कृष्ण बलदेव वैद: गुज़र गया एक ज़माना

  • 12:23 pm
  • 7 February 2020

कृष्ण बलदेव वैद का जाना हिन्दी साहित्य की दुनिया से ऐसे प्रयोगधर्मी रचनाकार का जाना है, जिन्होंने अपने लेखन और जीवन की मान्यताओं में कभी फ़र्क नहीं किया, तमाम वादों और आडंबरों से दूर रहकर जो मुनासिब लगा, वही कहा. उन्होंने हिन्दी की पड़ोसी ज़बानों उर्दू और पंजाबी को मिलाकर भाषा का नया सौंदर्यशास्त्र और मुहावरा गढ़ा, इसी ज़बान में अपना गल्प संसार रचकर पढ़ने वालों को चमत्कृत किया और हिन्दी गद्य को नए आयाम दिए.

अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गए पंजाब के डिंगा कस्बे में 27 जुलाई, 1927 को जन्मे कृष्ण बलदेव वैद बंटवारे के बाद हिन्दुस्तान आ गए. 1949 में पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एमए और 1961 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की. भारत के विभिन्न कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के बाद न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी और ब्रेंडाइज यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग में रहे. अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा और पढ़ाते भी रहे लेकिन लिखने के लिए हिन्दी ज़बान चुनी. हिन्दी में लिखते हुए उन्होंने ऐसे भाषागत प्रयोग किए जो उनसे पहले या उनके बाद किसी और ने नहीं किए. निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती (जिनसे उनका उम्र भर दोस्ती-दुश्मनी का रिश्ता रहा) भी उनकी तरह भाषा के प्रयोगधर्मी लेखक थे, लेकिन कृष्ण बलदेव वैद ने यह काम विलक्षण ढंग से किया और सप्रयास किया. उर्दू उनके बचपन के परिवेश की ज़बान थी और पंजाबी उनकी मां बोली. उर्दू और पंजाबी के भाषाई संस्कार उनके ख़ून में थे और इसका अक्स उनकी तमाम रचनाओं में झलकता है. हिन्दी-उर्दू-पंजाबी से गुंथा ऐसा नायाब शब्द भंडार किसी अन्य लेखक ने नहीं बनाया. वह अपनी उस धरा से नहीं हिले जिसे वह अपनी स्मृतियों की बुनियादी ज़मीन कहा करते थे.

देश का बंटवारा और उसके पहले जन्मभूमि डिंगा में बीता बचपन उनकी स्मृतियों में हमेशा उथल-पुथल मचाता रहा. विभाजन से पहले की पृष्ठभूमि पर लिखा उपन्यास ‘उसका बचपन’ और विभाजन की त्रासदी पर लिखा ‘वो गुज़रा ज़माना’ इसके गवाह हैं. ‘वो गुज़रा ज़माना’ हिन्दी का कालजयी उपन्यास है. इस उपन्यास के ज़रिए संभवत: पहली बार भारतीय साहित्य समाज ने जाना कि भाषा इतने विविध रंग बिखेरते हुए नृत्य भी कर सकती है! इस उपन्यास को जिस कलात्मक जटिलता से उन्होंने निभाया, उससे ज़्यादा हिम्मत इसे पढ़ने वालों को जुटानी पड़ी. बतौर पाठक ‘वो गुज़रा ज़माना’ के साथ अंत तक बने रहना सहज नहीं है. काग़ज़ के पन्नों से यह सीधा आपके ज़ेहन में बस सकता है- चिरकाल के लिए. आपकी चेतना को सुन्न कर सकता है, आपको अवसाद से भी भर सकता है. इसे गूढ़ माना गया तो इसलिए कि ‘वो गुज़रा ज़माना’ सरीखी रचना बने-बनाए सांचों में संभव ही नहीं. इसलिए भी कि विभाजन इतना जटिल और संक्रमण भरा था कि उन जैसे लेखक के लिए रचनात्मक स्तर पर उसका रत्ती भर भी सरलीकरण अपनी सामर्थ्य के साथ नाइंसाफी होता. ‘वो गुज़रा ज़माना’ विभाजन पर लिखा गया कालजयी उपन्यास इसलिए भी है कि आज के दौर में वह अपनी प्रासंगिकता की पुनर्सृष्टि करता है. एक बड़ी साहित्यिक कृति का बदले हुए हालात में भी प्रासंगिक बने रहना क्या उसका सबसे बड़ा हासिल नहीं है?

