फॉर्म या कंटेंट के मुक़ाबले विचार हमेशा अहम्

  • 11:30 am
  • 12 January 2020

सैयद अहमद शाह यानी अहमद फ़राज़ की पैदाइश कोहाट में. सन् 1931. वालिद पेशावर यूनिवर्सिटी में सीएएफ़, शेरो-शायरी में दिलचस्पी रखने वाले. तालीम पेशावर में ही हुई. शायरी ने दुनिया भर में शोहरत दी और पांच बरस का देश निकाला भी. अलग तेवर और मिजाज़ की शायरी के लिए पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में ख़ूब मक़बूल रहे. ‘तन्हा-तन्हा’, ‘दर्द आशोब’, ‘नायाफ़्त’, ‘जानाजाना’, ‘नबीना शहर में आईना’, ‘शबख़ून’, ‘ख़्वाबे गुल परीशां है‘, ‘बेआवाज़ गली-कूंचों में’, ‘मेरे ख़्वाब रेज़ा-रेज़ा’ (चार नाटकों का संग्रह है वर्सेज़ में), ‘बहाना करूं’ ‘सब आवाज़ें मेरी हैँ’ (यह अफ़्रीकन शायरों की नज़्मों का तर्जुमा है), वर्स में लिखा नाटक – ‘बोडलक’ उनकी किताबें हैं और ‘शहरे सुख़न आरास्ता है’ कुल्लियात.

बैतबाज़ी की बदौलत शायरी का चस्का
जब मैं नवीं क्लास में था तो मेरी वालिदा की मुलाक़ात एक फ़ेमिली से हुई. फिर एक-दूसरे के घरों में आना-जाना बढ़ा. एक दिन मेरी वालिदा की दोस्त ने कहा – बेटा, गर्मियों की छुट्टियों में तुम किताबें यहीं ले आया करो. उसके (उनकी बड़ी बेटी जो उस समय दसवीं में थी) साथ पढ़ा करो. एक दिन लड़की ने मुझसे पूछा कि तुम्हें बैतबाज़ी आती है. मैंने पूछा कि वो क्या होती है? उसने मुझे समझाया कि पहले मैं शेर पढ़ूंगी और उसके आख़िरी हर्फ़ से तुम अपने शेर की इब्तदा करोगे…! चुनांचे मैंने शेर याद करने शुरू किए. बैतबाज़ी का मुक़ाबला मैं उससे करता मगर हर दफ़ा वो जीत जाती. फिर मैंने सोचा कि अपने शेर गढ़ने शुरू कर दो. यूं समझो कि इस तरह शेर कहना शुरू किया. यह 1946-47 के बाद की बात है, जब शुरुआत हुई. उसके कुछ दिनों बाद जब हम उससे मिलने गए तो उनके घर ताला पड़ा था. पता चला कि उसकी शादी हो गई है और वो लोग किसी दूसरे शहर चले गए हैं. अब मैं ये तो नहीं कह सकता कि मुझे उससे इश्क हो गया था, लेकिन ये ज़रूर है कि मैं बहुत रोया… और फिर ये बीमारी उसकी यादों के सबब बढ़ती गई, जिसके बाद हम बाक़ायदा शायर हो गए.

कॉलेज से फ़र्स्ट प्राइज़ और टेकऑफ़
मैं जब शेर सुनाता था तो लोग अपनी भंवें ज़रा ऊंची करते. थोड़ी-सी हैरत का इज़हार, थोड़ा शक का हिस्सा. ये ख़ुद लिखता है या लिखवाता है. मैं कॉलेज पहुंचा. मेरा कॉलेज एडवर्ड कॉलिज था. वहां लड़कों को ये पता चल गया था कि मैं शेर कहता हूं. एक दिन कॉलेज यूनियन के प्रेसीडेंट ने बताया कि गुजरात जमींदार कॉलेज में एक इंटर कॉलिजिज़ मुशायरा हो रहा है. उन्होंने दो नाम मांगे हैं. लेकिन टीए लेने के लिए प्रिंसीपल से बात करनी होगी. प्रिंसीपल हमारे अंग्रेज़ थे. मुश्किल से उन्हें समझाया कि मुशायरा क्या होता है और इन्वीटेशन कार्ड भी दिखाया. उन्होंने पूछा -‘व्हेयर इज़ द सेकेंड पोइट?’ अब हम परेशान हुए. कहा – ही इज़ वेटिंग आउट साइड. ख़ैर, उन्होंने हमें एक्सट्रा क्लास का पैसा सेंक्शन कर दिया. मुशायरे में नज़्म के लिए अलहदा विषय था और ग़ज़ल के लिए मिसरा दिया हुआ था. मैंने नज़्म भी लिखी, ग़ज़ल भी. एक ग़ज़ल उस दोस्त को भी दी, जो साथ गया था. मुशायरा शुरू हुआ तो उसमें लाहौर के बड़े-बड़े कॉलेजों के ऐसे लड़के – जिनमें कई अहसान दानिश, सैफुद्दीन सैफ़, सूफ़ी त्तबस्सुम जैसे तब के मशहूर शायरों के शागिर्द. मैंने डरते-डरते अपनी नज़्म पढी. फिर ग़ज़ल का मुशायरा शुरू हुआ. ग़ज़ल पर मुझे एतमाद था. जब रिज़ल्ट एनाउंस हुए तो मुझे नज़्म और ग़ज़ल दोनों में फर्स्ट प्राइज़ मिले. यह मेरा स्टार्टिंग प्वाईट था…जहां से मैंने टेकऑफ किया. यह 1949 रहा होगा.

