यादों में शहर | उदयपुर की डायरी

  • 11:17 pm
  • 26 April 2020

राजस्थान के ख़ूबसूरत शहरों में से एक है – उदयपुर. अक्सर लेक पैलेस, सिटी पैलेस और महाराजा अरविंद सिंह मेवाड़ की ग्लॉसी तस्वीरों से ही पहचाना जाने वाला यह शहर अपनी प्राकृतिक विविधता, लोगों की ज़िन्दादिली और लोक जीवन की शैली के चलते अनूठा और बेजोड़ है. जिन दिनों कुम्भ पर अपनी तस्वीरों की प्रदर्शनी लेकर वहां गया, शहर में ख़ूब हलचल के दिन थे. दुनिया भर से सैलानियों के जमाव के दिन, रवीना टण्डन के ब्याह के दिन, चित्रकार शैल चोयल की तस्वीरों को लेकर कट्टरपंथियों के बवाल के दिन और इन सबके बीच गुज़रे मेरे प्रवास के दस दिन. डायरी लिखने की आदत जाने कभी की छूट गई है मगर उदयपुर में रहते हुए हर रोज़ लगता कि डायरी लिखनी चाहिए. फिर लगता कि इस चक्कर में शहर को जानने- महसूस करने से चूक जाऊंगा. सो वहां लिखना मुल्तवी ही रखा, लौटने पर यही लिख सका. गो यह तरतीब से नहीं है.

चेतक एक्सप्रेस वाले चचा टंडन

आंख-कान खुले रखने का अख़बारनवीसी का मंत्र दिलोदिमाग़ पर इस क़दर हावी रहता है कि दफ़्तर के बाहर, घर में या फिर घूमने-फिरने के दौरान भी इससे पीछा नहीं छूटता. सफ़र के दौरान अक्सर ऐसे मौके आ जाते हैं कि बरबस ही ‘बटर चिकन इन लुधियाना’ की याद आ जाती है. नई दिल्ली स्टेशन पर उतरकर कुछ घंटे बाद सराय रोहिल्ला से उदयपुर वाली ट्रेन पकड़ने के तनाव से मुक्ति तभी मिल पाई जब ट्रेन में सवार हो गया. अपना सामान अभी जमा ही रहा था कि सामने की बर्थ से सवाल आया, आप पुलिस में हैं क्या? पहले तो उनके सवाल का मतलब पल्ले नहीं पड़ा. फिर याद पड़ा कि मुझे छोड़ने के लिए मेरे दोस्त ने जिन कारकून को भेजा था, वह महकमा-ए-जंगलात के बावर्दी ड्राइवर थे. और ख़ाकी रंग से मुतासिर उन हजरत के सवाल की वजह यही थी.

सुबह ही पुस्तक मेले से धर्मवीर भारती के लेखों का संग्रह ‘कहनी अनकहनी’ ख़रीदा था. उसे निकालकर बर्थ पर रखने के बाद मैं झुककर बैग नीचे रखने लगा. उठा तो देखा कि किताब मेरी बर्थ से उछलकर बुजुर्ग के हाथों में चली गई है, कुछ पन्ने सरसराए और किताब वापस अपनी जगह पर लौट आई. बुज़ुर्ग ख़ासे बेतकल्लुफ़ और वाचाल भी निकले. मैंने किताब उठाई ही थी कि फिर सवाल आया, ‘हिन्दी का कोई ऐसा क्लासिक बताइए, जिसका अब तक अंग्रेज़ी में अनुवाद न हुआ हो.’ ‘जी, ज़रूर..सोचकर बताता हूं,’ फ़ौरी तौर पर उन्हें टालने के लिए मैंने जल्दी से हामी भर ली. इस बीच ऊपर की बर्थ वाली युवती अपना सामान समेटकर कूपे से बाहर निकल गई. बुज़ुर्ग के लगातार बोलने से शायद उसके चिंतन में विध्न पड़ रहा था. कुछ देर बाद छह फ़ीट का एक नौजवान बड़े से सूटकेस और एयरबैग के साथ कूपे में दाख़िल हुआ. बुज़ुर्ग अब तक मेरी सुझाई हुई तमाम किताबों को ख़ारिज कर चुके थे और चूंकि रोमिंग पर होने का हवाला देकर मैंने अपने मोबाइल से उन्हें फ़ोन करने को मना दिया था, तो वह उसका मलाल लिए ख़ामोश लेटे थे. आगन्तुक मुझसे बेहतर सहयात्री होगा, इस ख्याल से उन्होंने सिलसिला शुरू किया. वह स्पेनिश युवक डाटाबेस कम्पनी की मुलाज़मत छोड़कर शेफ हो चुका था और रिलेक्स करने के इरादे से हिन्दुस्तान की यात्रा पर था. अब किसी ट्रेवल गाइड में चचा टंडन जैसी शख़्सियत का कोई ज़िक्र तो मिलता नहीं सो पता नहीं कि जयपुर तक के इस सफ़र में उसने कितना रिलेक्स्ड महसूस किया होगा. इधर चचा ने उससे स्पेनिश के कई शब्दों पर बातचीत की, देश के कुछ बेहतर पर्यटक स्थलों के नाम बताए और योग सीखने की बात आते ही उसे ऋषिकेश जाने का मशविरा भी दे डाला.

