भ्रमर के प्रकाशन के सौ साल पूरे होने पर किताब
आज़ादी आंदोलन में जब हिंदी के महत्वपूर्ण लेखक क़लम चलाने के साथ ही पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे थे, उनका उद्देश्य पराधीनता से मुक्ति ही था. ‘प्रताप’, ‘इंदु’, ‘सरस्वती’, ‘ब्राह्मण’, ‘चाँद’ और ‘माधुरी’ सरीखी पत्रिकाएं साहित्य के उन्नयन साथ-साथ औपनिवेशिक दासता से ख़िलाफ़ जनजागरण की भावना से प्रेरित रहीं.उसी दौर में राधेश्याम कथावाचक ने बरेली से 1922 में ‘भ्रमर’ पत्रिका शुरू की. यह मासिक पत्रिका 1929 तक लगातार छपती रही.
‘भ्रमर’ के प्रकाशन के शताब्दी वर्ष के मौक़े पर हरिशंकर शर्मा की यह किताब आज़ादी के आंदोलन और साहित्य के इतिहास में ‘भ्रमर’ की भूमिका को रेखांकित करती है, साथ ही हिंदी पत्रकारिता के नज़रिये से पत्रिका के पुनर्मूल्यांकन की कोशिश भी है.
बक़ौल, हरिशंकर शर्मा साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में ‘भ्रमर’ के अवदान की चर्चा उस तरह नहीं होती, जिसकी वह हक़दार है. मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में जब ‘हंस’ छापनी शुरू की तो राधेश्याम कथावाचक की डायरी से मिले ‘भ्रमर’ के 25 हज़ार ग्राहकों के नाम-पते का इस्तेमाल ‘हंस’ के लिए किया. इससे ‘भ्रमर’ के प्रसार और उसके असर का अंदाज़ लगा सकते हैं.
‘भ्रमर’ अपने दौर का वैचारिक आंदोलन था, जो गाँधीवादी तरीक़ों से अंग्रेज़ी रीति-नीति का विरोध करता, साथ ही स्वदेश का प्रचार-प्रसार और राष्ट्रभाषा के विकास के लिए संकल्पबद्ध था. उस दौर के नए और पुराने रचनाकारों को ‘भ्रमर’ से साथ जोड़ना आधुनिक सोच के विकास के निमित्त ही था. वह बताते हैं कि 1923-24 के ‘भ्रमर’ के अंक उन्हें उपलब्ध नहीं हुए, मगर मधुरेश के हवाले से वह कहते हैं कि यशपाल की पहली कहानी ‘अंगूठी’ भी ‘भ्रमर’ में छपी.
श्री शर्मा इसके पहले राधेश्याम कथावाचक के कृतित्व-व्यक्तित्व और उनकी रामायण पर किताबें लिख चुके हैं.
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