शायरी की बदौलत मिली रेडियो की नौकरी
कॉलेज में ही था तो एक शाम जुल्फ़ेकार अली बुख़ारी- ज़ेड.ए.बी.- जो रेडियो पाकिस्तान के हेड थे, पेशावर आए. उनके साथ में एक शेरी नशिस्त हुई. उसमें मैं भी शामिल था. चूंकि मैं सबसे कम उम्र था इसलिए सबसे पहले मुझे पढ़ने के लिए कहा गया. बुख़ारी साहब ने जो काफी बुजुर्ग़ थे, मुझे एक और ग़ज़ल सुनाने को कहा. जब मैं दूसरी ग़ज़ल पढ़ चुका तो वे बोले- ‘बेटा, जब भी रेडियो की नौकरी करने को जी चाहे तो दो लाइनें लिख देना और तुम रेडियो स्टाफ में शामिल ही जाओगे.’ ये मेरे दिल के लिए इतना बड़ा बढ़ावा था कि थोड़ी-सी रंजिश वालिद साहब से हुई और मैंने बुख़ारी साहब को ख़त लिख दिया कि मुलाज़मत करने को तैयार हूं. हफ़्ते के अंदर मुझे अप्वाइंटमेंट लेटर मिल गया और मैं स्क्रिप्ट राइटर की मुलाज़मत अख़्तियार करके कराची चला गया. कुछ अर्से बाद जब मैं पेशावर लौटा तो नून मीम राशिद डायरेक्टर होकर वहां आए. उन्होंने एक दिन मुझसे कहा – स्क्रिप्ट राइटर के लिए ज़रूरी नहीं कि वो नौ बजे आए और चार बजे जाए. तुम अपनी तालीम मुकम्मिल करो और दोपहर में आके जो लिखना हो साथ ले जाया करो और दूसरे दिन दे जाया करो. इस तरह मैंने फिर कॉलेज में दाखिला ले लिया. बीए के बाद एमए भी किया. पहले उर्दू में, बाद में फारसी में. इस दौरान मेरी दूसरी किताब ‘दर्द आशोब’ अहमद नदीम क़ासमी साहब ने छापी और उस पर मुझे आदमजी अवार्ड मिला, जो उस वक़्त का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड था…1966 में.

