जा रे जमाना मने जानते भी हैं मूसा का गुल!

  • 12:53 pm
  • 17 November 2019

सत्तर का दशक रहा होगा. बच्चन के उफ़ान के साथ ही काका का सितारा तक़रीबन डूबने को था. सिनेमाघरों से ज्यादा इसे सड़कों पर महसूस किया जा सकता था. इस दौर की तफ़्सील यह थी
कि बच्चन स्टाइल वाले कानों को पूरी तरह ढंक लेनेवाले लंबे बाल, चौड़े और हवा में फड़फड़ाने वाले कॉलर की बुश्शर्ट, नए ज़माने में लड़कियों के परिधान प्लाजो की तरह की चौड़ी मोहरी वाली पतलून और ऊंची हील के जूते या सैंडिल पहनकर सड़कों पर घूमने वाले युवाओं की तब भरमार थी.

फ़ोटो क्रेडिटः सुरेश पंजाबी/ सुहाग स्टुडियो.

चौड़े फ्रेम के धूप वाले चश्मे चार चांद लगाने वाले माने जाते थे. तब के अंकल लोग सिगरेट जैसी टांगों वाली पतलून में नज़र आते थे, जो अपने दौर को जबरन आख़िरी कश तक खींचने के हिमायती मालूम पड़ते. कह नहीं सकता कि चौड़ी मोहरी वाली पतलून के ख़िलाफ़ यह उनका प्रतिरोध था या कुछ और, लेकिन इसे ही भले लोगों का लिबास माना जाता था. यों पाजामा-कुर्ता भी पहना जाता. ऐसे लोग सिनेमा की बजाय फुटबॉल प्रेमी हुआ करते थे. क्रिकेट में बिशन सिंह बेदी से लेकर गावस्कर तक का जोर था. यह वर्ग किसी संपन्न के घर ट्रांज़िस्टर पर कमेंट्री सुनने को अपना बुनियादी हक़ मानता. नए ज़माने के रंग-ढंग को यह वर्ग अक्सर विस्मयादीबोधक चिह्न के साथ देखता और नैतिकता पर विमर्श करने लग जाता. यह अगर खर-पतवारों का युग था तो रजनीश के नंगे विचारों को इसका ज़िम्मेदार ठहराते और हिप्पीवाद की आलोचना करते.

जिनकी जवानी मार्क्सवाद का झोला उठाते अधेड़ गति से भी कहीं आगे निकल चुकी होती थी, वे विदेशी चिंतन के साथ फ़िक्रमंद रहते कि समाज अपनी जड़ों से कट गया है. ऐसी ही चिंता में दिन को चाय पीने वाले कांच के गिलास में शाम को वे अपनी चौकड़ी के साथ सस्ती क़िस्म की शराब उड़ेलते. तब उनके विशुद्ध स्वदेशी होने का भ्रम होने लगता. इनमें से कोई बिना फ़िल्टर वाली सिगरेट निकालकर धुआं उड़ाता हुआ भीतर से उठ रही तरंग को हवा दे देता. एकाध कश के बाद यही सिगरेट साझा चूल्हे में बदल जाती जो चौकड़ी के हर मुंह में बारी-बारी से जलती. हो सकता है कि यह चिलम-संस्कृति से लिया गया लोक व्यवहार हो.

लिहाज़ा, नशा बढ़ने पर प्रेम कहानियां सामने आतीं, जो अलग-अलग नामों वाली माशूकाओं से होती हुई बाईजी के क़िस्सों में बदलकर दिल के गर्द-ओ-गुबार को बेला के गजरों सा महकाता. कोई घटियापन के उच्चतम स्तर पर अपनी प्रेमकथा का अंत करता तो कुछ कलकत्ते के किसी होटल में तवायफ़ों से घिर जाने के बाद अपनी जान बचाने की तरक़ीब की तफ़्सील बयान करता. एकाध ऐसा भी निकल आता जो दावा करता कि सोनागाछी जाने के बावजूद मजाल है कि कभी मर्यादा टूटने दी हो. क़िस्से को विश्वसनीय बनाने के लिए अपने जवान हो चुके बेटे का ज़िक्र करते हुए कहता कि उसकी अम्मा को भी यह किस्सा पता है. कौन जाने कि उसके ज़ेहन में चंबल के दस्यु सम्राटों को लेकर उड़ाए गए क़िस्से भी चल रहे होते हों, जिनमें कहा जाता कि चंबल के फ़लां डकैत ने बीहड़ में आधी रात को गहने से लदी अकेली जा रही औरत को हाथ तक नहीं लगाया और न अपने साथियों को ऐसा करने दिया. कई बार तो डकैत इलाक़े की बेटियों की बारात तक विदा करने आए. ख़ैर, सुबह नशा उतरने पर पता चलता कि रात में इतना कुछ हो गया लेकिन गजब ये कि वे कभी कलकत्ते गए ही नहीं,अलबत्ता ऐसी हसरत ज़रूर रखते थे.

