भ्रमर की विज्ञापन पत्रकारिता | मिस्ल चांदी के दमदार हैं दो आने दाम
पंडित राधेश्याम कथावाचक ने साहित्यिक जागरूकता, सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार, देशभक्ति, प्रेम-अहिंसा एवं भक्ति भावना से प्रेरित होकर विविध विषय विभूषित, सचित्र मासिक पत्र का श्री गणेश अक्टूबर 1922 ई. की पूर्णिमा को किया. ‘भ्रमर’ का राधेश्याम बरेली से घनिष्ठ सम्बंध है. पत्रिका बिना छापेखाने के नहीं चल सकती, अतः 1920 ई. में राधेश्याम पुस्तकालय (प्रेस) की स्थापना हुई. कथावाचक ने अपनी अप्रकाशित डायरी में लिखा है – “इधर जब राधेश्याम प्रेस चमका तो बरेली प्रेस की मंडी ही बनने लगा.”
(27 अगस्त, 1959 ई.)
‘भ्रमर’ पत्रिका द्वारा उन्होंने भाव प्रकाशन में स्वाधीनता के लिए कार्य किया. भ्रमर अपनी कहने की कला के कारण भी अंग्रेजी सेंसर का शिकार नहीं बनी. जबकि सन् 1910 ई. के प्रेस एक्ट के कारण हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं की दुकानों पर ताले लग गये थे. भ्रमर को प्रेस एक्ट का कष्ट नहीं हुआ, लेकिन निरन्तर घाटे का आर्थिक कष्ट अवश्य हुआ. भ्रमर में गुजराती, मराठी तथा बंगला भाषा के अनुवाद भी प्रकाशित होते थे. इससे ‘भ्रमर’ का प्रचार-प्रसार अन्य प्रांतों तक पहुँचा.
‘भ्रमर’ को ब्लॉक रेखांकन की सुविधा प्राप्त होने के कारण अपने व्यवसाय को बढ़ाने में काफी मदद मिली. पाठक बढ़ते हैं, पर प्रकाशन का व्यय भी बढ़ता है. विज्ञापन पत्रिकाओं की जान हैं. हिन्दी की अन्य पत्रिकाओं की तरह ‘भ्रमर’ इस लिहाज से निस्तेज कभी नहीं हुआ.
दिसम्बर 1928 में ‘भ्रमर’ का एक विज्ञापन चौकाने वाला है. शीर्षक है – ‘भ्रमर में विज्ञापन क्यों देना चाहिए?’ क्योंकि भ्रमर सात वर्ष से जनता की सेवा कर रहा है. भ्रमर में कवि रत्न पंडित राधेश्याम कथावाचक की कविताएं एवं रामायण प्रकाशित होने के कारण इसका प्रचार बहुत है. भ्रमर ग्राहक संख्या निरन्तर बढ़ रही है. भ्रमर की फुटकर प्रतियों की बिक्री हिन्दी की बड़ी से बड़ी पत्र-पत्रिकाओं से अधिक है. भ्रमर के विज्ञापन पढ़ने वालों की संख्या 20000 से अधिक है. भ्रमर सर्वसाधारण के पाठनार्थ सर्वश्रेष्ठ हिन्दी पत्र है. भ्रमर की विज्ञापन दर अन्य पत्रों की अपेक्षा आधा है. भ्रमर में जितना स्थान पहले 200 रुपये में उठता था वह अब 850 रुपये में उठता है.
विज्ञापन मैटर के नीचे हस्ताक्षर करके देना होता था. विज्ञापन का अनुबंध कम से कम तीन माह के लिए दो माह की अग्रिम राशि के साथ होता था. पाठ लेख के अन्दर छपने वाले विज्ञापन का रेट साधारण रेट से ड्योढ़ा होता था. कम से कम आधा पेज विज्ञापन देने वाले को ‘भ्रमर’ मुफ्त भेजा जाता था.
छपाई की दरें थी – एक पेज या दो कॉलम 12 रुपया, कवर का चौथा पेज 24 रुपया प्रतिवार, रंगीन चित्र के सामने 20 रुपया प्रतिवार, आधा पेज एवं चौथाई कॉलम की दरें 7 रुपया एवं 4 रुपया प्रतिवार थी. छोटे विज्ञापन की दर 1.50 रुपया प्रतिवार तथा श्रेणीबद्ध विज्ञापनों की दर थी एक आना प्रति शब्द.