उपन्यासों के साथ ही बीस से ज्यादा कहानी संग्रह और नाटक भी हैं. इन सब में भाषा का सौंदर्य खिली धूप जैसा है. सामाजिक द्वंद्वांत्मक मनोविज्ञान की यथार्थवादी छवियों से ओतप्रोत. उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की कि हिन्दी आलोचना के दिग्गजों ने उन्हें उस गंभीरता से नहीं लिया, जिसके वह हक़दार थे. शायद यह (हिन्दी) साहित्य की स्थापित ख़ेमेबाज़ियों से बाहर रहकर अपनी अलहदा रचनात्मक दुनिया बनाने की ‘क़ीमत’ हो. इसके बावजूद उन्होंने और उनकी रचनाओं ने वैश्विक स्तर पर विशिष्ट पहचान बनाई. बंटवारे की पीड़ा और मजहब के आधार पर बचपन के दोस्तो को खो देने और ‘मुक़म्मल उर्दू माहौल’ (जिससे उन्हें ज़बरदस्त मोहब्बत थी) से निष्कासन ने उन्हें आजीवन सांप्रदायिकता और जात-पांत से गहरी नफ़रत करने वाला इंसान बनाए रखा. किसी क़िस्म की प्रतिबद्धता का दावा या प्रकटीकरण भी उनके यहां नहीं मिलता. उनकी प्रतिनिधि कृतियां बताने के लिए काफी हैं कि उनके मानवीय सरोकार कितने अनंत थे. कतिपय आलोचकों ने उन्हें अपठनीय तथा दुरुह लेखक के ख़िताब से हमारे ज़रूर नवाज़ा लेकिन अपनी धुन में वह ख़ामोशी के साथ मुक्तिबोध की इस अवधारणा को अचेतन सार्थक करते रहे कि जीवन इतना जटिल है कि उसे साधारणता से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. वैद की कलम ने यह किया भी नहीं. उनकी रचनाएं ‘आनंद’ के लिए नहीं बल्कि ‘सुख’ और बेचैनी के लिए थीं. अब प्रगतिशील और अप्रगतिशील इसे किन मानदंडों पर कैसे परिभाषित करेंगे, वे ही बेहतर जानें ?

हिन्दी और भारतीय साहित्य को कृष्ण बलदेव वैद की एक बड़ी देन साहित्य की अनौपचारिक विधाओं, डायरी, पत्र-संवाद और अपने समकालीनों, विशेषकर कृष्णा सोबती के साथ मौखिक संवाद है. पांच खंडों में अलग-अलग समय की उनकी डायरियां उनकी जीवन यात्रा सामने रखती हैं. ढलती उम्र में लिखी डायरियों के पन्नों में ‘मौत के दस्तख़त/ आभास’ जगह-जगह मिलेंगे. एक बड़ा और चिंतनशील इंसान मौत का कैसे इंतज़ार करता है और ज़िंदगी की निरंतर स्थगित या फिर लुप्त होती धूप को किस मनोदशा के साथ भुगतता है, इसे क़ायदे से जानना हो तो कृष्ण बलदेव वैद की डायरियों से गुज़रकर जान सकते हैं. बहुपक्षीय सरोकार और भारतीय तथा विश्व साहित्य पर सारगर्भित चिंतन भी यहां मिलेगा. समकालीन लेखकों पर उनका नज़रिया भी. ख़्वाब उनकी डायरियों की अहम आधार-वस्तु हैं. प्रवास के सुख-दुख भी. उनकी डायरियां ‘आनंद’ की बजाय ‘सुख’ देती हैं. डायरी-साहित्य में ऐसा बहुत कम होता है, जो उनकी डायरियों में है.

सन् 1949 में कृष्ण बलदेव वैद जालंधर के डीएवी कॉलेज में पढ़ाते रहे. मोहन राकेश और भीष्म साहनी से उनकी मुलाक़ात यहीं हुई. अलबत्ता क़रीबी दोस्ती, उर्दू के साहित्यकारों फ़िक़्र तौंसवी और मख़्मूर जालंधरी के साथ थी. सन् 62 से 66 तक वह पंजाब विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में रहे. उसके बाद विदेश प्रवास का सिलसिला शुरू हुआ और वहां के नामी विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी शिक्षण किया. बचपन के दोस्तों के अलावा साहित्य-संस्कृति-कला से नाता रखने वाले बिछड़ गए दोस्तो की स्मृतियां उन्हें तकलीफ़ देती रहीं. निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, शीला साहनी, कृष्णा सोबती, बलराज साहनी, रामू गांधी, फजल ताबिश, कमलेश, जगदीश स्वामीनाथन, बी राजन, शानी, दया कृष्ण, भवानी, फ्रान्सिन, धर्म नारायण, विद्यानिवास मिश्र उनके ऐसे नज़दीकी दोस्तो में थे, जो उनसे पहले चले गए लेकिन उनकी यादों में और डायरियों में बने रहे. अब वह खुद दूसरों की डायरियों-यादों में मिला करेंगे.

तो कृष्ण बलदेव वैद नाम का एक ज़माना गुज़र गया. अपनी जड़ों से दूर, बहुत दूर! सुदूर विदेश में. अब वह मुट्ठी भर ख़ाक बनकर और अनगिनत शब्दों के साथ वतन लौटेंगे. उनका लिखा हुआ और उनकी स्मृतियां हमेशा बनी रहेंगी, यह तो तय है.

कृष्ण बलदेव वैद का रचना संसार

उपन्यास | उसका बचपन, बिमल उर्फ़ जाएं तो जाएं कहां, नसरीन, दूसरा न कोई, दर्द ला दवा, गुज़रा हुआ ज़माना, काला कोलाज, नर-नारी, मायालोक, एक नौकरानी की डायरी.
कहानी संग्रह | बीच का दरवाज़ा, मेरा दुश्मन, दूसरे किनारे से, लापता, आलाप, लीला, वह और मैं, उसके बयान, पिता की परछाइयां, बदचलन बीवियों का द्वीप, ख़ाली किताब का जादू, रात की सैर, बोधित्सव की बीवी, ख़ामोशी, शाम हर रंग में, प्रवास-गंगा, अंत का उजाला.
डायरी | ख़्वाब है दीवाने का, जब आंख खुल गई, डुबोया मुझ को होने ने.
नाटक | भूख आग है, हमारी बुढ़िया, सवाल और स्वप्न, परिवार-अखाड़ा, कहते हैं जिसको प्यार, मोनालिज़ा की मुस्कान.

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