पुस्तक अंश | कथावाचक के शब्दों की ताक़त

राधेश्याम कथावाचक पर हरिशंकर शर्मा के आलेखों की नई किताब ‘जीवन की नींव’ का अंश. इस आलेख का अगला हिस्सा कल पढ़ें. ‘जीवन की नींव’ का विमोचन एक अप्रैल को बरेली में होगा.

भारत में कथावाचन की एक समृद्ध परम्परा रही है. महर्षि वेदव्यास इस परम्परा के आदर्श हैं. उन्होंने तीर्थ क्षेत्र नेमिशारण्य (नीमसार) में समस्त ऋषियों के संरक्षण में ‘सूत-पुत्रों’ को पुराण पढ़ने-पढ़ाने तथा उनका भाष्य करने का कार्य प्रारंभ कराया. इस आयोजन के पश्चात प्रतीक रूप में कथास्थल को ‘व्यासपीठ ‘ तथा कथा कहने वालों को ‘व्यास’ (कथावाचक) कहा गया.

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि लौकिक भाषा में रामायण कहने वाले पहले ऋषि हैं. रामकृष्ण तथा अन्य देवी-देवताओं के चरित्रों को व्यासों ने अपनी-अपनी कथा में ढाला. इस व्यास परम्परा को ही आधुनिक युग में कथावाचक कहा गया अर्थात जो कथावाचन का कार्य करे, वही कथावाचक. अधिकांश कथावाचक स्वयं को धर्मोपदेशक मान बैठे. अत: उनके संरक्षण में धार्मिक अंधविश्वास और पाखण्डों का बाज़ार गर्म होने लगा. वे जनता के सच्चे मार्गदर्शक न होकर धर्म के ठेकेदार बन बैठे.

आज़ादी से पूर्व के कथावाचकों में पंडित राधेश्याम कथावाचक ऐसे पहले कथावाचक हैं, जो अपनी कथा द्वारा जनता के सामने देश की आज़ादी, सांस्कृतिक चेतना तथा सनातन धर्म की सही तस्वीर रखते हैं. सबसे पहले उन्होंने ही रामकथा को संगीत में ढालने का कार्य किया. उनके पास स्वयं की लिखी राधेश्याम रामायण, कृष्णायन तथा उनकी पौराणिक कथाएं थीं. कथा की राधेश्यामी शैली को ‘राधेश्यामी छंद’ के रूप में मान्यता मिली. उनके दौर के कथावाचकों ने पंडित राधेश्याम की रामायण और गायन की शैली को अपनी आजीविका का आधार बनाया. रामानंद सागर की रामायण का बहुत कुछ हिस्सा पंडित राधेश्याम कथावाचक की रामायण के कथा प्रसंगों से प्रेरित है. नरेन्द्र कोहली की रामायण पढ़ते हुए राधेश्याम जी की रामायण याद आ जाती है. जिस कथा को उन्होंने ने सर्वप्रथम खड़ी बोली पद्य रूप में लिखा, उन्हीं भावों को नरेन्द्र कोहली ने खड़ी बोली के गद्य रूप में ढाला. पंडित राधेश्याम जिस रामकथा को सत्रह वर्ष की अवस्था में लिख चुके थे, आगे के कथावाचक उसे दोहराते हुए मिलेंगे.

राधेश्याम जी के पास अपनी कथा है, अपनी कथा-शैली है, अपना संगीत है, अपना छंद है (राधेश्यामी छंद) तथा अपना प्रकाशन. उन्होंने कथावाचन द्वारा देश और समाज को जोड़ने का कार्य किया है. देश की सांस्कृतिक चेतना तथा सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई. कथावाचन और नाट्य मंचों पर वे लगभग 50 वर्ष तक छाए रहे.

