जब कैमरे ने राहुल सांकृत्यायन की प्राण रक्षा की

राहुल सांकृत्यायन के विपुल लेखन में फोटोग्राफी का ज़िक्र अलग-अलग तरह से बार-बार आया है, ख़ास तौर पर उनके यात्रा साहित्य में. वह फ़ोटोग्राफ़ी कौशल पर ज़ोर देते और यात्राओं में इसकी ज़रूरतों को रेखांकित करते. डिज़िटल के इस दौर में कैमरे के अलावा फ़िल्म और पेपर जुटाने की उनकी मुश्किलों का अंदाज़ शायद बहुत लोग न लगा सकें, मगर जिन्होंने फ़िल्म और डार्करूम बरता है, वे इसे अच्छी तरह समझ सकेंगे. राहुल सांकृत्यायन ने फ़ोटोग्राफ़ी के संसाधनों और उसके तकनीकी पक्ष पर भी अधिकारपूर्वक और ख़ासे दिलचस्प ब्योरे दर्ज किए हैं. उनकी किताबों के अलग-अलग पन्नों में दर्ज फ़ोटोग्राफ़ी के कुछ संदर्भ हमने जुटाए हैं. -सं.

फोटोग्राफी सीखना भी घुमक्कड़ के लिए उपयोगी हो सकता है. आगे हम विशेष तौर से लिखने जा रहे हैं कि उच्चकोटि का घुमक्कड़, दुनिया के सामने लेखक, कवि या चित्रकार के रूप में आता है. घुमक्कड़ लेखक बनकर सुन्दर यात्रा-साहित्य प्रदान कर सकता है. यात्रा साहित्य लिखते समय उसे फोटो चित्रों की आवश्यकता मालूम होगी. घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है कि वह अपनी देखी चीज़ों और अनुभूत घटनाओं को आने वाले घुमक्कड़ों के लिए लेखबद्ध कर जाय. आख़िर हमें भी अपने पूर्वज घुमक्कड़ों की लिखी कृतियों से सहायता मिली है, उनका हमारे ऊपर भारी ऋण है, जिससे हम तभी उऋण हो सकते हैं, जब कि हम भी अपने अनुभवों को लिखकर छोड़ जायं. यात्रा-कथा लिखने वालों के लिए फोटो कैमरा उतना ही आवश्यक है, जितना क़लम-कागज. सचित्र यात्रा का मूल्य अधिक होता है.

जिन घुमक्कड़ों ने पहले फोटोग्राफ़ी सीखने की ओर ध्यान नहीं दिया, उन्हें यात्रा उसे सीखने के लिए मजबूर करेगी. इसका प्रमाण मैं स्वयं मौजूद हूँ. यात्रा ने मुझे लेखनी पकड़ने के लिए मजबूर किया या नहीं, इसके बारे में विवाद हो सकता है, लेकिन यह निर्विवाद है कि घुमक्कड़ी के साथ क़लम उठाने पर कैमरा रखना मेरे किए अनिवार्य हो गया. फोटो के साथ यात्रा-वर्णन अधिक रोचक तथा सुगम बन जाता है. आप अपने फोटो द्वारा देखे दृश्यों की एक झांकी पाठक-पाठिकाओं को करा सकते है, साथ ही पत्रिकाओं और पुस्तकों के पृष्ठों में अपने समय के व्यक्तियों, वास्तुओ-वस्तुओं, प्राकृतिक दृश्यों और घटनाओं का रेकार्ड भी छोड़ जा सकते हैं. फोटो और क़लम मिलकर आपके लेख पर अधिक पैसा भी दिलवा देंगी. जैसे- जैस शिक्षा और आर्थिक तल ऊंचा होगा, वैसे-वैसे पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार भी अधिक होगा, और उसी के अनुसार लेख के पैसे भी अधिक मिलेंगे. उस समय भारतीय-घुमक्कड़ को यात्रा-लेख लिखने से, यदि वह महीने में दो-चार भी लिख दे, साधारण जीवन-यात्रा की कठिनाई नहीं होगी. लेख के अतिरिक्त आप यदि अपनी पीठ पर दिन में फोटो धो लेने का सामान ले चल सकें, तो फोटो खींचकर अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं. फोटो की भाषा सब जगह एक है, इसलिए वह सर्वत्र लाभदायक होगा, इसे कहने की आवश्यकता नहीं.