बतकही थमी तो वह कुछ सोचने लगा था और ख़ुद चचा ने अपने बैग से काले रंग की एक पट्टी निकालकर सिर पर बांध ली. फिर एक डिब्बा निकालकर बॉयोकेमिक दवाओं की तमाम शीशियां उलटने-पलटने लगे. किसी ने ग़ौर नहीं किया तो पहल ख़ुद उन्होंने की. स्पेनी युवक को लक्ष्य करके बोले, ‘यू विल बी सरप्राइज़्ड व्हॉट आय एम लुकिंग फॉर. एक्युअली आय एम लुकिंग फॉर मेडिसिन. हैविंग सीवियर हेडएक. डु यू हैव ऐनी मेडिसिन.’ ‘लेट मी चेक’ कहता हुआ वह उठा और अपने एयरबैग में से एक बड़ी पॉलीथिन से दवाएं निकालकर खोजने लगा. चचा ने दरयाफ़्त किया कि क्या दवाएं स्पेनी हैं. उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाते हुए बताया कि ये सब उसके चाचा ने जुटाकर रखी हैं और सब पर बीमारी के लक्षण भी लिखे हैं. ख़ैर, काग़ज़ के एक बॉक्स से दवाओं का एक पत्ता निकाला, फिर कैंची और उसमें से एक कैप्सूल कतरकर उन्हें पकड़ा दिया. दवा खाकर चचा फिर लेट गए. दस मिनट बाद उन्हें जैसे याद आया हो, अपने सिर की ओर इशारा करके उससे बोले, ‘ थैंक यू फॉर दिस. वेरी इफ़ेक्टिव. व्हॉट इज़ द नेम ऑफ दिस मेडिसिन.’ दवा का नाम जानने का उनका इसरार और बेक़रारी कुछ इस तरह की थी जैसे अगले स्टेशन पर उतरकर मैंड्रिड की फ़्लाइट पकड़कर निकल ही लेंगे दवा लाने. जीवन में तजुर्बा बड़ी चीज़ होता हैं. वह युवक फिर अपनी सीट से उठा, दवा खोजकर इस बार उसने पाँच कैप्सूल और निकाले, चचा की तरफ़ बढ़ाकर कहा, ‘यू कीप दिस एण्ड हेल्प योरसेल्फ.’ इत्मीनान से दवा अपनी जेब के हवाले करके वह सो गए. वह तो जयपुर में उतर गया मगर रात को खाना खाने के बाद अश्वगंधा चूर्ण फाँकते हुए उन्होंने मुझे उसके औषधीय महत्व, अपने चमत्कारी अनुभव, देश में उसकी उपलब्धता, दाम और देश के लोगों की अज्ञानता पर एक लम्बा भाषण दिया. मेरे पास उस युवती की तरह कोई और विकल्प नहीं था.

छप छप के बीच धप धप

झीलों और पार्कों के शहर में वह पहली सुबह थी. सब कुछ नया-नया और अनचीन्हा सा, सिवाय दूर दिखाई पड़ते लेक पैलेस के. पोस्टरों-किताबों की मार्फ़त पहचान का एकमात्र सूत्र. गेस्ट हाउस में ऊपर के कमरे की खिड़की के सामने पिछोला झील का विस्तार मगर वैसा आकर्षक नहीं दिखाई देता है, जैसा कि तस्वीरों में लगा किया. झील के एक बड़े हिस्से में फैले जलकुंभी के गझिन जाल को खींचने की कोशिश में लगे दर्जनों हाथ और कुछ दूर से आता मगर स्पष्ट थप-थप का कोरस.

