व्यंग्य | अगला स्टेशन

इस देश के तमाम लोगों की तरह मुझे भी यक़ीन हो रहा है कि इस देश के भविष्‍य का निर्माण करने का काम सिर्फ़ फ़िल्‍मों का है. जैसा संदेश लोगों में पहुंचाना हो, वैसी फ़िल्‍म बनाकर लोगों को दिखला दीजिए – बस, दुनिया अपने-आप बदलती चली जाएगी. इधर जैसे ही मुझे फ़िल्‍मों के जरिए यह संदेश मिला, कि ‘समाज को बदल डालो’, तैसे ही मैंने अपनी समाज-सेवा को अधिक गहरे स्‍तर पर करने का फ़ैसला कर लिया, और मौक़े की तलाश करने लगा, ताकि मैं समाज को एक ही दांव में बदल दूं! इस तरह के मौके रोज़-रोज़ आते नहीं, कि आपको समाज को बदल डालने का अधिकार सब लोग देते फिरें. लेकिन आदमी लगन का पक्‍का हो, तो समाज एक-न-एक दिन मौका देता ही है.

और इस विचार को कार्य में बदल डालने की शुरुआत मैंने रेलवे-स्‍टेशन से करने का शुभ संकल्‍प किया. ऐसा कुछ पहले से तय नहीं था, लेकिन जब अपने कुछ मेहमानों को एक पैसेंजर गाड़ी से छोड़ने के लिए स्‍टेशन गया, तो समाज ने मुझे अदबदाकर कुछ ऐसा मौक़ा दे दिया कि समाज-सेवा करने के लिए मेरी तबीयत मचलने लगी. जो लोग यात्रा का सुख आज की दुनिया में भी उठाने के लिए कृतसंकल्‍प हैं, उन्‍हें रेल-व्‍यवस्‍था की एक मामूली बात तो मालूम ही होगी, फिर भी उनके लाभ के लिए मैं दोहरा रहा हूँ. रेलगा‍ड़ियां कई तरह की होती हैं – डाकगाड़ी, एक्‍सप्रेस (तेज) गाड़ी, पैसेंजर गाड़ी, पार्सल गाड़ी, मालगाड़ी वगैरह-वगैरह. डाकगाड़ी डाक ले जाने के लिए बनी थी, पर मुसाफ़िर भी ले जाती है. पार्सल गाड़ी पार्सल ले जाने के लिए बनी थी, अब मुसाफ़िर भी ले जाती है. मालगाड़ी सिर्फ माल ले जाती है. एक ‘पैसेंजर’ गाड़ी यानी मुसाफ़िर गाड़ी थी, जो मुसाफ़िरों के लिए बनी थी, अब मुसाफ़िरनुमा माल ले जाती है. यानी पैसेंजर गाड़ी में जो भी मुसाफ़िर चलते हैं, उन्‍हें रेलवे सिर्फ माल की तरह ढोती है. जहां मन आए, तहां रोकती है, और धीरे-धीरे चलती है, रास्‍ते भर बिना पंखा और बिना बत्ती का सफ़र कराती है, पुराने डिब्‍बों का नया किराया लेती है, और चार-छह घंटे आगे-पीछे पहुंचाती है. इसकी सुनवाई कहीं नहीं. यह मान लिया गया है कि पैसेंजर गाड़ी यानी मुसाफ़िर गाड़ी की यही नियति है. उसमें गांव-गांव में उतरने-चढ़नेवाला चलता है. उसके लिए न तो बैठने की जगह की जरूरत है, न पंखे की, न बत्ती की. वक़्त तो उसके पास अनंत होता है. उनके यहां वक़्त के नाम पर सिर्फ सुबह, दोपहर, शाम और रात होती है तो पैसेंजर गाड़ी सिर्फ सुबह, दोपहर, शाम या रात के वक़्तों से बंधी हुई चलती है. फिर किसी को क्‍या शिकायत हो सकती है?