कथा कहने तथा नाटकों के सिलसिले में कथावाचक निरन्तर यात्राओं पर रहते थे. कथावाचक बहुधंधी थे. वे अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शेयर में भी लगाते थे. कथावाचक के बहुधंधीपन के कारण ही वे प्रेस का कार्य नहीं देख पाते थे. बरेली में जमकर न बैठने के कारण प्रेस का सारा कार्य मैनेजर ही देखते करते थे. अत: निरन्तर घाटे के कारण भ्रमर धीरे-धीरे निस्तेज होता गया.
‘भ्रमर’ के पाठकों की संख्या 25 हजार कम नहीं थी. 20000 प्रतियां विज्ञापन पाठकों तक पहुँचती थीं. इसके लिए कथावाचक ने भ्रमर के रंगीन प्रकाशन की भी व्यवस्था की थी. भ्रमर के सम्पादक, प्रूफरीडर, मशीन मैन, कम्पोजीटर, कटर-वैण्डर, लेखकों की उत्कृष्ट टीम, राधेश्याम पोस्ट-ऑफिस सब कुछ अपना था. भ्रमर में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा-शैली और छपाई के लोग कायल थे. अतः भ्रमर में कराची, रावलपिण्डी, अमृतसर, अहमदाबाद, बंबई, कलकत्ता, दिल्ली तथा विदेशी कम्पनियों के भी विज्ञापन छपते थे.
वर्ष 1927 में भ्रमर पूरे पाँच वर्ष की यात्रा पूरी करके छठे वर्ष में प्रवेश करता है. यहाँ राधा-कृष्ण मिलन का रंगीन चित्र तथा मुख्य पृष्ठ सुनहरे रंग में छपा था. नया वर्ष शीर्षक से प्रकाशित आलेख ‘भ्रमर’ के महत्व, पाठक प्रचार-प्रसार तथा राधेश्याम प्रेस की यश गाथा है – भ्रमर के जीवन का इतिहास जासूसी उपन्यासों के समान कौतूहलोत्पदक घटनाओं से परिपूर्ण नहीं है. पिछली वास्तविक विज्ञप्ति के बाद से भ्रमर का प्रचार भारत से बाहर के देशों में भी उल्लेख करने योग्य बढ़ा है. इस समय नेपाल, सीलोन, दक्षिण अफ्रीका और मेसोपोटामिया में भी ‘भ्रमर’ की प्रतियाँ जाती हैं. परिवर्तन की दृष्टि से अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन और जापान भी भ्रमर के प्रचार क्षेत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं. किसी उद्योग के बिना भ्रमर की यह प्रचार-प्रसार वृद्धि इस बात का निर्भान्त् प्रमाण है कि भ्रमर लोगों के मनोरंजन की थोड़ी या बहुत चीज जरूर है. आज भ्रमर के प्रकाशन में जितना व्यय करना पड़ रहा है, उसके हिसाब से सालभर में दो हजार का घाटा बैठ जाता है. घाटा सहकर भी कोई पत्र नहीं चलाया जा सकता. (भ्रमर | नवम्बर, 1927 ई.)
पत्रकारिता के इतिहास में ‘भ्रमर’ का उल्लेख न के बराबर है. जिस प्रकार कथावाचक के साहित्यिक अवदान की एक षड़यंत्र के तहत उपेक्षा की गयी थी, उसी प्रकार हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में ‘भ्रमर’ के अवदान की उपेक्षा की गयी. समाचार पत्रों के इतिहास में अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने ‘भ्रमर’ की चर्चा की है. क्षेमचन्द्र सुमन ने ‘दिवंगत हिन्दी सेवी’ पुस्तक में राधेश्याम कथावाचक प्रसंग में भ्रमर पत्रिका का भी उल्लेख किया है.