दिल्ली से चलते वक्त अजय भाई ने बताया था कि सुबह की रोशनी में नहाती महिलाओं के वस्त्र झील में कमल के पत्तों की तरह लगते हैं, कपड़े वहीं धोती भी हैं. उसी वक्त आशा भाभी ने उन्हें टोका कि वह चालीस साल पुरानी बात है, अब वैसा ही थोड़े रह गया होगा. मगर इस मायने में समय यहां शायद थम गया हैं. बाहर आकर गणगौर घाट की ओर बढ़ा ही था कि बड़े से टब में धुले कपड़े सिर पर रखे आती दो महिलाएं मिली. त्रिपोलिया तक पहुंचकर आवाज़ तेज़ हो गई और तस्वीर स्पष्ट. घाट की सीढ़ियों में सबसे आख़िरी सीढ़ी पर पूरी लम्बाई में बड़ी-बूढ़ियां, युवतियां बड़े जतन से कपड़े पीट रही थीं, सामने की ओर नहा भी रही थीं. ये सीढ़ियां सिर्फ़ स्त्रियों के लिए, दूसरी तरफ मर्द-लड़के नहाते-धोते मिले. मंदिरों की क़तार और आसपास विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा. उनके कैमरों का रुख़ पानी की छप-छप की ओर और दिखने में इस सबसे बेख़बर मगर बड़े जतन से ओट करता स्त्रियों का समूह. यहीं बागोर की हवेली है, पास ही सिटी पैलेस. आसपास की बस्ती के घरों में नल ज़रूर हैं मगर पानी नदारद. सो थप-थप का यह सिलसिला अलस्सुबह से शुरू होकर दिन ढलने तक चलता ही रहता है.

फतेह सागर किनारे को शाम

मुंबई का मरीन ड्राइव अपनी जगह, मगर फतेह सागर की पाल उदयपुर वालों के लिए इससे कहीं बढ़कर है. शाम होते-होते मोटरों की क़तारें लग जातीं और जगह-जगह अड्डे. बुज़ुर्गों के क्लब की बैठकी की जगह मुस्तक़िल है, बाक़ी को जहाँ जगह मिल जाए. फतेह सागर के किनारे की पूरी सड़क लाँग ड्राइव के शौक़ीनों के लिए मुफ़ीद और आसपास के खान-पान के ठिकाने आउटिंग के लिए. चित्रकार और मित्र हेमंत द्विवेदी उस शाम हमसफ़र थे. हम लोग पहुंचे तो सूरज डूब चुका था. एक के पीछे एक क़रीने से सिर उठाए खड़ी पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में फतेह सागर के पानी का रंग गहराने लगा था और आसमान पर न जाने कहां से उड़कर आ गए बादलों का रंग सुरमई के बजाय गुलाबी हो गया. दूर सबसे ऊंची चोटी पर चमक रहा था – मानसून पैलेस यानी सज्जनगढ़ का किला. पानी को छूकर आती हवाओं से अच्छा ख़ासा नशा हो रहा था. हेमंत द्विवेदी ने बताया कि पिछले आठ साल से उदयपुर में बारिश नहीं हुई, सो फतेह सागर में पानी नहीं रहा वरना यह भी होता कि तेज़ हवा चलती तो सड़क चलते पांव भीग जाते. जो पानी हैं वह भी इसलिए कि ऊपर के तमाम तालाबों का पानी खींचकर यहां लाया गया है. वह बताते रहे कि इतवार को वहां कितनी भीड़ होती है. कई बार बैठने की जगह नहीं मिलती और मेरा दिमाग़ वर्षों से बिना बारिश के गुज़र कर रहे लोगों के चेहरों में उलझा हुआ था. याद आए बाहर के इलाक़ों के खेत जहां गेहूं की हरी बालियों के बीच पीलेपन की क़तारें भी थीं. पत्थरों की दीवार से टकराकर रस्सी के सहारे नीचे उतरती बाल्टी की झनझनाहट कानों में गूंजती रही. ‘भारत उदय’ के विज्ञापनों के मुस्कराते चेहरों से ओवरलैप होते इन चेहरों के रंग खेत की मिट्टी की तरह लगे, और उसी तरह निस्तेज भी.