हर दौर का अपना पेशा होता है. अपने दौर में हर शख़्स वही पेशा करता हो, ऐसा नहीं है लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर कोई ख़ास पेशा नेतृत्व करता दिखता है. मसलन, आज़ादी के समय आदमी या तो वकील होता था या कुछ नहीं होता था. आज़ादी के आंदोलन के समय जितने बड़े नेता थे, सब के सब वकील थे. जो वकील थे और जो (अ) वकील थे, दोनों आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े. देश आज़ाद हुआ तो मोटे तौर पर जो वकील थे वे सरकार और (अ) वकील जनता कहलाए. इन में भी जो कुछ नहीं बन पाए, अपनी मौत के बाद आमतौर पर स्वतंत्रता सेनानी या समाजसेवी के तौर पर दर्ज़ हुआ करते. उनके इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच करने के बाद घर वाले अख़बारों में इसी रूप में इश्तेहार देते. आए और चले गए तो क्या आए? इसलिए इश्तेहार के लिए उनका कुछ न कुछ होना तो ज़रूरी था.

फिर नई नस्ल आई और लोग शिक्षक होने लगे. शिक्षक बनने का लाभ यह था कि आप किसी को भी कहीं भी किसी भी अवस्था में ज्ञान दे सकते थे. बात आपने फिजूल की ही क्यों न की हो लेकिन माना जाता था कि आपने कही तो ज़रूर पते की होगी. इसका अतिरिक्त लाभ यह भी था कि जब कभी जी घबराए या उदासी घेरने लगे तो किसी के भी बच्चे को तबियत से कूच या हौंक सकते थे, भले ही वह किसी अन्य विद्यालय का ही छात्र क्यों न हो? बल्कि उसने किसी स्कूल तक का मुंह तक न देखा हो तो भी क्या, अपनी तबियत की दुरुस्तगी के लिए शिक्षक को इतना भी अधिकार नहीं? सो बुरा कोई नहीं मानता था. राष्ट्र निर्माण के लिए चाणक्य अपने हिस्से का चंद्रगुप्त तलाशते रहते. दिक़्क़त तब हुई जब इस सहूलियत की ताक़त को समझते हुए शिक्षक अपने घर में भी इसी क़िरदार में पाए जाने लगे. फ्रस्टेशन में शिक्षक की अपनी औलादें घनानंद जैसा बर्ताव करने लगीं. तब जाकर लोगों ने शिक्षक बनने का ख़्याल स्थगित किया.
बात हो रही थी पेशे की. यह वैसा ही था जैसा आज मीडिया है. हर अगला आदमी मीडिया में है. जो कहीं नहीं है, वह सोशल मीडिया में है. सोशल मीडिया आने से पहले तक इस हल्ले में जो कहीं नहीं होने से भ्रम की मुद्रा में थे, वे स्वतंत्र पत्रकार बन गए. ग़नीमत थी कि किसी ने समानांतर पत्रकार या शिक्षा मित्र की तरह पत्रकारिता मित्र होने की मुनादी नहीं की.

फ़ोटो क्रेडिटः सुरेश पंजाबी/ सुहाग स्टुडियो.