ज़बानों के बंटवारे से शायरी का नुकसान
आज के शायर फारसी ज़बान से आशना नहीं हैं इसलिए वो पूरा लिट्रेचर उनकी नज़रों से ओझल है. मेरे ख़याल से उर्दू में शायरी के लिए फ़ारसी का मुताला बहुत ज़रूरी है. क्योंकि उर्दू ज़बान अभी उस स्टेज पर नहीं पहुंची कि वो बाज़ महसूसात और ख़्यालात के लिए अल्फ़ाज़ मुहैया कर सके. उर्दू की वोकेबुलरी कमज़ोर है. बल्कि मैं तो उसके लिए मुफ़लिस का लफ़्ज़ इस्तेमाल करुंगा. इसकी एक वजह तो यह भी है कि बंटवारे के बाद हिंदोस्तान की उर्दू से फ़ारसी और अरबी लफ़्ज़ निकाल दिए गए और संस्कृत ज्यादा भर दी गई. इसी तरह पाकिस्तान में हिन्दी और संस्कृत के अल्फाज़ निकाल दिए गए. तो दोनों तरफ़ की ज़बानें, न सिर्फ़ कमज़ोर पड़ गईं बल्कि नामानूस लफ़्ज़ ज्यादा दाख़िल हो गए. इसलिए नए शायरों को, जो फ़ारसी, अरबी, हिन्दी और संस्कृत से नावाकिफ़ थे, उनके लिए एक हैंडीकैप साबित हुआ. सीनियर शायरों में नई ज़िंदगी के तजुर्बात कम थे और वो अपने आपको दोहराते रहे. चार-पांच मौजूआत ग़ज़ल का हिस्सा बन गए. एक शेर कफ़स और बुलबुल पर कहा तो दूसरा मयख़ाने पर कहा. तीसरा महबूब के क़ातिलाना क़िरदार पर और चौथा शेर रक़ीब की जलन में कह दिया. इस तरह एक फ़ार्मूला ग़ज़ल बनती रही. मैं पुराने क्लासिकल शायरों में ग़ालिब, सौदा, मीर और नज़ीर अकबराबादी को एहतराम से पढ़ता हूं. कंटेंपरेरीज़ में सब शायरों को पढ़ता हूं. अलबत्ता आने वाले शायरों से या जो हम से जूनियर हैँ, गिला ये है कि वो अपने तजुर्बों की बजाए मांगे-तांगे के मज़मून जमा करते हैं. यानी इश्क तो ‘ए’ या ‘बी’ करे और नौहानीरी ‘सी’ करता रहे. हिंदोस्तान के शायरों में फिराक़ मुझे पसंद था, अख़्तरुल ईमान कमिटमेंट की वजह से, किसी हद तक सरदार जाफ़री…और ज्यादा लोग दिल को नहीं खींच सके. इसलिए कि वो जो आग होती है, जो शेर को चमकाती है, उसकी कमी मुझे नज़र आई. आज के शोहरा में जो हमारे समकालीन हैं – उनमें अलबत्ता शहरयार बहुत अच्छी ग़ज़ल कह रहे हैं. उनकी नज़्मों में भी एक फ्रेशनेस है. बाक़ी – मैं सिर्फ़ अपनी पसंद की बात कर रहा हूं, कोई तफ़्सरा नहीं कर रहा हूं.

यहां और वहां के उर्दू लेखन में फ़र्क
असल में हमारे यहां पर ज़बान के मसले पर कोई ज्यादा इख़्तलाफ़ नहीं है. अलबत्ता पश्तो, सिंधी, पंजाबी के बारे में कभी-कभी कोई आवाज़ उठती है. उर्दू किसी सूबे की ज़बान नहीं है, लेकिन उसे एक क़ौमी ज़बान के ऐतबार से क़ुबूल कर लिया गया है. हिन्दोस्तान ने बहुत ही कमाल के शॉर्ट स्टोरी राइटर्स, नॉविलिस्ट्स और शायर पैदा किए हैं. नाम लेने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन पाकिस्तान में भी बहुत से नामवर शायर और अदीब पैदा हुए. लेकिन हिन्दोस्तान में तनक़ीद और तहक़ीक पर बेहतर और ज्यादा सॉलिड काम हुआ है. इस एतबार से पाकिस्तान हिन्दोस्तान से बहुत पीछे है. अलबत्ता शायरी में फ़ैज़ जैसे शख़्स ने उर्दू शायरी को बहुत इज़्ज़त बख़्शी है.

शायरी के बारे में
कविता एक म्यूज़ (प्रेम कविता की देवी) है कि जिससे मुझे इश्क है. चूंकि मैंने इस महबूबा को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया, ये भी मेरी ताक़त का सबब बनती रही है. जो दिल पर गुज़री – चाहे वो एक फ़र्द की मोहब्बत थी, लोगों की थी या वतन की, मैंने सच्चाई से बात की. उसमें सज़ा और इनाम दोनों का इमक़ान होता है और मुझे दोनों ही मिलते रहे. इसमें ये नहीं है – रिवायती शब्दों में नहीं, कभी-कभी बिल्कुल ऐसा लगता है कि मेरा ताल्लुक़ शेर कहने से दूर का भी नहीं और कभी इस तरह उतरती है जैसे शाख़ों पर फूल आ जाते हैं.
असल में थॉट अपने साथ कंटेंट और फॉर्म भी लाता है. बाज़औक़ात एक शेर में अपने तजुर्बे का इज़हार हो जाता है और वो इतना मुक़म्मिल होता है कि उसको मजीद बढ़ाने की ज़रूरत नहीं होती. अमूमन ये शेर ग़ज़ल की फॉर्म अख़्तियार कर लेते हैं. बाज़ मौज़ूआत ऐसे होते हैं कि जो दो मिसरों में नहीं महदूद हो सकते. उसके लिए सेंट्रल आइडिया को दूर तक ले जाना पड़ता है और वो नज़्म की शक्ल अख़्तियार कर लेता है. थॉट कंटेंट और फॉर्म से ज्यादा अहमियत रखता है. इमोशन अपने लिए कंटेनर ख़ुद ढूंढते हैं.

(अलीगढ़ में किया गया अहमद फ़राज़ का लंबा इंटरव्यू प्रेमकुमार की किताब ‘शऊर की दहलीज़’ में शामिल है. यह उसी के आधार पर साभार)

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