आज के कथावाचक केवल पेट के लिए हैं. कथावाचकी ही उनकी आजीविका है. वे नारायण को नहीं, नकदनारायण को समर्पित हैं. वे रामराज्य नहीं, रमाराज्य के समर्थक हैं. अत: आज ढेरों संन्यासी, मठाधीध, साधू, धर्मोपदेशक और कथावाचक निकल पड़े हैं. पंडित राधेश्याम कथावाचक ऐसे लोगों की ख़बर लेते मिलेंगे. इस आलेख को पढ़कर पंडित राधेश्याम कथावाचक के शब्दों की ताक़त को आसानी से समझा जा सकता है. उनको समझने के लिए उनके साहित्य को पढ़ने की आवश्यकता है. न जाने किस कारण इस कर्मयोगी को भुलाने का उपक्रम जारी है. आइए पढ़ें राधेश्याम को-

हे इष्टदेव ! सर्वदा सर्वत्र सर्वकाल अशुद्ध आचरणों से घृणा दिलाते हुए हमारी रक्षा कीजिए और शुद्ध सत्य मार्ग दिखलाते हुए हमारी रक्षा कीजिए. सदा आप ही का कीर्तन किया करें, शुद्ध ह्दय से आपके गुणगान रूपी अमृत का पान करते हुए जीवन व्यतीत हो. और क्या कहें नाथ- ”काहू के बल बाहु को, काहू के बल दाम. एक तुम्हारे बल सदा, निर्भय राधेश्याम (वर्ष 1910 ई.)

पुस्तक बनाते और पढ़ते हैं ज्ञान के लिए. कथा भागवत कहते और श्रवण करते हैं, प्रेम और सुधार के लिए. गायन गाते और सुनते हैं मन को रोकने और आनन्द के लिए. वर्तमान काल में यदि आप पक्षपात छोड़कर देखें तो पुस्तकें शायद कुछ मिल जाएं, किन्तु ऊपर लिखे जैसे कथावाचक और गायक गिने चुने ही दिखाई देंगे.

आजकल पुस्तकों में झूठे-गंदे क़िस्सों की, ‘गुलो बुलबुल’ के झगड़ों की तादाद बढ़ रही है. कथावाचकों में चुन्नटदार दुपट्टा डालकर, छर्रेदार तिलक लगाकर, मज़ेदार हावभाव दिखाकर पुरुषों को रिझाने का, स्त्रियों को लुभाने का और चुहचुहाते लतीफ़े सुनाकर धनोपार्जन करने का चलन बढ़ रहा है. ये पुरुषों को उपदेश देना नहीं जानते, स्त्रियों को माता-बहन नहीं समझते, व्यास गद्दी पर बैठे हैं, इस बात का विचार नहीं करते.

मेरी इस खरी-खोटी आलोचना से मेरे कथावाचक भाई चिढ़ें नहीं. कारण बादल गर्मी करके ठण्डा जल बरसाता है, मृदंग खिंचकर और चोट खाकर आनन्द देता है. जिसमें उपयुक्त बातें हैं और जो हमारी कथा और व्यास गद्दी के नाम को कलंकित कर रहे हैं, उन्हीं के सुधार के लिए, उन्हीं के जानने के लिए लिख रहा हूं.

अब रहे गायक सो इनमें भी ‘सैयां की सिजिया करवटियां लेने न देय’ ऐसे गानों का घोर प्रचार है. इसमें गायक के अलावा सुनने वालों का भी दोष है. नहीं तो शिव डमरू में निवास करने वाली, देवर्षि नारद द्वारा धारण की हुई, मीरा के प्रेम से सींची हुई, स्वामी हरिदास, बैजू, बावरे, तानसेन प्रभृति महानुभावों द्वारा शोभा पाई हुई गन्धर्ववेद नामधारिणी विद्या की ये दीन-हीन दशा न होती. आजकल गाने के कई रूप हो रहे हैं – धुपद, धमाल आदि तालों का गाना, दूसरे ताल-टप्पों की चलत-फिरत, तीसरे सुरीली आवाज में ग़ज़ल ठुमरी आदि.