तो इसी तरह सत्तर के दशक में एक दौर ऐसा भी आया, जब लोग मेडिकल रिप्रजेंटेटिव होने लगे थे. युवा पीढ़ी में यह पेशा किसी महामारी की तरह फैल गया था. इस नए पेशे का व्यापक असर हुआ. एक तो टाई और ब्रीफ़केस का अपना प्रभाव, उस पर अंग्रेज़ी. शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब…टाइप मामला बन पड़ा था. टार्गेट पूरा करने और टार्गेट का प्रेशर जैसी शब्दावली हर किसी के लिए नई थी. क्योंकि तब तक लोग सिर्फ़ नौकरी करते थे और धड़ल्ले से करते थे. किसी तनाव में नहीं रहते थे बल्कि जिनका उनसे पाला पड़ जाए, उसे तनाव में ला देते थे. कम्पाउंडर को भी डॉक्टर समझे जाने के दौर में मेडिकल रिप्रजेंटेटिव बाक़ायदा डॉक्टर ही माने जाते थे जो उसी की तरह अंग्रेज़ी बोलते और ब्रीफ़केस में दवाओं का ज़ख़ीरा लेकर चलते थे. तब तक सिविल सर्जन और बड़े डॉक्टरों को ही लोग इज़्ज़त की निगाह से देखते थे लेकिन अब मेडिकल रिप्रजेंटेटिव भी इसमें शामिल होने लगे. घर हो या ट्रेन, कहीं भी हमपेशा मिल जाए तो ऐसी-ऐसी बातें करते कि भारतीय चिकित्सा व्यवस्था उनके ही कर कमलों द्वारा चलाए जाने का भान होता. एक-दूसरे को वे ऐसे अनुभव सुनाकर रोमांचित करते जिसका कंटेंट होता था कि उन्होंने किस तरह फ़लां डॉक्टर की ऐसी-तैसी कर दी थी और डॉक्टर जो है सो मुंह बाए देखता रह गया. उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी कि आम लोग उनसे बीमारियों के इलाज का नुस्ख़ा लेने के साथ ही किसी ख़ास डॉक्टर का अप्वाइंटमेंट हासिल करने तक की सिफ़ारिश कराने लगे. मगर मेडिकल रिप्रजेंटेटिव से दवा संबंधी सलाह लिए जाने की बात बताते ही डॉक्टर हत्थे से उखड़ जाते. मरीज़ की तबियत भूलकर डॉक्टर साहब उस मेडिकल रिप्रजेंटेटिव को आहत नहीं, बाक़ायदा बेइज़्ज़त करने के मोड में आ जाते.

इस पेशे का प्रभाव यह हुआ कि लोग अंग्रेज़ी बोलने लगे. बोल न पाएं तो अंग्रेज़ी बोलने का अभिनय तो करने ही लगे. बाज़ार ने आम पब्लिक के इस मनोभाव को ऐसा पकड़ा कि रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स आ गया. इसकी यूएसपी यह थी कि बस इतने दिनों का कोर्स करके अंग्रेज़ी बोलने लगेंगे. माने एक टेबलेट भर समझ लीजिए, इधर लीजिए और उधर फर-फर अंग्रेज़ी झरने लगेगी. मैट्रिक के रिज़ल्ट का इंतजार करने वाले विद्यार्थी रैपिडैक्स पढ़ते और लगे हाथों टाइपराइटिंग या शॉर्टडैंड वगैरह भी सीखते थे. मैट्रिक पास होने के बाद नाना-दादा, मामा-चाचा अन्य प्रकार के भांति-भांति के रिश्तेदारों द्वारा बच्चे को घड़ी या साइकिल दिए जाने की प्रथा थी. बच्चे पास हो ही जाएं यह निश्चित कहां था? फेल होने वालों की घरों में तबियत से कुटाई से लेकर मुहल्ले में सार्वजनिक भर्त्सना का भी इंतज़ाम आमतौर पर होता ही था. फेल होने से ज्यादा विहंगम दृश्य सब्जेक्टली फेल होने में बंधता. ऐसी हाहाकारी परिस्थिति में घर के बुज़ुर्गों द्वारा इसके लिए सनीमा को ज़िम्मेदार मानते हुए तमाम अभिनेताओं को लोफ़र की संज्ञा दी जाती.

मैट्रिक में लड़कों का पास या फेल होना इलाक़ाई मान-मर्यादा से जुड़ा था तो लड़कियों के लिए यह वैवाहिक संबंधों की संभावनाओं के द्वारा खोलता या बंद करता था. इसलिए लड़कियों की इम्तहान की कॉपियों में घर की बिगड़ी माली हालत और परीक्षा परिणाम पर ही वैवाहिक संबंध के टिके होने की बात कहते हुए आत्महत्या तक की बात लिखी जाती. लड़के लिखने से ज्यादा कॉपियों में टके-दो टके का नोट लगा देने को ज्यादा कारगर मानते. उनके सामने अपने मामा-चाचा या फलां-फलां का दृष्टांत होता, जिनकी भव बाधा ऐसे ही पार लगी थी. ऐसे बच्चे और बच्चियां अक़्सर परीक्षा के बाद भगवत भजन और पूजापाठ में लीन हो जाते. परीक्षा परिणाम के मुताबिक़ भगवान के प्रति उनकी निष्ठा बनती और बिगड़ जाती.