स्वावलम्बी बनाने वाली सभी कलाओं पर यहां लिखना या उनकी सूची संभव नहीं है, किन्तु इतने से पाठक स्वयं जान सकते है, कि नगर और गाँव मे रहने वाले लोगों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए कौनसे व्यवसाय उपयोगी हो सकते है, और जिनको आसानी से सीखा जा सकता है.
[1949 में छपी ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ के स्वालंबन अध्याय में]

प्रयाग से माचवे जी की चिट्ठी में यह पढ़कर संतोष हुआ कि वह मई में नैनीताल आएंगे. सेनगुप्ता ने लिखा है, भट्टजी की हालत धीरे-धीरे सुधर रही है. एक तरफ़ आर्थिक स्थिति वैसी थी, दूसरी तरफ़ जब 21 को श्री कृष्णाप्रसाद दर की चिट्ठी मिली कि 11 सौ रुपये का रोलेफ़्लैक्स साढ़े आठ सौ में दिला देंगे, तो कहा – रुपये की कमी तो है, किन्तु लेना ही पड़ेगा. अपने ऊपर, शायद समय के बाद और लोग भी झुंझलाते होंगे, इसलिए मेरा वैसा करना अचरज की बात नहीं.
[‘जीवन यात्रा’ के नैनीताल अध्याय में]

1952 में छपी ‘यात्रा के पन्ने’ में फोटोग्राफी के तजुर्बे

– 15 अप्रैल को हमें अब तिब्बत का रास्ता पकड़ना था. गुरुजी पण्डित हेमराज शर्मा के सौजन्य और सहायता दूसरी यात्रा से ही हमारे लिए बड़ी उपकारक होती आई थी. उन्होंने नेपाली सीमा तक के लिए साईस के साथ अपने दो घोड़े दे दिए, और साखू तक के लिए मोटर भी. हमने चार भारवाहकों को सामान के लिए कर रखा था. जायसवाल जी की भेजी सहायता को लेकर अब हमारे पास हज़ार रुपये के क़रीब थे, अपने रोलैफ़्लैक्स कैमरे के अतिरिक्त एक डबल एक्सटेन्शन का और भी कैमरा था. यात्रा की कितनी ही आवश्यक चीज़ें भी ले ली थीं, जिनमें से कुछ तिब्बत के लामाओं की भेंट के लिए थीं.

– अप्रैल का अन्तिम सप्ताह था. हम 7-8 हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर चल रहे थे. यहां लाल, गुलाबी, और सफ़ेद रंग के फूलों वाले गुरास (बुरांश) के पेड़ थे. बहुत से पेड़ तो आजकल अपने फूलों से ढंके हुए थे. बुरांश को कोई कोई अशोक भी कहते हैं, लेकिन यह हमारा देशी अशोक नहीं है. अंग्रेज़ी में बुरांश को रोडेन्ड्रन कहते हैं. एक वृक्ष तो अपने फूलों से ढंका इतना सुंदर मालूम होता था, कि मैं थोड़ी देर उसके देखने के लिए ठहर गया. कैमरे से फोटो लिया, लेकिन फोटो में रंग कहां से आ सकता था?

