कुमाऊं वाले कारपेट साहब के क़िस्से

  • 2:26 pm
  • 25 July 2021

कुमाऊं वालों के ‘कारपेट साहेब’ और ज़माने भर में ‘जेंटिलमैन हण्टर’ के नाम से मशहूर हुए जेम्स एडवर्ड कॉर्बेट अपनी ज़िंदगी में ऐसे कितने ही विशेषणों से नवाजे गए. दुनिया ने उन्हें शिकारी के तौर पर जाना, शिकार के उनके क़िस्सों और दिलचस्प क़िस्सागोई के दीवाने बेशुमार हैं, और ‘जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क’ प्रकृति से उनके प्रेम और पर्यावरण संरक्षण की उनकी कोशिशों के सम्मान की नज़ीर है ही.

कालाढूंगी में पैदा हुए जेम्स जंगलों में गुलेल और तीर-कमान से रियाज़ करते बड़े हुए और 18 साल की उम्र में ही पढ़ाई-लिखाई छोड़कर ‘बंगाल एण्ड नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे’ में फ़्यूल इन्स्पेक्टर हो गए थे. बाद में मोकामा घाट पर उन्होंने रेलवे के ठेकेदार के तौर पर भी काम किया.

एनईआर के इतिहास की किताबों में रेलवे ये बातें बड़ी शान से दर्ज करता है, हालांकि कॉर्बेट ने अपनी किताब ‘माय इंडिया’ में रेलवे की नौकरी के दिनों के तमाम दिलचस्प क़िस्से दर्ज़ किए हैं. ‘हिन्दुस्तान के ग़रीबों’ को समर्पित उनकी यह किताब मोकामा में उनके साथ काम करने वाले लोगों और कई महत्वपूर्ण वाक़यों का दस्तावेज़ तो है ही, कॉर्बेट के क़िरदार और उनकी संवेदना का आख्यान भी है.

अपनी ज़िंदगी में ही किवदंति बन गए सुल्ताना डाकू को पकड़ने की सरकारी मुहिम का हिस्सा रहे जिम कॉर्बेट ने सुपरिंटेंडेंट फ्रेड एंडरसन के हाथों सुल्ताना की गिरफ़्तारी के साथ ही तफ़्सील से इस डाकू के मानवीय पक्ष का ब्योरा भी इस किताब में लिखा है.

कॉर्बेट ने लिखा है कि उनकी ख़्वाहिश थी कि सुल्ताना की सजा मुक़र्रर करते वक़्त यह भी ख़्याल रखा जाए कि ज़िन्दगी में उसे कुछ और करने का मौक़ा ही न मिल सका और यह भी कि जन्म के साथ ही उसे जरायमपेशा मान लिया गया था, वरना अपनी समझ में उसने असहाय या ग़रीबों या औरतों की हमेशा मदद ही की थी. कॉर्बेट सुल्ताना डाकू को हिन्दुस्तानी रॉबिनहुड मानते थे.

बेहद मामूली लगने वाली घटनाओं के बीच इंसानी भावनाओं को महसूस करने और उसे दर्ज करने की ख़ूबी किसी ख़ालिस शिकारी की नहीं हो सकती. नैनीताल में चीना पहाड़ी के क़रीब एक गांव के लोगों ने आदमख़ोर बाघ मारने के लिए उन्हें टेलीग्राम भेजा था.

कॉर्बेट ने दर्ज किया है, ‘जैसा कि एक आम हिन्दुस्तानी का भरोसा होता है, गांव के लोगों को टेलीग्राम भेज देने भर से पक्का यक़ीन था कि मैं ज़रूर आऊंगा.’ सुल्ताना डाकू का पीछा करते हुए रात में किसी गांव से गुज़रने का ब्योरा उन्होंने इस तरह बयान किया है, ‘हम लोगों ने यह काम इतनी ख़ूबी से अंजाम दिया कि गांव के कुत्तों की ख़ामोशी भी नहीं टूटी. गांवों के ये देसी कुत्ते दुनिया के नायाब कुत्तों से ज्यादा बेहतर पहरेदार ठहरते हैं.’