शहर बाराती

बागौर की हवेली के सबसे ऊंचे टेरेस से सुबह का नज़ारा देख रहा था. सवेरे की ख़ामोशी में यह लेण्डस्कैप और सम्मोहक लग रहा था. अचानक एयरक्राफ़्ट की आवाज़ से इसमें ख़लल पड़ा. आसमान की ओर देखा तो काफी नीचे उड़ता दिखाई दिया. शायद माइक्रोलाइट था. बहुत दूर नहीं गया, झील के ऊपर गोलाई में एक चक्कर लगाकर फिर लौटा. पूछा तो पता चला – महाराज का जहाज है. महाराज यानी श्री जी हुजूर अरविन्द सिंह मेवाड़. सिटी पैलेस, लेक पैलेस, शिव निवास पैलेस शहर की कई भव्य और मशहूर इमारतें महाराज की मिल्कियत हैं, एचआरएच ग्रुप ऑफ होटल्स का हिस्सा भी. उन्हीं में से एक शिव निवास पैलेस में सिने अभिनेत्री रवीना टंडन अपने परिवार और होने वाले दूल्हा अनिल थडाणी के साथ ठहरी हैं. उसी रोज़ शाम को उनका ब्याह होना था. सिटी पैलेस (कभी जग निवास) के पार्श्व में झील में ही है – जग मंदिर, जहां ब्याह की रस्म होनी है. मालूम नहीं माइक्रोलाइट की वह उड़ान दिनचर्या का हिस्सा थी या फिर सुरक्षा इंतजामों का जायज़ा, मगर सुरक्षा के इंतज़ाम की मज़बूती का अंदाज़ा वहां के अख़बारों की ख़बरों से ज़रूर लगता था.

लोकल अख़बारनवीसों के साथ लगभग सभी टेलीविज़न चैनलों के संवाददाता रवीना का ब्याह कवर करने उदयपुर पहुँचे थे. हवाई यात्रा की सहूलियत हो तो चैनल वाले कम ही पिछड़ते हैं. एक दिन पहले रवीना सभी को यह कहकर पल्ला झाड़ चुकी थीं कि यह आयोजन नितांत व्यक्तिगत हैं, फिर भी दोस्तों ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. होटल के शेफ़, ईवेंट मैनेजर और डिज़ाइनर समेत कई लोगों के इंटरव्यू कर चुके थे और झील के आसपास डटे हुए थे कि शायद नाव में आते-जाते दूल्हा-दुल्हन या फिर बारातियों, जिनमें अमिताभ बच्चन और गोविंदा के नाम भी लिए गए, की ही एक झलक या कौन कहे एक बाइट मिल जाए.

उस रोज़ दिन भर में शहर में जिस शख़्स से भी मिला, इस ब्याह का ज़िक्र ज़रूर आया. बातें भी कुछ इस तरह कि मानो शाम को उनका न्यौता भी हो. उसी शाम पिछोला के दूसरे किनारे पर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा तस्वीरें उतार रहा था. झील में एक शिकारा दिखाई दिया. जिज्ञासा हुई तो पूछा. मालूम हुआ कि होटल उदय विलास (ओबरॉय ग्रुप) ने ख़ासतौर पर शिकारे मंगाए हैं. गले में लटका कैमरा देखकर घाट पर नहाने आए एक सज्जन पास चले आए. सवाल किया, ‘खींच लिया फोटो रवीना का?’ उन्हें बताया कि मुझे तो वह नहीं दिखीं. जवाब मिला, ‘भगवान चाहेंगे तो ज़रूर दिखाई देगी, आप तो बस डटे रहो.’ टीवी वाले दोस्तों का यह संकल्प पिछले दो दिनों से जारी था. रात को गेस्ट हाउस में ख़बरों के लिए कई चैनल देखे मगर वहां आसमान में हुई आतिशबाजी दिखाई दी और मौके पर मौजूद चैनल के संवाददाता की रिपोर्ट कि शादी की रस्म हो चुकी है और यह भी कि आगे के संभावित आयोजन क्या हो सकते हैँ? अगले ही रोज़ सवेरे तमाम प्रेस फ़ोटोग्राफ़र जाकर डट गए एकलिंगजी के मंदिर के बाहर. नवदम्पति की फ़ोटो लेकर ही माने.

