जंगे-ए-आज़ादी के सूरमा | मौलवी अहमदउल्ला शाह

  • 8:03 pm
  • 5 January 2022

वह डंकाशाह कहे गए, नक़्क़ाराशाह और मौलवी फ़ैज़ाबादी भी. और ये सारे नाम उस एक ही शख़्स के हैं, तारीख़ जिसके कारनामे मौलवी अहमदउल्ला शाह के नाम से रक़म करती है. नवाबज़ादे, सूफ़ी, फ़कीर मगर जिन्हें हिंदुस्तान की जंगे-ए-आज़ादी के सूरमा के तौर पर याद रखा जाता है. अंग्रेज़ी हुकूमत ने उनके सिर पर पचार हज़ार चांदी के सिक्कों का इनाम रखा हालांकि उनकी सूझ-बूझ, समझ और हिम्मत का लोहा भी माना. अंग्रेज़ों की लिखी कितनी ही तहरीरों में उनका ज़िक़्र बहुत ऐहतराम के साथ मिलता है.

साहबज़ादे के सूफ़ी बनने का सफ़र
दिलावर जंग ख़िताब से नवाज़े गए सैयद अहमद अली ख़ान उर्फ़ ज़ियाउद्दीन चिनापट्टन (मद्रास) के नवाब मोहम्मद अली ख़ान के बेटे थे. 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में जन्मे. नवाबज़ादे की तरह ही पले-बढ़े. भाषाएं पढ़ीं, परंपरागत इस्लामिक विज्ञान पढ़ा, अंग्रेज़ी सीखी और युद्ध कौशल भी. निज़ाम हैदराबाद से मिलने गए तो उनके मेहमान रहते हुए उन्हीं की तरफ़ से एक राजा की बग़ावत कुचलने के अभियान पर चले गए. बाद में अंग्रेज़ अफ़सरों ने उनके पिता से उन्हें इंग्लैंड भेजने का आग्रह किया तो वह गए भी. वहाँ से लौटते हुए मक्का और मदीना में रुके. रास्ते में इरान में रुके तो शहंशाह ने उन्हें अपने यहाँ नौकरी के पेशकश की मगर उसे नामंज़ूर करके वह हिंदुस्तान लौट आए.

पीर ने नाम दिया अहमद उल्ला शाह
हिंदुस्तान लौटने तक उनका रुझान रहस्यवाद की तरफ़ हो चुका था. बहुत तलाश के बाद उन्होंने सैयद फ़ुरक़ान अली शाह को अपना मुर्शिद मान लिया. अर्से तक साथ रहने के बाद उनके पीर ने उन्हें ग्वालियर जाने को कहा. यहीं उन्हें अहमदउल्ला शाह नाम मिला जो उम्र भर उनकी पहचान बना रहा. तब ग्वालियर में क़ादरी परंपरा के दूसरे पीर मेहराब शाह क़ादरी हुआ करते थे. नए पीर के साथ अहमद उल्ला क़रीब साढ़े चार साल रहे. यही उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नई रणनीति के तौर पर जेहाद को बेहतर ढंग से समझा और समझाया भी.

और फिर तुंद-रौ सफ़र की शुरुआत
ग्वालियर में पीर ने उन्हें आगरा जाने को कहा. आगरे में उनकी मौजूदगी का ब्योरा इस तरह भी दर्ज हुआ है,
(अहमदउल्ला शाह) बड़ी तादाद में अपने मुरीदीन के साथ आए हैं. यहाँ उन्होंने आलीशान मकान किराए पर लिया है, जिसके बाहर नक़्क़ारे रखे गए हैं और जो दिन में पाँच बार बजाए जाते हैं. बढ़ती शोहरत के साथ उनके मुरीदीन की तादाद में भी ख़ासा इज़ाफ़ा हुआ है. उनके यहाँ क़व्वाली की मजलिसें हुआ करती हैं.