इंसान की नेकदिली और ईमानदारी पर उन्हें बहुत भरोसा था, हालांकि इस लिहाज से जानवरों को वे इंसानों से कमतर हरग़िज़ नहीं मानते थे. कितने ही अनुभवों के हवाले से उन्होंने खूंखार समझे जाने वाले जानवरों को भरोसेमंद और रहमदिल साबित किया है. इसी नाते इंसानी अराजकता को ‘जंगल का क़ानून’ ठहराने वाली उक्तियों को वह मौक़े-बेमौक़े ख़ारिज करते रहे.

तब वह 31 साल के थे, जब चम्पावत में उन्होंने आदमख़ोर का शिकार किया. वह तारीख़ थी 31 मई 1907 और 1938 में टॉक गांव में आख़िरी बार आदमख़ोर का शिकार करने के वक़्त तक वह 63 साल के हो चुके थे. उनकी लिखी हुई छह किताबें इसके बाद ही दुनिया के सामने आईं. उनकी पहली किताब ‘मैन ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’ सन् 1944 में छपी. ‘ट्री टॉप्स’ सन् 1955 में उनके निधन के बाद छप सकी.

जिम कॉर्बेट की लिखी हुई किताबें शिकार के क़िस्से भर नहीं हैं, इनसे कुदरत और जानवरों पर जिम कॉर्बेट के गहन अध्ययन के बारे में भी पता चलता है. मनुष्यों पर हमला करने वाले बाघ और तेंदुए के स्वभाव में कई समानताओं के बावजूद वह इनमें भेद की दिलचस्प व्याख्या भी करते हैं.

वह मानते थे कि दोनों जानवरों की हिम्मत में बड़ा फ़र्क़ होता है. कोई बाघ अगर नरभक्षी हुआ तो उसमें इंसान का डर जाता रहता है. और रात के मुक़ाबले दिन में जंगल में लोगों की आवाजाही ज्यादा होती है इसलिए बाघ दिन में ही उनका शिकार तलाश कर लेता है. रात के अंधेरे में इंसानी बस्तियों पर हमले की उसे ज़रूरत नहीं पड़ती.

इस लिहाज से तेंदुए की प्रकृति एकदम उलट है. नरभक्षी तेंदुआ चाहे कितने ही लोगों को मार चुका हो, इंसान का ख़ौफ़ उसमें हमेशा बना रहता है. यही वजह है कि तेंदुआ दिन के उजाले में इंसान से मुठभेड़ से बचता है, वह अंधेरे में ही हमला करता है या फिर रात को घरों में दाख़िल होकर शिकार करता है. यही वजह है कि आदमख़ोर तेंदुए के मुक़ाबले आदमख़ोर बाघ को मारना कहीं आसान है.

‘मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’ में अपने बचपन के तजुर्बों के हवाले से उन्होंने बाघ को ‘जेंटलमैन’ कहा है. लिखा है कि किस तरह जंगल में रात हो जाने पर कुछ लकड़ियां जलाकर वे कहीं भी पेड़ के नीचे सो जाते थे. दूसरे जानवरों की आवाज़ या कई बार बाघ की दहाड़ से नींद उचटती तो कुछ और लकड़ियां आग में डालकर वे फिर सो जाते. दूसरों के मुंह से सुने क़िस्सों और ख़ुद अपने अनुभवों से उन्हें भरोसा था कि अगर आप बाघ को नहीं छेड़ेंगे तो उसे भी आपसे कोई लेना-देना नहीं.

उन्हीं दिनों का एक क़िस्सा यह है कि जंगली मुर्ग़ियों का पीछा करते हुए वह जंगल में कुछ दूर तक निकल गए. बेर की झाड़ियों के क़रीब थे कि थोड़ी दूरी पर सांस लेने की तेज़ आवाज़ के साथ हिलती हुई झाड़ियों के पीछे से निकलकर बाघ सामने आ गया. उसने जिम की ओर देखा और फिर मुड़कर धीमे क़दमों से आगे बढ़ गया.

