चांदनी बेगम | सारे इंसान मुहरबंद लिफ़ाफ़े हैं. दमपुख्त हांडियां.

  • 1:41 pm
  • 11 March 2020

क़ुर्रतुलऐन हैदर के लिखे पर अभी बात करने की यों कोई ख़ास वजह नहीं. ज़माना जब से मौक़े-म़ौके पर लिखने-पढ़ने की रवायत का हामी हुआ है, बिना म़ौके ऐसी कोई बात, ऐसा कोई ज़िक्र ज़माने को चौंकाने लगा है. तो आप चाहें तो इसे चौंकाने की कोशिश भी मान सकते हैं. हुआ बस इतना है कि काफ़ी अर्से पहले पढ़ा हुआ उनका उपन्यास ‘चांदनी बेगम’ अभी फिर से पढ़कर ख़त्म किया है. और इसे पढ़ते हुए ख़ुद कई बार चौंकता रहा हूं.एक तो यही कि सन् 1999 के इस संस्करण में उपन्यास के अनुवादक डॉ. वहाजउद्दीन अलवी का नाम भी दर्ज मिला है. प्रकाशकों की हालिया रवायत अनुवादक का नाम गोल करके उसकी जगह अपने प्रकाशन का नाम जोड़कर स्टुडियो लिखने की है. फिर एक पैराग्राफ़ में लिखा गया उपन्यास का रस्मी परिचय पढ़ा, जिससे उपन्यास के बारे में यह पता चलता है कि यह इन्सानी बेबसी की इतनी जानदार और सच्ची अभिव्यक्ति है कि चरित्र के साथ पाठकों का एक हमदर्द जुड़ाव हो जाता है. इसे उतना ही रवायती मान सकते हैं जितना कि किताब पढ़े बग़ैर ही उस पर चर्चा के लिए जुटने वाली महफ़िलें.

हालांकि साफ़ तौर पर तीन पीढ़ियों और ज़िक्र के लिहाज़ से चार पीढ़ियों की यह दास्तान दुनिया भर के तमाम फ़लसफ़ों के हवाले से इन्सानी फ़ितरतों का बयान भर नहीं है बल्कि एक ख़ास कालखण्ड में बदलते सियासी-समाजी हालात और उसमें ढलने या ख़ुद को अतीत से जोड़े रखकर जीने की ज़िद और उसके हस्र का पता भी मिलता है. ज़ेहनी जटिलताओं, नए क़िस्म के पाखण्डों की ईजाद और मज़हब के नाम पर टूटते भरोसे की तस्वीरें हैं, तक्सीम हुए मुल्क में आवाजाही के सिलसिले हैं और लोक की कितनी ही रवायतों का ब्योरा है – ख़ूब तफ़्सील से. और उस पर से उनका सिग्नेचर स्टाइल तंज़.
यह जानते हुए भी कि इस क़ायनात में मौलिकता का ख़्याल ख़ासा मुतासिर करने वाला छलावा है, मुझे लगता था कि लोक कलाकारों की बाबत मैं बड़ा मौलिक और दस्तावेज़ी काम करने में जुटा हूं. इस बार ‘चांदनी बेगम’ पढ़ते हुए इस भरम से ख़ुद को आज़ाद किया. ऐनी आपा ने यह काम कहीं ज्यादा बड़े फ़लक पर और ज्यादा गहराई से इस उपन्यास के लिए किया है. इंदर-सभा, नौटंकी, मुरादाबाद के भांड (अभी तक सिर्फ़ मुरादाबादी भांडों का इल्म रखने वालों के लिए ख़ास), लखनउवा भांड और नक़्क़ाल, रुदाली हबशिनें, मेले का थिएटर, बायस्कोप और कितने ही लोकगीत, उक्तियां उन्होंने इस बहाने सहेजी हैं. और बाले मियां की बारात का क़िस्सा! बचपन से सुनता आया था मगर इसकी तफ़्सील से इस तरह वाक़िफ़ न था तो हैरान होता था जब कभी बहराइच में, तो कभी गोरखपुर में मेले लगने की बात सुनता. और ऐनी आपा के क़िरदार बताते हैं –