यह वह दौर था जब देश से आपातकाल उठाया जा चुका था. साहित्य आहिस्ता-आहिस्ता फाहित्य माना जाने लगा. आपातकाल के दौरान जिन-जिन साहित्यकारों ने जम्हूरियत के गीत-गोविंद लिखे थे, इंदिरा गांधी की जेलों में महीनों गुज़ारने के बाद उनका इससे मोहभंग हो चुका था. उनके घरों की दर-ओ-दीवार पर मोहभंग की यह इबारत लिखी जा चुकी थी. घर की दीवारों पर सदा से टंगी रहने वाली भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, महाराणा प्रताप जैसे महापुरुषों की तस्वीरें ग़ायब होने लगीं क्योंकि उनके नौनिहालों ने आपातकाल के दौरान इसका हस्र देख लिया था. राजनीतिक निष्ठा पर संदेह के आधार पर जेलों में महीनों के लिए टांग दिए गए. अपने तो जम्हूरियत बहाली के नाम भये और परिवार लंगरों के नाम.

लिहाजा, आपातकाल के बाद ऐसे तमाम बुज़ुर्गों को उनकी औलादों ने क्रांति की मशाल को बुझाकर घर में शांत बैठ जाने का छायावादी क़िस्म का संदेश दे दिया था. इस पीढ़ी ने इसका इशारा कुछ यूं भी बयां किया कि आपातकाल के दौरान रिलीज़ हुई फिल्म ‘शोले’ को ऐसा हिट बनाया जितना कभी कोई और फ़िल्म न हुई. आपातकाल और ‘शोले’ के अंतर्संबंधों पर कोई शोध करे तो पक्के तौर पर पता चलेगा कि आंदोलन से आजिज़ी में आकर तब की नौजवान पीढ़ी ने ‘शोले’ को ऐसा भड़काया कि रामगोपाल वर्मा के ‘आग’ लगाने के बाद ही वह बुझा.

सातवें दशक का एक विज्ञापन.

पिछली पीढ़ी अनिवार्य रूप से ग्रेजुएशन के बाद ही टाई लगाने की सामाजिक सहमति देती थी. लेकिन नई पीढ़ी के बच्चे टाई लगाकर मिशनरी स्कूलों में जा रहे थे. इंदिरा गांधी बेलछी की सफल यात्रा से लौट चुकी थीं. बंध्याकरण कार्यक्रम से जैसे-तैसे ख़ुद को बचाए रख पाने में सफल रहे नौजवान बदहवासी में ब्याह कर रहे थे. अधेड़ परिवार बड़ा करते हुए बंध्याकरण का विरोध कम प्रतिशोध ले रहे थे. सड़कों पर जनता सरकार के मंत्री राजनारायण के अटपटे बोल की चर्चा होती थी और स्कूलों में उनके द्वारा शुरू की गई योजना के तहत बच्चे दूध का पाउडर चाभ रहे थे. चंद्रशेखर उसी ज़माने में जो युवा तुर्क कहलाए सो अंत तक दूसरा कोई युवा तुर्क न हुआ. जॉर्ज फ़र्नांडिज़ के विरोध के बावजूद लोग कोकाकोला पी रहे थे. छोटे-बड़े शहरों में मद्रासी डोसा की दुकानें खुल चुकी थीं. किसी परिचित के साथ जाने पर डोसा-फैंटा इस तरह खाते-पीते कि खाते-पीते घरों के होने का रुआब बनता. कांटा-छुरी और चम्मच की मदद से डोसा खाने की क्रिया संपन्न होती. यह सब कुछ इतने अभ्यास के साथ किया गया होता कि दोनों एक-दूसरे के भ्रम को यक़ीन में बदल डालने में सफल भी हो जाते. कई लोग होटलों में नान और मुर्ग मुसल्लम खाते. बेयरे को दो-चार रुपये टिप देकर उसका सेल्यूट इस अंदाज़ में क़बूल करते कि जा कोई बात नहीं, मौज कर!

संवाद आर्काइव.