– आज तेजरत्न से फोटो के बारे में बात हुई. अगले ही दिन संस्क्या में उनका साथ छूटने वाला था. वह इस बात पर राज़ी हो गये कि प्लेट और कागज दे देने पर 12 आना में एक प्लेट की तीन कापी कर दे देंगे, अर्थात-मसाला और मेहनत के लिये उनको प्रति प्लेट 12 आना मिलेगा. दिन में पचास-साठ प्लेट वह आसानी से खींच सकते थे, इसलिए कोई घाटे का सौदा नहीं था. हमें भी सैकड़ों तालपत्र की पोथियां मिलने वाली थी, जिनका फोटो लेना आवश्यक था. अबकी यात्रा में हमारे पास हज़ार रुपये के आस-पास थे, जिसमें ही दो आदमियों का ख़र्च भी था, इसलिये ज़्यादा साखर्ची नहीं दिखला सकते थे.

– पहिले यहां की ताल-पोथियों को एक मर्तबे हमको देखना था. बैठकर लिखने का ख़्याल छोड़ यही अच्छा समझा कि शिगर्चे चल के वहां से तेजरत्न फोटोग्राफर का लायें. हमने चिट्ठी लिखकर कलकत्ता से फोटो का सामान भी मंगवाया था, उसके भी वहां पहुंचने की आशा थी.

– अपनी चौथी यात्रा में तिब्बत सरकार की आज्ञा मिल जाने के कारण वह कोठरी मेरे लिये खोली गयी, उसमें और ऐतिहासिक चीजें मिलीं, पर पोथी नहीं थी. मैंने पांचों अधिकारियों के प्रतिनिधियों के सामने मुहर तोड़ने और ताला खोलने के बाद पुस्तकों को देखा और अन्दाज किया कि 10-11 दर्जन प्लेटों की जरूरत होगी. उस दिन लौट कर हम शलू में रह गये.

– उस दिन के पत्र से मालूम हुआ कि श्री आनंद कौसल्ययन भारत आ गये. 1932 के अंत में हम दोनों एक साथ इंग्लैंड गए थे. वहां दो साल रहने के बाद वह लंका चले आये थे, जहां से अब वह भारत आये हुए थे. जुलाई का मध्य आते-आते यहां का काम समाप्त हो गया था. दो-तीन पुस्तकों को हम उतार चुके थे, कुछ आवश्यक पुस्तकों का अपने कैमरे से फोटो ले लिया था. यहां से दो दिन के रास्ते पर डोर गुम्बा थी, जहां पर यहां के ही जितनी तालपत्र की पोथियां थी, जिन्हें हम दूसरी यात्रा में देख चुके थे. डोर का लामा अभी यहीं था. पूछने पर मालूम हुआ एक हफ़्ते बाद उसका कारिंदा (छन्जे) डोर जायेगा. हमें भी उसी समय जाना ठीक था इसलिए अभी एक हफ़्ता और प्रतीक्षा करनी थी.

– चिट्ठियों में एक शोकजनक खबर यह मिली कि पटना म्यूजियम के क्यूरेटर श्री मनोरंजन घोष मर गए. मनोरंजन बाबू को मित्र मंडली में मज़ाक के तौर पर काला पहाड़ कहा जाता था. वह लम्बे भी ख़ूब थे और मोटे भी, साथ ही रंग भी उनका बिल्कुल काला था; इसलिए ऐतिहासिकों की मंडली में काला पहाड़ नाम पड़ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. मेरे काम से मनोरंजन बाबू की विशेष रुचि थी, और किसी भी चीज़ की जरूरत होने पर वह बड़ी तत्परता के साथ उसे भिजवाते थे. पटना म्यूजियम के लिए तिब्बत की वेश-भूषा तथा दूसरी सामग्रियों के लाने का आग्रह उनका ही था. अब की भारत लौटने पर ऐसे मित्र को नहीं देख सकेंगे, इसका मुझे अफ़सोस था.

