क़ुर्रतुलऐन हैदर | तालीमयाफ़्ता और चैतन्य औरतों के तसव्वुर वाला रचना संसार

सलवार-कुर्ते में एक महिला प्रविष्ट हुई हैं. मैडम सबको सुनाकर कहती हैँ – “हुमाँ! भान्जी है मेरी !” रेहाना ने गिलास में शर्बत लाकर मेज़ पर रखा है. कुछ संवाद चला है दोनों के बीच. आवाज़ तुर्श हो उठी, “इसको तुम ठंडा कहती हो? जाओ! मुझसे बहस मत करो!” भान्जी हस्तक्षेप कर पीने को कहती है. मैडम की बात के उत्तर में कहा गया है, “आप मेरी ज़िम्मेदारी हैँ.” मैडम खुलकर हँसी हैं. “मैंने कब कहा कि ये गर्म है!” सब ठहाके लगाने लगते हैं. ख़ुद भी. किसी खातून की चर्चा चल पड़ी है, “टिपिकल सोसायटी लेडी है. ऐसों के यहाँ जाना भी बेवकूफ़ी है.” कंज्यूमरिज़्म, शादी, दहेज की बातें करते-करते टीवी इश्तहारों, कार्यक्रमों पर इज़हारेख़्याल मुसलसल जारी है. मैडम का ख़याल है, “हर चीज़ तिजारत होती जा रही है. कंज्यूमरिज़्म हावी हो रही है. टीवी को देखो तो लगता है कि अफ़साने फुसफुस हो गए हैं. उनमें जान नहीं. हर शख़्स थक गया है. हर कहानी में महज़ एक ही पाराबल दिखाया जाना है – शादी. हर सीरियल का मसला केवल शादी है. जैसे हिन्दुस्तान में और प्रॉब्लम ही नहीं हैं. आजकल आदमी को ज़मीन से नापा जा रहा है. उनका मकान पाँच सौ गज़ में है, उनका हजार गज़ में, उनका… . यह पहले भी था, पर इतना तेज़ नहीं था. फॉरेन गुड्स का ऐसा मीनिया नहीं था.”

बातों का सिरा अब दोस्त के हाथ में है, “मैं पाकिस्तान गई तो देखा वहाँ हर चीज़ बाहर की; मिक्सी, ग्राइंडर, कॉस्मेटिक्स… .” हुमाँ बोलीं, “पहले हम बाहर की चीज़ों के इस्तेमाल की बात पर, पाकिस्तान पर हँसते थे. अब देखो इंडिया में भी अपनी चीज़ों के लिए पहले जैसा गर्व नहीं रहा.”

तभी ब्रीफ़केस लटकाए एक युवा रेहाना के साथ तेज़ी से अन्दर आता है और अधिकारपूर्वक तख़्त पर आ बैठता है. हुमाँ चहककर बता रही हैं, “डॉक्टर साहब, कल से आपको याद कर रही हैं! आपको देखकर पच्चीस पर्सेंट इम्प्रूवमेंट तो अपने आप हो जाता है.” डॉक्टर उनके स्वास्थ्य में आए सुधार को देखकर ख़ुश हैं. मैडम डॉक्टर को देखकर ख़ुश भी हैं, उत्साहित भी! बड़े जोश में कहती हैं, “आई कैन वॉक अराउंड…” खड़ी हुईं, चलके दिखाया. गजब का जोश, जज़्बा! कुछ इठलाती-हँसती चल रही हैं, “अब फ़ैशन परेड, ब्यूटी परेड कर रही हूँ?” लौटते में हाथ नचाकर, हिलाती-लहराती-सी चलने लगी हैं! कमरे में हँसी गूँज उठी है. सब ओर ठहाके ही ठहाके. दुर्लभ था क़ुर्रतुलऐन हैदर – जितनी बड़ी लेखिका – को उस तरह चलते देखना. कैमरे के उपयोग का बहुत मन हुआ, पर हिम्मत नहीं हुई. फिर दुबई, वहाँ के मौसम, वहाँ की धूल और रेत की बातें. डॉक्टर कह रहे हैं, “इंडिया में जहाँ भी जाएँगी, धूल तो होगी.” भान्जी सलाह देती हैं, “बॉम्बे चली जाइए! सुल्ताना खाला के पास !” अब डॉक्टर बातचीत में शामिल हैं. डस्ट के कारण व्यक्तियों की दुर्गति का ज़िक्र करते-करते उन्होंने कहा है कि “हमारे यहाँ जितना एक-एक नेता के जन्मदिन पर ख़र्च होता है, उतने में अस्पताल बन सकता है. कहा जाता था कि औरतें करप्ट नहीं होंगी. पॉलिटिक्स में बेहूदगी नहीं करेंगी. पर देख लो कुछ ने तो मर्दों को भी पीछे छोड़ दिया है.” सबके साथ मैडम भी हँस रही हैं, ख़ूब हँस रही हैं. मैंने ख़ुद से पूछा कि हिन्दुस्तान के कितने घरों में ऐसी चर्चाएँ, ऐसी चिन्ताएँ, इतनी देर तक सुनने को मिल सकती हैं? संकीर्ण व्यक्ति तो शायद किसी मुस्लिम घर में इस सबकी कल्पना भी न कर सके!

