह शाही मेहमानख़ाना है. यहाँ आराम कीजिए.’ ख़ान पश्तो में ही बोले. अनुवाद समीप खड़े एक आदमी ने किया.
मेहमानख़ाने में भारत की ओर जाने वाले दो अमीर अफ़गान व्यापारी भी ठहरे हुए थे. सब कमरों में और बीच की दीर्घिका में भी कालीन बिछे हुए थे. बैरे ने आकर पूछा – ‘खाना किस क़िस्म का खाइएगा?’
उत्तर दिया – ‘जिस क़िस्म का तैयार हो.’ भूख तो लगी थी और मसहरीदार पलंग देखक एकदम लेट जाने की इच्छा उससे भी बलवती थी.
ग़ुसलख़ाने में गरम पानी था. फ़्लश का प्रबंध था. खाने के लिए नान और मुर्ग़ मिला परंतु प्लेटों में काँटे-छुरी के साथ.
अफ़गान सौदाग़रों से मालूम हो गया कि जलालाबाद और काबुल के बीच बहुत अच्छी सड़क है और लगातार बस भी चलती है पर सुबह तड़के ही बस का प्रबंध कर लेना उचित होगा.
सुबह जल्दी ही नाश्ते के पश्चात बैरे ने दस्तख़त के लिए बिल पेश किया. बिल था लगभग पचहत्तर रुपये का. बैरे को आशा थी, हमें मेहमानख़ाने में लाने वाले ख़ान स्वयं बिल चुकाएँगे परंतु मैंने बिल स्वयं चुका कर उस पर ‘चुकता’ लिख देने का आग्रह किया ताकि बिल ख़ान के सामने न पेश किया जा सके.
पेशावर में काबुल के भारतीय राजदूतावास के हवलदार लक्ष्मण सिंह से अफ़गान और भारतीय रुपयों के विनिमय दर के विषय में सूचना मिल चुकी थी. पेशावर के विनिमय के व्यापारी एक भारतीय या पाकिस्तानी रुपये के चार अफ़गानी देना चाहते थे. लक्ष्मण सिंह ने और सरदारजी ने भी हमें बता दिया कि सरकारी भाव तो एक और चार का ही है परंतु वास्तव में एक भारतीय रुपये के सात, आठ, नौ अफ़गानी बाज़ार में मिल सकेंगे. पेशावर में लक्ष्मण सिंह से भारतीय बीस रुपये देकर एक सौ चालीस ले लिए थे. इस भाव से पचहत्तर भी कुछ अधिक नहीं जँचे. बैरे को दस रुपये बख्शीश देने पर लंबी सलाम भी मिली.
जलालाबाद से काबुल सौ मील है. सुबह ही जाकर बस में ड्राईवर के साथ की दोनों सीटें ख़रीद लीं. ड्राइवर ने शायद मेरी पतलून और हैट की वजह से या साथ शाही मेहमानख़ाने का बैरा देखकर कहा – ‘सवा सौ रुपये होंगे.’ स्वीकार कर लिया.
हमारे पीछे लारी में कितने आदमी थे, यह गिन पाना संभव न था. कुछ छत पर भी बैठे थे. भीड़ के कारण किसी को आपत्ति न थी. हमारे देश में मोटर के बोझ खेंच सकने की शक्ति की एक सीमा समझी जाती है. अफ़गानिस्तान में ऐसा कोई मिथ्या संस्कार नहीं है.
काबुल नदी तक जलालाबाद की घाटी बहुत हरी-भरी है. यहाँ एक चीनी मिल भी है और गन्ने की खेती भी होती है. सड़क किनारे क्यारियों में टमाटर और दूसरी चीजें भी दिखाई दीं.
