किताब | शहरनामा जबलपुर

  • 12:51 pm
  • 4 March 2022

शहरों पर लिखना, साहित्य में अब एक अलग विधा के तौर पर विकसित हो रहा है. हालांकि, तक़रीबन सभी दौर में अलग-अलग शहरों पर लिखा गया है. अच्छी बात है कि यह सिलसिला आगे बढ़ रहा है. संस्कृतिकर्मी दिनेश चौधरी की हाल में आई किताब ‘शहरनामा जबलपुर’ इसी सिलसिले की एक कड़ी है.

रंगकर्म में लगातार सक्रिय रहते हुए वह लगातार लिखते रहे हैं, और बेहतरीन क़िस्साग़ोई भी की हैं. सोशल मीडिया पर जब-तब उन्होंने तमाम शख़्सियतों के बारे में जो लिखा है, वह ख़ूब पसंद किया गया है. चाहे वह आकाशवाणी के स्टार एनाउंसर मनोहर महाजन हों या फिर मशहूर मिमिक्री आर्टिस्ट केके नायकर. जबलपुर से जुड़े उनके क़िस्से भी ख़ासे चर्चा में रहे हैं. शख़्सियतों को केन्द्र में रखकर, दिनेश चौधरी ने महाकौशल में आबाद जबलपुर की जो कहानी कही, वह काफ़ी दूर तक गई.

और इक्कीस चैप्टर में यही कहानियाँ अब ‘शहरनामा जबलपुर’ की शक़्ल में सामने आई है. अमूमन शहरनामा जिस तरह से लिखा जाता है, यह उस तरह की किताब बिल्कुल नहीं है. छोटे-छोटे अध्यायों में किसी एक किरदार के मार्फ़त शहर की कहानी साथ-साथ चलती है. एक लिहाज से देखें तो इसमें शहर का इतिहास और इसके बनने की कहानी नहीं है. लेखक ने खुद अपनी भूमिका में यह बात तस्लीम की है, ‘‘इस किताब को लिखते हुए मैंने वज़नदार ऐतिहासिक ग्रन्थों-पोथियों का सहारा नहीं लिया है…अपनी गरज़ फ़क़त किस्से-कहानियों से रही. ऐसे क़िस्से जो लोगों की ज़बान पर होते हैं, लेकिन लिखे न जाने के कारण ग़ुम होकर रह जाते हैं. मैंने सिर्फ़ इतना किया है कि कुछ क़िस्सों को ग़ुम हो जाने से बचा लिया है.’’ इसमें कोई दो राय नहीं, अगर ये किस्से इस तरह दर्ज न किए जाते, तो सभी को इसका अफ़सोस होता. लोग इन दिलचस्प क़िस्सों से अन्जान रह जाते.

बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की जिन अहमतरीन शख़्सियत से जबलपुर की शिनाख़्त है, वे सब ‘शहरनामा जबलपुर’ में शामिल हैं. लेखक ने बड़े जतन से इन शख़्सियत से जुड़े किस्सों को किताब में एक जगह इकट्ठा किया है. हरिशंकर परसाई, अपने ज़माने के मशहूर अदाकार प्रेमनाथ, आचार्य रजनीश, मनोहर महाजन, शेष नारायण राय, भू-विज्ञानी प्रोफ़ेसर विजय खन्ना, प्रोफ़ेसर मूर्ति, बीएल पाराशर, रंगकर्मी अरुण पांडेय, हिमांशु राय, चित्रकार अवधेश बाजपेयी, विनय अम्बर, नरोत्तम बेन उर्फ़ नानू और जादूगर आनंद जैसी हस्तियों पर किताब में अलग-अलग अध्याय हैं.

किताब में सिर्फ़ नामी हस्तियां ही नहीं हैं, ‘दमोह नाका वाले कक्काजी’ जैसे अज़ब किरदार भी हैं, जो हर शहर-क़स्बे में अपनी ‘जीवंत’ हरकतों से लोगों की निग़ाह में रहते हैं. बीसवीं सदी में टॉकीज़, चौक और चौराहे की अपनी एक अलग अहमियत थी. शहर हो या छोटा क़स्बा टॉकीज़ लोगों की निग़ाहों का मर्क़ज होते थीं. यहां हर दम माहौल गुलज़ार रहता था. पहले टेलीविज़न, फिर कम्प्यूटर और अब मोबाइल ने देखते-देखते टॉकीज़ों की पूरी रौनक ही छीन ली.

