मुख्तार माई | ज़ुल्मतों के ख़िलाफ़ औरतों के हक़ की पैरोकार

  • 2:22 pm
  • 19 March 2020

हिन्दुस्तान की सरहद के क़रीब पाकिस्तान के मुजफ़्फ़रगढ़ ज़िले में जटोई तहसील के मीरवाला गांव की मुख्तारन बीबी दूसरे गूजर किसान परिवारों की युवतियों की तरह ही एक आम युवती हुआ करती थी. 22 जून 2002 की रात उन पर टूटे क़हर ने उनके और घर वालों की ज़िंदगी में ऐसा तूफ़ान खड़ा कर दिया कि सब कुछ बदल गया. वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं और न ही इतनी ताक़तवर कि मस्तोई क़बीले के लोगों के हाथों हुई बेइज्ज़ती का बदला लड़कर ले पातींमगर उस बेइज्ज़ती के बाद रवायत के मुताबिक ख़ुदकशी करने के बजाय मुख्तारन बीबी ने लड़ने का इरादा किया. लड़ीं और इस तरह लड़ीं कि अपराधियों को सज़ा दिलाने के साथ ही न सिर्फ़ पाकिस्तान में बल्कि दुनिया भर में स्त्री-अभिमान की हिफ़ाज़त के लिए जूझने वालों के लिए नज़ीर बन गईं. मुख्तार माई बन गईं.

उस रात गांव के ताक़तवर मस्तोई क़बीले के जिरगा (क़बीले की पंचायत) में मुख्तारन बीबी के छोटे भाई शकूर पर मस्तोई अब्दुल खालिक की बहन सलमा के साथ व्यभिचार के आरोप में फ़ैसला होना था. उन लोगों ने गूजर परिवार की एक महिला को जिरगा के सामने हाज़िर होने का फ़रमान सुनाया. वहां सरकारी क़ायदे-क़ानून के बजाय क़बीले का क़ानून ही चलता था, इसलिए किसी क़िस्म की फ़रियाद की गुंजाइश भी न थी. पिता और चाचा ने मुख्तारन को जिरगा के सामने भेजना तय किया क्योंकि घर में दूसरी लड़कियां काफी कम उम्र की थी. अठारह बरस की उम्र में ब्याही गई मुख्तारन का कुछ समय बाद ही तलाक हो गया था. वह अशिक्षित थी मगर उसे क़ुरान कंठस्थ थी और वह गांव की बच्चियों को क़ुरान पढ़ाती भी थीं. घर के लोगों को लगा कि इस नाते गांव में उसकी प्रतिष्ठा है और वह समझदार भी है.

जिरगा में शरीक मौलाना मुख्तारन और उसके पिता-चाचा के पहुंचने से पहले ही जा चुके थे. फ़ैसले के लिए वहां मस्ताई लोगों की नीयत ग्यारह-बारह बरस के शकूर पर ज़िना के आरोप और उसकी बुरी तरह से पिटाई करके दिन में ही उसे पुलिस को सौंपने से भी साफ़ हो चुकी थी. उनका कहना था कि शकूर का निक़ाह सलमा से करा दिया जाए और मुख्तारन किसी मस्तोई मर्द से ब्याह कर ले. यह मशविरा क़बूल नहीं किया गया. नतीजा यह कि चार हथियारबंद मस्तोई मर्दों ने सारे गांव वालों और बाप-चचा की आंखों के सामने मुख्तारन को खींचकर उठा लिया और धक्के देते हुए पास की कोठरी में ले गए. अपने संस्मरण ‘इन द नेम ऑफ़ ऑनर’ में मुख्तारन ने लेखक को बताया है, ‘वे जिबह करने वाले बकरे की तरह ढ़केलकर मुझे कोठरी में ले गए. मैं चिल्लाती रही कि क़ुरान पाक के वास्ते मुझे छोड़ दो, ख़ुदा के वास्ते मुझे छोड़ दो. मुझ पर उनकी पकड़ मज़बूत थी, उनसे छूट भागने की कोशिश बेकार थी, दुआएं भी बेमानी थीं. बाहर का अंधेरा मेरे भीतर उतरता गया. मेरे दिमाग़ में धुंध छा गई थी. मैं बेसुध हो गई. मुझे याद नहीं कि वे चारों जानवर घंटों या पूरी रात मेरे शरीर पर ज़ुल्म ढाते रहे. हल्का सा होश आया तो उन्होंने मेरे बाल पकड़कर मुझे बाहर धकेल दिया और कपड़े मेरे ऊपर फेंक दिए. बाहर आते ही मैंने अपने वालिद को पुकारा और उन्होंने झट से मेरे ऊपर शॉल फेंक दी. उस हालत में सारे गांव वालों की निगाहों के सामने से ख़ुद को घसीटती हुई किसी तरह मैं घर पहुंची और निढाल होकर खाट पड़ गई. तब मन में एक ही ख़्याल आया कि अब मुझे जान दे देनी चाहिए. आख़िर वे लोग भी तो यह बात जानते थे कि इस बेहुरमती के बाद एक औरत ख़ुदकशी के सिवाय और क्या करेगी?’