काबुल के आगे सड़क बहुत दूर तक बिलकुल नदी तट के साथ-साथ जाती है. आस-पास रेगिस्तान नहीं. नदी के दोनों ओर पहाड़ ही हैं परंतु खेती के चिह्न कहीं-कहीं ही दिखाई दिए. कुछ दूर जाकर नदी का साथ छूट जाता है परंतु शनः-शनैः पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ती जाती है. रूखी, नंगी चट्टानें, जिन पर घास या वनस्पति का एक पत्ता भी नहीं. चट्टानें एक से दूसरी बढ़कर नीले आकाश की ओर उठती जाती हैं. हर अगली चट्टान या पहाड़ पिछले वाले से ऊँचा. आश्चर्यजनक मात्रा में बोझ लिए बस ऊपर चढ़ती चली जा रही थी. यह इसलिए संभव था कि सड़क तारकोल की बहुत अच्छी बनी हुई. जलालाबाद से पेशावर तक अच्छी सड़क अफ़गान सरकार ने शायद इस दूरदर्शिता के कारण नहीं बनाई थी कि शत्रु को देश में प्रवेश की सुविधा हो जाएगी. उस समय यह नहीं सोचा गया कि सीमा पर शत्रु को रोकने के लिए वहाँ भी अच्छी सड़क होना आवश्यक है. अस्तु, अब तो सड़कें बनाने का काम जोर से चल रहा था.
इन रूखे, नंगे धूसर, काले पहाड़ों की ऊँचाई समुद्र तल से कितनी है, कह नहीं सकता परंतु वे गहरे नीले आकाश में चुभ गए से जान पड़ते हैं. भारत या यूरोप अथवा काकेशस के पहाड़ों की तरह इन पहाड़ों में कहीं जल रिसता नहीं दिखाई देता. हम तो आधुनिक यंत्रवाहन की सहायता से इस राह पर अठारह-बीस मील प्रति घंटे की चाल से चले जा रहे थे. मोटर की अनुपस्थिति में गधों, घोड़ों, ऊँटों पर इतना सफ़र एक दिन के कड़े परिश्रम का फल होता होगा परंतु दर्रा ख़ैबर से काबुल, कंधार, गजनी का यह मार्ग तो प्राग-ऐतिहासिक काल से चलता ही आया है. तब भी व्यापारियों के काफ़िले इन मार्गों से भारत आते-जाते थे. तब इन खुश्क बीहड़ रास्तों पर यात्रा में कितने पशु और मनुष्य बलिदान होते होंगे? तब तो यहाँ तारकोल बिछी बढिया सड़कों की भी कल्पना नहीं की जा सकती थी. सड़क बनाने की आवश्यकता किसे थी? केवल मार्ग का चिह्न मात्र रहा होगा. मनुष्य को ऐसे किस धन का लोभ था जिसके लिए वह अपने प्राण जोखिम में डालता था. यदि पेट की ज्वाला के कारण व्याकुल मनुष्यों के इन मार्गों को पार करने की कल्पना की जाए तो एक बात हैं परंतु सिकंदर यदि इस मार्ग से आया होगा तो उसने लूट और साम्राज्य विस्तार के प्रलोभन का क्या मूल्य दिया होगा! मौर्य सम्राटों की सेनाएँ तो कपिशा (काबुल) को विजय कर सोवियत की सीमा पर वृक्ष नदी, जिसे अब दरिया आमू कहते हैं, किसलिए पहुँची थी. वह कौन ऐसा धन था जिसके बिना मौर्य सम्राटों का पाटलीपुत्र में निर्वाह नहीं हो सकता था? इन्हीं मार्गों से मुहम्मद गजनवी और बाबर भी आए. निश्चय ही साढ़े तीन हाथ के प्राणी – मनुष्य की सहन शक्ति और साहस की कोई सीमा नहीं. उसका साहस किसी भी दिशा में जा सकता है.
काबुल नदी तो काबुल नगर में से होकर प्रकृति द्वारा दिए मार्ग से ही पाकिस्तान में सिंधु नदी में मिलने जाती है परंतु मनुष्य इतने लंबे मार्ग में समय नष्ट नहीं करना चाहता. बहुधा सड़क नदी का साथ छोड़कर पहाड़ों को काटती, लाँघती आगे बढ़ जाती है. जलालाबाद से साठ मील लगभग इन पहाड़ों में विचित्र दृश्य दिखाई देता है. रेल की छोटी-छोटी पटरियाँ बिछी हैं और बिजली से चलने वाले यंत्रों के शब्द से आकाश गूँजता रहता है. यहाँ काबुल नदी की धार को बाँधकर बिजली पैदा की जा रही है. यह काम प्रायः जर्मन इंजीनियरों के हाथ में है. कुछ मील आगे नए ढंग के बंगलेनुमा मकानों की बस्ती कछुए की पीठ जैसी पहाड़ी पर बसा दी गई है. यहाँ से काबुल तक खूब ऊँचे बिजली के खंभे चले गए हैं. 1955 के जून में लोगों को आशा थी कि तीन-चार मास में संपूर्ण काबुल बिजली जगमगा उठेगा और जल का संकट भी न रहेगा.