ऑक्टोपसी के शो

ऐसा क्या था जो चारो ओर ‘रूफ़ टॉप’ रेस्तरां की धूम थी. कुछ देर से समझ आया कि शहर के भूगोल के चलते यह सबसे ज़रूरी था कि ऊंचाई पर बैठा जाए. अब पहाड़ियों पर बसे शहर को एक नज़र में ज़्यादा से ज़्यादा देखने-महसूस करने के लिए तो ऊंचाई चाहिए ही न! जगदीश चौक और गणगौर घाट के आसपास के इलाकों में ‘रूफ़ टॉप’ की भरमार है. इन रेस्तरां के बाहर उनकी ख़ूबियों का ब्योरा बताने वाले बोर्ड पर फ़िल्मों के नाम भी लिखे हुए मिले. चॉक से लिखे और फिल्मों के नाम तो हर रोज़ बदल जाते मगर लगभग हर रेस्तरां पर एक नाम स्थायी रूप से दर्ज मिला – ऑक्टोपसी, जेम्स बाँड श्रृंखला की फ़िल्म. कारण बताया गया कि ऑक्टोपसी की जितनी शूटिंग उदयपुर में हुई है, उसका अधिकांश हिस्सा इसी इलाक़े में शूट किया गया है. सो सैलानियों को रिझाने के लिए इस फ़िल्म के शो नियमित चलाए जाते हैं. लगा कि आगरा वाले इस मामले में पीछे रह गए क्योंकि काफी पहले बनी इस फ़िल्म की शूटिंग आगरा में भी हुई मगर इस ढंग का इस्तेमाल वहां दिखाई नहीं पड़ता.

गुड टु नो यू

चित्रसेन के साथ टीआरआई जाते समय स्कूटर में पेट्रोल डलाने के लिए रुके. सीने पर कारतूस की पेटी बांधे, बड़ी मज़बूती से बंदूक धामे कुर्सी पर विराजमान एक शख़्स ने ध्यान खींचा . बंदूक की वजह से हरगिज़ नहीं, बल्कि उस चेहरे पर छाया रुआब और मूंछें अपनी ओर खींच रही थीं. नया शहर, अजनबी लोग, तो पास जाकर फ़ोटो ख़ींचने की इजाज़त मांगी, जवाब में वह उठकर खड़े हो गए. बोले, ‘ हाँ,हाँ, ज़रूर खींचो फोटो आप. अंग्रेजों ने तो बहुतेरे फ़ोटो उतारे हैं मेरे.’

नाम उदय सिंह द्ओरा, रिटायर्ड फ़ौजी हैं. पेट्रोल पंप पर लगे यूटीआई के एटीएम की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि अब बैंक के कैश गार्ड हैँ. 1973 में फौज में गए. वहां मूंछ रखने वालों के बीच ख़ासा मुक़ाबला था. उदय सिंह सोलह साल तक फौज में रहे और जब तक रहे, मूंछ के बेहतरीन रखरखाव के लिए कमांडिंग अफ़सर के हाथों मिलने वाला पचास रुपये का इनाम किसी और को लेने नहीं दिया. फ़ौज से लौटे तो कुछ समय तक दारू का ठेका भी चलाया, फिर यह नौकरी मिल गईं. बड़े गर्व से बताते हैं – सबको इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना ज़रूरी होता हैं मगर उन्हें इस परीक्षा के बग़ैर ही नौकरी मिली. चलते वक़्त पता नोट कराते हैं कि एकाध फोटो उन्हें भेज दिए जाएं.

पेंटिग्ज़ के बाज़ार में फ़ोटोग्रॉफ़ी

गणगौर घाट और जगदीश चौक के बीच के पूरे इलाके में किसिम-किसिम के विदेशी पर्यटकों के अलावा बड़ी तादाद में पेंटिग्ज़ बेचने चाली दुकानें और ‘रूफ़ टॉप’ रेस्टोरेंट मिले, क़रीब-क़रीब हर क़दम पर. मेवाड़ का इलाक़ा है सो मेवाड़ शैली की तस्वीरें मिनिएचर शो-केस में सजे या फिर प्लास्टिक शीट में बंद पर दुकान के दरवाज़े पर चिपके हुए. इन्हीं के बीच शीशे से घिरी कुछ आर्ट गैलरीज़, जिनसे झांकते केन्टेम्परेरी आर्ट वाले कैनवस अलग ही दिखते. लगभग सभी आर्ट की क्लासेज़ भी देने का दावा करते. वैसे ही जैसे सैलानियों के लिए उनकी पसंद की जगह बैठकर रावणहत्था बजाते और उसे बजाने का हुनर सिखाते ज़िला सीकर के किशन राम भोपा.