– स-स्क्या में हमने कुछ फोटो लिये थे, तेजरत्न ने उन्हें धोया, तो उनमें से कुछ ख़राब निकले, लेकिन एक के भी ख़राब होने से पुस्तक खंडित हो जाती है, इसलिए जो भी फोटो लिया जाय, उसे यहीं धो कर देख लेना आवश्यक था. अब हम ग्यांचे से फोटो-सामग्री के पारसलों के आने की प्रतीक्षा में यही बैठे रहे. किसी ने बतलाया कि यहां से सात-आठ मील दूर पण्-छेन्-लामा के अध्यापक की गुम्बा नेरीकाछा में ताल-पत्र की पोथी है. हमने समझा तालपत्र होने के कारण वह ज़रूर पुरानी संस्कृत पुस्तक होगी, इसलिए दो दिन की कोशिश के बाद 2 अगस्त को एक घोड़ा मिला जिस पर हमने नेरीकाछा के लिए प्रस्थान किया.

– सम्लो गेशे के दो घोड़े मिल जाने पर एक घोड़े की और आवश्यकता थी, जिसे मान बहादुर साहू ने दे दिया. 4 अगस्त को नेपाली लोगों का वन-भोज था, जिसके लिए जोड़् (दुर्ग) की पहाड़ी के पीछे सब लोग गए, अच्छा-अच्छा भोजन तैयार हुआ, जिसके साथ शराब का होना भी आवश्यक था. हम भी उसमें निमंत्रित थे पर उस दिन हम नहीं जा सके. पांच अगस्त को 10 बजे अभय सिंह, तेजरत्न और रघुवीर के साथ हम शलू के लिए रवाना हुए और वहां रिसुर लामा के साथ ठहरे. अगल दिन दोपहर को रिफुग् से तालपोथियां चली आईं. सूची बनाने पर मालूम हुआ कि कुल 38 पुस्तकें हैं.

तेजरत्न ने फोटो लेना शुरू किया. धो कर देखने पर जब फोटो नहीं आया, तो तेजरत्न कहने लगे – प्लेट पुरानी है. वस्तुतः प्लेट पुरानी नहीं थी, बल्कि वह बारीक़ से बारीक़ रंग की छाया लेने वाली विशेष तौर की प्लेट थी, जिसका न तो हमें तो तर्जबा था, न तेजरत्न को. उनको अधिक देर तक एक्सपोज़ करने की आवश्यकता थी. यह बात तो भारत लौटकर मालूम हुई. फोटो लेने में सुभीता देखकर हम लोग 6 अगस्त से ही रिफुग् में चले गए. कलकत्ता से आई प्लेटों की वह हालत देखकर तेजरत्न के पास जितनी प्लेटें थीं, उनको काम में लाना शुरू किया गया.

पुस्तकों की सूची मिलाने पर मालूम हुआ कि 1934 में जितनी तालपोथियां हमने देखी थीं, उनमें से दो – ‘सद्धर्म पुण्डरीक’ और ‘कोशिका-पंजिका’ अब नहीं थीं. यदि दो साल में दो पुस्तकें गुम हो सकती थीं तो कई शताब्दियों से यहां रखी हुई इन पुस्तकों में से न जाने कितनी गुम हुई होंगी. मुझे यह भी याद है कि पहली तिब्बत यात्रा में मुझे यहां से सात-आठ सौ बरस पुरानी एक ताल-पत्र की पोथी मिली थी, जिसे पढ़ने पर मालूम हुआ था, कि कन्जूर में अनुवादित ‘वज्रडाक तंत्र’ है. पुस्तक को मैंने पटना-म्यूज़ियम में रख दिया. यह तो निश्चय ही था, कि अगर दस-पांच हज़ार ख़र्च करने के लिए कोई तैयार होता, तो मेरी देखी हुई पुस्तकों में से आधी उसे आसानी से मिल सकती थी. इस प्रकार तिब्बत में होने से वह सुरक्षित हैं, यह नहीं कहा जा सकता.