इस स्थान से सड़क और नदी का साथ छूट जाता है. सड़क चट्टानों के पहाड़ पर से नहीं बल्कि कंकरीली मिट्टी के पहाड़ की पीठ पर से गुजरती है. यह पहाड़ भी कम ऊँचा नहीं. ऊँचाई के कारण वायु में कुछ विरलता अनुभव होती है. दूर से समतल पर हिमराशियाँ दिखाई देती हैं. पहाड़ की ऊँचाई के कारण हो या मिट्टी की प्रकृति के कारण, वृक्ष कहीं नहीं हैं. केवल हाथ-हाथ भर ऊँची घास है. शिमला और कुल्लू के बीच के पहाड़ों का मेरा अनुभव है कि समुद्र तल से दस-ग्यारह हजार फुट ऊँचे चले जाने पर प्रायः वृक्ष नहीं मिलते. संभव है यहाँ भी इतनी ऊँचाई हो.
दोपहर का सवा बज रहा था. बस मजनू के पेड़ों की छाया में बहती जल की नाली के समीप बनी दुकान के सामने ठहरी. ठहरने का कारण भूख के समय का विचार था या नमाज के वक्त का; कह नहीं सकता. ड्राइवर और अधिकांश लोगों ने नाली के पानी में हाथ-मुँह-पाँव धोए और नमाज अदा करने लगे. इसी नाली का जल लोग पी भी रहे थे. दो अफ़गान सिख जवान भी इस बस से काबुल जा रहे थे. हमें यह जल लेते हिचकते देख उन्होंने विश्वास दिलाया कि जल बहुत ठंडा और मीठा है, यह जल गुणकारी भी है. हमारी हिचक का कारण समझ एक नौजवान कुछ दूर ऊपर जाकर हमारे लिए जल ले आया. नाली जाने कितने खेतों को लाँघकर आ रही थी. बस से उतरे लोग निपटने के लिए उसी ओर जा रहे थे.
यात्रियों के अधिकांश अपनी रोटी साथ बांधे थे. कुछ ने एक-एक बड़ी रोटी दुकान से खरीद ली. रोटी प्रायः रूखी ही खाई जा रही थी. कुछ लोगों ने रोटी भिगोने के लिए बिना दूध और चीनी का एक-एक प्याला कहवा ले लिया. कुल मिलाकर यात्री पचास से कम न रहे होंगे. दुकान पर एक छोटे बर्तन में मुर्ग़ का सालन मौजूद था. हमारे अतिरिक्त किसी दूसरे यात्री ने वह नहीं खरीदा. अफ़गानिस्तान में सर्वसाधारण के भोजन का यही स्तर है.
काबुल नगर पहाड़ की पीठ पर है. चुंगी घर पहाड़ी के नीचे छोटा-मोटा क़िला ही समझिए. बस को क़िले के भीतर लेकर फाटक बंद कर लिया गया तो जान पड़ा कि एक-एक कपड़े की परत उथेड़ी जाएगी. हुआ यह कि ड्राईवर और पाँच-सात मुसाफिरों ने जाकर चुंगी के अधिकारियों से बातचीत की और परवाने लेकर लौट आए और बस को मार्ग देने लिए क़िले का दूसरा फाटक खुल गया.
काबुल नगर में तीन बजे के लगभग पहुँच गए. भाड़ा चुकाने के लिए मेरी जेब में अफ़गानी रुपये कुछ कम पड़ रहे थे. ड्राइवर ने ज़िद की कि पाकिस्तानी रुपया तो वह हरगिज़ नहीं लेगा. हिंदुस्तानी रुपया ले सकता हैं परंतु सरकारी निरख अर्थात एक और चार के भाव से ही लेगा. मैं आस-पास रुपया बदलने वाले का पता पूछ रहा था कि एक बहुत मैले-फटे से कपड़े पहने सरदारजी ने नए भारतीय को पहचान कर पूछा – ‘क्या परेशानी है?’