ज्यादातर सिनेमाघर देवी-देवताओं के नाम पर रखे जाते थे. मसलन मां जगदम्बा पैलेस, भगवती चित्र मंदिर, गणेश चित्रपट, लक्ष्मी थियेटर आदि-आदि. उस समय हिट फ़िल्मों की स्टोरी वाली छोटी पुस्तिका छपती थी जो 20-25 पैसे में बिकती थी. दर्शक वृंद बड़े चाव से इसे ख़रीदते और घरों में बैठकर ख़ाली वक़्त में इसका पारायण करते. पुस्तिका में उस फ़िल्म की पूरी कहानी क़िरदार और संवाद के साथ संक्षेप में दर्ज़ होती. कॉलेज की किताबों के पन्नों के बीच इस पुस्तिका को रखकर युवक इतनी लगन से पढ़ते कि अभिभावक चिंतित हो उठते कि इतनी पढ़ाई के चक्कर में बच्चा सनक न जाए! सिनेमाघरों के मुख्य दरवाज़े के ऊपर फ़िल्म का बैनर होता था जो माहौल बनाने के काम आता. वैसे, असल माहौल तो रिक्शे पर अलग-अलग सिनेमाघरों में लगी फ़िल्मों के प्रचार करने वाले बनाते थे. फ़िल्म का यह प्रचार क्रिकेट कमेंट्री से कम दिलचस्प नहीं होता था. इसे अलग क़िस्म की विधा मानते हुए लोग उन धुरंधर प्रचार वालों को याद करते, जिनकी महारत का लोहा ज़माने ने माना था. लगे हाथों इस बात पर अफ़सोस भी जताते कि अखिल भारतीय स्तर पर यह गिरावट आई है और अब वो बात किसी में न रही.

चप्पे-चप्पे में फ़िल्म के पोस्टर लगते. जिन दीवारों पर बाक़ायदा गधे के पूत को संबोधित मूत्र विसर्जन नहीं करने का मार्मिक संदेश लिखा होता, वहां भी इस यक़ीन के साथ फ़िल्म के पोस्टर लगाए जाते कि पूत होगा तो यहीं आएगा. तमाम घरों में बड़ी संख्या में अख़बार के ऐसे पाठक होते थे जो केवल शहर के सिनेमाघरों में लगी फ़िल्म के बारे में ज्ञान हासिल करने के लिए पन्ने पलटते थे. अख़बारों में क़तार से शहर के सिनेमाघरों के साथ-साथ राजधानी में रोजाना चार शो में चलने वाली फ़िल्मों के विज्ञापन होते थे. शुक्रवार को सिनेमाघरों में अक़्सर नई फ़िल्में लगती थीं तो उस दिन अख़बार में ऐसे पाठकों की दिलचस्पी ज्यादा होती. लोग सिनेमाघरों के गेटकीपर, बुकिंग क्लर्क और ऑपरेटर से दोस्ती गांठने की ललक रखते मगर वे छिछोरों को मुंह नहीं लगाते थे. सिनेमा के मैनेजर के रसूख़ के तो क्या कहने! शहर के सेठ लोगों के यहां शादी-ब्याह या दूसरे ख़ास मौक़ों पर सिनेमाघरों के मैनेजर को भी न्योता जाता.

वैसे, समय-समय पर नाटक, थियेटर और सर्कस-मीना बाज़ार अक्सर ही सजते. ये जितना कुछ दिखाते उससे ज्यादा का शोर मचता. शहर के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्कस की लाइटें रात में कौंधती तो लोग मचल उठते. मौत का कुआं, लड़की की मुंडी काटकर जिंदा करने वाला बंगाली जादूगर, हवा में तैरती भूतनी आदि-आदि इन तमाशों के प्रमुख आकर्षण थे. किशोरवय लड़कों को अक्सर कचहरी में मंडराते हुए भी पकड़ा जाता. कई बार घर वाले हौंकते हुए उन्हें घर लाते. एक तो स्कूल के समय में कचहरी में लड़के का पकड़ा जाना अपने-आप में संगीन जुर्म था. ऊपर से वे बरामद वहां होते, जहां मर्दाना ताक़त के लिए दवा बेचने वाले मजमा सजाए रहते. ये दवा बेचने से पहले छोटी-बड़ी टोकरियों से अलग-अलग क़िस्म के सांप निकालकर दिखाते. एक टोकरी खोलने के बाद कम-से-कम बीस मिनट का एक सेगमेंट होता, जिसमें उस सांप से जुड़ी झूठी-सच्ची कहानियां होती. मजमे का स्पेशल सेगमेंट तक्षक नाग था. जिसमें बताया जाता था कि कैसे राजा परीक्षित ने सांप से बचने के लिए महल बनवाया लेकिन काल ने उसके कपाल पर मौत लिखी थी इसलिए तक्षक नाग फूलों के बीच उसे डंसने के लिए पहुंच गया. अक्सर लड़के वहां से अजगर को देखने के बाद यह सीख लेकर घर लौटते कि अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम. सो आलस से भरे लड़के कोई काम नहीं करते. करिअर उनके लिए साइकिल में लगे कैरियर की तरह था जो अपने परिवारनुमा साइकिल में टंगा जहां-तहां पहुंचता रहता.