कमरे की रैक में करीने से किताबें लगी हैं. रेहाना ने डाइनिंग टेबिल पर बर्तन लगाना शुरू कर दिया है. रेहाना की स्थिति और व्यवहार उसके बारे में जानने की जिज्ञासा को निरन्तर बढ़ा रहे थे. राशिद से जाना कि वह बारह वर्ष की उम्र से वहीं है. पहले उसकी नानी यहाँ थी. अब भी वह खाना बनाती है. रेहाना अपने पति के साथ इसी घर में रहती है. कोई होटल चलाता है वह. ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है. मैडम ने बहुत कोशिश की पढ़ाने की, नहीं पढ़ी. साल भर पहले तक घर का सारा हिसाब-किताब वही देखती थी. दो बार मैडम के साथ इंग्लैंड की यात्रा कर चुकी है.

खाने की मेज़ पर चार लोग बैठे थे – मैडम, उनकी दोस्त, राशिद और मैं. वे दोनों बोले जा रही हैं, हम दोनों सुने जा रहे हैं. रेहाना प्लेट लगा चुकी है. खाने का सामान सामने सजा है. तरह- तरह की चीज़ें. मेरी प्लेट में गोश्त न देख मैडम ने रेहाना से पूछा था, “ रेहाना, तुमने ये कैसे जाना कि ये गोश्त नहीं खाते?” इन्होंने सबसे पहले सब्ज़ी उठाई!” शान्त, शालीन रेहाना उस क्षण मुझे ज़हीन भी लगी. तो क्या लियाकत भी संक्रमित होती है?

बातों का सिलसिला जारी था. दहेज के बाद लड़कियों के जलाकर मारे जाने की बातें. “ रेहाना, देखो ये गर्म है. मैं गर्म रोटी नहीं खाऊँगी!” मैडम ने बायें हाथ से जग उठाकर औरों के गिलासों में पानी भरा है. छोटी-छोटी बात का ध्यान, तवज्जो, ख़ातिरदारी, ये लो, वो लो, आग्रह-आदेश! बायें हाथ से रोटी का टुकड़ा तोड़कर अपने मुँह तक ले जाती हैं. दोस्त ने महिलाओं की उर्दू पत्रिका ‘इस्मत’ के किसी अंक की चर्चा चलाकर एक ऐसी लड़की का ध्यान दिलाया है, जिसने शादी से इनकार कर दिया था. मैडम का खाना रुक गया. बोलीं, “1947 से बहुत पहले के ऐसे क़िस्से छापे जाएँ जिनसे मालूम हो कि उस समय लड़कियाँ कितनी प्रोग्रेसिव थीं. आजकल यह समझा जाता है कि आज़ादी के पहले कोई तरक़्क़ी नहीं हुई थी. 1936 में उर्दू की मशहूर लेखिका हेजाब इम्तियाज़ अली ने पायलट का लाइसेन्स लिया था. उर्दू का ज़माना प्रेस और चालीस वर्ष पहले से ताक़तवर था और अनगिनत लेखिकाएँ उर्दू की मशहूर राइटर बन चुकी थीं. ये बातें उर्दू से अनजान लोगों को बहुत कम मालूम हैं. एक वाक़या याद आया. एहतेशाम साहब गए थे अमरीका. मैं लन्दन में थी. मैंने पूछा, वहाँ प्रोग्रेसिव लोगों के क्या हाल हैं? बोले कि वे इंडिया की तरफ़ देखते हैं. हमसे डायरेक्टिव माँगते हैं.”