बक़ौल जिम, ‘मैं उन हज़ारों-हजार लोगों के बारे में सोचता हूं, जो दिन भर जंगल में रहते हैं और घास काटने या लकड़ियां बटोरने के अपने उद्यम में आए दिन उन जगहों के क़रीब भी होते हैं, जहां बाघ रहते हैं. शाम को हिफ़ाज़त से घर पहुंचने वाले इन लोगों को इस बात ज़रा भी भान नहीं होता कि दिन भर वे किसी ‘क्रूर’ या ‘रक्तपिपासु’ जानवर की निगाह में बने हुए थे.’

ऐसे ही अनुभवों की वजह से ‘बाघ की तरह बेरहम’ या ‘ख़ून का प्यासा बाघ’ जैसी लोक उक्तियों पर उनको हमेशा ऐतराज़ रहा. वे मानते थे कि ऐसा कहने या लिखने से लोगों में जो धारणा बनी, वह बाघ के क़िरदार को कम करके आंकती है. वे मानते थे कि बाघ दिलदार और हिम्मती जीव है और अगर जनमत उसके विनाश के ख़िलाफ़, उसकी हिफ़ाज़त के लिए नहीं खड़ा हुआ तो ऐसे ख़ूबसूरत प्राणी को खोकर हिन्दुस्तान और ग़रीब हो जाएगा.

हिन्दुस्तान में जिम कॉर्बेट की उपलब्धियों की तमाम निशानियां दुनिया भर में फैली हुई हैं. कालाढ़ूंगी के उनके घर में बने म्युज़ियम में उनके रोज़मर्रा के इस्तेमाल के सामान, तस्वीरें और पाण्डुलिपियां सहेजी हुई हैं.

जिम कॉर्बेट इन्टरनेशनल रिसर्च ग्रुप के मुताबिक उनकी पसंदीदा दो राइफ़लों में से एक, जो चम्पावत के आदमख़ोर तेंदुए को मारने के लिए सन् 1910 में उन्हें दी गई थी, जॉन रिगबी एण्ड कम्पनी के पास है. कॉर्बेट ने अपनी वसीयत में यह राइफ़ल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस को दी थी, जहां से यह रिगबी के पास पहुंची. पॉइंट 275 कैलिबर की यह राइफ़ल रिगबी ने ही बनाई थी. दूसरी पॉइंट 450/400 दुनाली राइफ़ल सन् 2015 से एक अमेरिकी बिल जोन्स के निजी संग्रह में है.

उनकी लिखी हुई छह किताबें तो दुनिया भर में मौजूद हैं, मगर ‘जंगल स्टोरीज़’ दुर्लभ है. जिम कॉर्बेट ने यह किताब ख़ुद ही छपाई थी. इसकी कुल सौ कॉपी छपी थीं, जो वह अपने दोस्तो को तोहफ़े में दिया करते थे. ‘जंगल स्टोरीज़’ की एकमात्र प्रति भी अब रिगबी एण्ड कम्पनी के पास ही है.

इसी तरह उनके हाथों मारे गए बाघ और तेंदुओं में से सिर्फ़ एक टॉक के आदमख़ोर की खाल, उनकी वसीयत के मुताबिक़ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की न्यूयॉर्क शाखा की मिल्कियत है. बाक़ी खालों के बारे में किसी को ठीक से नहीं मालूम.

कुमाऊं और गढ़वाल के लोगों में ‘कारपेट साहेब’ के नाम से मशहूर इस शख़्स को क्या लोग सिर्फ़ इसलिए प्यार करते थे कि ज़रूरत पड़ने पर वे मदद के लिए हाज़िर रहते थे या फिर आदमख़ोरों के ख़ौफ़ से उन्हें निजात दिलाते रहे या इससे कहीं ज्यादा उनके इंसानी जज़्बे को क़द्र के क़ाबिल मानते थे?

किसी शिकारी को ‘जेंटिलमैन हण्टर’ मानने की भी तो कोई वजह रही ही होगी न! ये वजहें ही शायद उन्हें शिकारी या लेखक भर से अलग ख़ास मुक़ाम का हक़दार बनाती हैं.

सारी उम्र हिंदुस्तान में गुज़ार देने के बाद आख़िरी दिनों में वह केन्या चले गए थे. वहीं न्येरी में उनका निधन हुआ.

(जिम कॉर्बेट 25 जुलाई 1875 को जन्मे. 79 वर्ष की आयु में 19 अप्रैल 1955 को उनका निधन हुआ.)


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