उसी पैसेंजर गाड़ी पर मैं अपने कुछ मेहमानों को छोड़ने के लिए रेलवे-स्‍टेशन पहुंचा. शाम को चलकर सुबह पहुंचने का वादा करती हुई उस पैसेंजर गाड़ी के हर डिब्‍बे में पंखे लगे हुए थे, जो मुसाफ़िरों के क्रोध की तरह शांत थे. बत्तियां या तो थीं ही नहीं, या दीपक राग की प्रतीक्षा कर रही थीं. तीसरे दर्जे में ठुंसे हुए मुसाफ़िर दफ्तियां, रूमाल और हाथ-मिलाकर उस डिब्‍बे से गर्मी को बाहर कर देना चाहते थे. अंधेरा हो रहा था, और हर मुसाफ़िर अपने से ज्‍यादा अपने संदूक की फ़िक्र करने में मशगूल था. ऐसा दृश्‍य देखकर मुझे सहसा यह याद आने लगा कि मैं समाज को बदल डालने का वादा कर चुका हूं, और मुसाफ़िरों के जन्‍मसिद्ध अधिकार के लिए लड़ने को मुझसे अच्‍छा कोई आदमी नहीं हो सकता. जो लोग सफ़र करने के लिए आए हुए थे, वे भीतर घुसकर बैठ गए थे, और निकलने की कोशिश करते ही अपनी जगह पर दूसरों को बैठा हुआ देखते. वैसे उसमें से निकल पाना अपने-आप में आदमी की मर्दानगी में चार चांद लगा देता! और निकलकर घुस पाना सिर्फ एक घुटी हुई चांद का तल्‍ख अनुभव दे सकता था. ऐसे में प्‍लेटफार्म पर खड़े हुए व्‍यक्तियों की ही यह नैतिक जिम्‍मेदारी हो जाती थी कि वे पैसेंजर के मालगाड़ी रूप से लोगों को परिचित कराएं और समाज-सेवा करें. वही मैंने किया.

निहायत बुज़ुर्ग़ दीखनेवाले गार्ड साहब, पान खाए हुए, एक कुचैली लाल टाई (मैली कहना मैलेपन का अपमान होगा) लगाए आधा कोट बांह पर डाले हुए, बांस के छोटे-छोटे डंडों में लाल, हरी झंडियाँ लपेटकर रख रहे थे. उनका बड़ा लोहे का बक्‍स प्‍लेटफार्म पर खुला हुआ था और उनको तमाम कुली-कबाड़ी घेरे खड़े थे. एक ने उनको चाय लाकर दी, और वे चाय पीने लगे. मैंने समाज-सेवा के कुछ नियमों का ध्‍यान किया और भीड़ चीरता हुआ उनके पास पहुंचा. उनसे मैंने डिब्‍बों में बत्ती और पंखा न चलने की शिकायत की. थोड़ी देर तक वह चुपचाप अपनी चाय पीते रहे और कुलियों को कुछ सामान लादने की हिदायत देते रहे. मैंने अपनी बात दोहराई. उन्‍होंने एक बार मेरी तरफ देखा, और फिर कुलियों से बातें करने लगे. मैं जानता हूं कि बेहयाई का गुण एक समाजसेवी में बड़ा लाजिमी होता है. अतः मैंने फ़ौरन अपनी बात को और भी तेजी से गार्ड साहब के सामने दोहराया. अबकी गार्ड साहब ने पहली बार जवाब दिया, ‘कह तो दिया साहब कि अभी सब ठीक हो जाएगा. प्‍लेटफार्म पर बिजली वाला होगा. उससे कह दीजिए. ठीक कर देगा.’

बहरहाल, मैं आश्‍वासन लेकर लौट पड़ा. अपना देश ही आश्‍वासनों पर चल रहा है. अगर वह भी हटा लिया जाए, तो फिर रह ही क्‍या जाएगा? और फिर जब सभी लोग आश्‍वासनों को सही मानकर चुप बैठे रहते हैं, तो मुझे पहली ही बार आश्‍वासन को चुनौती देना ठीक नहीं लगा. डिब्‍बे के सामने पहुंचा, तो अपने मेहमानों ने भीतर से पूछा, ‘क्‍या हुआ?’

मैंने तड़ से अपनी कारगुजारी बयान कर दी, ‘अभी सब ठीक हुआ जाता है. पंखा भी ठीक, बिजली भी ठीक.’