कल तक जिन टॉकीज़ों पर लोगों का मेला लगा रहता था, आज वहां वीरानी छाई मिलती है. टॉकीज़ की जगह, अब मॉल-शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन गए हैं. लेखक ने उस सुनहरे दौर को देखा है, जब सिनेमाघर उरूज़ पर थे. यही वजह है कि ‘एम्पायर’ टॉकीज़ के बहाने वे बीते दौर का पुनरावलोकन कर लेते हैं. इस पुनरावलोकन में वे गुज़रे ज़माने के एक्टर प्रेमनाथ को याद करते हैं, तो नरोत्तम बेन उर्फ़ नानू की भी, फ़िल्मों के जानिब जिनकी दीवानगी ने आगे चलकर, उन्हें अदाकार के तौर पर स्थापित किया.

जबलपुर की बात हो, और हरिशंकर परसाई का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. कई अध्यायों में वे अलग-अलग अंदाज़ में आते हैं. ‘परसाई का एक अधूरा हिसाब’ अध्याय में लेखक ने परसाई से जुड़े कई दिलचस्प क़िस्से बयान किए हैं. उनकी स्पष्टवादिता और शराब-नोशी की बातें. और भी ऐसी कई बातें, जिन्हें बहुत कम लोग जानते होंगे. मिसाल के तौर परसाई जी जब बीमार थे, तब प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने खुद उनके घर जाकर उन्हें सम्मानित किया था. यह कि परसाई की शुरुआती किताबें जबलपुर में ही छपी थीं. उस वक़्त के प्रकाशक उन्हें लेखक मानने को ही तैयार नहीं थे, वहीं आलोचक की निग़ाह में वे सिर्फ़ पत्रकार या स्तम्भकार थे. बावजूद इसके उनकी लोकप्रियता देशव्यापी थी. साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़ा कोई भी शख़्स जबलपुर आता, तो वह हरिशंकर परसाई से ज़रूर मिलने जाता.

किताब में विश्व प्रसिद्ध जादूगर आनंद, एनाउंसर मनोहर महाजन, मिमिक्री कलाकार केके नायकर, रंगकर्मी अरुण पांडेय, चित्रकार अवधेश बाजपेयी के संघर्ष और उनकी सफलता का भी लेखा-जोखा है. लेकिन एक अलग अंदाज में. लेखक ने अपने-अपने क्षेत्र की इन बड़ी हस्तियों की कहानी परपंरागत ढंग से नहीं लिखी है. न ही वे अपनी ओर से किसी के ऊपर महानता का मुलम्मा चढ़ाते हैं. उनकी नज़र में ये सब भी एक साधारण इंसान हैं, जो अपनी ज़िद और काम के जानिब जुनून से शिखर पर पहुंचे. किताब का कोई अध्याय ‘पहल’ के संपादक-कथाकार ज्ञानरंजन पर केन्द्रित नहीं है, लेकिन किताब में उनका ज़िक़्र कई जगह आता है.

अलबत्ता कभी-कभार लिखने वाले ज्ञानरंजन ने इस किताब की भूमिका लिखी है. दिनेश चौधरी की तरह वे भी जबलपुरिया नहीं हैं, मगर इन दोनों ने जिस दस्तरस से ‘जब्बलपुर’ या ‘जबलईपुर’ और जबलपुरियाओं की नब्ज़ पकड़ी है, वह हैरत में डालती है. बकौल ज्ञानरंजन, “स्वभाव से अक्कड़, मिज़ाज से फक्कड़. तहज़ीब में ठेठपन, बातचीत में ऐंठपन. स्वभाव में लंतरानी और अमल में दिल के भीतर कल-कल करता पानी. एक अजीब तरह की मदहोशी है इस शहर में. अल्हड़पन है ठेठ, जैसे ज़िंदगी अपनी जवानी पर ही आकर ठहरी है.”

जबलपुर की पहचान नर्मदा, भेड़ाघाट, मदन महल दुर्ग, चौंसठ योगिनी मंदिर और ताल भी हैं. ‘कहां राज भोज और कहां गंगू तेली’ अध्याय में लेखक ने जबलपुर के इतिहास, भूगोल और यहां के प्रमुख स्थलों की कहानी कही है, तो वहीं ‘ये जिस्म सबकी आंख का मरकज़ बना हुआ’ अध्याय में वे बताते हैं कि जबलपुर की अहम हस्तियां भेड़ाघाट को किस नज़र से देखती हैं. भू-विज्ञानी प्रोफेसर विजय खन्ना के मुताबिक़, “यहां साढ़े छह करोड़ वर्ष से लेकर ढाई सौ करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानें एक ही ऊंचाई पर मिलती हैं…यह जबलपुर की नैसर्गिक भू-धरोहर है और यह शहर यूनेस्को के अनुमोदन के साथ जिओ पार्क की पूर्ण पात्रता रखता है.”