उदयपुर में ढेर सारे आर्टिस्ट हैं, जो घरों और मन्दिरों के बाहर वॉल पेंटिग्ज़ और फ़्रेस्को से लेकर अपने भव्य स्टूडियो में मिनिएचर, पेंटिग्ज़ और मूर्ति बनाने का काम करते हैं. बाज़ार भी हैं यहां, ऐसा कि खपत जोधपुर से जयपुर तक. कला के बाज़ार में दुकानें लेकर बैठे ये आर्टिस्ट अपने काम करने की जगह को स्टुडियो की बजाय वर्कशॉप कहना ज्यादा पसंद करते हैं. वे ख़ुद रिसेप्शन पर और अंदर छोटी-छोटी डेस्क पर पैलेट रखे काग़ज़ पर झुके पांच से लेकर पंद्रह लोग. ये लोग सैकड़ों वर्षों पुराने मिनिएचर्स की नक़ल तैयार करने में जुटे रहते हैं और ऐसा वर्षों से करते आ रहे हैं. यही इन कलाकारों का सृजन हैँ. नक़ल कोई आसान काम नहीं और अगर ऐसा होता तो इन पर मोटी रक़म ख़र्च करने वाले ख़ुद ही न बना डालते. ऑर्डर मिलते हैं, पांच सौ हाथी, तीन सौ घोड़े और इतने ही ऊंट भेज दीजिए.

ब्रश के जलवे बिखेरने वालों से मुतासिर होने की प्रक्रिया के बीच में ही सुनने को मिलता फ़ोटोग्रॉफ़ी भी करते हैं. यानी मुग़ालते में पड़ने की ज़रूरत नहीं. कई बार कलाकार बड़ी जल्दी में होते हैँ और मौक़े पर स्केच नहीं कर पाते तो फ़ोटो उतार लाते हैँ और उन्हें देखकर इत्मीनान से पेंट करते या ड्रॉइंग बनाते हैं. इसके अलावा अपना काम गैंलरीज़ को या विदेशी ग्राहकों के पास भेजने या फिर वेबसाइट पर डालने के लिए तस्वीरों की ज़रूरत पडती है सो इस लिहाज़ से सभी आत्मनिर्भर हैं. यों सैद्धांतिक रूप से साबित करना पड़े तो फ़ोटो को पेंटिग से कमतर साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

कुछ नायाब और गंभीरता से काम करने वाले भी मिले, ख्यातिलब्ध और हाल ही में अनायास विवाद का कारण बन गए चित्रकार शैल चोयल. घर से काफी दूर पहाड़ी पर बड़ी गांव में बना उनका स्टुडियो वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है. बातचीत में ज्ञान और अनुभव की गरिमा का भाव बराबर झलकता. हेमंत द्विवेदी कला के शिक्षक हैं और साधक भी. कैनवस से अलग होते हैं तो बेलौस और खुशमिजाज़ इंसान. क़रीब चौदह वर्ष पहले पत्थरों की तलाश में इलाहाबाद से आकर यहां बस गए शिल्पी ज्ञान सिंह हमेशा की आत्मीयता और खांटीपन की अपनी पहचान के साथ मिले. पत्थरों से जूझते रहने के बाबजूद उनकी इस प्रकृति में रंचमात्र बदलाव नहीं आया है. शाहिद परवेज़ युवा चित्रकार हैं और प्रिस्टाइन गैलरी के मालिक भी. बेहद ज़हीन और संजीदा. उनका पूरा कुनबा कलाकारों का है. उनके छोटे भाई शारिक को हवाइन गिटार बजाते हुए लगा कि आवाज़ में मिठास नहीं है सो सरोद और गिटार को पिलाकर एक नया वाद्य बना डाला, जिस पर उस्ताद अमजद अली ख़ां की सम्मति ले चुके हैं और मार्च में लिस्बन में पहली परफार्मेंस की तैयारी में हैं. पेशे से चार्टर्ड एकाउण्टेट और फ़ितरत से फ़ोटोग्रॉफ़र दिनेश पगारिया की कैमरे के प्रति कमाल की संजीदगी हैं. फोटोग्राफ़िक सोसाइटी ऑफ अमेरिका ने अपने जर्नल के फरवरी अंक में उनका फ़ोटो फ़ीचर छापा है. अद्भुत काम करते हैं और हाल ही में उन्होंने एक स्टुडियो भी शुरू कर दिया है – अपने दफ़्तर के ऊपर वाले पूरे फ़्लोर पर उनका बड़ा सा स्टुडियो है. लंबे समय तक पत्रकारिता के पेशे में रहे और अब एचआरएच ग्रुप ऑफ होटल्स के पब्लिक अफेयर्स एग़्ज़ीक्यूटिव हरीश पालीवाल ख़ासी मुश्किल में फंसे मिले. रवीना टंडन के ब्याह के कुछ इंतज़ाम उनके ज़िम्मे थे. अतिथि की मर्ज़ी के मुताबिक गोपनीयता बरक़रार रखने, अभिनेत्री से मिलने, ऑटोग्राफ लेने के लिए आते-जाते अफ़सरों और बात करने-एक्सक्लूसिव तस्वीरें बनाने के मीडिया के दबाव के बीच हरीश का धैर्य ग़ज़ब लगा.