एकाध इधर-उधर की बात हो सकती थी, लेकिन गाड़ी छूटने का वक्‍त निकट आ रहा था. और मुझे लग रहा था कि गाड़ी बिना बत्ती के ही चल देगी. मैं बिजली वाले मिस्‍त्री की खोज में चला. आखिरकार वह मिला. एक तेज दुबला-पतला लड़का प्‍लेटफार्म की बिजली से तार लगाकर पहले दर्जे के डिब्‍बे में बिजली का पंखा ठीक कर रहा था. मैंने खद्दर का कुरता पहन रखा था. मुझे किसी से भी बात करने में डर नहीं लग रहा था. मैंने उससे उस डिब्‍बे की बिजली और पंखा ठीक करने को कहा. उसने पहली बार में उत्तर दिया, ‘पंखा-वंखा नहीं चलेगा. बिजली भी रामभरोसे है.’

मैंने कहा, ‘गार्ड साहब ने कहा है.’

‘तो उन्‍हीं से ठीक करा लीजिए.’

मैं गार्ड साहब की तरफ लपका. अब तो कुछ आन का भी सवाल था. डिब्‍बे के सामने लौटकर जाता, तो क्‍या मुंह दिखाता? वे लोग फिर वही सवाल पूछते. गार्ड साहब ने अपनी हरी बत्ती भी ठीक-ठाक कर ली थी. पान खा रहे थे. भीड़ वैसी ही थी. मैंने फिर गार्ड साहब से अपनी मुसीबत दोहराई, और उस लड़के मिस्‍त्री की शिकायत की. गार्ड साहब ने अपनी आदत के मुताबिक तीसरी बार में मेरी शिकायत पर कान दिया. अबकी नए सिलसिले से बातचीत हुई.

‘कहां जा रहे हैं आप?’

‘मैं नहीं जा रहा हॉं.’

‘तो फिर आप गाड़ी के पंखे और बिजली को लेकर क्‍यों परेशान हैं? जिन्‍हें जाना है, वह तो आराम से चुप किए बैठे हैं. आप ख़ामख़्वाह के काज़ी बने हुए हैं.’

‘जी नहीं. ख़ामख़्वाह के नहीं. मेरे घर वाले इस गाड़ी से जा रहे हैं. उन्‍हें बड़ी परेशानी होगी.’

‘रास्‍ते में बिजली ठीक हो जाएगी. अब तो गाड़ी छूटने का वक्‍त हो रहा है. देर हो जाएगी यहां पर. अगले स्‍टेशन पर ठीक करा देंगे.’

‘अगला स्‍टेशन तो गांव है. वहां मिस्‍त्री कहां मिलेगा?’

‘अजी साहब, गाड़ी मैं ले जा रहा हूं. मैं नहीं जानता, और आप सब कुछ जानते हैं.’

अब गार्ड साहब ने जैसे मुझे धमकाने के लिए मुंह में सीटी दबा ली, और हाथ में हरी बत्ती वाली लालटेन उठा ली. वैसे झंडी पहले से ही खुली हुई थी. मैं भी समाज-सेवा पर तुला बैठा था. बोला, ‘देखिए, गार्ड साहब, जब तक पंखा और बत्ती ठीक नहीं होगी, तब तक गाड़ी यहां से नहीं चल सकती. समझ लीजिए.’

‘अरे साहब, ठीक हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा. आप चलिए, बैठिए. मैं अभी आता हूँ उसे डिब्‍बे के पास.’

मेरे मेहमान खिड़की से सिर निकाले मुझे बुला रहे थे. गाड़ी छूट जाएगी, और चलते वक्‍त एक टा-टा तक नहीं कह पाएंगे. लेकिन ‘टा-टा’ को देखें, कि अपनी बेइज्‍जती को देखें. गार्ड साहब टहलते हुए आगे बढ़े. उनके साथ पूरा जमघट. हमारे डिब्‍बे के सामने से वे निकले. हम भी उन्‍हीं के साथ-साथ चल रहे थे. मैंने मेहमानों को डिब्‍बे के सामने से निकलते हुए यों देखा, कि जैसे ‘देखो, मैं चाहूं तो पूरी दुनिया को हिलाकर रख दूं.’ गार्ड साहब आगे बढ़कर किसी के पास रुक गए और बोले, ‘क्‍या बात है, भई! बत्ती-पंखा क्‍यों नहीं ठीक कर देते?’