– फोटो-प्लेटो की वैसी हालत देखकर फिर हमें अपनी क़लम पर भरोसा करना पड़ा. 13 अगस्त को तेजरत्न को हिसाब करके पांच ढोर्जे (60 रुपये के करीब) दे दिये. रिसुर लामा ने तीन महीने के लिए हमें प्रमाणवार्तिक के ऊपर मनोरथ नंदी की वृत्ति को दे दी. यह प्रमाणवार्तिक को समझने के लिए बड़ी सुंदर टीका थी, जिसमें एक-एक शब्द को समझाया गया था. अनुवाद करने के लिए वह तिब्बत पहुंची थी, लेकिन उसका अनुवाद नहीं किया जा सका. हम पुस्तक ले कर शलू विहार में चले आए. शलू का विहार पुराना है.

– ग्यांचे यहां से डेढ़ दिन का ही रास्ता था. प्लेटों के ख़राब हो जाने के कारण हमने समझा, वहां तार और डाकख़ाने दोनों हैं, वहां चलकर चीज़ों के मंगाने और भेजने का ठीक से बंदोबस्त कर आयें. इसी ख़्याल से 16 अगस्त को सवेरे 6 बजे ही हम ग्यांचे के लिए रवाना हुए.

– पहली यात्रा के ल्हासा के जाड़े के दिन याद आ रहे थे. उस समय मैं मामूली स्याही से कुछ लिख रहा था. दवात में डुबाकर कलम को कागज पर चलाता, लेकिन अक्षर नहीं दिखाई पड़ते, मैं समझता था, शायद स्याही रुकी हुई है. कितने ही समय तक झटका देकर कलम के मुंह को मुक्त करना चाहा, फिर रहस्य मालूम हुआ, कि यह तो स्याही कलम की नोक पर जम रही है. फौन्टेन पेन के इस्तेमाल करने से यहां उसका भय तो नहीं था, लेकिन हाथों की ठिठुरन मिटाने का कोई इंतज़ाम करना जरूरी था. चाम्-छंग-कुशो ने इसके लिये निर्धूम आग की बोरसी लाकर पास में रख दी. 20 अक्टूबर को पास के पहाड़ों पर नई बरफ पड़ी दिखाई पड़ी. उस दिन हवा भी तेज थी, और आकाश में बादल छाये हुए थे, इसलिए सरदी और बढ़ गई.

खैरियत हुई कि अगले दिन (21 अक्टूबर) को 2 बजे तक हमने कापी करने का काम खतम कर दिया. अब फोटो लेकर धोने का तजर्बा करना था. फोटो लेने के लिये पुस्तकों की कमी नहीं थी. हमने 21 अक्टूबर को कुछ प्लेट महल के कमरे में रखकर फोटो उतारे, धोने पर फिल्म बहुत मोटा रहा. हमने तीन बजे दिन में सोलह पर आठ मिनट समय दिया था, यदि 11 पर रखते तो ठीक उतरता. आगे हमने 20 से 30 सेकेण्ड देकर फोटो उतारे, कुछ फोटो ठीक उतरे, लेकिन हम तो फोटो धोने के अभ्यासी नहीं थे, और न प्लेट वाले कैमरे का इस्तेमाल करना जानते थे. चाम्-छुंग-कुशो का अपना फोटो था, धोने पर बहुत सुंदर आया था, लेकिन अफसोस यह था, कि कापी करने के लिये हमारे पास कागज नहीं था. हमें अब फोटो उतारने की फिक्र नहीं थी, अब हमें नीचे लौटने की चिन्ता पड़ रही थी, क्योंकि सर्दी बढ़ती जा रही थी और डर था, कि हिमालय के डाडे कहीं बरफ के कारण हफ्तों के लिए बन्द न हो जायें.

– तीन दिन पहले रोलैफ्लेक्स कैमरा आ गया. इस कैमरे की महिमा पहिले पत्र में गा चुका हूं. चमड़े के केस को लेकर 250 दाम है, किंतु अपने को किफायत में 175 रुपये में मिल गया है. दाम “गगा” भाई ने दिया.