कमी है तो वह एक बात की, सबसे बडी बात की अर्थात शुद्ध राग-रागनियों द्वारा उपदेशक, आत्मदर्शक गाने के गाये जाने की. अब भी कहीं-कहीं, कभी-कभी शुद्ध राग रागिनी द्वारा जब सुनते हैं- ‘जगत को बतला दो सद्ज्ञान’ तो ख्याल आ जाता है.

मुझे बाल्यावस्था से ही मेरे पूज्य पिता जी (श्री बांके लालजी) ने गायन, हारमोनियम और कथा का अभ्यास कराया था. मुझे ख़ूब याद है कि मैंने अपनी नौ वर्ष की अवस्था में अच्छी तरह हारमोनियम बाजा बजाकर, ताल-स्वर से श्री गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण बांची थी. ज्यों-ज्यों शौक़ बढ़ता रहा पिताजी के साथ परदेश पर्यटन करता रहा. साथ-साथ हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं का पठन भी होता रहा. कहां-कहां गाया, क्या-क्या किया यह सब नहीं लिखा है, इसके लिए तो एक स्वतंत्र जीवनी चाहिए. जिन दिनों मेरी अवस्था बारह वर्ष को थी, उन्हीं दिनों मेरे पिता के सद्गुरु श्री 108 स्वामी रामदासजी का काशी से बरेली आगमन हुआ. स्वामी जी के दर्शन, सत्संग आत्मविचार, रामकथा सुनने लगा. उसी दरबार से मुझे तुकबन्दी का शौक लगा. समय पाय स्वामी जी का शरीरपात हुआ. और मैं भी श्रीकृष्ण प्रेम की ओर झुका. उन्हीं दिनों मित्र मण्डली की कृपा से नाटक देखने का शौक लगा. नाटक देखते ही देखते एक दिन प्रण किया कि इन विषैले भद्दे गानों की चाल पर हरि सम्बन्धी गाने बनाऊंगा और आज से अपनी कथा में, समाज में, कभी कोई विषैला भद्दा गाना नहीं गाऊंगा.

उन्हीं दिनों नाटक की तर्ज के गानों में ‘राधेश्याम विलास’ नामक कृष्ण भक्ति की पुस्तक बनाई, जो छपी भी. धीरे-धीरे मेरी अवस्था बढ़ी, फ़ैशनेबल बना, उपन्यासों, समाचार-पत्रों से अनुराग हुआ. देशोन्नति के गाने-भजन भी बनाये किन्तु यह ख़्याल अत्यन्त शीघ्र छूट गया. यह ख़ब्त हटते ही राम भक्ति रामचरित को छन्द (गानों) में बनाना प्रारंभ किया. क्रमश: अब रामभक्ति बढ़ी. क्रमश: यह रामायण भी श्रोताओं को रुचिकर लगी. क्रमश: सीताहरण, सुग्रीव मिताई, लंकादहन आदि पुस्तकें छपीं. नतीजा यह रहा कि इस रामकथा रूपी सागर में अभी तक तैर रहा हूं. सबसे बड़ी बात कथा और गायन के सुधार होने की है.

यदि इस विधा को भविष्य में विधा बनाये रखना है तो पाठक, लेखक, कथावाचक गायन मेरी इस तुच्छ बात तथा विनती पर ध्यान अवश्य दें. ये ब्राह्णकुमार आज भी भिक्षा मांग रहा है. श्रेष्ठ गायन से विचार होगा, विचार होने पर विकार का नाश होगा, विकार नाश होने पर परमात्मा में मन लगेगा. परमात्मा में मन लगने पर निजानन्द को प्राप्त हो जायेंगे.

वीणावादनतत्तवज्ञ: श्रुतिजातिविशारद:
तालज्ञश्चाप्रयासेन, मोक्षमार्ग सगच्छति

(पंडित राधेश्याम कथावाचक की पुस्तक ‘राधेश्याम कीर्तन’, सन्‌ 1910 ई.)

