लोग-बाग | सोबरन प्रसाद
हर शहर की तरह बरेली में भी पान खाने वालों के लिए कितनी ही दुकानें हैं, मगर पुराने शौकीनों के अपने पसंदीदा ठिकाने हैं. अब अपने महबूब शायर वसीम बरेलवी को ही ले लीजिए, वह अपने घर में हों या शहर में कहीं और, पान की तलब लगने पर वह एक ही शख़्स को याद करते हैं – सोबरन प्रसाद.
पान की ख़ातिर किसी को नाम से याद करने की एक वजह तो यही है कि नॉवल्टी चौराहे पर पान के उस ठिकाने की पहचान यह नाम भर ही है, वहां कोई बोर्ड कभी नहीं रहा. दुकान की सबसे पीछे वाली दीवार पर हमेशा से ‘सादी पत्ती, सादा पान’ की दो सतरें लिखी मिलती हैं. और सिर्फ़ दो ही तरह का पान यहां मिलता भी है.
डुमरियागंज के सोबरन प्रसाद चौरसिया पान लगाने के अपने शौक के चलते ही घर छोड़कर भाग आए थे. बनारस और लखनऊ होते हुए बरेली पहुंचे. तब बड़ा बाज़ार में उनके जीजा मक्खन लाल की पान की दुकान हुआ करती थी, कुछ समय तक उनके साथ रहे. फिर नॉवल्टी टॉकीज़ के पीछे वाले हिस्से में एक छोटी-सी जगह में अपना ठिकाना बनाया. यह बात सन् 1952 की है. नॉवल्टी सिनेमा तो जाने कब का बंद हो गया, वहां अब शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन गया है, मगर सोबरन का पान का ठिकाना हमेशा की तरह आबाद है.
उनके हाथ का पान शौकीनों की ज़बान पर ऐसा चढ़ा कि सेठों-रईसों के नौकर-मुंशी पनडब्बा लिए दुकान के सामने खड़े होकर अपनी बारी का इंतज़ार करते. सरकारी दफ़्तरों में काम करने वाले कितने ही लोगों का रास्ता भी यहीं से होकर गुज़रता. नवंबर से अप्रैल तक मगही और बाक़ी दिनों जगन्नाथी पान. चूना-कत्था और सादी पत्ती तो ख़ुद ही बनाते रहे हैं.
वह कहते हैं कि डिब्बे वाली तंबाकू में क्या डालते हैं, उन्हें नहीं मालूम और जब उन्हें ही मालूम नहीं तो अपने ग्राहक को भला कैसे खिला दें! और यही वजह कि दूसरों की देखा-देखी उनके बेटों ने भी जब कारोबार बढ़ाने के लिए डिब्बे वाली तंबाकू, गुटका, बीड़ी-सिगरेट, कोल्ड-ड्रिंक, चिप्स जैसी चीज़ें दुकान में रखने पर ज़ोर दिया, तो उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया. बक़ौल सोबरन प्रसाद, ‘हम पान वाले हैं, बिसातख़ाने की दुकान क्यों लगाएं?’
यों वह बहुत कम बोलते हैं, मगर दिलचस्प बातों का ख़ज़ाना हैं. जब वह यहां आए थे, तब लस्सी की दुकान के सिवाय उनके सामने वाली पटरी पर कुछ नहीं था. कभी-कभार आते-जाते सेठ लोग पान खाने के लिए रुक जाते तो उन्हें यह भी याद है कि उन दिनों शहर में सिर्फ़ नौ मोटरें हुआ करती थीं, कुछ नाम भी गिनाते हैं – चमन कोठी वाले, बियाबानी कोठी वाले, सरदार बलवंत सिंह, हृदय नारायण गोयल, फूलबाग़ वाले राजा साहेब.
पान खाने वालों के तमाम क़िस्से उनकी स्मृति में हैं. इसरार करने पर उन्होंने एक मज़ेदार क़िस्सा सुनाया – एक बार कोई नए शौक़ीन आए. बड़े ग़ौर से पान लगाना देखते रहे, फिर खाने के बाद बोले कि आप कत्थे में आरारोट मिलाते हैं. हमने कहा कि बिल्कुल नहीं. वो नहीं माने तो मैंने कटोरे का कत्था फेंककर उनके सामने ही कटोरा धो दिया. उन्हीं के सामने दोबारा कत्था बनाया. फिर पान लगाकर दिया कि अब खाकर बताइए. वह बेचारे शर्मिंदा-से लौट गए. तंबाकू के बारे में एक दोहा सुनाया – तुरुक देस से चली तमाखू/ आय आगरा छाय/ जिसके तन पर कपड़ा नाहीं/ उहौ तमाखू खाय.
उन्हें बताया कि किशोर कुमार कहा करते थे कि पान बहुत बढ़िया चीज़ है मगर न जाने किस बेवक़ूफ़ ने इसमें तंबाकू डालने की सोची होगी. सोबरन ने मुस्कराते हुए कहा, ‘देखो भइया, ये तो अपनी-अपनी पसंद की बात है, अब उनको तो बता नहीं सकते मगर आप हमारी भी सुन लो – कृष्ण चले बैकुंठ/ राधिका पकड़ैं बांह/ इहां तमाखू खाय लेओ/ ऊहां मिलैगी नांय.’
[अमर उजाला के 24 अप्रैल के संस्करण में प्रकाशित]
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