दरअसल इन मजलिसों के बाद ही वह लोगों से जेहाद के लिए तैयार रहने के बारे में बात करते. उनके मुरीदों के बारे में कहा जाने लगा कि आग उन्हें जला नहीं सकती और तलवार उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती. कहते हैं कि उनके मुरीद भीड़ के सामने अंगारे चबाया करते थे. मौलवी साहब कहते थे कि जो आज अंगारे चबा रहे हैं, कल वे ही आग उगलेंगे.

लखनऊ में डेरा
अलीगढ़ और फिर ग्वालियर का एक फेरा लगाकर वह लखनऊ चले गए. तब तक उनके धर्म उपदेशों में जेहाद के मुखर आग्रह की शोहरत आम हो चुकी थी. 21 नवम्बर, 1856 को लखनऊ के हफ़्तावार अख़बार ‘तिलिस्म’ में उनके आने की ख़बर इस तरह छपी,
इन दिनों अहमदउल्ला नाम का एक शख़्स शहर आया हुआ है, जो ख़ुद को फ़क़ीर कहता है मगर रहता शाही ठाटबाट से है. पहले उसने मोतमादउद्दौला की सराय में डेरा डाला और अब घसियारी मंडी में रहने चला आया है. हर पीर और जुमेरात वाले रोज़ बड़ी तादाद में शहरी महफ़िल-ए-हाल-ओ-क़ाल में शरीक होने जाते हैं. बीच-बीच में कई तरह के कारनामे भी देखने को मिलते हैं. लोगों के देखने के लिए इस तरह के कारनामे हर सुबह और शाम हुआ करते हैं.

क़रीब दो महीने बाद 30 जनवरी 1857 को इसी अख़बार ‘तिलिस्म’ में छपी दूसरी ख़बर में अवाम पर इन महफ़िलों के असर का ज़िक्र किया गया,
घसियारी मंडी का अहमदउल्ला अपनी बात कहने में बहुत बेबाक क़िस्म का इंसान है, जो मन आता है, बोल देता है. सुनने वालों की भारी भीड़ वहाँ हमेशा जुटी रहती है. मौलवी अमीरुद्दीन अली का ज़िक्र अक्सर होता है. हालांकि वह ख़ुद कुछ कर पाने में असमर्थ है, मगर जेहाद पर हमेशा ज़ोर रहता है.

आगे का सफ़र
लखनऊ में एक इतवार को चर्च पर हमला करने की उनकी योजना क़ामयाब तो नहीं हुई मगर बात खुल गई और अफ़सरों के कान खड़े गए. आख़िरकार उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ा. अपने कुछ शार्गिदों के साथ वह बहराइच के लिए निकले तो फ़ैज़ाबाद में ठहर गए. अभी दो-तीन रोज़ ही गुज़रे थे कि अफ़सरों ने उनके प्रवचनों में ख़तरा सूंघ लिया.
‘गदर के फूल’ में अमृतलाल नागर ने चौक बाज़ार, फ़ैज़ाबाद के ग़ुलाम हुसैन का बयान इस तरह दर्ज किया है, मौलवी अहमदउल्ला शाह के मुताल्लिक अपने बाबा से यह सुना था कि वह यहां तशरीफ़ लाए और कुछ आदमियों के साथ आए. पुख़्ता सराय चौक में मुकीम हुए. अंग्रेज़ों ने घेरा डाला. लोग लड़े, मारे गए. मौलवी साहब गिरफ़्तार हुए. उनके साथ सख़्ती हुई. ज़जीरों में बांधकर उन्हें शहर में घुमाया गया. बस मुझे इतना ही मालूम है.

फ़ैज़ाबाद में गिरफ़्तारी और सज़ा
यह बात 19 फ़रवरी 1857 की है, जब उनकी मौजूदगी से चौकन्ने कोतवाल की रिपोर्ट पर लेफ़्टिनेंट थरबर्न मौलवी से मिलने सराय तक गए. कहा कि मौलवी और उनके साथी अपने हथियार अफ़सरों को सौंप दें कि जब वह फ़ैज़ाबाद छोड़ेंगे हथियार उन्हें लौटा दिए जाएंगे. और यह भी कि मौलवी उपदेश देना और लोगों को पैसे बांटना बंद करें क्योंकि इससे अमन को ख़तरा पैदा हो रहा है. मौलवी ने थरबर्न को कोई भी बात मानने से इंकार कर दिया. बैरंग लौटे थरबर्न की रिपोर्ट पर डिप्टी कमिश्नर फोर्बेस ने मौलवी को सबक सिखाने के लिए लेफ़्टिनेंट थॉमस को मौलवी की गिरफ़्तारी का ज़िम्मा सौंपा.