फ़ोन को घंटी बजी. हुमाँ ने बताया कि कराची से था, ये बात हुई. फ़ोन फिर बजा! “हुमन्न आपा से बात कीजिए! पिंडी से फ़ोन है,” कहती हुई हुमाँ फ़ोन मैडम को पकड़ा देती हैं. “हाँ, हलो हुमन्न आपा!… ठीक हूँ!… माशाअल्लाह !… ठीक है ….ठीक है !” फ़ोन फिर से भान्जी को दे देती हैं. पासपोर्ट, वीज़ा, तारीख़, समय आदि की बातें. टेलीफ़ोन के बाद देर तक दो देशों के आपसी रिश्तों में तनाव पर चर्चा होती रही. अपनों से न मिल पाने के दर्द की बातें होती रहीं. बँटवारे पर दुख और अफ़सोस की बातें की जाने लगीं. दोस्त और हुमाँ बोले जा रही थीं. मैडम चुप थीं, शान्त थीं. केवल सुन रही थीं. हुमाँ ने जब एक शिकायत तकलीफ़ भरी आवाज़ में की, “उफ़, गज़ब है कि अब कैसे-कैसे संगठनों के नाम अलकायदा, अलमदीना…रखे जा रहे हैं. रिलीजन का कैसा कबाड़ा कर रहे हैं लोग!” तो दोनों दोस्तों ने बड़ी लम्बी साँस ली थी.

लड़के-लड़की में अन्तर करने की कोई बात थी. भान्जी बताने लगी, “हम बिजनौर के एक क़स्बे के रहने वाले हैं. हमारे एक रिश्तेदार हैं. उनका एक लड़का है – अपाहिज़! माँ-बाप दोनों ख़ुश हैं. कहते हैं – माशाअल्लाह, लड़का तो दिया अल्लाहताला ने! अब आप देखिए, लड़का चाहिए भले ही अपाहिज हो!” मैडम ने एक ऐसे आदमी का क़िस्सा सुनाया, जो अपनी लड़की के इन्तकाल पर अफ़सोस जताने वालों से कहता था, कोई बात नहीं. वह लड़की थी. आवाज़ तेज़ हुई, “लड़कियाँ जलें, दहेज माँगा जाए और फिर हम कहें कि हिन्दुस्तान ने तरक़्क़ी है. उफ़, शादी न हुईं, अजाबेजान हो गई.”

सब खरबूजों के बेहद मीठे होने की बात कह रहे हैं. मैडम ने आम खाना शुरू किया, “ देखो. अब मैं आम खा रही हूँ! बदतमीज़ी से खाऊँगी! माफ़ करना!” फ़ोटो खींचने की इच्छा ने ज़ोर मारा. इजाज़त माँगने पर तुरन्त इनकार, “नो, नो प्लीज़ नो! नॉट एट आंल!” मैंने इन्दिरा जी की आम खाने की ख़ासियत का ज़िक्र किया. नाम सुनते हो बोली, ” आप मिले हैँ उनसे? वो अच्छी थीं, बड़ी थीं. हमेशा पहले सलाम करने में पहल करती थीं.”

खाने के तुरन्त बाद वे दोस्त और भान्जी के साथ सोने के कमरे में चली गई. इरादा बनाया कि अब मैडम से बातें हों या न हों, उनके करीबियों से ढेर सारी बातें जाननी हैं.