पंडित राधेश्याम कथावाचक कृत राधेश्याम विलास कृति में नाटक की तर्ज़ में, लावनी तथा ग़ज़लों में भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी के भक्ति भाव से भरे हुए सुहाने गाने हैं. बंगाल कला शैली में राधा-कृष्ण की युगल छवि का रंगीन चित्र का आवरण बर्मन प्रेस, कलकत्ता से (हरियाली तीज, सम्वत्‌ 1962 ) एक सौ सोलह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था. इसका चौथा संस्करण सन्‌ 1925 में 4000 प्रतियों के साथ प्रकाशित हुआ था. इसका मूल्य था – बारह आना. श्रीमती परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित श्रीमद्दयानन्द पुस्तकालय, अजमेर में इसकी प्रति सुरक्षित है. राधेश्याम ने समर्पण में लिखा, ”बाल्यावस्था से ही तुम्हारी मोहिनी मूर्ति आंखों में बसी थी. सबसे पहले उस छोटे से मोहिनीफ्लूट हारमोनियम पर तुम्हारा ही गीत गाया था. 12 वर्ष के बालक ने वृन्दावन की संकरी गलियों में तुम्हें पुकारा, तुम नहीं आये. तुम्हारी उसी निठुराई को देखकर बालक मथुरा चला आया. उसी रोज़ से तुम्हारी वंशी के बदले में धनुषबाण तुम्हारे हाथों में देकर मन का दूसरा संस्कार कर दिया. बालक तुम्हें बिसरा पर तुम बालक को नहीं भूले. तुम्हारे उसी वात्सल्य के कारण यह कृति –

हारे तुम पियारे हो, तुम्हारे हम प्यारे हैं.
बुरे हैं या भले हैं, तुम हमारे, हम तुम्हारे हैं.

(पंडित राधेश्याम : श्रावणी सम्वत्‌ 1974 : तदानुसार सन्‌ 1917 ई.)

यह असार संसार विचार कर देखने से अपार व्याधियों का भण्डार है. जो इसको सत्य और अपना मानते हैं, वे सार-असार को नहीं जानते, वे रोते हैं और जिस तरह अपनी चौरासीलक्ष योनियां बेकार खो दीं-उसी तरह इस मुक्ति निसैनी रूप अमूल्य मनुष्य योनि से भी हाथ धोते है. और जो सज्जन हैं, जिनके पिछले पुण्यों का समूह उदय हुआ है, वे इसमें से सार वस्तु को चुराकर अपने परम पद को प्राप्त होते हैं.

निजस्वरूप का आनन्द तभी प्राप्त होता है कि जब अन्त:करण शुद्ध कर लिया जाय और वस्तुत: देखा जाय तो अन्त:करण शुद्ध करने का उपाय केवल हरिभजन है. कुछ माला ही सटकाने को भजन नहीं कहते, हाथ में माला को रस्सी की तरह बट रहे हैं, ज़ुबान से मेल ट्रेन छोड़ रखी है और मन कलकत्ते के बजाजख़ाने में कपड़ा ख़रीद रहा है. इसका नाम भजन नहीं है. किसी कवि ने कहा है – ‘माला फेरत युग गया, मन का मिटा न फेर/ कर का मनका छांड़ के, मन का मनका फेर’

भजन इसको कहते हैं कि अपने प्यारे श्रीकृष्णचन्द्र का मन में ध्यान करते हुए, प्रेम सहित जिह्वा से ‘हरे कृष्ण गोविन्द नारायण वासुदेव’ उच्चारण करते हुए, एक-एक गुरिया बढ़ायी जाय.

यही भजन है, यही मुक्ति का साधन है. और इसी भजन का एक अंक यह भी है कि ‘उसके गुणों का गायन करना, उसके प्रेम में मग्न होकर उसी का कीर्तन करना!’ देखिये, भगवान ने नारद से स्वयं कहा है – नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च/ भद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद.