थॉमस ने सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ हमला करके मौलवी को गिरफ़्तार कर लिया. मौलवी और उनके तिलंगों ने हालांकि डटकर मुक़ाबला किया, उसके तीन सिपाही खेत रहे, कई अंग्रेज़ी सैनिक मारे गए, मौलवी ख़ुद ही लड़ते हुए घायल हुए. अंग्रेज़ इस क़दर घबराए हुए थे कि मौलवी को उन्होंने कैंट में रखा. उन पर मुकदमा चला और फांसी की सज़ा सुनाई गई.

क्रांतिकारियों के अगुवा
8 जून 1857 को जौनपुर, बनारस और आज़मगढ़ के बाग़ी फ़ैज़ाबाद में जुटे. छावनी के सिपाहियों को अपने साथ मिलाकर उन्होंने जेल पर धावा बोल दिया. मौलवी अहमदउल्ला शाह को जेल से छुड़ाया ही नहीं, उन्हें बाग़ियों का नेता भी चुन लिया. मौलवी ने अगुवाई क़बूल की और राजा मान सिंह को फ़ैज़ाबाद का शासक बनाकर ख़ुद लखनऊ कूच किया.

लखनऊ में अंग्रेज़ों को शिकस्त
30 जून को मौलवी अपनी फ़ौज के साथ लखनऊ पहुंच गए. अंग्रेज़ों की तोपें और घुड़सवार पल्टन बाग़ियों के हौसले के आगे कमतर साबित हुईं. लखनऊ में जगह-जगह लड़ाई हुई और अंग्रेज़ों को खदेड़ते हुए बाग़ी आगे बढ़ते गए. बाग़ियों ने लखनऊ फ़तेह कर लिया. लोगों के कहने के बावजूद मौलवी ने गद्दीनशीं होने से इन्कार कर दिया और 5 जुलाई 1857 को बेगम हजरत महल के बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी कराई.

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखी
22 जनवरी 1858 को अपनी हत्या की नाकाम साजिश के बाद भी वह चुपचाप नहीं बैठे. फ़रवरी में उन्होंने आलमबाग़ में जनरल आउट्रम पर दो बार हमले किए. इसी तरह मार्च में भी लखनऊ में बाग़ियों ने मौलवी की अगुवाई में अंग्रेज़ी फ़ौजों से कई जगह से मोर्चा लिया. मगर 18 मार्च को हालात ऐसे बने कि बेग़म हजरत महल को अपने बेटे के साथ लखनऊ छोड़ना पड़ा. अंग्रेज़ों ने फिर से लखनऊ पर क़ब्जा कर लिया.

लखनऊ के बाद शाहजहाँपुर
लखनऊ से निकलकर मौलवी अहमद उल्ला शाह शाहजहाँपुर आ गए. नाना साहब और बरेली से ख़ान बहादुर ख़ान के सिपाही भी शाहजहाँपुर आ पहुंचे. क्रांतिकारियों के शाहजहाँपुर में जमावड़े की ख़बर पाकर कैंपबेल ने भी उधर का रुख़ किया. क्रांतिकारी पूरी ताक़त से लड़े मगर 28 अप्रैल को अंग्रेज़ी फ़ौज शाहजहाँपुर में दाख़िल हो गई. अंग्रेज़ों ने जलालाबाद क़स्बा जलाकर ख़ाक कर दिया. नाना साहब के कहने पर बाग़ियों ने शाहजहाँपुर की उन तमाम इमारतों में आग लगा दी, जहाँ गोरे ठहर सकते थे. जलता हुआ शहर देखकर कैंपबेल शाहजहाँपुर में रुकने के बजाय बरेली चला गया. ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन म्यूटिनी 1857-1858’ में जी.बी.मैलिसन ने लिखा है, ‘सर कॉलिन कैम्पबेल को दो बार शिकस्त देने वाला शख़्स मौलवी के अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता.’