आचार्य रजनीश की नज़र में “इस पृथ्वी का एक सुंदरतम स्थल है, भेड़ाघाट.” सिर्फ़ इस अध्याय में ही नहीं, सभी अध्यायों में शीर्षक मानीख़ेज़ हैं. ‘ठगी एंड डकैती सप्रेशन डिपार्टमेंट’ और स्लीमैन’, अध्याय में लेखक ने अंग्रेज़ अफ़सर विलयम हैनरी स्लीमेन के कारनामों के ब्योरे के साथ, यह दिलचस्प जानकारी दी है कि अंग्रेज़ी हुकूमत में देश में पहली बार जबलपुर में ‘ठग एंड डकैती सप्रेशन डिपार्टमेंट’ की स्थापना हुई थी. आगे चलकर यही विभाग सीआईडी महकमे में तब्दील हुआ.

किताब का यूएसपी, लेखक की कहन है. बिना किसी भूमिका के क़िस्साग़ोई या बतकही के अंदाज़ में वे अपनी बात कहते हैं. तिस पर खिलंदड़ी और चुटीली भाषा ने पठनीयता और चुटीलापन और बढ़ा दिया है. विषय कोई-सा हो, पढ़ने की दिलचस्पी आख़िर तक बनी रहती है. ‘‘कुमार ने अपनी एक अलग पहचान बनाई, लेकिन आगे चलकर एक ‘व्याधि’ के शिकार हो गए, जिसे कला जगत में ‘फ़्रस्टेशन’ कहा जाता है. यह रोग अतिशय मदिरापान के रास्ते आख़िरी मंज़िल तक पहुंचता है.’’ (‘मालवीय चौक की पटेबाजी’), ‘‘उन दिनों खेल के मैदान में हुनर दिखाने वाले खच्चरों, घोड़ों, जींस या जनता के नुमाइंदों की तरह सरे-आम नीलाम नहीं होते थे.’’ (‘दादा ध्यानचंद और पुलिस महकमे के गांधी’), ‘‘कूची के मजदूर को ईंट-गारा ढोती मजूरन या शाक-भाजी बेचती कुंजड़न में भी सौंदर्य के अलौकिक स्रोत नज़र आते हैं. उस महिला को अपनी पेंटिंग का विषय बनाने के फेर में वे कई बार सड़ी-गली सब्जियां भी उठा लाते हैं और साबित करते हैं कि वे अच्छे कलाकार होने के अलावा एक ख़राब गृहस्थ भी हैं.’’ (‘बिंदुओं में खुद को ढ़ूढ़ता एक चित्रकार’) ये कुछ मिसालें भर हैं, वरना किताब में इस तरह के नमूने जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. फिर इस जुमले का भी कोई जवाब नहीं, ‘‘जिसे परसाई जी ‘मूर्खता का आत्मविश्वास’ कहते थे.’’ विडंबना की बात यह है कि आज इस ‘मूर्खता के आत्मविश्वास’ का मुज़ाहिरा शिक्षा से लेकर सत्ता के शीर्ष स्थलों तक ज़ोर-शोर से हो रहा है.

नवारुण प्रकाशन से छपी इस किताब में मूर्तिकला की विद्यार्थी गुल पहराज के रेखांकन ने किताब की ख़ूबसूरती में इज़ाफ़ा किया है. मेहुल यादव और स्याही स्टूडियो का बनाया कवर पेज भी पहली नज़र में आकर्षित करता है.

ज्ञानरंजन जी के ही अल्फ़ाज़ में कहें, तो “दिनेश चौधरी की किताब जबलपुर में उगने वाले यादगार लोगों से बनाया गया कोलाज है.” यह कोलाज और भी मुक़म्मल होता, गर इसमें सियासत से जुड़े कुछ चेहरे शामिल होते. महिलाओं की भी आंशिक तौर पर ही सही, इसमें नुमाइंदगी होती. बावजूद इसके ‘शहरनामा जबलपुर’ नायाब किताब है. बीसवीं सदी के जबलपुर को जानने के लिए यह किताब एक प्रस्थान-बिंदु के तौर पर काम करेगी.

हमारे देश में ऐसे कई शहर हैं, जिनका अपना अलग मिज़ाज और पहचान है. शहरीकरण की प्रक्रिया में यह जुदा पहचान आहिस्ता-आहिस्ता ख़त्म हो रही है. यही वजह है कि अब हर शहर का शहरनामा लिखे जाने की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है. ताकि नई पीढ़ी अपने शहर की विरासतों को जान सके, याद रख पाए.

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शहरनामा जबलपुर (संस्मरण, रेखाचित्र)
लेखक | दिनेश चौधरी
पेज | 182, मूल्य | 275 रुपये
प्रकाशक | नवारुण, गाज़ियाबाद.
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