खेल | लॉर्ड्स पर लहराई नीली क़मीज़ के बीस साल

कभी-कभी खेल के मैदान पर कुछ ऐसे दृश्य भी बन जाते हैं जो अपनी अंतर्वस्तु में इतने असरदार होते हैं कि खेल-प्रेमियों के दिलोदिमाग़ पर हमेशा के लिए दर्ज हो जाते हैं, अविस्मरणीय बन जाते हैं. 13 जुलाई 2002 को दुनिया ने लॉर्ड्स के मैदान पर भी ऐसा ही नज़ारा देखा था.

उस दिन नेटवेस्ट सीरीज़ का फ़ाइनल मैच खेला गया. इंग्लैंड ने भारत को 326 रनों का मुश्किल लक्ष्य दिया था. लेकिन मोहम्मद कैफ़ और युवराज ने शानदार बल्लेबाज़ी की. आख़िरी चार गेंदों में जीत के लिए भारत को 2 रनों की दरकार थी. फ्लिंटॉफ के अंतिम ओवर की तीसरी गेंद ज़हीर खान ने शार्ट कवर की ओर हल्के से पुश की और बराबरी के रन के लिए दौड़ पड़े. क्षेत्ररक्षक रन आउट करने की कोशिश में ओवर थ्रो कर बैठे. कैफ़ और ज़हीर ने जीत के ज़रूरी एक रन भी बना लिया. भारत दो विकेट से जीत गया और क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स के पवेलियन की बालकॉनी में खड़े कप्तान सौरव गांगुली ने जीत की ख़ुशी में अपनी शर्ट उतारकर हवा में लहरा दी.

गांगुली के शर्ट उतार कर हवा में लहराने वाला वह दृश्य अब ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन चुका है. गांगुली का शर्ट लहराना दरअसल बंगाल में ‘भद्रलोक’ के बाबू मोशाय की इमेज और लॉर्ड्स की क्रिकेट परंपराओं से ही विचलन नहीं था बल्कि यह क्रिकेट के भद्रलोक की ‘जेंटलमेन्स स्पोर्ट’ वाली इमेज और भारतीय खिलाड़ियों में मारक क्षमता और आक्रामकता न होने वाली इमेज का ध्वस्त होना भी था. यह भारतीय क्रिकेट इतिहास की एक विभाजनकारी घटना थी. इससे आगे का भारतीय क्रिकेट आक्रामकता और जीत से लबरेज क्रिकेट था.

क्या ही संयोग है कि भारतीय क्रिकेट इतिहास के दो सबसे बड़े और मील का पत्थर कहे जाने वाले दृश्य लॉर्ड्स के मैदान पर ही बनते हैं. पहला, 1983 में कपिलदेव के विश्व कप ट्रॉफी को हाथ में लेने वाला दृश्य और दूसरा, गांगुली के शर्ट लहराने वाला दृश्य. ये दो घटनाएं – 1983 में विश्व कप जीतना और 2002 में विदेशों में जीतने का सिलसिला और विरोधियों को उन्हीं की भाषा में उनकी आंखों में आंखें डालकर जवाब देना – भारतीय क्रिकेट इतिहास की युगान्तकारी घटनाएं हैं. कपिल देव और सौरव गांगुली दो ऐसे क्रिकेटर हैं, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को न केवल सबसे अधिक प्रभावित किया बल्कि उसके चरित्र को बदल दिया. भारतीय क्रिकेट की दिशा और दशा को बदलने की दृष्टि से कपिल और सौरव देश के सबसे बड़े क्रिकेटर ठहरते हैं.

1983 में विश्व कप में जीत और एक क्रिकेटर के रूप में कपिल के व्यक्तित्व का देसीपन क्रिकेट के इलीट चरित्र को ‘मास’ में रूपांतरित कर देते हैं. अब क्रिकेट लोकप्रियता के सोपान चढ़ने लगता है. क्रिकेट मेट्रोपोलिटन क्लबों से निकलकर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों के गली-कूचों तक पहुंच जाता है. और इस दृष्टि से कपिल भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े खिलाड़ी ठहरते हैं.