बरेली का पतन और मोहम्मदी में हार
कॉलिन हेल को शाहजहाँपुर का ज़िम्मा सौंपकर कैंपबेल फ़ौज के साथ बरेली चला गया. उन दिनों मोहम्मदी में रह रहे मौलवी ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाने की नीयत से डेढ़ हज़ार सिपाहियों की टुकड़ी के साथ शाहजहाँपुर पर धावा बोल दिया. हेल को इसकी ख़बर हो जाने से उसने अपने लोगों की हिफ़ाज़त का बंदोबस्त कर लिया. मौलवी और उनके सिपाहियों ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और हफ़्ते भर तक अंग्रेज़ी सेना पर बमबारी करते रहे. तब तक अंग्रेज़ों ने 5 मई को बरेली पर क़ब्ज़ा कर लिया था. ख़ान बहादुर ख़ान नेपाल चले गए थे.

कैंपबेल ने ब्रिगेडियर जोन्स के साथ फ़ौज को शाहजहाँपुर की स्थिति से निपटने के लिए भेजा. हालांकि क्रांतिकारियों के हौसले और ताक़त को देखते हुए जोन्स ने कैंपबेल को और मदद भेजने के लिए लिखा. कैंपबेल ख़ुद ही शाहजहाँपुर पहुंच गया. उसे मालूम हुआ कि मौलवी अपने सिपाहियों के साथ मोहम्मदी की ओर गए हैं तो उसने जोन्स को मोहम्मदी भेज दिया. क्रांतिकारियों ने डटकर मुक़ाबला किया मगर मारे गए. मौलवी मगर तब तक वहाँ से निकल चुके थे.

मौलवी की शहादत
अहमदउल्ला शाह को पकड़कर लाने वाले को 50 हज़ार रुपये के इनाम का एलान सरकार पहले ही कर चुकी थी. और मौलवी को मारकर उनके सिर के बदले यह इनाम पुवायां के राजा जगन्नाथ सिंह ने पाया. हुआ यह कि क्रांतिकारियों के हमले से घबराए शाहजहाँपुर के तहसीलदार और एक दरोगा ने भागकर राजा जगन्नाथ सिंह के यहाँ शरण ले ली थी. 15 जून 1858 को मौलवी इन दोनों को लेने के लिए जब पुवायां में जगन्नाथ सिंह की गढ़ी पर पहुंचे तो फाटक बंद था.

राजा ने तहसीलदार और दरोगा को सौंपने से भी इन्कार कर दिया तो मौलवी ने अपने महावत से कहा कि हाथी को आगे बढ़ाकर फाटक पर टक्कर मार कर तोड़ दे. हाथी आगे बढ़ा ही थी कि जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव ने ऊपर से उन पर गोली चला दी. मौलवी अहमदउल्ला की मौत हो गई. उनका सिर ले जाकर शाहजहाँपुर में मजिस्ट्रेट को दे दिया. हुकूमत ने उनका सिर शहर कोतवाली पर टांग दिया.

लोधीपुर के कुछ नौजवानों ने रात को वह सिर उतार लिया और गाँव लाकर दफ़्न कर दिया.

संदर्भ | 1. द प्रोफ़ाइल ऑफ़ अ सेंटली रिबेल – मौलवी अहमद उल्ला शाह (सैयद ज़हीर हुसैन जाफ़री/ सोशल सांइटिस्ट, वॉल्यूम 26, जनवरी-अप्रैल,1998)
2. मौलवी अहमदउल्ला शाह (सुधीर विद्यार्थी/ 1857 और रुहेलखंड, सम्पादकः उदय प्रकाश अरोड़ा – एस.एन.आर. रिज़वी)
3. हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन म्यूटिनी 1857-1858 (कर्नल जी.बी.मैलिसन, 1878)

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