किस करीबी से क्या जानने के लिए क्या प्रश्न किया, क्या युक्ति की, यह मुख्य नहीं है. उनका बताया मुख्य है. डाइनिंग टेबिल पर बैठे-बैठे राशिद से मैडम के जीवन और साहित्य पर बातें होती रहीं. बड़े उत्साह और अधिकार से उन्होंने कई जानकारियाँ दीं, “किताबें, मैग्ज़ीन, अख़बार मैं पढ़कर सुनाता हूँ. आप जब आए थे, मैं ख़बरें पढ़कर सुना रहा था. हाँ, पूरी ख़बरें सुनती हैं. इराक़, अफ़गानिस्तान, इंग्लैंड, अमरीका, चोरी, मर्डर, फ़साद सब! बालातर-हिन्दू-मुसलमान, उन्हें न्यूज़ चाहिए. बुरे काम के साथ मुसलमान का नाम सुनकर अफ़सोस करती हैं कि मुसलमान होकर बुरा काम कर रहा है. बेरोजगारों की न्यूज़ पर बहुत अफ़सोस ज़ाहिर करती हैं, ये सब इतने पढ़े-लिखे बच्चे कहाँ जाएँगे? जी उस दौर में बग़ावत करना आसान नहीं था. पर्दे की पाबन्दी की वजह से अलीगढ़ विश्वविद्यालय से एमए नहीं किया. फिफ़्थ में दाख़िल हुईं तो उस्तानी ने सिर पर दुपट्टा डालने को कहा. वह अकेली फ़्रॉक में थीं. घर आकर अपने वालिद से कह दिया कि मैं यहाँ नहीं पढ़ूँगी. जब एमए के लिए अलीगढ़ गईं तो वहाँ सिर्फ़ एक ही लड़की. बुर्का पहनने की शर्त थी. उन्होंने कहा कि मेरी माँ ने 1920 में पर्दा करना छोड़ दिया था तो भला अब मैं क्या बुर्का पहनूँगी? इसलिए वह फिर वापस लखनऊ चली गईं. फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी से एमए किया. इंग्लिश में एमए हैं. उर्दू विषय नहीं है. इनके वालिद रोशन-ख़याल के थे. इनकी माँ हारमोनियम बजातीं, सितार बजाती थीं. ‘कारे-जहाँ दराज है’ इकबाल के शे’र पर है, तीन वॉल्यूम में है, आत्मकथात्मक है. कई विधाओं में लिखा, कई किताबें ख़ूब मशहूर हुईं. पहला उपन्यास ‘मेरे भी सनमखाने’ 47 से पहले लिखा. इन्होंने सबसे पहले ‘फूल’ मैगज़ीन में मजामीन लिखे. पढ़ने-लिखने का उनके घर में माहौल था. कहानी लिखी. भेजी, छप गई. लेखक हो गईं. ‘ग़ालिब अवार्ड, बहादुरशाह ज़फ़र अवार्ड, साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कार मिले. ज़फ़र अवार्ड मिला तो ले ही नहीं रही थीं. बहुतों ने कहा कि पैसा ग़रीबों में बाँट देना. मुश्किल से मानीं. पैसों के पीछे नहीं भागतीं. रेहाना को बहुत छोटे से रखा है. उसकी शादी की. घर में अब ड्राइवर है, रेहाना और उसकी नानी हैं, दो नर्सें हैँ, मैं हूँ. यात्राएँ सेहत की वजह से बहुत कम करती हैं. साँस की तकलीफ़ रहती हैँ. आने-जाने वाले काफी लोग हैं. राइटर्स बहुत आते हैं. ग़रीबों के लिए अक्सर कुछ न कुछ करती रहती हैँ. प्रकाशक जो थोड़ा बहुत दे दें, वह ठीक है. पैसे की कभी चिन्ता नहीं की. बस लिखा हुआ पब्लिक तक पहुँच जाए. पब्लिसिटी की कभी चाह नहीं की. हाँ, हाँ, क्यों नहीं? ग़ुस्सा भी करती हैं, प्यार भी. हाई ब्लड प्रेशर हो तो किताब पटक देती हैं. लिखने में ग़लती देखेंगी तो बिगड़ जाएंगी. थोड़ी देर बाद सँभलते ही प्यार करेंगी. अपने को कभी पोज़ नहीं किया. शुरु में हम समझते नहीं थे. ग़ुस्सा आता तो कलम फेंक देतीं. कहतीं,”मैँ लिख नहीं सकती. मेरी मजबूरी है.” बाद में समझातीं. बहुत ग़ुस्से में भी गाली कभी नहीं. पाँच साल में मैंने उनके मुँह से एक भी गाली नहीं सुनी. अब देखिए, भाई से मिलने पाकिस्तान जाना है. किताबों की लिस्ट बनवा रही हैं. लोग किताबें ले जाते हैं और लौटाते नहीं हैं. जी, औरों को यही लगता है कि भूल जाती हैं. छोटी-मोटी बातें भूल जाएंगी मगर साहित्य की सब बातें तारीख़ के साथ याद रहती हैं. 1907 में इनकी नानी अकबरी बेगम ने नॉवेल लिखा – ‘गूदड़ का लाल’. फिर-फिर छपा. अब नायाब है. आपा के पास एक कॉपी थी. उसके शुरू और आख़िर के पेज फट गए थे. मैं लाइब्रेरी से जीरॉक्स कॉपी करा लाया. दोबारा छपवाने को कह रही हैं. अपनी मां की किताब छपवा रही हैं. प्रेस में है – ‘कुल्लयात नज़र सज्जाद हैदर’. दो ज़िल्द में. जी हां, रिश्तों की याद और अक़ीदत का एक ढंग है यह. जी ‘ आग का दरिया’ पाकिस्तान में ही लिखा. मेरे रहते दो बार लंदन और एक बार पाकिस्तान गई हैं. इनके भाई जर्नलिस्ट हैं पाकिस्तान में. वालिद सज्जाद हैदर यल्दरम और माँ नज़र सज्जाद हैदर दोनों मशहूर राइटर रहे हैं. वालिद एएमयू के पहले रजिस्ट्रार थे. वहीं रजिस्ट्रार हाऊस, अलीगढ़ में इनका जन्म हुआ. वालिद की शादी ’11 या ’12 में हुई. वालिदा शादी से पहले एक नॉवेल लिख चकी थीं – ‘अख़तरुन्निसा बेग़म’.