प्रेमचंद ने हंस (प्रवेशांक) मार्च, 1930 के सम्पादकीय में राधेश्याम कथावाचक के सहयोग से ‘भ्रमर’ पत्रिका के पाठकों के नाम-पते मिलने पर लिखा – “हमारे अथक परिश्रम के अलावा इस ग्राहक वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि बरेली से निकलने वाले ‘भ्रमर’ के ग्राहक भी हमें प्राप्त हो गये हैं.”
‘भ्रमर’ में दमदार कलात्मक विज्ञापन छपने का सिलसिला 1925 ई. से शुरू होता है. एक सूचना के आधार ही यह कह रहा हूँ. नवम्बर 1927 में ‘भ्रमर’ पाँच वर्ष पूर्ण करके छठे वर्ष में प्रवेश करता है. इस अंक में राधा-कृष्ण का भ्रमर के साथ तिरंगा चित्र प्रकाशित है. राधेश्याम प्रेस में लिफाफे, पोस्ट कार्ड तथा चिट्ठी के कागज बारह आना सैकड़ा पर छापे जाते थे.
सभी प्रकार के ट्रेडिंग विज्ञापन भ्रमर में छपने लगे थे. कथावाचकों के नाम पते हों, नामर्द-निःसंतान का इलाज, मैज़मरिज़्म विद्या या बम्बई के डॉक्टर बाटलीवाले की प्रख्यात औषधियाँ सब कुछ ‘भ्रमर’ में मिल जाएगा. प्यारे बच्चों के लिए कलकत्ता के डॉक्टर ए.के.वर्मन का बलादूर एवं लालशर्बत वाला विज्ञापन ‘प्रवासी’ लाल वर्मा द्वारा निर्मित वाले रेखांकन के साथ प्रकाशित है.
तिलस्मात भवन लुधियाना, महाशक्ति औषधालय बुलानाला बनारससिटी के विज्ञापन प्रमुखता से छपते थे. औषधियों के विज्ञापनों की संख्या सबसे अधिक है. जर्मनी की बनी हुई घड़ियों के विज्ञापन सचित्र रेखांकन छपे हैं – एस.वॉच कम्पनी, पो.बॉ.105, मद्रास तथा कैप्टन वॉच कम्पनी पो.बॉ.265,मद्रास.
नवम्बर 1922 ई. के अंक में स्वदेशी की भावना से – स्वदेशी बटन का विज्ञापन –
काले पड़ते ही नहीं, मुद्दतों देते हैं काम.
मिस्ल चांदी के दमदार हैं दो आने दाम
विदित हो कि हमने ‘स्वदेशी बटन’ बड़े परिश्रम और उद्योग से बनाने प्रारम्भ किए हैं. यह बटन राँग या गिलट के बने हुए नहीं हैं, जो 15 दिन के बाद काले पड़ जाते हैं और दाम बेकार से हो जाते हैं. हमारे यह बटन कई धातुओं (धातों) को मिलाकर बनाये हैं.
तारीफ यह है कि कभी काले नहीं पड़ते, जब कभी बटन मैले हों तो सफेद कपड़े से रगड़ दीजिए फौरन मिस्ल नये से चमकीले हो जाएंगे. स्वदेशी के प्रेमियों को एक बार अवश्य इन्हें मंगाकर देखना चाहिए –
कमीजों में हैं खद्दर जब स्वदेशी ताने-बाने के.
बटन भी चाहिए इसमें स्वदेशी कारखाने के.
दाम-एक कमीज के पूरे सेट का केवल आठ आना
एक दर्जन सेट का डेढ़ रुपया ..
मिलने का पता –
दी स्वदेशी बटन फैक्ट्री
हवेली हैदरकुली खाँ देहली.
आयुर्वेद तेल, संग्रहणी का शर्तिया इलाज के साथ एक अन्य विज्ञापन का आनन्द लीजिए –
नवीन खोज
भक्ति का चमत्कार
बुंदेलखण्ड में ओरछा एक रियासत है. वहीं के राजा कृष्ण भक्त थे और रानी रामभक्त. एक मौके पर राजा ने कुछ कड़ी बात कह दी. रानी ने राज्य छोड़ दिया. इसके बाद उन्हें रामजी कैसे मिले और किस प्रकार साथ रहे वही सब ‘नयन’ जी की लेखनी से नाटककार लिखा गया और कविवर मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य प्रेस से छपा है. सचित्र नाटक है. मूल्य केवल 1 रुपया.