सरदारजी से रुपया बदलवा देने की सहायता पंजाबी में माँगी – ‘आप भी क्या बातें करते है.’ सरदारजी ने पंजाबी में उत्तर दिया. एक सौ अफगानी रुपये के नोट जेब से निकालकर मेरे हाथ में थमा दिए, ‘इस समय अपना काम चलाइए.’
सरदारजी को अपना नाम बताकर कहा – ‘हम होटल काबुल में ठहरेंगे. आप कल अपना रुपया जरूर ले जाइएगा. मेरे लिए आपको ढूँढ़ना कठिन होगा.’
सरदारजी ने बेपरवाही से कहा – ‘बादशाहाओं क्या बात है? आ जाएगा रुपया क्या जल्दी है?’ और एक ताँगा हमारे लिए बुला दिया.
काबुल में विदेशी लोगों, विशेषकर यूरोपियनों के लिए एक ही होटल है – होटल काबुल. होटल सरकारी है. प्रतिदिन का ख़र्चा सब मिलाकर प्रति व्यक्ति साठ-पैंसठ अफ़गानी हो जाता है. होटल में कोई अफ़गानी नहीं ठहरता. भारतीय हिंदू व्यापारी प्रायः गुरूद्वारे में या किसी हिंदू के यहाँ ही ठहरते हैं. होटल अच्छा ही है. बिजली और फ़्लश का प्रबंध ज़रूर है. खाना भारतीय और यूरोपियन ढंग का मिला-जुला है. परोसने का ढंग यूरोपियन है. मैंने अफ़गानी ढंग के खाने की माँग की तो बैरे ने लजाकर उत्तर दिया -‘हुजूर, यहाँ सिर्फ़ विलायती खाना बनता है.’
होटल के सब बैरे हिंदुस्तानी बोल लेते हैं. लाहौर, दिल्ली या बंबई ट्रेंड होने का गर्व करते हैं. होटल का मैनेजर हिंदुस्तानी या अँग्रेजी नहीं समझता था. वह पश्तो, फ़ारसी और फ़्रेंच ही जानता था. काबुल में अँग्रेज़ी की अपेक्षा फ़्रेंच का चलन अधिक है. अँग्रेज़ी और जर्मन प्रायः बराबर ही चलती है. कुछ लोग रूसी भी जानते हैं. और इसका कारण यह है कि यहाँ शिक्षा का काम फ़्रेंच, जर्मन, अँग्रेज़ पादरियों द्वारा ही किया गया है. अफ़गान सरकार किसी भी विदेशी शक्ति को अधिक अवसर देने की नीति के विरुद्ध थी. अफ़गान सामंती और रईस परिवार सांस्कृतिक दृष्टि से फ़्रांस को और वैज्ञानिक दृष्टि से जर्मनी को इंग्लैंड की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते थे. भारतीय सीमा से ब्रिटेन के आक्रमण की आशंका बनी रहने से इन्हें उनसे कुछ चिढ़ भी थी.
काबुल दो हैं या कहिए काबुल दो भागों में बँटा हुआ है. एक पुराना काबुल और दूसरा नया काबुल. अमीर या बादशाह के महल शहर से दूर है. काबुल नदी शहर के बीचोंबीच बहती चली गई है. काबुल नदी से काटी गई छोटी-छोटी नहरें या नालियाँ शहर की सड़कों के साथ बहती हैं. यह जल ही काबुल नगर के जीवन का मुख्य आधार है. लोग इन्हीं नालियों में कपड़े और बर्तन धो लेते थे और यही जल पीने के लिए भी ले लेते थे. पगमान से जल लाकर भी कुछ नल लगाए गए हैं. होटल काबुल में यह बताया गया था कि होटल में जल उबालकर और रेत में छानकर दिया जाता है परंतु हमारे पड़ोस के कमरे में ठहरी हुई जर्मन इंजीनियर की पत्नी ने हमें सावधान कर दिया था – ‘मैं सात वर्ष से अफ़गानिस्तान में हूँ. जल के उबालने के विषय में अपनी आँख के अतिरिक्त किसी के कहने का विश्वास न करना.’ हमने जल न पीकर कहवा पीने का ही नियम बना लिया था. अफ़गानी प्रजा के लिए क़ानूनन शराब का निषेध है क्योंकि शराब इस्लाम में हराम है. विदेशी आज्ञा से शराब रख सकते हैं परंतु इस क़ानून के बारे में विशेष सिरदर्दी नहीं की जाती. अफीम, भाँग और गाँजे के प्रयोग का विरोध नहीं है.