फिर, रामायण में भिलनी के प्रति नवधा-भक्ति जो वर्णन योग्य है, उसमें भी कहा है – चौथि भक्ति मम गुणगण, करै कपट तज गाम. तथा भागवत में भी लिखा है- श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्‌ अर्चनं, वन्दनं, दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम्‌

हां! समय के प्रभाव से अब न वे विशेष भजनानन्दी नज़र आते हैं और न वह भजन ही देखने में आता है. अब तो जीवों का समय ‘लाउ लाउ’ ‘खाउ खाउ’ का स्त्रोत रटते ही व्यतीत होता है.

जिस भजन और प्रेम के कारण स्वयं श्रीभगवान ने प्रह्लाद की प्रतिज्ञा-पूर्ति के वास्ते खंभ फाड़कर दर्शन दिया था, जिस भजन और प्रेम के कारण एक छोटे-से बालक ‘ध्रुव’ ने अचल पदवी पाई थी-आज न वह भजन है, न वह प्रेम.

एक बिचारा गायन ही शेष रह गया था. सो उसकी भी यह नौबत आ गई कि नीचों ने ग्रहण कर लिया और उच्च कुल वालों ने यह तो कलावंत और मिरासियों का काम है, कह कर उसका तिरस्कार कर दिया.

भाइयो! इस बात का झूठ न मानो, मुझको भी इस बात का इत्तफ़ाक़ पड़ चुका है अर्थात जब मेरे पिता ने मुझे इस गायन, हारमोनियम, कथा प्रकरण में डाला था तो मेरे पिता से अनेक इष्ट मित्र कहा करते थे कि पंडित जी, लड़के को यह क्या गाना-बजाना सिखलाते हो, इसको तो बी.ए.,एम.ए. बनाओ.

हा नाथ, तेरी यह दुर्दशा कि अब तेरा नाम गाना बजाना भी घृणायुक्त समझा जाता है. समय की बलिहारी मैं आज प्रथम उन उच्च कुल वालों से निवेदन करता हूं कि उनकी बड़ी भूल है, जो गाने-बजाने को बुरा और नीच कर्म बतलाते हैं. शास्त्र कहता है –

“ब्रह्मा के चारों मुख से चार वेद निकले और वेदों से आयुर, धनुर, गान्धर्व, स्थापत्य नामक चार उपवेद निकले.”

अन्य वेदों की बात छोड़कर आज हमको ‘गान्धर्व’ ही से मतलब है. जब यह सिद्ध है कि गान्धर्व ‘उपवेद’ है तो हम सवाल करते हैं कि क्योंस जी, वेदों का पठन-पाठन आदि कार्य कौन करते हैं, उच्च कुल वाले द्विज या शुद्र. (त्रयावर्णाद्विजातय:) यह तो हुआ तर्क, अब स्वयं भगवान क्या कहते हैं सुनिए, “वेदानां सामवेदोस्मि”

इसीलिये हम कहते हैं कि गायन को निषिद्ध न बतलाओ. जिस तरह ईश्वर सर्वव्यापक है उसी तरह सप्तस्वर भी सर्व देशों में समान व्यापक हैं. नहीं, नहीं वरन ईश्वर ने भी सृष्टि स्वर के ही बल से रची है. इसलिए गायन (सप्तस्वर) माननीय हुआ.

अच्छा गाना तो तय हुआ, ‘बजाना’ को देखिये. यह बात सर्वसाधारण जानते हैं कि बिना आधार के कोई काम ठीक नहीं होता. इसीलिये नारद ने वीणा धारण की है और इसीलिये वाद्य (साज़) रखा गया है.