शहर के सक्रिय कलाकारों के तीन संगठन टकमढ़, आज और तूलिका के बारे में अलग-अलग लोगों के अलग-अलग विचार सुने-गुने. अच्छा यह लगा कि नए लोगों के लिए कम से कम मंच तो है और अच्छा न लगने वाली बात संगठनों का आपसी द्वंद्व. तमाम असहमतियों के बावजूद शैल चोयल की ‘क्राई (सीआरवाई)’ के लिए बनाई गई तस्वीरों को लेकर उठे विवाद पर सत्ता के ख़िलाफ़ सारे कलाकार एक मिले, बैठकों से लेकर ज्ञापन देने वालों तक में शामिल.

मेवाड़ की तहज़ीब

बागौर की हवेली में स्थित पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के दफ़्तर में लईक अहमद के पास बैठा था. लईक एनएसडी से प्रशिक्षित हैं और केंद्र की नौकरी के साथ ही रंगकर्म में बराबर सक्रिय रहते हैं. यहां हवेली में ही एक मंदिर है. पुजारी प्रसाद लेकर आए. जिस श्रद्धा भाव से माथे लगाकर उन्होंने प्रसाद खाया, वह हैरत में डालने वाला था. हैरत इसलिए नहीं कि उनकी धार्मिक मान्यता उस प्रसाद से भिन्न थी बल्कि इसलिए कि पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश और बड़े पैमाने पर देश में जिस ख़ामोशी से समाज का बंटवारा हुआ है, उसे देखते हुए यह अनुभव सिहरा देने वाली हवा के झोंके की तरह था. बाद में उन्होंने जब एकलिंगजी के मंदिर ले जाने की बात कही तो ज्ञान सिंह और हेमंत द्विवेदी से इस पर चर्चा की. दोनों दोस्तो ने तस्दीक़ की कि अयोध्या जैसे मसले का असर कहीं और जो भी रहा हो, उदयपुर में सामाजिक बुनावट पर इसका कोई फ़र्क नहीं. उस रोज़ रात को रास्ते में शाहिद का घर पड़ा तो रुक गए. पता चला कि शाहिद, शारिक और अब्बा तीनों पास के घर में हैं, जहां किसी का इंतकाल हो गया है. मिले तो बताया कि पास ही में रहने वाले शंकरलाल थोड़ी देर पहले साथ घूमकर लौटे थे. अचानक यह हो गया. शाहिद यह कहकर लौट गए कि उस घर में काफी सामान नीचे से ऊपर रखवाना है. यह सब उस भावना से साक्षात्कार की तरह लगा जो हिन्दुस्तान की मिट्टी में दरअसल सदियों से रची-बसी रही है और जिसे मेवाड़ ने हिफ़ाज़त से रख छोड़ा हैं.

श्रद्धा और प्रतिबद्धता

उदयपुर आने से पहले बनारस ही ऐसा शहर देख रखा था, जहां बेशुमार मंदिर हैं. गलियों-मंदिरों के मामले में यह शहर बनारस को टक्कर देता है. गणगौर घाट पर भी छोटे-बड़े तमाम शिव मंदिर हैं. अगले रोज महाशिवरात्रि है, मंदिरों की सजावट-सफ़ाई के साथ ही अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में गूंजती शिव स्तुति से भी इसका पता मिलता था. झील गेस्ट हाउस से बाहर निकलते ही दाईं ओर बने शिव मंदिर ने ध्यान खींचा. ताजा हुई चूने की पुताई के बाद रंगों के डिब्बे बिखेरे वह दीवार को सजाने में बड़ी तन्मयता से जुटे थे. जितनी तेजी से रंग बिखेरते उनके हाथ आकृतियां बना रहे थे, वह देखते रहने और उनकी तस्वीर उतारने का मन किया. वह बात करते रहे, साथ ही उनके हाथ भी चलते रहे. नाम है – बसंती लाल पालीवाल. हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ाते रहे, कई वर्ष पहले रिटायर हो गए. मंदिर की दीवारों पर चित्र बनाने का उनका यह क्रम चालीस साल से ज्यादा पुराना है. न किसी के न्योते का इंतज़ार, और न ही ही किसी ‘अर्थ’ की दरकार. अपने पैसे से रंग-ब्रश ख़रीदते हैं और पहुंच जाते हैं, बस!