1955 जून में नए बने काबुल का कुछ भाग तो रस-बस गया था. शेष तेजी से बन रहा था. इस वर्ष प्रकाशवती फिर काबुल के रास्ते मास्को गई थीं. उनका कहना है कि अब यह भाग पूरा बस गया है और सड़कें भी अच्छी बन गई हैं. पुराने काबुल नगर में बाज़ार और गलियाँ बहुत तंग है जैसी कि हमारे यहाँ किसी पुराने मैले नगर में हो सकती है. आमने-सामने से आते-जाते ताँगों का फँसे बिना निकल जाना संभव नहीं.
काबुल में पुराने रहने वाले हिंदू प्रायः सब हिंदू गूजर (हिंदुओं के लिए शरण स्थान) मुहल्ले में रहते है. सब हिंदू परिवारों के घर एक साथ खूब तंग गलियों में है क्योंकि सब हिंदुओं का एक साथ सिमटकर रहना आवश्यक था. नाक पर रूमाल रखे बिना इन गलियों से गुज़र जाना कठिन है. वह मुहल्ला दूसरे मुहल्लों से साफ समझा जाता है. यहाँ बीच में आँगन छोड़कर चारों ओर कमरे बनाए जाते हैं. मुख्य दरवाजा बहुत छोटा रहता है. आँगन के भीतर की दीवारें और खिड़कियाँ सब लकड़ी की होती है. मकान चाहे तिमंजिला हो बाहर से दीवारें मिट्टी की ही दिखाई देंगी. भीतर चाहे दीवारें और फ़र्श क़ीमती क़ालीनों से ढँके हों पर मकानों का बाहरी रंग-ढंग दीनता सूचक बनाए रखने का प्रयोजन लूट-मार के भय से समृद्धि का प्रदर्शन न करना है.
बहुत से हिंदू परिवार काबुल में मुहम्मद गोरी के समय से बसे हुए है. मुहम्मद गोरी इन लोगों को अफ़गानिस्तान के व्यापार के विकास के लिए साथ ले गया था. यह लोग जब-तब पंजाब में आकर भी शादी-ब्याह कर जाते हैं. अधिकांश में काबुल में ही संबंध हो जाते है. पिछले अढ़ाई-तीन सौ वर्ष में इन हिंदुओं के साथ कोई फिसाद या लूटमार नहीं हुई परंतु आतंक अब भी बना है. स्थानीय ज़बान ये लोग भी अपनी मातृभाषा की तरह ही बोलते हैं परंतु इनके घरों में अब तक पंजाबी बोली जाती है. अधिकांश हिंदू केश और दाढ़ी न रखने पर भी सिख धर्म के अनुयायी हैं और उनके धार्मिक विश्वास बहुत कट्टर हैं. हिंदू गुजर मुहल्ले में दो गु्रुद्वारे और मंदिर भी है. सब हिंदू पंजाबी परिवारों के बच्चे इन गुरुद्वारे में लय से गुरुमुखी रटते रहते हैं और किसी अतिथि के आने पर बहुत लंबी पुकार लगाते है – ‘जो बोले सो निहाल, सत्त सिरी अकाल. वाह गुरुजी का खालसा, वाह गुरुजी की फते!’ व्यापार अधिकांश में हिंदुओं और सिखों के हाथ में हैं. यह लोग केवल काबुल में ही नहीं, गजनी, कंधार और हेरात आदि शहरों में देहात में भी बसे हुए हैं.
किसी समय हिंदू केवल हिंदू गुजर मुहल्ले में ही रह सकते थे और पुराने समय में उनके लिए सदा लाल पगड़ी बाँधने की सरकारी आज्ञा थी. अब यह प्रतिबंध नहीं है. केवल हिंदू नए काबुल के खुले आधुनिक मकानों में भी आ बसे हैं.