गायन से प्रेम होता है, प्रेम से अन्त:करण शुद्ध होता है, अंतःकरण शुद्ध होने पर महात्माओं के वचनों पर अमल होता है, महात्माओं के वचनों पर अमल होने से जीव मोक्ष को प्राप्त होता है.

अब रही ‘मीरासी कत्थक’ वाली बात, सो यह तो हमारी आपकी ग़लती से ऐसा हुआ. वह रत्न जो वास्तविक रत्न है कर्मवश अथवा कालवश निषिद्ध जगह चला गया तो क्या रत्न नहीं रहा? किसी उर्दू कवि ने एक शेर कहा है – ख़ाक होकर आबरू ज़ेरे फ़लक जाती नहीं/ लाल की मिट्टी में मिलकर भी चमक जाती नहीं.

अस्तु, वह वास्तविक रत्न ही है और उसकी क़द्र करना चाहिए. देखिये, सोचिये, विचार कीजिये कि आपके छोड़ते ही गायन भी आप को छोड़ बैठा. आज उस गायन का, जिसको मीराबाई इत्यादि प्रेम से गाते थे, शुद्रों के मुख में पड़ने से रूपांतर हो गया. अब राग-रागिनी तो कोई गाता ही नहीं है. अब तो लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, हीर-रांझा, इन्दरसभा, प्रभृति प्रभृति की धूम है. जिधर जाइये, जिधर देखिये, जिधर सुनिये यही तान आ रही है – “तोरी छलबल है न्यारी, तोरी कलबल है न्यारी, तोरे नैनों की लागी कटरिया जान..” इत्यादि-इत्यादि.

मुझे इन गानों से शुरू से ही नफ़रत थी. विचारता था कि किस तरह यह गिरी हुई चीज़ उठकर अपने उच्च पद को प्राप्त हो. इतने ही में प्यारे श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ख़्याल हुआ कि यदि इन भद्दे गानों की जगह हरि सम्बन्धी गानें बनें तो अच्छा हो. लय, ताल, धुन सब नाटक की हो, परन्तु भाव, रस, उद्देश्य नन्दनन्दन ब्रजराज की तरफ़ हों. कारण कि जब बालक का कर्ण-छेदन होता है तब उसके मुंह में मीठा खिला देते हैं. इसी तरह इन चटकीली तर्ज़ों का मीठा खिलाकर संसारी बंदों का कर्ण छेदन किया जाय अर्थात उपदेश दिया जाय. (राधेश्याम कथावाचक : हरियाली तीज सम्वत्‌ 1962 , तदानुसार सन्‌ 1905 ई.)

पंडित राधेश्याम कथावाचक अपने समय के युग नायक हैं. उनके धार्मिक और सामाजिक विचारों की ताक़त को समझने के लिये केवल तर्क नहीं, आस्था की भी आवश्यकता है. धार्मिक पुस्तकों में रामायण और कृष्णायन में उनका एक विशिष्ट नज़रिया है. देश की युवा पीढ़ी के प्रतीक श्रीराम और श्रीकृष्ण को केन्द्र में रखकर कथावाचक ने रामलीला, नाटक वीर अभिमन्यु तथा श्रीकृष्ण अवतार आदि रचनाएं कीं और 50 वर्षों तक सिरमौर बने रहे. कथावाचक के शब्दों की ताक़त के क़ायल लोग आज भी गांवों-क़स्बों व शहरों में मिल जायेंगे. कथावाचक ने अपने जीवन काल में विपुल लेखन किया था. उन्होंने राधेश्याम प्रेस को ऊंचाईयों तक पहुंचाया. कथावाचन की जो शैली विकसित की, उसे राधेश्याम छंद (तर्ज़ राधेश्याम) के रूप में प्रसिद्धी मिली. खड़ी बोली में लिखी रामायण का प्रयोग सफल रहा. उनके जीवन काल में ही लगभग सवा करोड़ परिवारों में राधेश्याम रामायण पहुंच चुकी थी. कथावाचक एकमात्र ऐसे नाटककार हैं, जिन्होंने नाटकों को संभ्रांत परिवारों की नारियों को देखने योग्य बनाया. पौराणिक तथा धार्मिक आख्यानों को उन्होंने भारतीय संस्कृति, लोककला तथा राष्ट्रीय चेतना से जोड़ा. उनका यह प्रयोग भी सफल रहा और वे समकालीन नाटककारों आगा हश्र कश्मीरी (बनारस), पंडित नारायण प्रसाद बेताब (दिल्ली) में प्रथम स्थान बनाने में सफल रहे. अपने शब्दों की ताक़त की बदौलत कथावाचक पारसी थियेटर से अलग आधुनिक नाटक की नींव रखने में भी सफल रहे. कथावाचक पठनीय नाटक लिखने वालों को यह बात समझाने में भी सफल रहे कि नाटक को ज़िन्दा रखने के लिए व्यवसाय से जोड़ना जरूरी है. तभी थियेटर ज़िन्दा रहेगा. लेकिन देश के संभ्रांत लोगों ने उनके इस नज़रिये की खिल्ली उड़ाई और पारसी थियेटर को नेपथ्य में डाल दिया गया. आज हिन्दी थियेटर कहां खड़ा है?