दोबारा सोफ़े पर आकर बैठा तो राशिद ने प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ़ के एक शो केस में रखे एक हेड की ओर इशारा करते हुए कहा, “यह हर मुस्लिम घर में नहीं मिलेगा.” दाहिनी दीवार के कुछ फ़ोटो बरबस ध्यान खींचते हैं. खुले, लम्बे, बिखरे बालों में बेहद हसीन, ख़ूबसूरत लड़की का फ़ोटो. पता लगा – ऐनी आपा हैं. जवानी का फ़ोटो है. फिर से देखा, देर तक देखा. दंग करती लाजवाब ख़ूबसूरती! “दाढ़ी में ये बड़े सरकार हैं. सूफ़ी हैं. इनके यहां भी सूफ़ी की ख़ुसूसियत है. पैंट-सूट-टाई में ये इनके चचा हैं. इस वाले फ़ोटो में दो चचा हैं औऱ फ़ादर सूट-टाई में चेयर पर बैठे हैं. ये इधर भाई-भाभी का फ़ोटो है. ये माँ का है. माँ का ये स्केच ख़ुद बनाया है. ये पेंटिंग भी ख़ुद ही बनाई है माँ की. इस वाली रैक में इंग्लिश की किताबें. हर कमरे में किताबें. उर्दू की अलग. ख़ास सोने वाले कमरे में.” राशिद को सुनता हुआ मैं आपा के जीने के ढंग के बारे में सोच रहा था. उनकी याद और अक़ीदत के तरीक़े पर मुग्ध हो रहा था.