अब भारत में क्रिकेट अपूर्व लोकप्रियता तो धारण करता है लेकिन विश्व कप में जीत और लोकप्रिय होने के बाद भी भारत विश्व क्रिकेट का सिरमौर नहीं बन पाता. विदेशों में जीत का कोई सिलसिला नहीं बनता. खिलाड़ियों के कंधे अभी भी अक्सर झुके रहते.

तब 1992 में भारतीय क्रिकेट परिदृश्य पर सौरव गांगुली आते हैं. लेकिन एक मैच के लिए. एक ओडीआई के बाद ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. उनसे अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने की अपेक्षा की जाती है. दरअसल वे बंगाल के भद्रलोक से आते हैं और उनका व्यक्तित्व अभिजात से लबरेज़ था. लेकिन गांगुली ने बदलने से इनकार कर दिया. बड़ी शख़्सियत व्यक्तित्व ऐसी ही होती हैं. वे ख़ुद नहीं बदलते बल्कि अपने समय और समाज को बदल देते हैं. गांगुली भी ऐसा ही करते हैं. वे ख़ुद तो नहीं बदले अलबत्ता भारतीय क्रिकेट और उसके चरित्र को ही बदल दिया.

उन्हें भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए अगले चार साल इंतज़ार करना पड़ता है. यह वर्ष 1996 की बात है. अज़हरुद्दीन की अगुवाई में भारतीय टीम इंग्लैंड के दौरे पर जाती है. वहां से ओपनर नवजोत सिंह सिद्धू कप्तान पर ख़राब व्यवहार करने का आरोप लगाकर भारत लौट आते हैं. तब सौरव की क़िस्मत पलटा खाती है और भारतीय क्रिकेट की भी. सौरव को भारतीय टीम में जगह मिलती है.

पहले टेस्ट मैच में सौरव को पहले 11 खिलाड़ियों में जगह नहीं मिलती. लेकिन दूसरे टेस्ट में सौरव को टीम में जगह मिलती है और वे सैकड़ा ठोक देते हैं. फिर अगले मैच में एक और शतक बनाते हैं. टीम में अपनी जगह पक्की कर लेते हैं. उसके बाद साल 2000 आता है. फ़िक्सिंग को लेकर भारतीय क्रिकेट में एक भूचाल आता है. कई खिलाड़ियों पर आरोप लगते हैं. उधर व्यक्तिगत कारणों से सचिन कप्तानी से हाथ खींच लेते हैं. ऐसे में टीम के उपकप्तान गांगुली को कप्तान बनाया जाता है. फ़िक्सिंग और बेटिंग से आक्रांत भारतीय क्रिकेट में यह एक नए युग की शुरुआत थी.

गांगुली में टीम का नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी. दरअसल वे पैदाइशी लीडर थे. उन्होंने कप्तान बनते ही भारतीय क्रिकेट में बड़े बदलाव ला दिए.

पहला, उन्होंने नए सिरे से भारतीय क्रिकेट टीम का गठन किया. इसमें अनुभव और युवा जोश का अद्भुत समन्वय था. एक तरफ़ सचिन, द्रविड़, कुंबले और लक्ष्मण थे. दूसरी तरफ़ तमाम नए खिलाड़ियों को टीम में जगह दी, उन्हें ग्रूम किया और उन्हें भरोसा दिया. सहवाग , ज़हीर, हरभजन, नेहरा, युवराज उनमें से कुछ नाम हैं.

