बदायूं | ख़ामोश रहकर बोलता हुआ शहर

  • 1:07 pm
  • 21 October 2025

बात 70 के दशक के बदायूं की है. शहर में सन् 73 से 79 तक रहना हुआ और दर्जा तीन से आठवीं तक की पढ़ाई भी वहीं की. पहले सिविल लाइंस स्थित बाल निकेतन और फिर बड़े बाज़ार से घंटाघर के दरमियान उस वक़्त की सदर तहसील के सामने का मिशन हायर सेकेंड्री स्कूल. उस दौर के मशहूर घराने डॉ.रायजादा की कोठी से सटी रामनाथ कॉलोनी से रोज़ स्कूल की आवाजाही ने अपनी अक़्ल से शहर को देखने-समझने का मौक़ा दिया. छठी से आठवीं तक पढ़ाई के बीच साइकिल हाथ आ गई. इससे लगे पंख ने सिविल लाइंस से मोहल्ला टिकटगंज के दादेलाही मकान तक साइकिलिंग की आजादी दिलाई तो गाहे-बगाहे उन गलियों, चौक-चौराहों तक सैर की ख़्वाहिश भी पूरी होने लगी, जो रुटीन रास्ते का हिस्सा नहीं थे लेकिन दिलचस्पी थी कि आख़िर यह रास्ता कहां ले जाता है.

कॉलेजों की बड़ी फ़ील्ड के अलावा गांधी ग्राउंड, नगर पालिका दफ्तर के सामने का मैदान उस वक्त में बदायूं के ऐसे खुले और बड़े परिसर थे, जहां रामलीला मंचन, मेले-नुमाइश, कवि सम्मेलन जैसे आयोजन होते थे. हर स्तर के शहरियों के मनोरंजन का बड़ा और स्तरीय माध्यम सिनेमाघर थे. तब कैलाश टॉक़ीज, प्रकाश सिनेमा हॉल, संगीता टॉक़ीज (जो बाद में अनुराग थिएटर हो गया), यही तीन सिनेमा हॉल थे. बड़े लोगों में शुमार डॉ.रायजादा परिवार के बताए जाने वाले कैलाश टॉक़ीज की झक सफ़ेद इमारत और वास्तुकला हर किसी का ध्यान खींचती थी. साथ ही टॉकीज के भीतर उर्द की दाल से तैयार होने वाले करारे मंगौड़े और हरी चटनी ऐसी मुंह लगी थी कि कई घरों और दुकानों पर शाम की चाय के साथ उन्हें स्तरीय स्नैक्स की तरह प्लेट में सजाया जाता था. सिनेमा में चार रुपये का बालकनी का टिकट तब रईसी दिखाने का ज़रिया बनता था. स्कूल में साथियों के बीच पुराने हो चुके इस टिकट का बाक़ायदा प्रदर्शन भी होता था.

तब का जीवन तसल्ली का था. यही वजह है कि साल गुज़र गए लेकिन बदायूं शहर की तमाम यादें अब भी ताज़ा हैं. लोकल पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर रिक्शे की सवारी आम थी. शहर से नज़दीकी गांवों तक तांगों से जुड़े घोड़ों की टापें भी खूब सुनाई देती थीं. ये तांगे बोझ से ज्यादा सवारियां ढोते थे. बदायूं से कुंवरगांव और सिलहरी तक इक्के की सेवा बसों की तरह टाइम बाउंड थी. उस समय के बदायूं की सड़कों की चौड़ाई और नालों की सफाई तसल्लीबख्श थी. या यूं कहें कि मोटर-कारें कम होने से सड़कें ठीकठाक चौड़ी लगती थीं.

बदायूं के यादों में बसने का बड़ा कारण वहां की सड़कें भी हैं. कहीं सड़कों के नाम ध्यान खींचते थे तो कहीं उनकी कोई और खासियत. काली सड़क, चक्कर वाली सड़क सुनकर पहले सिर चकराता था. फिर जानकारों ने बताया कि वर्षों पहले शहर की ज्यादातर सड़कें कंकड़ की थी. यही एक सड़क तारकोल की थी, जो औरों के मुकाबले ज्यादा स्याह थी, सो इसका नाम ही काली सड़क पड़ गया. चक्कर वाली सड़क तब की रिंग रोड थी, जो बाहर ही बाहर से शहर का पूरा राउंड लगवा देती थी.