बच्चों के लिए तब होली-दशहरा या किसी क़रीबी के शादी-ब्याह पर ही कपड़े ख़रीदने का दस्तूर था. कई बार तो ऐसे मौक़ों पर स्कूल ड्रेस ही ख़रीद ली जाती, ताकि अलग से ड्रेस बनवाने की जरूरत न पड़े. नए कपड़े पहनकर संयुक्त परिवार के बच्चे दर्ज़नों बुज़ुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते. कोई पीठ पर धौल जमाकर आशीर्वाद देते तो कोई-कोई इतने बज्र बुज़ुर्ग कि आशीर्वाद देने से पहले ट्रांसलेशन या गणित का कोई सवाल पूछकर बाक़ायदा परीक्षा लेते. ज़ाहिर है कि बुज़ुर्ग़ बज्र थे इसलिए अपनी समझ में सवाल कठिन ही देते. बच्चे अक़्सर मामूली सवालों के जवाब भी नहीं दे पाते तो उन बुज़ुर्ग़ों को नसीहत देने का मौका मिल जाता- सिर्फ़ बढ़िया पहनने से कुछ नहीं होता, पढ़ने से आदमी बड़ा बनता है. कई बार ऐन उसी वक़्त दूर से ट्रांज़िस्टर की आवाज़ गूंज उठती – साला मैं तो साहब बन गया…

ऐसा अक़्सर होता था कि जब मामू-चाचा या बुआ के ब्याह में एक ही थान से घर भर के बच्चों के कपड़े सिलवा दिए जाते. बारात लगने के वक़्त तलाशना मुश्किल होता कि बड़ा साथ है या छोटा गुम हो गया. बच्चे हाथ उठाकर अपने होने का संकेत देते और हाथ की गिनती करके घर वालों को तसल्ली हो जाती कि सारे साथ में हैं. ख़ुश होने पर लोग बच्चों को बाज़ार में किलो-आध किलो जलेबी, कचौरी या रसगुल्ला खिलाते. सॉफ़्टी कुछ शहरों में ही मयस्सर थी तो बच्चे बर्फ का गोला चूसते. चॉकलेट की जगह पॉपिन्स, टॉफ़ियां या लेमनचूस का मज़ा लेते. टॉफ़ी के लालच में अपने या पड़ोसी के बच्चों को कपड़े में इस्तरी कराने के लिए भेजना आम था. घर आए मेहमानों को सामान के साथ विदा करने के लिए बच्चे बस अड्डे या रेलवे स्टेशन तक इसलिए चले जाते क्योंकि गाड़ी खुलते समय रिश्तेदार एकाध रुपये का नोट बच्चे की जेब में ठूंसते. बच्चा इसे लेने में आनाकानी करते हुए नोट के वज़न पर निगाह रखता.

बिजली अक़्सर नहीं होती थी तो घरों में लालटेन, लैंप या मोमबत्तियां जलतीं. घरों में कुन्नी भरने वाले चूल्हे जलते या कोयले के ताव पर खाना पकता. चाचा लोग ताश खेलते हुए भरी दोपहरी काटते और शाम को साइकिल में झोला लटकाकर शहर की मंडियों में तरकारी ख़रीदने जाते. या साइकिल के कैरियर में कनस्तर फंसाकर गेहूं पिसाने के लिए चक्की पर जाते देखे जाते. समाज इसे संस्कार के तौर पर लेता था मगर रहस्य यह था कि इन कामों में रोज़ाना दो-चार रुपये की बचत हो जाती जो किशन पान भंडार की गिलौरी, पनामा के सुट्टे, रामचंद्र की रबड़ी-जलेबी इत्यादि के लिए बजट का इकलौता स्रोत था. धंधा ज्यादा चल गया तो कई बार सिनेमा के टिकट का इंतज़ाम बनते भी देर नहीं लगती. ज्यादातर घरों में तनख़्वाह मिलने की शाम को ही महीने भर का किराने का सामान एकसाथ ले आने का अभ्यास था. रह-रहकर खुच-पुच सामान खरीदे जाने पर बुज़ुर्ग़ों की नाराज़गी का खतरा था इसलिए घरों में नमक-तेल-मिर्च सहित कुछ भी कम पड़ने पर पड़ोसियों के दरवाजे खटखटाये जाते. दही के जामन के लिए तो हर परिवार जैसे पड़ोसियों के भरोसे ही रहता. घरों में बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग लाल दंत मंजन का प्रयोग करते और नौजवानों में गुल की लत पाई जाती. जिन घरों में टूथपेस्ट होता, वहां उसका इस्तेमाल आख़िरी क़तरे तक होता. यानी ट्यूब में पेस्ट ख़त्म होने पर पहले उसे बेलन की मदद से बचा-खुचा निकालकर एकाध दिन चलाया जाता और आख़िर में कैंची से काटे जाने के बाद परिवार की ज़रूरतों के आगे ट्यूब खेत रह जाता.