मिलने का पता
श्री कैलास साहित्य मन्दिर
पो.-चिरगाँव, झाँसी (उ.प्र.)
(भ्रमर | 1922 ई.)
विज्ञापन के लिए नीली इंक का प्रयोग हुआ है. मैटर काली इंक में मुद्रित है. विविध विभूषित भ्रमर में विषयों का चयन बड़ी सावधानी से किया गया है. फरवरी 1923 ई. का पूरा अंक लाल रंग की इंक में मुद्रित है. ग्राहक को पत्राचार करने के लिए उसका ग्राहक नम्बर पत्रिका कार्यालय से जारी करने की व्यवस्था थी. चार अनूठी पुस्तकों – नारायण शतक (नारायण प्रसाद बेताब), ज्योतिष प्रकाश (ज्वाला प्रसाद), कृष्ण कुमारी तथा ओथेलो (शेक्सपियर के नाटक का हिन्दी अनुवाद) का प्रकाशन राधेश्याम प्रेस, बरेली से छपने का विज्ञापन है.
साप्ताहिक-पत्र ‘स्वाधीन’ का विज्ञापन –
स्वाधीन निर्भीक राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्र
दासत्व का कट्टर शत्रु, स्वाधीनता का दृढ़ प्रतिज्ञ
“स्वाधीन”
साप्ताहिक पत्र
होलीकोत्सव से निर्भयता का जामा पहनकर, बन्धन को होली में फूंक, देश हित की बंशी बजाता हुआ प्रेम और एकता की पिचकारी छोड़ता हुआ, बड़ी धूमधाम से निकलेगा. वार्षिक मूल्य 4 रुपया छह मास 2.5 रुपया. होली से पहले ग्राहक होने वालों से साढ़े तीन रुपया. अत: आज ही पत्र भेजकर ग्राहक बनिए.
पता – मैनेजर- ‘स्वाधीन’’ फ़रूक्खाबाद.
(भ्रमर | फरवरी, 1923 ई.)
आयुर्वेद एवं कोकशास्त्र के विज्ञापन, सुख संचारक कम्पनी मथुरा एवं नारायण प्रेस लुधियाना पंजाब के हैं. भ्रमर (मई-जून, 1923 ई.) में न्यू अल्फ्रेड कम्पनी का विज्ञापन छपा था –
आ गई है, कानपुर में खेल कर रही है न्यू अल्फ्रेड नाटक मण्डली, बम्बई. यह वही कम्पनी है जो ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक खेला करती है. आज इसमें नया तमाशा ‘परम भक्त प्रहलाद’ बड़ी शान-शौकत के साथ स्टेज हो रहा है. कम्पनी शीघ्र ही कानपुर से लखनऊ आने वाली है.
भवदीय – मैनेजर कम्पनी.
(भ्रमर | मई-जून,1923 ई.)
विज्ञापनों की भाषा पठनीय हैं. राधेश्याम प्रेस बरेली का एक विज्ञापन –
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मीठी गुञ्जार
(सम्पादक-पण्डित राधेश्याम कथावाचक)
श्री राधेश्याम प्रेस से प्रतिमास एक सुन्दर र्स्वांगपूर्ण एक विज्ञापन निकलता है.’भ्रमर’ उसका नाम है. इस भ्रमर मासिक पत्र में बड़े ही सुन्दर (उम्दा), बड़े मनोहर गाने और पद प्रायः निकला करते हैं. इन्हीं पदों और गानों को चुन-चुन कर लिए भजनों का इस ‘मीठी गुञ्जार’ पुस्तक में संग्रह है.’भ्रमर’ के पहले वर्ष की संख्याओं में से निकाले गये भजनों में से यह संग्रह तैयार किया गया. दूसरे वर्ष के भजन दूसरी पुस्तक ‘मधुर मुरली’. दोनों पुस्तकों का मूल्य है दो आना. (भ्रमर | नवम्बर 1927 ई.)