इसी तरह सबसे अहम छह सड़का. चौराहे तो सभी शहरों में होते हैं, जहां से चार रास्ते इधर से उधर ले जाते हैं. बदायूं का छह सड़का अलग-अलग दिशा में ले जाने वाले छह रास्तों का जंक्शन था. छह सड़का के चौक (सेंटर प्वाइंट) से आमने-सामने के प्रमुख रास्तों में से एक बड़ा बाजार, घंटाघर, कोतवाली, जामा मस्जिद, मोहल्ला सोता की ओर ले जाता था तो चौक से विपरीत दिशा का रास्ता गांधी ग्राउंड, सिविल लाइंस से लेकर रेलवे स्टेशन तक का लंबा सफर करा सकता था. इन दो प्रमुख सड़कों पर ही तब के नामचीन ब्रांड की दुकानें थीं. फ़िलिप्स, मरफ़ी, सिन्नी, हाजी सखावत हुसैन की विशाल बिल्डिंग में साइकिल का बड़ा कारोबार, ध्यान खींचने वाला बड़ा-सा फोटो स्टूडियो (शायद तोताराम एंड संस संचालक थे).

छह सड़का की एक अन्य सड़क भी थोड़ा घुमाकर सिविल लाइंस, जिला अस्पताल, कचहरी तक पहुंचाती थी. इसी रोड पर बैंड मास्टरों की दुकानें थीं. उस दौर के मशहूर मोहम्मद हुसैन बैंड वाले भी वहीं थे . एक और सड़क नगर पालिका दफ्तर तथा सिनेमा हाल (प्रकाश टॉकीज) की राह तय कराती थी. छह सड़का की एक सड़क पर गर्मागर्म कबाबों की खुशबू बिखरी रहती थी. पुराने बाजार को छूते हुए यह सड़क उस पुलिस चौकी (शायद मालवीय नगर चौकी) तक पहुंचाती थी, जिसे पुरानी कोतवाली भी कहा जाता है. इसकी बनावट और विशालता भी कभी यहां सदर कोतवाली होने की चर्चा को मजबूती देती थी. छठी सड़क पर आगे बढ़ने से उस दौर के बिजलीघर और मिठाइयों के राजा पेड़ों के लिए पहचाने जाने वाले मम्मन खां की दुकान तक का रास्ता तय होता था. तब ज्यादातर लोग वहां के चौराहे को मम्मन चौक ही बोला करते थे, जो धीरे-धीरे सुभाष चौक बन गया. चौक पर लगी नेता जी बोस की प्रतिमा ने इसे बाकायदे सुभाष चौक के रूप में स्थापित कर दिया.

    बदायूं का घंटाघर

बदायूं की सड़कों की एक और ख़ूबी भी दिमाग़ से नहीं निकल पाती. सड़कों की बनावट और आबादी की बसावट देखें तो चढ़ाई और ढाल के लिहाज़ से उस दौर का शहर तीन टियर में नजर आता था. सुभाष चौक/मम्मन चौक से पुराने बाजार की तरफ़ बढ़ने पर हल्की चढ़ाई थी. पुराने बाजार के अंतिम सिरे और सराफा बाजार तक पहुंचने पर यह चढ़ाई और तीखी हो जाती थी. इसके बाद शास्त्री चौक से हलवाई चौक तक यही सड़क और सामान्य रोड थी लेकिन थोड़ा आगे मढ़ई चौक पर और यही सड़क और खड़ी शक्ल में नजर आती थी. इससे आगे मढ़ई चौक के टॉप या कोतवाली की मेन रोड पर आने के समय यही सड़क और ऊंची हो जाती थी. यही वजह थी कि उस दौर में रिक्शा चालक इस सफर को पूरा कराने में तब 50 पैसे लेते थे जबकि मढ़ई चौक से सुभाष चौक वापसी की इस दूरी को तय कराने में ढाल का साथ मिलने पर महज 40 पैसे (जो उस वक्त रिक्शे का सामान्य मेहनताना था) में रज़ामंद हो जाते थे. लगभग इसी तरह की दरें घंटाघर और तहसील या बड़े बाज़ार की दूरी के रिक्शे के सफ़र की थीं. साइकिल के उस जमाने में मढ़ई चौक या घंटाघर से शहर की ओर वापसी बहुत आसान लगती थी. इसमें साइकिल के पैडल से ज्यादा ब्रेक पर ध्यान रहता था. बिना श्रम साइकिल सरपट दौड़ती थी.