– अपनी पहली यात्रा में चमड़े की नाव की आशा से हम कितने ही दिनों तक घाट पर प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन अन्त में हमें जल का रास्ता छोड़कर स्थलमार्ग से ही आना पड़ा. घाट क पास जब आये, तो घोड़े का असली मालिक पैदा हो गया. पता लगा किसी ने दूसरे का घोड़ा हमें किराये पर दे दिया था. साढ़े पांच बज गये थे और अभी दो मील और जाना था. जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाकर चलने लगे. रास्ते में एक जवान आकर हमसे पैसा मांगने लगा. जब मैंने नहीं दिया, तो उसे अपना कड़ा रुख दिखलाना चाहा. मैंने अपने कन्धे पर लटकते हुये कैमरे के चमड़े वाले तस्मा को जरा सा नंगा कर दिया. उसे मालूम हुआ कि मेरे पास तमंचा है, इसलिये वह कुछ न कहकर हट गया. आज कैमरे ने प्राण बचा दिया. मैं किसी तरह अन्धेरा होने से पहिले ही शिगर्चे पहुंच गया.

– 24 अक्टूबर को छक्-पे-ल्ह-खड् जाकर स्वयं तमिल अक्षरों में लिखी तालपोथी, तथा कुछ और पोथियों को साथ लाये. फोटो लेने के लिए सब ठीक-ठाक किया, इसी समय घटा छा गई और बरफ पड़ने लगी. कुछ आड़ की जगह में बारह मिनट एक्सपोजर देकर एक-दो फोटो परीक्षार्थ लिए, लेकिन विशेष प्लेट को और भी ज्यादा एक्सपोज करने की आवश्यकता थी. सरदी तेज थी, रात के वक्त पानी को छूना आसान काम नहीं था. पंक्रोमेटिक प्लेट में हमें सफलता नहीं हुई. अगफा और सेलो के फिल्मों पर जो फोटो लिये थे, वह अच्छे आये थे. हमने यह पहली बार फिल्म धोये, इससे पहिले धोते देखा जरूर था. तो भी अकेले धोने में बहुत कठिनाई होती थी. धोने की जगह हमने अपने रहने के कमरे को ही बनाया था. उसकी लम्बी-चौड़ी खिड़कियों पर शीशे के बाहर काला कपड़ा लगा दिया था. दरवाजे को भी ढांक दिया था. लालटेन पर लाल कपड़ा बांध दिया.

फोटो लेकर धोने से मालूम हुआ, अगर स्वयं भी यह काम कर ले, तो कोई बुरा नहीं होगा, लेकिन सामग्री और समय दोनों की कमी थी. पुस्तकों के फोटो से उत्साहित हो कर हमने सोचा किकुछ मूर्तियों के भी फोटो लेलें. पुराने समय में जब कि स-स्क्या के गद्दीधर गृहस्थ नहीं थे, वह बहुधा शी-तोग् फोटांग में रहते थे. यह बहुत बड़ा महल है, उसमें कई देवालय भी हैं. यह नदी के दाहिनी तरफ तथा पहाड़ के सानु पर बना हुआ है. स-स्क्या का बड़ा गांव भी इसी के आस-पास बसा है. इस प्रासाद मं एक मन्दिर का नाम ग्यगरल्हाखड् (भारत-मन्दिर) है, जिसमें डेढ़ सौ से ऊपर भारतीय बौद्ध मूर्तियां हैं-अधिकतर धातु की हैं, लेकिन उनमें से कुछ पत्थर की भी हैं. कुछ मूर्तियां बहुत सन्दर हैं और उनमें गुप्तकाल की कला की छाया स्पष्ट मिलती है. यद्यपि लिपि के अभाव में काल के बारे में ठीक नहीं कहा जा सकता.

सम्बंधित

उस्ताद-ए-फ़न सुनील जानाः फ़ोटोग्राफ़ी जिनका राजनीतिक बयान भी थी

रघुबीर सिंहः रंगों में हिन्दुस्तान की आत्मा पहचानने वाले स्ट्रीट फ़ोटोग्राफ़र


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.