काबुल में म्युनिसिपल कमेटी की तरफ से मकानों की गंदगी नगर के बाहर ले जाने की कोई व्यवस्था अब भी नहीं हैं. काबुल में भंगी या मेहतर का पेशा करने वाले लोग साधारणतः है ही नहीं. जो लोग सुविधा या पर्दें के विचार से घर में संडास बना लेते हैं उन्हें दुर्गंध भी सहनी पड़ती है. संड़ास के सूख जाने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं इसलिए प्रायः दुर्गंध बहुत रहती है. इस्लामी सल्तनत में इस गंदगी को समेट लेने वाले जीव सुअर भी नहीं हैं. मार्च में पहाड़ों पर बरफ पिघलने पर झाड़ू और सफाई की ही जाती है. इस सरकारी काम के लिए बेगार ली जाती है. क़ानूनन इस सरकारी बेगार से किसी भी साधारण नागरिक को छूट नहीं है. इस नियम में अमीरी-ग़रीबी और वंश का भी भेद नहीं है. क्रम से जिन लोगों का नाम आ जाय, उन्हें यह काम निबाहना ही पड़ता है. यह नियुक्ति छह मास के लिए होती है. इस काम के लिए एवजी दी जा सकती है. पैसा दे सकने वाले लोग अपनी एवज में कोई आदमी नौकर रखकर सरकार को दे देते हैं.
भारत में पठान और अफ़गान एक ही बात समझी जाती है परंतु यह दो भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं. पठान लोग पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बीच के प्रदेश में बसते हैं. अफ़गानों के रूप रंग पर मंगोल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है. यह लोग स्वभाव से शांतिप्रिय होते हैं. देश में कोई उद्योग-धंधा न होने के कारण आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. व्यवस्था अभी तक सामंती ढंग पर ही है. अफ़गानिस्तान का समुद्री मार्गों से कहीं संबंध नहीं है इसलिए वह अंतर्राष्ट्रीय प्रभावों से और संसार में हो चुके औद्योगिक और सांस्कृतिक विकास से कुछ हद तक अछूता रह गया है. साधारण अफ़गान कहवा रोटी या प्याज रोटी से संतुष्ट हो जाता है परंतु सामंती घरानों का स्तर बहुत ऊँचा है. उनके यहाँ पूर्वी और पश्चिमी दोनों ढंग के बैठकख़ानों का प्रबंध रहता है. एक रईस के यहाँ निमंत्रण पाने में सफलता हुई थी. चाय के साथ केक-पेस्ट्री और आइसक्रीम भी मौजूद थी. अफ़गान सेना के सिपाही को पचास अफगानी रुपये – भारतीय पाँच-छह माहवार और लगभग तीन पाव आटा रोज़ाना के हिसाब से तनख़ाह मिलती है. अच्छी वर्दी कम ही दिखाई देती है.
पेशावरी पठानों और काबुली अफ़गानों के पहरावे-पोशाक और व्यवहार में बहुत अंतर है. कंथार, गजनी के लोग तो पठानों की तरह कुल्हा-पगड़ी, सलवार वगैरा पहने दिखाई देते हैं परंतु काबुल में ऐसी पोशाक बहुत कम नज़र आती है. साधारण स्थिति के लोग प्रायः कोट-पतलून पहने ही दिखाई देते हैं. सिर पर मेमने की खाल की नीची दबी हुई-सी टोपी रहती हैं.
लाहौर के अनेक बाज़ारों में घूमने पर हमें तीन-चार स्त्रियाँ ही दिखाई दी थीं. पेशावर में तो एक भी नहीं. काबुल के बाज़ारों में खासकर नए बसे काबुल में स्त्रियाँ प्रायः ही आती-जाती और बाज़ार करती दिखाई देती हैं. स्कूलों से आती-जाती लड़कियों के झुंड भी दिखाई देते हैं. यह सभी स्त्रियाँ की पोशाक में अर्थात चेहरे पर नक़ाब या पोशाक पर बुरका जरूर था. खुले चेहरे स्त्रियाँ केवल यूरोपियन राजदूतावासों या कभी भारतीय राजदूतावास की ही दिखाई दे सकती हैं. काबुल में बसे हुए हिंदू परिवारों की स्त्रियाँ बिना बुरके के बाहर नहीं जा सकतीं. यदि कोई स्त्री, मुँह उघाड़े खिड़की में कुछ देर खड़ी रहे तो नीचे सड़क पर मेला लग जाएगा. यहाँ के सर्वसाधारण स्त्री को खुले मुँह देखकर विस्मित और उत्तेजित हुए बिना नहीं रह सकते.