सड़कों का यह हुलिया रिक्शा-साइकिल वालों को एकतरफ़ से चुनौती तो दूसरी तरफ़ से सहूलियत देता था. साथ ही इसमें बदायूं को योजनाबद्ध ढंग से बसाने की ऐतिहासिकता का अहसास भी था. बुज़ुर्ग बताते हैं कि मौजूदा सदर कोतवाली कभी राजा महिपाल का क़िला था. कोतवाली से सटा सरकारी कॉलेज भी किले का हिस्सा था. किलेबंदी और सुरक्षा के लिहाज से राजा साहब का आवास शहर में सबसे ऊंचाई पर तामीर कराया गया था. आसपास खाई जैसे बंदोबस्त के कारण तुलनात्मक तौर पर निचला तल (टियर) और उससे आगे बढ़ने पर और ढलान शहर में देखने को मिलते थे. तल का ऐसा अंतर कि जहां चूना मंडी के मकान की छत होती थी, वहां कोतवाली के आसपास वाले घरों की बुनियाद. राजा महिपाल के किले (वर्तमान कोतवाली) से थोड़ी सी ही दूरी पर घंटाघर की मौजूदगी भी इस एरिया के शहर की सबसे ऊंचाई पर होने का प्रमाण है. आमतौर पर प्राचीन घंटाघर शहर के सबसे ऊंचे हिस्से में होते थे, ताकि दूर से भी घड़ी नज़र आ सके. घंटाघर का मुगलकालीन शिल्प भी शहर के इतिहास से गहरे रिश्ते की गवाही देता था.

बदायूं में सड़कों से जुड़ा एक और रोचक पहलू है. वह है इस शहर को बसाने और संवारने वालों ने तब ही आउटर रिंगरोड और बाईपास जैसे इंतजामों को समझ लिया था. ध्यान से देखें तो बदायूं में चक्कर की सडक उस वक्त की आउटर रिंग रोड थी. बदायूं शहर में चाहें बरेली से दाखिल हों या मुरादाबाद की तरफ़ से, खेड़ा नवादा से घनी आबादी में दाखिल हुए बिना बाहर से ही बाहर का रास्ता पकड़ा जा सकता था. सागरताल (प्राचीन विशाल और गहरी झील) के पास से बुरुआबाड़ी मंदिर होते हुए कोतवाली के आगे से निकलने वाली सड़क उझानी के रास्ते तक पहुंचा देती थी. इसी तरह खेड़ा नवादा से ही हरिप्रसाद के मंदिर से पुरानी चुंगी-नगला मंदिर रोड-असरार का चौराहा पार करके जिला जेल के पास की सड़क का एक सिरा उझानी की ओर तो दूसरा ककराला-अलापुर की ओर ले जाता था. इसी सड़क के रास्ते में नगला मंदिर के पास नजर आने वाली राजशाही के दौर की ककइया ईंट से तामीर काफी ऊंची इमारत, जिसे शहर की निगरानी के लिए पुरातन काल में बनाई गई चौकी और चुंगी कहा जाता था…से भी पता चलता था कि शहर का इतिहास और वास्तु समृद्ध रहा था. ऐसी ही एक चुंगी पुराने हरिप्रसाद मंदिर से शहर की ओर बढ़ने पर बाईं तरफ़ नजर आती थी. देखते-देखते ये प्राचीन भवन खंडहर में तब्दील हुए. बरसातें झेलते-झेलते इनके गुंबद-मेहराबें-कंगूरे ढहे और फिर भवन का काफ़ी हिस्सा भी. इसी तरह शहर की आबादी में मौजूद इलियास ख़ाँ का रौज़ा भी प्राचीन व ऐतिहासक भवन है. इसकी आकृति-प्रकृति भी मुगलकाल की इमारतों की याद दिलाती है.

बदायूं को समझने और कहने के लिए बहुत कुछ है. वहां की बोली, कबाब से लेकर पेड़े, मावे से भरी रेवड़ी, चाणक्य की गुझिया, सियाराम की चाट और नमकीन, उमाशंकर की लस्सी जैसी खाने-पीने की कई चीज़ें थीं. इतिहास-साहित्य-अदबी मंच से फ़िल्मी दुनिया में दख़ल रखने वाली शख़्सियतें भी बदायूं से जुड़ी हुई हैं, बच्चन जी की-क्या भूलूं, क्या याद करूं…को याद करके अपने यादों के झरोखे का परदा गिराना ही बेहतर.

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