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राधेश्याम प्रेस के विज्ञापन में मासिक हिन्दी पत्रिका ‘BHRAMAR’ (नवम्बर 1927 ई.) निकलने की भी सूचना है. राधेश्याम प्रेस, बरेली पुस्तक प्रकाशन का एक उत्कृष्ट संस्थान विकसित हो चुका था. यह विज्ञापन प्रो.राधेश्याम कथावाचक के नाम से प्रकाशित ‘भ्रमर’ की गोल्डन इंक में छपाई तथा राधा-कृष्ण मिलन का रंगीन चित्र मनोहर है. महाभारत तथा ध्रुव चरित्र के कथा-अंश पत्रिका में प्रकाशित हैं. आगे पृष्ठों पर श्यामायन (मथुराप्रसाद मधुरेश जयपुर), रामायण (राधेश्याम कथावाचक), उत्तररामचरित, प्रह्लाद चरित्र के विज्ञापन हैं. कथावाचक तथा उनके संस्थान से प्रकाशित होने वाले विज्ञापन पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में सहायक थे.
‘बालों का इलाज’, शक्तिवर्धक प्रो.जेम्स की ‘इलेक्ट्रो टॉनिक पर्ल्स’,’कामिनिया कोल्ड क्रीम’, ‘कामिनिया जासमिन डी रोज’, ‘कामिनिया सुरंगी’, ‘आउमन्स साइप्रस साल्व’ (दर्दों की दवा), खाँसी के लिए ‘आउमन्स कफ़ एलीक्झिर’, ‘बुसमोल हेयर ऑइल’, ‘दिलबहार हेयर ऑइल’, ‘ऑटो दिलबहार’ (इत्र) का आठ पृष्ठ का विज्ञापन चौकाने वाला है. दि एंग्लो इण्डियन ड्रग एण्ड केमिकल लि. 285 मार्केट बम्बई नं.2 के इस विज्ञापन के साथ अन्य वस्तुओं के भी विज्ञापनों की यह बुकलेट ‘भ्रमर’ में सशर्त (विज्ञापन हेतु) अवश्य जोड़ी गयी है. इस पत्रिका में देश की बड़ी-बड़ी कम्पनियों की निगाहें विज्ञापन हेतु लगी थीं.
बंगला के उपन्यास ‘दारदी’ का हिन्दी अनुवाद ‘बिजली’ शीर्षक से राधेश्याम प्रेस से प्रकाशित हुआ था. उसका मूल्य था बारह आना (डाक व्यय अलग). इस उपन्यास के विषय में मनोरमा, चाँद, प्रकाश, लीडर, नेशन, ट्रिब्यून तथा ‘भ्रमर’ की सम्मतियां प्रकाशित हैं. यहाँ ‘भ्रमर’ लिखता है- “इस उपन्यास में मानव जीवन का वास्तविक चित्र दिखाया गया है.” विज्ञापन का शीर्षक है – बूढ़ा हो या युवक, स्त्री हो या पुरुष. बिजली सबके काम की चीज है.
आगे के विज्ञापनों में राधेश्याम कीर्तन, प्रेतलोक, अजायबघर तथा पं.माधव शुक्ल का महाभारत पुस्तक के विज्ञापन हैं. यह पुस्तकें राधेश्याम प्रेस से प्रकाशित हैं. विज्ञापनों को आकर्षित करने के लिए रेखांकन सहित रंगीन पृष्ठों पर छापा जाता था. अमृत धारा पर लाहौर का पता सहित विज्ञापन रंगीन पृष्ठ पर ही प्रकाशित किया गया है.
भारत विख्यात नाटककार कीर्तन कला निधि, काव्य वाला भूषण पं.राधेश्याम कथावाचक के नाटकों का सूचीपत्र निशुल्क भेजा जाता था. परिवर्तन, मशरिकी हूर, श्रवण कुमार, उत्तर रामचरित, प्रह्लाद चरित्र आदि के विज्ञापनों के साथ लिखी राय, समाचार पत्रों की टिप्पणियाँ पढ़कर उनके महत्व को समझा जा सकता. यह सचित्र रंगीन विज्ञापन हैं.