मिस्‍त्री लड़का ताव में था. ‘मैं क्‍या खुद पंखा बन जाऊं, गार्ड साहब? जब उसमें पॉवर है ही नहीं, तो…’

गार्ड साहब ने निहायत नरमी से कहा, ‘अरे भाई, तेज़ पड़ने की क्‍या जॉरूरत है? बात क्‍या है?’

उसने कहा, ‘क्‍या करें, साहब? अभी पुराने चार्जर पर इन्‍क्‍वायरी हो रही है. कहते हैं कि जब आएगा, तब मिलेगा. तो हम क्‍या करें? जितना है, उतना फर्स्‍ट क्‍लास में किए दे रहे हैं. गाड़ी चलेगी, और कुछ चार्ज हो गया, तो बत्ती में करेंट चली आएगी. रोशनी तो होगी नहीं, सिर्फ लाल लकीर दिखाई देगी. पंखा-वंखा कुछ नहीं चलेगा. मेरी कोई सुनता नहीं. …सब साले …और मुसाफ़िर मेरे डंडा किए हुए हैं. मैं कोई स्‍टेशन मास्‍टर की… उसमें से लाकर लगा दूं…?’

भीड़ ने मजा लेना शुरू कर दिया था. ‘एंग्री यंगमैन’ चिल्‍ला रहा था. सब मेरी तरह ही जान रहे थे कि अब गार्ड साहब की किरकिरी हो जाएगी. तब तक गार्ड साहब बोले, ‘कितने साल से नौकरी कर रहे हो, म्‍यां?’

‘तीन साल से.’

‘तभी! तभी अभी इतनी तेज़ी है. अरे बाबू साहब, यह सब कोई नई बात तो नहीं. मैंने तो सोचा, कि न जाने क्‍या बावेला आपने मचा दिया. तीन साल से तुम इस गाड़ी को आते-जाते देख रहे हो. कभी तुमने इसमें पंखा चलते देखा, या कभी बत्ती जलती देखी? नहीं न? तो फिर आज इस चीज़ को लेकर इतना गरम होने की क्‍या ज़रूरत पड़ गई? मुसाफिरों से तो दो बोल मीठे-मीठे बोल ही सकते हो. कह दो कि ‘बत्ती आगे ठीक हो जाएगी. पंखा अभी चलाए देते हैं.’ तुम भी जानते हो, और हम भी जानते हैं कि न तो पंखा चलेगा, और न रास्‍ते भर बत्ती जलेगी. ये मुसाफ़िर भी यह जानते हैं. ये भी अंधेरे में बिना पंखे के चलने के आदी हैं. लेकिन अब इनका भी तो कुछ फ़र्ज़ है, कि डिब्‍बे में पंखा नहीं चल रहा है, तो आकर किसी से कहें. अब हमारा-तुम्‍हारा यह फ़र्ज़ है कि बिना पंखा-बत्ती चलाए हुए इन्‍हें ख़ुश कर दें. इसमें गाली-गलौच करने से मुसाफ़िर बिगड़ता है, और बात कुछ बनती नहीं. अब चार्जर नहीं है, तो तुम क्‍या हमारे बाप भी डिब्‍बे में बिजली नहीं दे सकते. पर यह कहने में क्‍या लगता है, कि अगले स्‍टेशन पर ठीक हो जाएगी? अव्‍वल तो म्‍यां, वह ‘अगला स्‍टेशन’ पूरे सफ़र में कभी आता नहीं, और अगर किसी ने याद ही दिलाया, तो तुम तो यहीं छूट जाओगे. मैं निबट लूंगा. रोज़ इसी ‘अगले स्‍टेशन’ के भरोसे मैं गाड़ी यहां से लेकर चला जाता हूँ. मुसाफिरों से तुम ‘अगले-स्‍टेशन’ का ख़्वाब भी छीन लोगे, तो, बेटे, गाड़ी किसके भरोसे चलेगी?’

मिस्‍त्री के पास कोई जवाब न था. गार्ड साहब ने सीटी बजा दी और झंडी और रोशनी हिलाना शुरू कर दिया. मेरे पास शिकायत दोहराने का वक्‍त नहीं था. कुछ डिब्‍बों से निकले हुए मुसाफ़िर गाड़ी लेट होने की वजह मुझी को बताते हुए मुझे धिक्‍कार रहे थे और चुपचाप अपने डिब्‍बे में लौट जाने के लिए कह रहे थे.

आवरणः pixabay.com

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