सिनेमा | एक अनजानी दुनिया से पर्दा उठाती है ‘टर्टिल्स कैन फ्लाई’

  • 8:06 pm
  • 19 July 2020

सिर्फ़ मनोरंजन या कलात्मक अभिव्यक्ति (या कभी-कभी दोनों ही) के लिए फ़िल्में बनाने की अवधारणा बीते ज़माने की बात लगने लगी है. वैश्विक परिदृश्य में, ख़ासतौर पर नए दौर के ईरानी सिनेमा के मामले में तो यह बिल्कुल लागू नहीं होता. नए दौर की फ़िल्में समय और समाज के साथ-साथ वैश्विक राजनीति के तमाम आयाम और उनके प्रभाव की छाप हैं – कई बार यह छाप प्रत्यक्ष होती है और कई बार परोक्ष. ईरानी डायरेक्टर बहमन गोबादी की फ़िल्म ‘टर्टिल्स कैन फ्लाई’ बार-बार यही याद दिलाती है. यह फ़िल्म 20 मार्च 2003 को इराक़ पर अमेरिकी हमले के ऐन पहले इराक-तुर्की सीमा पर रह रहे क़ुर्द शरणार्थियों की कहानी है. गोबादी इन शरणार्थियों के हवाले से युद्ध और बर्बरता और दमन के शिकार इंसानों की कारुणिक गाथा कहते हैं, साथ ही ज़िन्दगी के प्रति उनकी ललक, ऊर्जा, और प्रेम की दास्तान भी सुनाते हैं. गोबादी की फ़िल्म का समर्पण पढ़कर ही आप अंदाज़ लगा लेते हैं- ‘दुनिया के उन सभी मासूम बच्चों के नाम, जो तानाशाही और फ़ासीवादी नीतियों के शिकार हुए.’

‘टर्टिल्स कैन फ्लाई’ के मुख्य पात्र कुर्द शरणार्थी शिविरों में रहने वाले ऐसे अनाथ बच्चे हैं, जो अपने जीने के संसाधन ख़ुद जुटाते हैं. उनका काम है, उस इलाक़े में फैली बेहिसाब बारूदी सुरंगों को हिफ़ाज़त से निकालकर पास के क़स्बे में हथियारों के दुकानदारों को बेचना. इन बच्चों के गैंग हैं और इनमें से एक गैंग के अगुवा का नाम है- सैटेलाइट. तेरह बरस का यह किशोर गांवों में लोगों के घरों पर टेलीविज़न एंटिना लगाता है और इस काम के चलते उसका नाम ही सैटेलाइट पड़ गया. शिविर में तीन नए पात्र जुड़ते हैं. सैटेलाइट एग्रिन नाम की उस युवती को ख़ास तवज्जों देता है, जिसके भाई हिंगोव के दोनों हाथ नहीं हैं और जो मुंह से बारूदी सुरंगें निकाला करता. तीसरा पात्र एक दृष्टिहीन बच्चा है, जो अपनी बांहों का घेरा बनाकर अक्सर हिंगोव की गर्दन से लटका मिलता है. रिगा नाम का यह बच्चा, जो देखने वालों को हिंगोव-एग्रिन का भाई लगता है, दरअसल इराकी फौजियों की वहशत का शिकार हुई एग्रिन की संतान है. जिसे लेकर वह हमेशा आत्मसंताप में घिरी रहती है.

बहमन गोबादी ने फ़िल्म में ग़ैर-पेशेवर अभिनेताओं से काम लिया है. अलबत्ता ये वो लोग हैं, जो फ़िल्म की कहानी वाली ज़िंदगियां जीते हैं. मसलन फ़िल्म में बिना हाथ वाला वह किशोर जो अपनी ज़िंदगी ख़तरे में डालकर बारूदी सुरंगें इकट्ठा करता है ताकि उन्हें बेचकर ज़िंदा रह सके, अपनी असली ज़िंदगी में भी यही करता रहा. गोबादी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि फ़िल्म में उन्होंने जो भी किया, असली ज़िंदगी में उसका तजुर्बा वे करते ही रहे हैं. बक़ौल गोबादी, इराक़ में ऐसे कम से कम तीस हज़ार बच्चे हैं. इनमें से तमाम ऐसे हैं, जो नहीं निबाह पाते, मगर बहुतेरे हैं, जो जुझारू हैं और ख़ुद को बचा ले जाते हैं.

फ़िल्म में राजनीतिक कटाक्ष और हास्य की कई परिस्थितियां बनती हैं. शिविर में रहने वाले तमाम बूढ़े हमेशा यह जानने को बेताब रहते हैं कि अमेरिका के हमले के बाद इराक की सूरत क्या होगी, ख़ुद उन लोगों का क्या बनेगा? एक दृश्य में तमाम घरों के लोग एंटिना लेकर ऊंचाई पर खड़े दिखाई देते हैं और टीवी सेट के आगे बैठे लोग चिल्लाकर बता रहे हैं – बाएं-बाएं. थोड़ा दाहिने! मगर सिग्नल नहीं मिलते. सैटेलाइट के हवाले से भी ऐसे कई प्रसंग आते हैं. बारूदी सुरंग बटोरने वाले बच्चों से वह कहता है, ‘जो मेरे साथ काम करते हैं, उन्हें दूसरों के साथ काम करने की इजाज़त नहीं.’ 9/11 के हादसे के बाद जॉर्ज बुश के बयान की याद आती है, ‘या तो आप हमारे साथ है, या फिर आतंकवादियों के साथ.’ वह उन्हें यह भी बताता है कि सबसे अच्छी बारूदी सुरंगें ‘मेड इन अमेरिका’ होती हैं. इसलिए कि बाज़ार में उनके अच्छे दाम मिलते हैं. शरणार्थी शिविरों पर अमेरिकी हेलीकॉप्काटरों से गिराए पर्चों का मज़मून ग़ौर कीजिए, ‘हम इस देश को स्वर्ग बना देंगे. हम यहां तुम्हारे दुख हरने आए हैं. हम दुनिया में बेहतरीन हैं.’ क़ुर्दों के साथ विसंगति यह कि जब वे सद्दाम के ख़िलाफ़ लड़े तो बुश प्रशासन उनके साथ था और जब वही क़ुर्द तुर्की से लड़े तो उनकी आंखों की किरकिरी बन गए.

फ़िल्म दरअसल ऐसे लोगों के जीवन के मार्मिक पहलू उजागर करती है, जो बाक़ी दुनिया के ज़ेहन में किसी अमूर्त छाया की तरह बसे रह जाते हैं. जिनके चेहरों, जिनकी ज़िंदगी और जिनकी तकलीफों से लोग वाक़िफ़ ही नहीं तो फिर उनके बारे में सोचना भी कैसे? उनकी ये कहानियां देखने वालों को बेचैन तो करती हैं मगर एक अनजानी दुनिया से पर्दा भी हटाती हैं.

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