‘भ्रमर’ का ज्योतिष विभाग भी था. दिये गये ‘प्रश्नों का विवरण’ में से तीन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए डेढ़ रुपया फीस का प्रावधान था. वर्षफल, लघु जन्मपत्री उत्तम कोटि की जन्मपत्री, जन्म पत्र मिलान, सन्तान जनक यंत्र, राजविजय कवच तथा बालरक्षा यंत्र आदि सुविधाएं शुल्क सहित दी जाती थी. दो पृष्ठ का यह विज्ञापन पठनीय हैं. सीताराम वैद्य 53 बांसतल्ला स्ट्रीट कलकत्ता की अपूर्व ताकत की दवा पीकर आप बूढ़े से जवान हो सकते हैं. विज्ञापन पढ़ते रह जाएंगे.
राधेश्याम पुस्तकालय बरेली से प्रकाशित ‘मुसाफ़िर की पॉकेट बुक’ का सम्पादन पं.राधेश्याम कथावाचक एवं पं.रामनारायण पाठक ने किया था. रेल का सफर करने वालों के लिए समय व्यतीत करने हेतु पॉकेट बुक में कवित्त, उर्दू की ग़ज़लें, शहरों-तीर्थों के हाल तथा पॉकेट के खाली पृष्ठ याददाश्त नोट हेतु रखे गये थे. मूल्य था आठ आना. 1एक पृष्ठीय विज्ञापन कला-भाषा पठनीय है.
जगन्नाथ मिश्र ‘कमल’ की काव्य कृति का विज्ञापन वियोग कथा शीर्षक से भ्रमर के रंगीन पृष्ठ के सामने छपा है. साठ पृष्ठीय कृति का मूल्य था – चार आना.
सचित्र मासिक पत्र ‘भ्रमर’ का रजिस्टर्ड नं. A1166 था. भ्रमर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की पुस्तकों का सूचीपत्र बतौर विज्ञापन प्रकाशित हुआ है. सन् 1928 में HORLICK’S MALTED MILK का विज्ञापन मोनोग्राम सहित छपा है. हिन्दुस्तान भर की हिन्दी किताबें पुस्तकालयों, वाचनालयों, लाइब्रेरीज, इन्स्टीट्यूट्स के लिए भेजने की व्यवस्था भी राधेश्याम पुस्तकालय से कमीशन के आधार पर थी.
ऐसा ही एक पृष्ठीय विज्ञापन – हिन्दुस्तान भर की हिन्दी पुस्तकें हमसे मंगाइए. सन् 1929 फरवरी और मार्च के अंकों में पं.ज्वालाप्रसाद मिश्र की पुस्तक दुर्गाचरित्र ‘शुम्भ का उत्पात’ की कथा का अंश प्रकाशित है. कलकत्ता का ‘केशराज तेल’ के विज्ञापन में बिना मूल्य के पंचांग तथा कूपन भेजने पर निशुल्क तेल का नमूना भेजने की सूचना प्रकाशित हुई है. इस तेल के स्थानीय एजेन्ट बरेली में के.बी. बॉस थे.
‘मीठी चुटकी’ सामाजिक उपन्यास का साहित्यिक विज्ञापन हैं. इसके प्रतिभाशाली लेखक तीन हैं – भगवती प्रसाद वाजपेयी, श्री युक्त ‘वर्मा’ तथा बाबू शम्भू दयाल सक्सेना ‘साहित्यरत्न’. सजिल्द मूल्य था डेढ़ रुपया. भगवती प्रसाद वाजपेयी के लिखे अन्य उपन्यास प्रेम पथ, अनाथपत्नी तथा मुस्कान को साहित्य मंदिर दारागंज प्रयाग से प्राप्त किया जा सकता था.
‘भ्रमर’ में साहित्यिक विज्ञापनों के साथ-साथ कम्पनियाँ-संस्थानों के भी विज्ञापन प्रकाशित होते थे. अंग्रेजी एवं आयुर्वेदिक औषधियों के विज्ञापन प्रमुखता से छपते थे. सन् 1922 से 1929 तक भ्रमर की फाइलों के खंगालने पर विज्ञापन की भाषा-शैली को पढ़कर आज की विज्ञापनों के अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है.
(हरिशंकर शर्मा द्वारा संपादित किताब ‘भ्रमर पत्रिका का शताब्दी वर्ष’ में संग्रहित लेख के अंश)
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