रेहाना शायद अपने कमरे से आराम करके निकली थी. उसे बहलाया – फुसलाया. चुप-चुप बातें कीं. वह बोली तो, पर बेहद आहिस्ता-आहिस्ता, “जी, फ़ोटो तो है, पर उनकी बिना इजाज़त के नहीं. उनसे इजाज़त ले लें. जी, छोटी थी मैं तब जब नानी काम करती थीं. उनके साथ आती थी मैं. बारह की हुई तो यहीं रहने लगी. अब तेईस की हूँ मैं. ग़ुस्से में काफी फ़र्क़ आया है. शुरू में तो बेहद ग़ुस्सा! डाँट! उफ़, कोई सामने खड़ा नहीं हो सकता था. कैसे बताऊं! कभी ज़ाहिर नहीं हुआ प्यार! इनके प्यार का तरीका बिल्कुल अलग है. औरों की तरह नहीं है. हाँ, मुझे अच्छी लगती हैं.” मन हुआ कि कहूँ – रेहाना जब वे ख़ुद औरों की तरह नहीं हैं तो उनका प्यार का तरीका औरों जैसा क्योंकर होगा!

भान्जी का घर मैडम के घर के पास ही था. पहुंचा. तब ड्राइंग रूम में हम दो लोग ही थे. “जी, वे मेरी ख़ाला हैं. ज़्यादा उम्र नहीं थी जब वे पार्टीशन के समय पाकिस्तान गईं. परिवार गया तो जाना पड़ा. वे क्या करतीं? पर वहाँ उन्हें एक मिनट अच्छा नहीं लगा. हमारी दादी-नानी बड़ी रौशन-ख़्याल थीं. पर्दा नहीं करती थीं. हैदर ख़ानदान उस ज़माने में भी सबसे अलग था. हम हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े रहे. मैं बारह साल की थी जब मैंने ऐनी ख़ाला को देखा. हमारे यहाँ अलीगढ़ में कुछ दिन रहीं. तब हमारे यहाँ राही मासूम रज़ा, आले अहमद सुरूर, जज़्बी वगैरह सब आते थे. बहुत कुछ सीखा साथ रहकर. जी हाँ, उनके अफ़सानों में औरत – पढ़ी-लिखी, चैतन्य. रोमांस से दूर तक ताल्लुक़ नहीं. सेक्स का दूर तक वास्ता नहीं. इंटलेक्चुअल – समूची औरत. जैसी ख़ुद हैं, वैसी औरत. तसव्वुर है औरत का – तालीमयाफ़्ता, सोशियली एण्ड पॉलिटिकली अवेयर. हमारे ख़ानदान की ज़्यादातर औरतें बिल्कुल इसी तरह की थीं और हैं, जो मेन स्ट्रीम ऑफ लाइफ़ में शेयर करती हैं. उनका कैनवस बहुत बड़ा है. कोई भी उम्र, कोई भी देश वहाँ आ सकता है. नहीं, नहीं! हमने कभी देखा-सुना नहीं किसी ख़ास लगाव के बारे में, शी इज़ ए वेरी स्ट्राँग लेडी. सबसे अलग. लेकिन बहुत रहमदिल भी हैं. सच्ची कलाकार. अपने नौकरों की सारी तकलीफ़ देखना-समझा. आप सोच नहीं सकते कि वे इन लोगों पर कितना ख़र्च करती हैं!

गाँव में हमारी बहुत प्रॉपर्टी है. आम के बाग़, इमारतें, ज़मीन वगैरह. मेरे अब्बा की मौत हुई तो बोलीं, “इसे कभी बेचना नहीं. अपने रूट्स से मत कटना.” आज तक वह प्रॉपटी यूँ ही है. बारहा कहती रहती हैं, “मैं आज तक नहीं समझी कि लोग पाकिस्तान कैसे चले गए? अपने मकान, गली, मुहल्ले छोड़कर कोई भला जा सकता है?” बदक़िस्मती देखिए कि आज के इस दौर में मुसलमानों के सिम्बल कौन लोग माने जा रहे हैं? क्या बताऊँ और उनके बारे में! वे बहुत ‘प्राइवेट’ पर्सन हैं. सेंसिटिव, ग़रीबपरवर! इस हद तक कि अपने इंट्रेस्ट्स नहीं देखेंगी. हम ग़रीबपरवर बनते हैं, पर अपना मतलब ज़रूर देखते हैं. उन्हें टमाटर का भाव नहीं मालूम पर संस्कृति, तहज़ीब, इतिहास, भारत, यूनान, मक्का का कुछ बताने लगें, तो न तारीख़ भूलें, न साल! बताते समय दुनिया भूल जाएँगी.”

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