जब ‘मैला ऑंचल’ के आलोचकों को जवाब देने के लिए रेणु ने ख़ुद विज्ञापन लिखा

यह विज्ञापन ‘प्रकाशन समाचार’ के जनवरी 1957 के अंक में छपा. उन दिनों ‘मैला आंचल’ के ख़िलाफ़ छपे लेखों और उपन्यास के आलोचकों को जवाब देने की यह युक्ति फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ही थी. तमाम  आलोचनाओं के कारण जुटाते हुए यह विज्ञापन ख़ुद रेणु ने लिखा था. 

‘मैला आँचल’? वही उपन्यास जिसमें हिन्दी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिन्हों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है? मद्य-निषेध के दिनों में जिसमें ताड़ी और महुए के रस की इतनी प्रशस्ति गाई गई है कि लेखक जैसे नशे का ही प्रचारक हो. सरकार ऐसी पुस्तकों को प्रचारित ही कैसे होने देती है जी !

वही ‘मैला आँचल’ न, जिसमें लेखक ने न जाने लोक गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर जहां-तहां चस्पा कर दिए हैं? क्यों जी, इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा?

‘मैला आँचल’ ! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का सहस कर बैठे ! उछालिये साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना ही डुग्गी पीटने का है !

तुमने तो पढ़ा है न ‘मैला आँचल’? कहानी बताओगे ? कह सकते हो उसके हीरो का नाम? कोई घटना-सूत्र? नहीं न ! कहता ही था. न कहानी है, न कोई चरित्र ही. पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर ‘इंकिलास ज़िंदाबाग’ जरूर किया गया है. ‘पार्टी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्क’ और ‘जकसैन’ – भोंडे शब्द भरकर हिन्दी को भ्रष्ट करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है.

मुझे तो लगता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में या यूं कहूं कि हिन्दी-साहित्यिकों की आंखों में, ऐसी धुल-झोंकाई इससे पहले कभी नहीं हुई. ‘मैला आँचल’, ‘मैला आँचल’ सुनते-सुनते कान पाक गए. धूल-भरा मैला-सा आँचल ! लेखक ने इस धूल की बात तो स्वयं भूमिका में कबूल कर ली है एक तरह से !! फिर भी …

अरे, हमने तो यहां तक सुना है, ‘मैला आँचल’ नकल है किसी बंगला पुस्तक की और बंगला पुस्तक के मूल लेखक जाने किस लाज से कह रहे हैं, ‘नहीं ‘मैला आँचल’ अद्वितीय मौलिक कृति है.’ एक दूसरे समीक्षक ने यह भी कह दिया, जाने कैसे, कि यदि कोई कृतियाँ एक ही पृष्ठभूमि पर लिखी गयी विभिन्न हो सकती है तो ये है !

पत्थर पड़े हैं उन कुन्द जेहन आलोचकों के और तारीफ़ के पुल बांधने वालों के जो इसे ग्रेट नावल कह रहे हैं. ग्रेट नावल की तो एक ही परख हमें मालूम है, उसका अनुवाद कर देखिये ! कीजिये तो ‘मैला आँचल’ का अनुवाद अंग्रेजी में, फिर देखिये उसका थोथापन !

अरे भाई, उस मूरख, गंवार लेखक ने न केवल समीक्षाकों को ही भरमाया है, पाठकों पर भी लद बैठा है. देखते-देखते, सुनते हैं, समूचा एडिशन ही बिक गया – न्यूज़प्रिंट के सस्ता कागज़ पर छपा. एक कॉपी भी नहीं मिलती कई महीनों से ! ”

 


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