ज़ायक़ा | महुए की महक के बीच अम्मा की रसोई की याद

लॉकडाउन के इस एकांत दौर में सब लोग अपनी-अपनी कला के साथ सोशल मीडिया के माध्यमों पर अवतरित हो रहे हैं. कोई गाना गा रहा है, तो कोई कोरोना से लड़ने के लिए गीत लिख रहा है, किसी ने कविता वाचन शुरू कर दिया है. कुछ मानिंद लोग सीधे लाईव होकर घर तक दस्तक दे रहे हैं, क्योंकि बाज़ार बंद हैं, ज़ोमैटो, स्विगी जैसों के डिलीवरी ब्वॉय ग़ायब हैं इसलिए घर में नई-नई रेसिपी के साथ तरह-तरह के प्रयोग भी हो रहे हैं. मज़ेदार बात यह है कि प्रयोग किसी भी क्षेत्र में किए जा रहे हों – गाने-बजाने, नाटक, नृत्य, कविता, कहानी, संवाद, सामाजिकता, खान-पान, पकवान हर प्रयोग के अनुभव, परिणाम आपके सामने होते हैं. लाइक और कमेंट के रास्तों से गुज़रता हुआ यह कारवां दिनों-दिन उन्नति की तरफ़ जा रहा है.

घर का खाना, घर जैसा स्वाद, घर की तरह के सुखद अहसास देने वाले बहुत से स्लोगन होटलों, रेस्तरां, भोजनालयों पर लिखे होते हैं, जो बार-बार याद दिलाते हैं कि हम जब भी बाहर का ज़ायक़ा लेते हैं तो उसके अच्छा या स्वादिष्ट होने का पैमाना घर का स्वाद ही होता है. घर का खाना यानी हमारे बचपन के दिनों के तमाम स्वाद जो अम्मा, दादी, नानी के हाथों से होते हुए हम तक आए हैं.

दादी, अम्मा की पीढ़ियों के बीच से स्वाद की बहती हुई यह नदी अपने तटबंधों पर बहुत कुछ छोड़ कर आगे बढ़ जाती है. फास्ट फूड, जंक फूड, ईट-ऑन, रेडी-टू-ईट के पहिये पर चढ़ता स्वाद कहीं भी पहुंच गया हो, पर हर अच्छे स्वाद के बाद हमें यह तो कहना ही पड़ता है,“बिल्कुल घर जैसा बना है”. उसी घरेलू स्वाद की तलाश में आज अम्मा की रसोई से कुछ यादगार ज़ायके साझा कर रहा हूं.

“रति रस चुए महुआ की डारि”; राजेंद्र मिश्र ‘अभिराज’ के किसी गीत की यह पंक्ति कानों में युवावस्था से ही रस घोलती रही है. यह मई-जून का महीना है, महुए के बाग़ों से निकलने वाली ख़ुशबू मन में न जाने कहां से भर गई है. छतरपुर से खजुराहो के रास्ते में हूं. गांव के बीच से निकलते हुए, महुए के पेड़ों से उठती मीठी महक बार-बार महुआ से बनने वाले तमाम पकवानों केे मेन्यू की याद दिला रही है. कार की रफ़्तार जितनी तेज़ है, उतनी ही तेज़ है यादों की वापसी.

गर्मी के दिनों में महुए की शुरुआत के साथ कई तरह की रेसिपी अमल में आने लगती. महुआ के फल आते ही सुबह-सुबह उसके बीनने का काम शुरू हो जाता था. घर के आंगन से लेकर बाग़ तक, दूर-दूर तक महुए की मीठी-मीठी महक भर जाती थी और यहीं से शुरू होता था महुए की बेटी से मोहब्बत का सिलसिला. किस पेड़ के महुए की कितनी मिठास है, और मिठौउआ है और तितरह्वा, अम्मा को हर पेड़ की टेक्सोनामी से लेकर फिजियोलॉजी तक पता थी. सबसे पहले मीठे महुआ के रस को अच्छी तरह से निचोड़-निचोड़ कर निकाला जाता था. तब मिक्सर-ग्राइंडर तो होता नहीं था, इसलिए यह काम भी अपने-अपने तरीक़े से किया जाता. आटे को भूनकर चीनी की जगह इस रस का प्रयोग अम्मा लप्सी बनाने के लिए करती थी. महुआ के रस को आटे में सानकर मीठा पुआ, गुलगुला यानी मीठी पकौड़ी भी इसी दौर में परोसा जाता. कच्ची घानी के तेल में बने यह पकवान बरसात की रिमझिम को और मादक बना दिया करते थे. घर के बाहर दालानों में बैठे लोगों तक तैर कर यह जायक़ा पहुंच जाया करता था. कितने युग बीत गए, इन निधियों का संचय करते, और आज जब लिख रहा हूं तब भी यह ज़ायक़ा ज्यों का त्यों मन को तरोताज़ा कर रहा है.