बात दरअस्ल यूं थी कि बिदअत मिटाने के लिए औरंगज़ेब ने भेजी फ़ौज. उसने किया मसाहिरा. अवाम इस फ़सील के बाहर पड़ी ईंटें उठाकर वापस गए जगह-जगह चिल्ले बनाकर यही मेले वहां लगा लिए. यू.पी. के बत्तीस ज़िलों में यही मेले लगते हैं. यह भी कि विक्टोरियन अंग्रेज़ों ने तो गाज़ी मियां के मार्के को ही आधा मिथ बतलाया है. राना साहब क़लंदराना शान से उकड़ूं बैठे. सिगरेट मुट्ठी में अटकाया. मुस्कराए. फिर बोले, “अब मैं आप नौजवानों की ख़ातिर जो पूरब और पश्चिम के दरमियान हवा में लटके हुए हैं – आप ही की नई टर्मिनोल़ॉजी में बयान करता हूं कि यह सब क्या है?” एक गहरा कश लगाया – “यह एक अज़ीमुश्शान ड्रामा है. सिम्बलिस्ट प्ले. लोकगीतों में सरकार की पैदाइश पर उनकी वालिदा ब्राह्मणों से जन्मपत्री बनवाती हैं. ग़ज़नवी मां और पंडित की पोथी -? तो भई स्पेन का वह क्रिश्चियन सूरमा जो मुसलमानों से लड़ा, वह ईसाइयों में ही एलसिड क्यों कहलाया? अलसय्यद?

उनके मानने वाले कुमक लेकर देर से पहुंचे. मुसलमान वली थे, वरना नाटक बन जाते. उनकी अपशु घोड़ी के स्वांग भरे गए. ब्याह हर साल टलता, क्योंकि पचका लग जाता है. हम कितना-कुछ करना चाहते हैं. लेकिन कर नहीं पाते, क्योंकि हालात मुआफ़िक़ नहीं. हम अपने प्लान भविष्य पर छोड़ते जाते हैं जो कभी नहीं आता. यह गोया रमज़िया तमसील (मिस्ट्री प्ले) है जो हमारे पुरखों ने आठ-नौ सौ साल पहले तैयार किया.” एक और कश.
“बाले मियां एक कल्चर हीरो हैं. एक कृषक समाज के संत. बसंत के मेले में आम के बौर और गेहूं की बालियां यहां चढ़ाई जाती हैं.”

यह तो हुआ बाले मियां और उनके नाम लगने वाले मेलों का क़िस्सा. ‘चांदनी बेगम’ एक दौर के खेल-तमाशों के ख़त्म होते जाने और उनकी वजूहात को भी रेखांकित करती है और कई बार बेहद दिलचस्प तरीक़े से. बचपन की नसीहतों का असर है कि किताब पढ़ते हुए उसके पन्नों के कोने मोड़ना या फिर उन पन्नों पर रोशनाई की लकीर खींचते जाना मुझे हरग़िज़ पसंद नहीं. सो इस उपन्यास के पन्नों से कुछ सतरें यहां दर्ज कर रहा हूं, जो कहन के लिहाज़ से पुरलुत्फ़ तो हैं ही, जहां-तहां गुदगुदाती हैं, चिकोटी भी काटती हैं. बहुत बरस पहले चंडीगढ़ में हुई एक मुलाक़ात में अनुराग कश्यप ने ‘आग का दरिया’ के बारे में मेरी राय दरयाफ़्त करते हुए उस पर फ़िल्म बनाने की इच्छा जताई थी. नहीं मालूम कि वह अपने नज़रिये पर अब तक क़ायम हैं कि नहीं मगर उस वक़्त उन्हें यह राय नहीं दे सका था कि चाहें तो ‘चांदनी बेगम’ पर यह कोशिश ज़रूर कर सकते हैं. इस उपन्यास के मि.मोगरे और उनकी टीम की चंबेली देवी, बेला, प्रिंस गुलफ़ाम, लोटन कबूतर, देवताड़ बाराबंकवी, बहार फूलपुरी, चकोतरा गढ़वाली, मैडम ठुमकी जैसे क़िरदार अनुराग की फ़िल्म में ख़ूब फिट बैठते. ये सारे क़िरदार तो ख़ुद ही फ़िल्म बनाने के इरादे से घूमते रहे हैं.