रिनी पोर्ट

उदयपुर को थोड़ा बहुत देखने-समझने के बाद मुझे लगा कि लेक पैलेस और पगड़ी-तलवार के साथ महाराजा के औपचारिक फ़ोटो से जिस शहर को बाहर की दुनिया में पहचाना जाता है, वह इससे बहुत अलग और बेहद अनूठा है. सोचा कि कुछ ऐसे फ़ोटो करने चाहिए, जो इस शहर की आत्मा के आईने की तरह हों. शहर छोड़ने से एक रोज़ पहले शाहिद परवेज़ से मिलने उनकी गैलरी पर गया. बातों-बातों में उन्होंने एक किताब निकालकर दिखाई, ‘बियाण्ड द पैलेस इमेजेज़ ऑफ़ रियल लाइफ़ इन उदयपुर.’ रिनी पोर्ट की यह किताब उदयपुर के इतिहास, संस्कृति, मान्यताओं और परंपराओं के साथ ही आम कहे जाने वाले लोगों के चेहरों का फ़ोटोग्राफ़िक दस्तावेज़ है. 75 वर्ष की रिनी चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करते-करते थिएटर में चली गई. अभिनय के साथ ही स्टेज क्राफ्ट में दक्षता हासिल की. लोक-कलाओं में उनकी दिलचस्पी दीवानगी की हद तक है सो विषय के तौर थिएटर पढ़ाते हुए उन्होंने न्यूयार्क में लोक कला वीथिका भी शुरू की. 70 साल की उम्र में उन्हें लगा कि बहुत रह लिए सैनडिगो में, अब कुछ समय के लिए कहीं और चलना चाहिए. कहां के सवाल पर अन्तस का जवाब मिला – भारत. सो दो महीने घूमने के इरादे से हिन्दुस्तान आ गई. उदयपुर और वहां के लोग ऐसे भाये कि अमेरिका लौटने पर उन्होंने घर वालों को यह फ़ैसला बताकर चौंका दिया कि अब वे उदयपुर में ही रहेंगी. कहती हैं कि यहाँ आकर घुमक्कड़ी की तलब जाती रही. बहरहाल उनकी किताब देख लेने के बाद विचारों की मौलिकता का सवाल फिर खड़ा हो गया मेरे सामने.

लौटते हुए

चेतक एक्सप्रेस से लौटते हुए जयपुर के बाद सवेरा हो गया. खिड़की के बाहर की भू-दृश्यावली उस रोशनी में सुनहरी हो गई थी. साथ-साथ भागती पहाड़ियां, खेत, रास्ते और कहीं-कहीं मिलकर तुरंत ओझल होने लगते गांव-घर. रींगस के पहले एक जगह दूर तक भूरी मिट्टी के बीच फैले छोटे कद के रूखे से पेड़ दीखे और उनके बीच पतली सी पगडंडी पर दूर से आते स्कूली पोशाक में तीन बच्चे. उस खुले में हर तरफ देखने की कोशिश की कि शायद स्कूल दिख जाए मगर मिला तो काफी आगे जाकर. यानी हर रोज़ कई मील पैदल चलने का श्रम भी. पढाई के लिए यह जज़्बा श्रद्धा पैदा करने वाला था. बसों-मोटरों ऑटो-रिक्शा में स्कूल जाने वाले बच्चों की पीढ़ी इसे महसूस कर पाएगी भला. गाड़ियों में जुते होने के साथ ही कई खेतों में काम करते ऊंट भी दीखे. धूसर पृष्ठभूमि पर रह-रहकर चमकती कई रंगों वाली झंडियाँ थामे पैदल जाते लोग. रींगस से करीब तेरह किलोमीटर दूर खाटू श्याम प्रभु के स्थान की ओर जाने वाले श्रद्धालुओं का सिलसिला हरियाणा की सीमा शुरू होने के बाद भी बना रहा. कम्पार्टमेंट में दरवाजे के पास एक पोस्टर लगा था – खिड़की से बाहर झांकती एक महिला के साथ खड़े दो बच्चों के चेहरे और उसके नीचे लाल रंग में दर्ज यह न्योता – पधारो म्हारे देस.

(फ़रवरी, 2004)


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.