प्रकाशवती और मैं एक दुकान पर भारतीय रुपया बदलवा रहे थे. एक काबुली स्त्री फ्रांक पर बुरका पहने आई. सौदे के दाम के विषय में निस्संकोच बहस की. दुकानदार अफ़गान हिंदू था. प्रकाशवती ने उससे कहा – यहाँ तीन दिन में मैंने एक भी अफ़गान स्त्री का चेहरा नहीं देखा. यह तो मालूम हो कि यहाँ की स्त्रियों का चेहरा-मोहरा कैसा होता है. इन्हें मुझसे तो कोई पर्दा नहीं होना चाहिए.
दुकानदार ने प्रकाशवती की बात पश्तो में बुरकापोश अफ़गान स्त्री को समझा दी. स्त्री ने प्रस्ताव किया – बेशक औरत से क्या पर्दा. यह स्त्री आलमारी के पीछे आ जाए मैं इसे अपना चेहरा दिखा दूँगी. इसके पश्चात एक आधुनिक विचार अफ़गान के घर जाने पर उसकी स्त्री और बहिन को बिना बुरके के केवल फ्रांक पहने ही देखा. इस परिवार की लड़कियाँ पेरिस में शिक्षा पाई हुई थीं.
फ्रांक औ बुरके के मेल के रूप में आधुनिकता और रूढ़िवाद के समन्वय का इतिहास संभवतः अमीर अमानुल्ला के अफ़गानिस्तान को अपने हुक़्म से आधुनिक बना सकने के प्रयत्नों में है. अमानुल्ला के लिए ऐसा स्वप्न देखना अस्वाभाविक नहीं था. उसने इतिहास में पीटर महान के रूस को आधुनिक बनाने के प्रयत्नों की कहानी पढ़ी होगी और अपने समकालीन कमालपाशा के टर्की को रूढ़िवाद से मुक्त कर देने के प्रयत्नों की सफलता भी देखी थी परंतु अफ़गानिस्तान की सीमा पर बैठे अँग्रेज़ों को अफ़गानिस्तान की जागृति में अपने साम्राज्य की सत्ता के लिए भय दिखाई दिया. उनकी सहायता से पेशावर का भिश्ती बच्चा सक्का आधुनिक शस्त्रास्त्र लेकर अफ़गानिस्तान में रूढ़िवाद की रक्षा के लिए पहुँच गया. अँग्रेज़ों की कृपा से मुल्लाओं का समर्थन और आशीर्वाद भी बच्चा सक्का को प्राप्त हो गया. बेचारे अमानुल्ला को काबुल छोड़कर भागना पड़ा. सुधार के असफल प्रयत्नों के फलस्वरूप काबुल में स्त्री शिक्षा तो भाग गई, पोशाक बदल गई परंतु सुधार को सह्य बनाने के लिए बुर्के की आड़ भी लेनी पड़ी.
यह बात नहीं कि पर्दें और दूसरी रूढ़ियों के ज़बरदस्ती लादने के कारण शिक्षित वर्ग में असंतोष न हो. असंतोष तो है परंतु मुल्लाओं का ज़ोर अभी बहुत है. क्रांति की भावना की सफलता के लिए परिस्थितियों की भी आवश्यकता होती है. यहाँ के लोग इस सांस्कृतिक दमन को अनुभव कर रहे हैं. उन्हें आशा भी है कि रूढ़िवाद का यह दौर-दौरा दो-चार बरस का ही मेहमान हैं. लोग सामंतवादी व्यवस्था नहीं, औद्योगिक विकास की आवश्यकता को भी अनुभव कर रहे हैं. यह सब चेतना अंतर्राष्ट्रीय प्रभावों के मेल से निकट भविष्य में क्या रूप लेती है, यह समय ही बताएगा.
(जून 1955)
आवरण फ़ोटो | विकीमीडिया कॉमन्स
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