गुलाब मियां चार पैसे कमाने की फ़िक्र में सरगरदां थे. नाश्ते के बाद शादां फ़रहां दौड़े आए, “अब्बा जी, एक आदमी से मामला पटा लिया, अब्दुल करीम बाजीकोर कलकत्ते वाला. उसके तंबू में एक बाइस्कोप भी रखा है. बोला, हमारे को यह बाइस्कोप दिखाने का टाइम नहीं. इधर का पब्लिक बंगाल का जादू देखना मांगता है. तुम ट्राई मारो. मुनाफ़ा फ़िफ्टी-फ़िफ्टी. बोला – आजकल गांव का बालक भी टेलीविज़न देखता है. बारह मन की धोबन नहीं देखता. क्या है अब्बा, कि अब यह नट लोग सिनेमा-रील चलाते हैं, साथ ग्रामोफ़ोन का रिकार्ड चालू. बंगाली नट बोला –गाजी मियां का दौरबार अछे. आमी दीनी पिक्चर लाया है ‘नियाज़ और नमाज़’, ‘मेरे ग़रीबनवाज़’, ‘दयारे-मदीना’. मैं बोला – हम ख़ुद फ़िल्म इंडस्ट्री का आदमी है. यह पिक्चर पंद्रह साल पीछो बोम्बे में बना था, मॉडर्न स्टोरी बताया था. पन हीरो-हीरोइन ऊंट पर बैठकर मक्का-मदीना जाता. अब्दुल करीम भाई. आजकल गांव-ग्राम का बच्चा लोग भी होशियार हो गया है. उसका बाप-भाई मक्का-मदीना में एयरकंडीशन गाड़ियां ड्राइव करने चला गया है. हाजी लोग बोम्बे से फ़्लाई करता है. बाजीगर बोला – ठीक हाय, मगर मियां भाई को इस्लाम की शान ऊंट ही में दिखता है. ऊंट और खजूर का पेड़ उसकी आंख की पुतली में खड़ा है. मैं बोला – अच्छा कोई वांदा नहीं, ऊंट चलेगा. और रील बताओ. कुली का 786 की बरकत वाला सीन. बोला – यह रील अभी कोलकत्ता और बाहर गांव में इतना दिखाया, इतना दिखाया कि एकदम घिस गया. एक रील देश की शोब दरगाहों की लाया है, और प्रोफेसर पी.सी. शोरकार का मैजिक.”

मास्टर मोगरे को इल्म था कि नख़्ख़ास लखनऊ के कश्मीरी भांडों की तरह एक ज़माने में काशीपुर और मुरादाबाद के भांड और नक़्क़ाल भी मशहूर थे. उस्ताद मोगरे और मास्टर नब्बन खां, मालिक दिलफ़रोश कंपनी, यानी शो-बिजनेस के दो टायकून बातचीत में मसरूफ़ हुए.

“काम कैसा चल रहा है खां साहब?” उस्ताद ने बीड़ी सुलगाकर पूछा.

“मंदा. दम होठों पर है.” स्याह मखमली टोपी उतारकर बूढे नब्बन खां ने सिर पर हाथ फेरा. “बाले मियां की बैरक़ के मेले हमारी तरफ़ भी जगह-जगह होते हैं, मगर – टेलीविज़न से हमारी बधिया बैठ गई – कलियर शरीफ़ की नौचंदी में मशहूरे-आलम नाच-गाना होता था एक ज़माने से. लो जी, दस-पंद्रह साल उधर मौलवियों ने उसे भी बंद करा दिया.”

सारे इनसान मुहरबंद लिफ़ाफ़े हैं. कोई एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानता. बंद पार्सल. दमपुख्त हांडियां. कुछ पार्सलों के अंदर टाइम-बम रखे हैं.

ग़रीबी हटाओ.” मैना फिर चीख़ी.
सब खिलखिलाकर हंस दिए.
ग़रीब आदमी नमाज़ पढ़कर लौटा. पिंजरा उठाकर उसने अमीरों को माफ़ी चाहने वाली नज़रों से देखा.
“यह इसे किसने सिखलाया?” पिंकी ने मुस्कराकर पूछा.
“सरकार! हमारा लड़का यूथ कांग्रेस में शामिल हो गया है.” वह सलाम करके भीड़ में ग़ायब हो गया.

राजा साहब! एडवरटाइज़िंग की दुनिया एक अजीब दुनिया है. गुज़िश्ता बरस हम अब्बा के साथ जर्मनी के एक बड़े शहर के एक इंडियन रेस्तरां के अंदर गए. दरवाज़े पर ही राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गणेश जी…
“मालिक एक एन.आर.पी. नौजवान निकला. हमने तस्वीरों की तरफ़ इशारा किया. बोला – पब्लिक रिलेशंज़! क्योंकि इस शहर में हिंदू बहुत आबाद हैं.
“हमें हैरान पाकर वालिद ने कहा – फ़रज़ंदेमन, जानना चाहिए कि नज़रयाती कट्टरपन उन ही अरबाबे-हिकमत तक महदूद है जो अपने मुल्क के अंदर रहते हैं. बाहर पैसा कमाने और गोरों से मुक़ाबले के मामले में एन.आर.पी., एन.आर.आई. के इंटरेस्ट एक हैं, सिवाय क्रिकेट मैच के जब वह एक बड़ी भीड़ में तब्दील होकर एक-दूसरे को गालियां देते हैं और जंगलों में क़बायली ख़ासियत पर लौट आते हैं.


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