औरतें सिलाई-बुनाई और कढ़ाई में प्रवीण होतीं और मर्द इनके बनाए स्वेटर, टोपी आदि की नुक़्ताचीनी में. बावजूद इसके महिलाओं को उस दौर की पत्रिकाओं के बुनाई-कढ़ाई विशेषांकों का बेसब्री से इंतज़ार रहता. ख़ास किस्म के डिजाइन-पैटर्न का स्रोत भूले से भी पड़ोस की महिलाओं को न बतातीं. और बुनाई विशेषांक ही नहीं, पाक कला विशेषांक भी खूब सराहे जाते. बुज़ुर्ग़ राजनीतिक ख़बरें पढ़ते तो नौजवान ज़ब्तशुदा कहानियों का विशेषांक. बच्चों को इनमें फैंटम, चाचा चौधरी या ढब्बू जी जैसे कार्टून का इंतज़ार रहता. पत्रिकाओं में आरके स्टूडियो की होली की श्वेत-श्याम तस्वीरें छपतीं और दीपावली विशेषांक के मुखपृष्ठ पर दीया हाथ में लिए किसी सिने तारिका की तस्वीर.

तबला और हारमोनियम की जगह नौजवान माउथऑर्गन बजा रहे थे. माउथऑर्गन तंग पैंट की पिछली जेब में स्वैग के साथ रखा जाता. ख़ास मौक़ों पर यह ऐसे बजाया जाता कि लोग वाह-वाह कर उठते. शेर-ओ-शायरी या कविता से ज्यादा मज़ा इसमें था. युवकों के लिए यह एक गुंजाइश भी थी, जिससे वे किसी के दिल के दरवाज़े पर दस्तक दे सकें. यों इसका एक और आला बाज़ार में आ चुका था- बुलवर्कर. हिन्दी का विज्ञापन बताता था कि कसरती बदन हासिल करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित. इसमें ज़िक्र-ए-वैज्ञानिक इस क़दर घिघियाता हुआ लगता कि उसे यहां ख़ामख़्वाह जोड़ा गया है जबकि उसका इस वारदात में कोई हाथ नहीं है. बहरहाल बाज़ू सुडौल करने के लिए बुलवर्कर को पंप किया जाता तो जंघाओं में जान डालने के लिए उसे पैरों में फंसाकर खींचा जाता था. इसका आकर्षण ऐसा बन पड़ा था कि जिन घरों में बुलवर्कर था, वहां आए अधेड़ क़िस्म के खा-पीकर अघाए मेहमान भी कुछ कर गुज़रने की कशिश करते. ऐसा करते हुए अक़्सर होता यह था कि उनकी नाभि उतर जाती तो बड़ी किरकिरी होती.

सफारी सूट सिलवाने का चलन था. शादी-ब्याह के मौक़े पर इसे पहना जाता और बड़े जतन से इसे सालों-साल रखा जाता. सफारी पहनकर लोग देखने वालों को उनके ऑफ़िसर होने का भ्रम देते और शाम होते-होते ऑफ़िसर्स च्वाइस लगाकर इस भ्रम को पुख़्ता करने का जतन करते. शादियों में सफारी पहने लोगों की भरमार होती और वे इसी भौतिक अवस्था में ट्विस्ट करते या फिर नागिन डांस करते हुए दांतों से रुमाल पकड़कर बीन बजाते. इस दौरान कोई सिटीनवाज़ ट्विस्ट करने वालों की हौसला अफजाई करता तो इससे तंग कई बुज़ुर्ग़ थोड़ी देर के लिए संस्कारों पर अपना अमूल्य मत प्रकट करते. बैंड-बाजों के शोरगुल के बीच जब उनके आख्यान पर कोई ध्यान नहीं देता तो सामने स्वागत के लिए दांत चिआरकर खड़े होनेवाले समधी के गले में बेले की माला डाल देते.