दूसरे, टीम को आक्रामकता दी, जो अब तक टीम में नदारद थी. उनका मानना था कि आक्रमण श्रेष्ठ रक्षण है. वे ख़ुद भी आक्रामक खेल के हिमायती थे और टीम को भी इस भावना से अनुप्राणित किया. अब टीम स्लेजिंग से घबराती नहीं थी बल्कि मैदान में विपक्षियों की ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू किया. इतना ही नहीं टीम हित में ऐसे निर्णय लिए जो और कोई नहीं ले सकता था. जैसे ओडीआई में राहुल से विकेट कीपिंग कराना, सहवाग को मध्यक्रम से प्रोमोट करके ओपनिंग कराना. कोलकाता के ऐतिहासिक टेस्ट में लक्ष्मण को नंबर तीन पर भेजना भी एक साहसिक जोख़िम भरा फ़ैसला था.

तीसरे, विदेशों में जीत का सिलसिला शुरू करना. सौरव ने अपनी कप्तानी की शुरुआत ही जीत से की और लगातार इस क्रम को बनाए रखा. कप्तानी में पहली ओडीआई सीरीज़ दक्षिण अफ्रीका से खेली और जीती. उसी साल आईसीसी नॉकआउट प्रतियोगिता में भारत को फ़ाइनल में पहुंचाया जहां वे न्यूज़ीलैंड से हारे. ये 1983 के बाद भारतीय क्रिकेट टीम का पहला फ़ाइनल था. भारत में ऑस्ट्रेलिया को टेस्ट सीरीज़ में 2-1 से हराया. 2002 में इंग्लैंड को नेटवेस्ट सीरीज़ में हराया. 2003 के विश्व कप में भारत को फिर फ़ाइनल तक पहुंचाया जहां वे ऑस्ट्रेलिया से हारे. उसके बाद 2004 में पाकिस्तान को पाकिस्तान में ही टेस्ट और ओडीआई में हराया. 2004 तक आते-आते वे भारत के सर्वश्रेष्ठ कप्तान के रूप में स्थापित हो चुके थे. वे अपनी कप्तानी में 49 में से 21 टेस्ट मैच में जीत दिलाते हैं, जिसमें से 11 विदेश की धरती पर जीते, जबकि 15 मैच ड्रा हुए. वे 146 एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों में कप्तानी करते हुए 76 मैचों में जीत दिलाते हैं.

कई बार महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली को एक कप्तान के रूप में उनसे अधिक सफल और बड़ा क्रिकेटर के रूप में स्थापित करने का जतन किया जाता है. सही है कि धोनी और कोहली ने भारत को कहीं अधिक सफलता दिलाई. लेकिन भारतीय क्रिकेट के चरित्र को बदलने और भारतीय क्रिकेट को दिशा देने का काम गांगुली ने ही किया. धोनी और कोहली ने गांगुली द्वारा बनाए गए आधार पर इमारत खड़ी करने का काम किया. गांगुली ने जिस रास्ते का निर्माण किया, वे दोनों उस पर आसानी से आगे बढ़ सके. इन दोनों ने उस तरह से टीम का नवनिर्माण करने और भारतीय क्रिकेट को नई दिशा देने का काम नहीं किया जैसा सौरव ने किया. यही सौरव का बड़प्पन है और भारतीय क्रिकेट को उनकी देन है. दरअसल सौरव जिस नई राह का निर्माण करते हैं, धोनी और कोहली उस पर चलकर ही भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं.

सौरव अपने समकालीन सचिन, द्रविड़, कुंबले और लक्ष्मण के साथ मिलकर ‘फ़ैबुलस फ़ाइव’ की निर्मिति करते हैं. ये चारों क्रिकेटर भारत के महानतम खिलाड़ियों की श्रेणी में आते हैं. उनकी वैयक्तिक उपलब्धियां सौरव से कहीं अधिक हैं. उन्होंने क्रिकेट को अपने व्यक्तिगत प्रदर्शन से बहुत अधिक प्रभावित और समृद्ध किया है. लेकिन उन सबमें लीडरशिप का अभाव था. एक कप्तान के रूप में ये सभी असफल रहे या कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर सके. भारतीय क्रिकेट को एक दिशा देने और उसके चरित्र को बदल देने का काम सौरव ही कर पाते हैं और इसी कारण भारतीय क्रिकेट में कपिल के बाद दूसरे सबसे बड़े खिलाड़ी सौरव गांगुली ही ठहरते हैं.