लेकिन रवायत के ख़िलाफ़ मुख्तारन बीबी ने ख़ुदकशी नहीं की बल्कि इस ज़ुल्म के बारे में बोलने, दुनिया को बताने और इसके ख़िलाफ़ लड़ने का फ़ैसला किया. हालांकि यह आसान नहीं था मगर मुख्तारन ने पहल की. पहले पाकिस्तान और फिर अंतराष्ट्रीय मीडिया में इस बर्बर और ख़ौफ़नाक मामले की ख़बरें छपीं तो वकील, स्त्री अधिकार  और मानवाधिकार संगठन भी आगे आए. उसी साल सितम्बर में आतंकवाद-निरोधी अदालत ने चारों आरोपियों सहित छह मर्दों को मौत की सज़ा सुनाई. सन् 2005 में,  लाहौर हाई कोर्ट ने “अपर्याप्त साक्ष्य” का हवाला देते हुए और छह में से पांच को दोषी माना और छठे आरोपी को उम्रकैद की सज़ा सुनाई. मुख्तारन और सरकार ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील भी की. सन्  2011 में सुप्रीम कोर्ट ने भी आरोपियों को बरी कर दिया.

अपनी और घर वालों की जान पर ख़तरे के बावजूद मुख्तारन बीबी न सिर्फ़ कोर्ट में अपना मुकदमा लड़ती रहीं बल्कि महिला अधिकारों के लिए मुखर वक्ता बनकर दूसरी पीड़ित महिलाओं की मदद भी करती रही हैं. पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से मिले पांच लाख रुपये के मुआवज़े से उन्होंने गांव में एक स्कूल शुरू किया, महिला कल्याण संगठन बनाया. 2005 में, अमेरिका की ग्लैमर मैग्ज़ीन ने उन्हें “वुमन ऑफ़ द ईयर” चुना. 2007 में, मुख्तार माई को यूरोपीय परिषद का नार्थ-साउथ प्राइज़ दिया गया. अब तक वह दुनिया भर में तमाम पुरस्कार और सम्मान पा चुकी हैं.

अमेरिकी पत्रकार निकोलस क्रिस्तॉफ की मुख्तार माई से पहली मुलाक़ात इस हादसे के बाद तब हुई थी, जब वह अपना स्कूल शुरू कर चुकी थीं मगर स्कूल चलाने के लिए फंड की तंगी महसूस कर रही थीं. मुख्तार माई पर लिखे निकोलस के कॉलम के जवाब में अमेरिकी पाठकों ने 1.6 लाख डॉलर की मदद इकट्ठा करके भेजी थी, जिससे उन्होंने हाई स्कूल शुरू किया, एक स्कूल-बस और एक एम्बुलेंस ख़रीदी. बक़ौल निकोलस, बेहद हताशा पैदा करने वाली क्रूर क़बाइली रवायतों की शिकार मुख्तार माई का हौसला और उनकी ज़िद हमारे दौर की औरतों के लिए प्रेरणा है. मुल्क के अलग-अलग हिस्सों से मशविरे या मदद के लिए हर रोज़ उनके घर पहुंचने वाली पीड़ित औरतों की भीड़ भी इसकी गवाह है.

(19 मार्च 2007 को लिस्बन में हुए एक समारोह में पुर्तगाल के राष्ट्रपति ने मुख्तार माई को यूरोपीय परिषद् का नार्थ-साउथ प्राइज़ दिया था.)

 

 

 

 

 

 

 


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