कथावाचक की डायरियां उनके जीवन का अछूते प्रसंग हैं. उन्होंने अपना सुख-दुख, पसंद-नापसंद, परिवार, समाज,मित्र, देश-दुनिया, धर्म-कर्मकाण्ड, स्त्री-पुरुष, शिक्षा आदि का ब्योरा डायरी शैली में लिखा है. कथावाचक होते हुए भी देश और विदेश राजनीति का उन्हें अच्छा अनुभव था और तभी नपे-तुले शब्दों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया है. ऐसा साहस आज के कथावाचकों में कहां?

‘ढेरों तिलकधारी ब्राह्मण साधु जो निकल पड़े हैं, इनमें 99 प्रतिशत जीविका कमाने वाले ठग हैं. यह हाल संन्यासियों और ज्योतिषियों तथा अपने लिए सिद्ध कहलाने वाले महात्माओं का है. इनके शिष्य इनसे ज्यादा चंट होते हैं, जो इनका प्रचार करते हैं. क्या अच्छा धंधा निकाला है इन्होंने. अनपढ़ और भावुक नारियों को अपने जाल में फंसाते ही जा रहे हैं. डाकुओं से भी गहरे ये सफ़ेदपोश डाकू हैं.’ (29 सितम्बर, 1959 ई., कथावाचक की डायरी का व्याकरण पुस्तक से.)

आज के कथावाचक भी अपने उपदेशों से लोगों को श्रेष्ठ मनुष्य बनने की प्रेरणा देते हैं लेकिन पंडित राधेश्याम कथावाचक की डायरी का यह कथन – “बहुत सोच-समझकर बात लिख रहा हूं कि मनुष्य ही बड़ी चीज है. इसी चोले में राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा अवतरित हुए, नानक, तुलसी, गांधी अवतीर्ण हुए. वशिष्ठ, व्यास, शंकराचार्य आये. जितने भी धर्म ग्रंथ लिखे गये सबका उद्देश्य यह रहा कि मनुष्य आदर्श मनुष्य बने. अवतारों ने भी अपने जीवन से यह उपदेश दिया. वक्ताओं ने भी यही कहा. यह स्मृतियां इसीलिए बनीं. तब सब कुछ पढने वालों से मैं यही कहता हूं कि क्यों नहीं आदर्श मनुष्य बनते? मैं अपने चैतन्य भगवान से भी यही प्रार्थना करता हूं कि मुझे आदर्श मनुष्य बनाओ. आदर्श की व्याख्या इस डायरी में भी कई जगह है. इस सोच विचार के आगे क्या है? यह भगवान जानें?” (27 अप्रैल, 1959 ई., लेखक की पुस्तक से)

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