कपिल क्रिकेट के आभिजात को मास में रूपायित करके उसे लोकप्रियता के रथ पर सवार कर देते हैं तो गांगुली एक रक्षात्मक और हारों से सहमे क्रिकेट को हद दर्ज़े की आक्रामकता और ‘सेल्फ़ बिलीफ़’ से बूते विजयपथ पर आगे बढ़ने का हौसला देते हैं. बाकी सब खिलाड़ी इन दोनों का अनुगमन करते हैं.

इतना ही नहीं, एक खिलाड़ी के रूप में भी सौरव महान ही ठहरते हैं. वे 113 टेस्ट मैच खेलते हैं, जिसमें 16 शतकों की सहायता से 7212 रन और 311 एक दिवसीय मैचों में 22 शतकों की सहायता से 11373 रन बनाते हैं. वे मध्यम गति के उपयोगी गेंदबाज़ भी थे, जिन्होंने टेस्ट में 32 और ओडीआई में 100 विकेट लिए.

वे दाएं हाथ से गेंदबाज़ी करते और बांए हाथ से बल्लेबाज़ी. खब्बू खिलाड़ियों के खेल में एक ख़ास तरह की मोहकता, एक एलिगेंस होती है, फिर वो चाहे जो खेल हो. सौरव की बल्लेबाज़ी में भी कमाल की मोहकता थी. यह अलग बात है वो उतनी और उस तरह की मोहक नहीं थी जितनी युवराज की बैटिंग में थी. लेकिन थी तो ज़रूर. इसका कारण शायद यह हो कि वे उस तरह के स्वाभाविक खब्बू खिलाड़ी नहीं थे जैसे जन्मना खिलाड़ी होते हैं. वे मूलतः दाएं हाथ के खिलाड़ी थे और उन्होंने सायास बाएं हाथ से खेलना सीखा. उनका फ़ुटवर्क कमाल का था और समान अधिकार से फ्रंटफ़ुट और बैकफ़ुट पर खेलते. उनकी टाइमिंग लाजवाब थी और ‘हैंड-आई कॉर्डिनेशन’ भी. ऑफ़ साइड में क्षेत्ररक्षकों के बीच गैप ढूंढने में वे माहिर थे. उनके ऑफ़ साइड पर स्कवायर कट और ड्राइव खेल देखने का सुख हुआ करते थे. वे इसके मास्टर थे. तभी द्रविड़ उनको ‘गॉड ऑफ़ ऑफ़-साइड’ जैसे विशेषण से नवाजते हैं. और गेंद को बाउंड्री से बाहर मारने में भी उनका कोई सानी नहीं था.

हां, अफ़सोस यही है कि एक प्रशासक के रूप में वे क्रिकेट को वो तेवर नहीं दे सके, जिसकी उनकी अपेक्षा थी.

निःसंदेह सौरव गांगुली एक अद्भुत नेतृत्वकर्ता रहे, एक शानदार बल्लेबाज़ और उपयोगी गेंदबाज़ तो रहे ही हैं. यानी वे एक महान क्रिकेटर हैं. आप उनके प्रशंसक हो सकते हैं या आलोचक भी हो सकते हैं. आप उनसे प्यार कर सकते हैं या घृणा भी कर सकते हैं. आप उनके खेल पर फ़िदा हो सकते हैं या उनकी उपेक्षा कर सकते हैं. आप उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ सकते हैं या उन्हें कुफ़्र बोल सकते हैं. पर एक बेहतरीन बल्लेबाज, शानदार कप्तान और भारतीय क्रिकेट को आक्रामक तेवर देने के उनके योगदान को नहीं नकार सकते. वे एक सम्पूर्ण क्रिकेटर थे और महानतम भी. वे भारतीय क्रिकेट में मील का पत्थर हैं.

लव यू दादा.

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