लड़कियों के घर से भाग जाने की फ़ितरत आम नहीं थी मगर मुहब्बत के ख़तों का एकतरफ़ा क़िस्म का सिलसिला ज़रूर था. लड़के दिन रात जहां-तहां प्रेम पत्रों की सप्लाई करते और लड़कियां मुस्कुराकर या चप्पल निकालकर इसका जवाब देतीं. प्रेम पत्रों की कई क़िस्में थीं जिनमें ख़ून से लिखे ख़त को श्रेष्ठ माना जाता. इस हल्ले में ज्यादातर लाल स्याही से लिखे ख़त को भी ख़ून से लिखे जाने का दावा किया जाता. यह इतने धड़ल्ले से होने लगा कि ख़ून से लिखे ख़त को भी लड़कियां लाल स्याही से लिखा ख़त मान लेतीं. दूसरी श्रेणी का प्रेम पत्र कुछ ऐसा होता जिसमें फ़िल्मी नग़मों और शायरी की ऐसी चित्रमाला सजाई जाती कि लड़कियां बुरा मान जातीं. हालांकि लड़के इस भ्रम में ऐसा करते कि उसे साहित्यिक मिजाज़ का समझा जाए. इसलिए ख़ास सावधानी बरती जाती कि कोई फूहड़ क़िस्म का लफ़्ज़ इस्तेमाल न होने पाए. दोस्त की तरफ़ से लिखे जाने वाले प्रेम पत्रों में लड़के अक़्सर इस क़िस्म की हरकत करते हुए खेल बिगाड़ने की कोशिश ज़रूर किया करते.
एक तीसरी किस्म का प्रेम पत्र भी होता था, जिसका चरित्र छायावाद के क़रीब होता था. इसमें सीधे प्रेम प्रकट करने की बजाय स्टार्टर के तौर पर कुछ ऐसा लिखा जाता था कि सात भाइयों, तीन बहनों, माता-पिता और दादा-दादी वाले परिवार में उसके साथ कितनी बर्बरता की जाती है. अन्याय की तफ़्सील यह होती कि बड़े भाइयों ने मैट्रिक की परीक्षा में बैठने की नौबत ही नहीं आने दी और अब जबकि वह परिवार की मान-मर्यादा की ख़ातिर इस परीक्षा में बैठने जा रहा है तो पढ़ने के लिए उसे चप्पलों से पीटा जाता है. इंतहा यह कि गणित के प्रमेय रटने के लिए उस पर दबाव बनाया जाता है जबकि उसने इम्तहान पास करने भर के लिए कुंजिका रट रखी है. ऐसी ही दूसरी घटनाओं का ज़िक्र करते हुए पत्र को आंसुओं के सैलाब में डुबोकर प्रस्तुत करने का प्रयास होता. लेकिन प्रेमद्रोही लड़कियां ऐसे हाहाकारी पत्रों पर भी नाराज़ होकर इन ख़तों को अपने पर्याप्त समर्थ बड़े भाइयों या माता-पिता को पकड़ा देतीं तो बस समझिए कि ज़लज़ला आ जाता.

जैसा हर बुज़ुर्ग़ के साथ होता है, एक मोड़ पर पहुंचकर दुनिया उनके लिए आजिज़ी में बदल जाती है. तब के बुज़ुर्ग़ों के लिए भी नये चाल-चलन देखने के बाद दुनिया बेनूर हो चली थी. आंखों के सामने देश की आज़ादी देखी. अभी हाल तक आपातकाल भगाया मगर उनके हिसाब से देश रास्ता भटक गया. यह सुराज नहीं था. वे उन लोगों से दुखी थे जो यह कहकर आपातकाल का बचाव कर रहे थे कि ट्रेनें समय पर चलती थी और दफ़्तरों में लोग समय पर पहुंच जाते थे. एक बुज़ुर्ग़ ने ऐसे ही आलम में यह कहानी सुनाई,

एक सुल्तान था. वह न केवल क्रूर बल्कि सनकी भी था. उसने एक दिन आदेश दे दिया कि शहर से बाहर आने-जाने वालों को दो-दो जूते अनिवार्य रूप से लगाए जाएंगे. इसमें कोई रियायत न होगी. तो साहब जिसे भी शहर से बाहर जाने की मजबूरी होती, वह अपमानित होकर जाता-आता. एक दिन एक प्रतिनिधिमंडल ने सुल्तान से मुलाक़ात की इजाज़त मांगी तो सुल्तान ने समझा शायद उसके आदेश के खिलाफ जनता में ग़ुस्सा है और प्रतिनिधिमंडल उससे आदेश को वापस लेने की गुज़ारिश करेगा. उसने आदेश वापस लेने का मन भी बना लिया. प्रतिनिधिमंडल ने सुल्तान से मुलाक़ात में उसके आदेश की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि शहर से आने-जाने वालों की संख्या बढ़ गई है और जूते लगाने के लिए कर्मचारी कम पड़ रहे हैं. सो यह प्रतिनिधिमंडल गुजारिश करता है कि पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों की बहाली करके कुछ काउंटर और बढ़ा दिए जाएं.

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