बरेली में होली के मौक़े पर रामलीला की अनूठी परंपरा

  • 11:21 am
  • 4 March 2020

फागुन में रामलीला! सुनने में यह कुछ अजीब लग सकता है मगर यह सच है कि बरेली वाले साल में दो बार रामलीला का मंचन देखने जुटते हैं. हालांकि रामलीला दशहरे से पहले कार्तिक में खेलने की परंपरा है और दशहरे के रोज़ रावण का पुतला जलाने और अगले रोज़ राजगद्दी निकालने के बाद यह सम्पन्न होती है मगर बरेली में होली के एक रोज़ पहले भी रावण का पुतला जलता है और होली वाले दिन राजगद्दी निकलती है,जिसमें हुरियारे रंगों के ड्रम और बड़ी-बड़ी पिचकारियों के साथ जुटते हैं. बमनपुरी मोहल्ले में होली के मौक़े पर रामलीला की यह परंपरा बहुत पुरानी है. पहले तो मोहल्ले के लोग ही मिलकर रामलीला करते थे मगर बदले दौर की व्यस्तता के चलते अब मंडली बुलाई जाने लगी है. एक ख़ूबी यह भी है कि रामलीला के लिए यहां कोई मैदान नहीं है, नृसिंह मंदिर परिसर में मंडली के कलाकारों के ठहरने का इंतज़ाम होता है. यही उनका ग्रीन रूम भी होता है. रामलीला के प्रसंग के मुताबिक इसके मंचन का ठिकाना भी बदलता रहता है – कभी सड़क पर, कभी किसी घर, मंदिर या दुकान के चबूतरे पर. लीला का मंच बमनपुरी के हनुमान मंदिर, छोटी बमनपुरी और साहूकारा मोहल्ले में भी सजता है.

होली के मौक़े पर बमनपुरी की इस रामलीला की शुरुआत सन् 1861 में हुई. हालांकि होली के मौक़े पर रामलीला के आयोजन की वजह के बारे में बहुत प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती. बमनपुरी में रहने वाले साहित्यकार मधुरेश बताते हैं कि वह अपने बचपन से ऐसे ही देखते आए हैं. यों लीला में वह छोटे-मोटे काम की ज़िम्मेदारी भी संभालते रहे मगर इस अनोखी शुरुआत के ब्योरे के बारे में अनभिज्ञता जताते हैं. उन्हें यह याद है कि पूरा मोहल्ला बड़ी तन्मयता से इस आयोजन में जुटा रहता. हर शाम मेला जुटता. चूंकि राधेश्याम रामायण के कई प्रसंग उन्हें कंठस्थ थे तो संवाद याद करने में कलाकारों की मदद करने का ख़ास रुतबा उन्हें हासिल था.

क्षेत्रीय इतिहास के विशेषज्ञ सुधीर विद्यार्थी के मुताबिक होली के मौक़े पर हुड़दंग को रोकने के इरादे से यह पहल की गई थी. वह बताते हैं कि हिन्दू धर्मावलंबियों और कुछ मुस्लिम संतों ने मिलकर हंगामा-हुड़दंग रोकने और सौहार्द बरक़रार रखने की नीयत से यह पहल की और इस तरह रामलीला के मंचन की नींव पड़ी. मोहल्ले के कुछ लोग भी इस बात से इत्तेफाक़ रखते हैं. अपने बड़ों से उन्होंने सुना था कि अंग्रेज़ अफ़सरों ने रामलीला मंचन रोकने की कोशिश की थी तो दरगाह-ए-आला हज़रत के सज्जादानशीं ने दख़ल देकर यह रवायत बरक़रार रखने में मदद की. नृसिंह मंदिर में बैठने वाले ज्योतिषी केसरीनंदन का मत है कि कुछ ग्रंथों में रावण के वध का दिन चैत्र सुदी द्वादशी बताया गया है, संभव है कि पुराने लोगों ने इसी आधार पर फागुन के आख़िर में रामलीला के बारे में सोचा होगा.

हालांकि अब जब यह रवायत 159 साल पुरानी हो गई है, किसी को यह जानना बहुत ज़रूरी भी नहीं लगता कि आख़िर लीक से हटकर रंगों के दिनों में लीला की यह परंपरा क्यों पड़ी? धार्मिक विश्वास और मान्यताओं के अलावा मोहल्ले के लोगों को इस बात पर भी गर्व होता है कि इस वजह से उनकी ख्याति और पहचान शहर की हदों के बाहर भी बनी है. रामलीला के दिनों में मोहल्ले के साथ ही आसपास का माहौल वक़्त के साथ कुछ बदला ज़रूर है मगर लोगों की शिरकत और जोश बरक़रार है. काफी लम्बी सड़क पर अयोध्या, चित्रकूट और लंका के ठिकाने कभी अलग औऱ दूर-दूर हुआ करते थे. नृसिंह मंदिर के पास जहां राम-लक्ष्मण का सिंहासन सजता, वहां अब हलवाई की दुकान खुल गई है. अशोक वाटिका तो ख़ैर अब भी मूंछ वाले हनुमान जी के मंदिर पर ही बनाई जाती है. पूरी रामलीला में तीन प्रसंग बहुत महत्व के होते – धनुष यज्ञ, दशरथ की मृत्यु और अंगद-रावण संवाद. कुछ रामचरितमानस और राधेश्याम रामायण की चौपाइयों का प्रभाव तो कुछ अभिनय और गायकी की कशिश इन दिनों ज्यादा भीड़ की शक्ल में मालूम होती.

ऐसी कितनी ही रामलीलाओं की स्मृति संजोये मधुरेश याद करते हैं कि उन दिनों रामलीला पूरी हो जाने के बाद बाहर से आई मंडली के कलाकार दो दिन और रुककर नाटक भी करते. नाटक करने के लिए वह अलग से कोई पैसा नहीं लेते मगर नाटक के दौरान आरती की थाली में लोगों से यथासंभव दक्षिणा की उम्मीद करते थे और लोग देते भी थे. वह यह रेखांकित करना भी नहीं भूलते कि गुज़रा हुआ ज़माना धार्मिक आयोजनों के साथ ही आपसी मेल-मिलाप और धर्म की उदारता की बेहतरीन नज़ीर भी पेश करता था. रामलीला के दौरान हर रोज़ मेला अब भी जुटता है मगर उन दिनों सी रौनक़ अब कहां? तब मेले का मतलब खान-पान और ख़रीदारी भी हुआ करता था. बच्चों के लिए खिलौने तो महिलाओं की ज़रूरत वाले बिसातख़ाने का सामान लेकर आने वाले अधिसंख्य लोग मुसलमान होते थे. मेले में उनकी बराबर की भागीदारी रहती थी.
पिछले कई वर्षों से अयोध्या की मंडली यहां रामलीला करती है. मंडली के संयोजक छोटे भइया शर्मा कहते हैं कि बमनपुरी के इस आयोजन सी कोई और मिसाल नहीं. व्यास मुनेश्वर दास उनकी बात में यह भी जोड़ते हैं कि मतलब तो हरिनाम सुमिरने से है तो फिर क्या होली और क्या दशहरा?

तो बमनपुरी का दशहरा इस बार 9 मार्च को है, रावण का पुतला भी उसी रोज़ जलेगा.


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