आमतौर पर महुए को खूब अच्छी तरह से सुखाकर बड़े-बड़े बर्तनों में बंद कर के रख दिया जाता था. पहली बरसात के बाद इसी महुए को फूल या कांसे के बर्तनों में धीमी आंच पर पकाया जाता था. शाम का नाश्ता पका महुआ और दूध के साथ महुए को मिलाकर रेडीमेड फास्ट फ़ूड की तरह परोसा जाता था. घर के बुज़ुर्ग लोग इसको अधिक सुपाच्य बनाने के लिए दूध की जगह मट्ठा या दही के साथ लेते थे. सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं होता था, महुए को सुखाकर मिट्टी के बर्तन में भूनकर उसे अच्छी तरह से भुने हुए तिल के साथ ओखल में अच्छे से कूटा जाता. इस सोंधेपन के स्वाद का उपयोग कभी-कभार किया जाता था. जिसको लाटा के नाम से मेन्यू में शामिल किया गया है.

अभी महुए की विदाई का वक्त नहीं आया था. महुआ के बीज को कोवा कहा जाता है. उसी कोवे पर हरे रंग का खोल रहता था. कोवे का तेल तो बहुत उपयोगी था ही, कहा जाता था कि नहाने का अच्छा वाला साबुन हमाम और जय बनाने के लिए इसी कोए के तेल का प्रयोग किया जाता था. यह बात भी अम्मा के सूत्रों से ही पता चली है, मैं आज भी इस ख़बर की पुष्टि करने की स्थिति में नहीं हूं. बात हो रही थी, कोवे के छिलके की, इस हरे छिलके को निकालकर बेसन में लपेटकर बरसात में पकौड़ी बना कर अम्मा ने कई बार खिलाया है. वह ऐसा व्यंजन था, जिसमें महुआ अपने वास्तविक स्वरूप मीठे से नमकीन बन जाता.

यह तो रहे अम्मा की रसोई से निकले महुए के उन तमाम स्वादिष्ट ज़ायके का ब्योरा, जो अब सिर्फ डॉक्यूमेंटेशन या बच्चों को क़िस्से की तरह सुनाने के काम आ रहा है. हम लोगों के लिए बचपन वाला महुआ तो डीबीटी यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर हुआ करता था. महुए के बाग से सूखे बचे हुए महुए को बीनकर आइसक्रीम से लेकर कोई भी वस्तु एक्सचेंज ऑफर में पाने का सबसे आसान तरीक़ा हुआ करता था.

हमारी मोटर मध्य प्रदेश सरकार के टूरिस्ट विलेज में आकर रूकती है. ड्राइवर कहता है ‘सर’ हम लोग आ गए. झोपड़ीनुमा इस गेस्ट हाउस में भी महुए के कई पेड़ हैं. पर उनको पकाने, बनाने वाले हाथ अब किसी होटल में नहीं मिलते. क्योंकि सुना है कि महुआ अब लहना हो गया है, जिससे देशी शराब बनती है और एफडीआई के दौर में मदिरा बनाने की यह आत्मनिर्भरता क़ानूनन अपराध है.

किसी भी रेस्तरां में खाने के बाद वेटर अक्सर एक फ़ीडबैक फ़ॉर्म लेकर खाने के बारे में आपकी राय लेता है. आज जब अम्मा की रसोई से बने तमाम देसी व्यंजनों की याद कर रहा हूं तो लगता है उस फ़ीडबैक फ़ॉर्म पर अपने दस्तख़त करके इन सभी स्वादों की ताक़ीद कर रहा हूं.

(लेखक लोक कलाओं के अध्येता हैं. एनसीज़ेडसीसी और नेहरू युवा केंद्र से लंबे समय तक संबंद्ध रहे हैं.)


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