शख़्सियत | वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के धुनी अरविंद गुप्ता
टॉय मैन और पद्श्री के ख़िताब से नवाज़े गए अरविंद गुप्ता प्रशिक्षित इंजीनियर हैं, पर उनकी धुन बच्चों में वैज्ञानिक चेतना जगाने की है और पिछले चालीस सालों से वह यही अलख जगाने के लिए देश भर में घूमते रहे हैं. अब तक क़रीब तीन हज़ार स्कूलों में वर्कशॉप कर चुके हैं, मामूली चीज़ों से खिलौने बनाने की अपनी तरक़ीब सिखाते हैं, ऐसे खिलौने जो खेल-खेल में तमाम तरह के वैज्ञानिक सिद्धांत समझने का ज़रिया हैं.
तस्नीम भाई ने परसों एक संदेश भेजा, जिसमें सेंट मारिया में उनके सहपाठी रहे अरविंद गुप्ता का ज़िक्र था. रात को इंटरनेट पर मौजूद कई पन्ने पढ़ डाले, कुछ वीडियो भी देखे ताकि टॉय मैन की लंबी साधना के बारे में थोड़ा-बहुत समझ सकूं. इतनी प्रतिबद्ध और लंबी साधना के बारे में जाने के लिए ग़ायबाना जानकारियाँ नाकाफ़ी थीं तो कल हम दोनों उनसे मिलने पहुंच गए. ख़ूब लंबी बात हुई – उनकी इस धुन की शुरुआत को लेकर, उनके तजुर्बों और हासिल के बारे में और उनके वक़्त के बरेली के बारे में.
आलगिरीगंज में उनका पुश्तैनी घर है. पिता साबुन फ़ैक्ट्री चलाते थे और माँ की कोशिश यही रहती कि उनके चारों बच्चों को बेहतर तालीम मिल सके. लड़कियों का स्कूल सेंट मारिया गोरेटी तब सह-शिक्षा वाला स्कूल था. 11वीं तक वह वहीं पढ़े और फिर जीआईसी से इंटर करके कानपुर आईआईटी चले गए. यह 1972 की बात है. वहाँ से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद पूना चले गए टेल्को में काम करने. बक़ौल अरविंद गुप्ता, ‘बढ़िया नौकरी थी मगर बार-बार लगता था कि मैं ट्रक बनाने के लिए नहीं बना हूं.’
तो साल भर की छुट्टी लेकर वह ‘होशंगाबाद साइंस टीचिंग प्रोग्राम’ में शामिल होने के लिए मध्य प्रदेश चले गए. यह वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का ऐसा समूह था, जो स्कूलों में साइंस की पढ़ाई के लिए मौलिक और परस्पर संवाद वाले तरीक़े अमल में लाने का इरादा रखता था.
इस प्रोग्राम ने उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी. बक़ौल अरविंद गुप्ता, ‘वहाँ देहात की एक हफ़्तावार हाट में गया, सोचा था कि वहाँ मिलने वाली सारी चीज़ों का एक-एक नग ख़रीदूंगा और फिर देखेंगे कि उनके ज़रिये अपनी बात कहने का कौन-सा तरीक़ा हो सकता है. ज़ाहिर है कि अपने आसपास की इन चीज़ों को बच्चे ख़ूब पहचानते हैं. बाज़ार से लौटते हुए साइकिल में हवा भराने के लिए रुका तो दुकान पर लटकी पतली-काली ट्यूब पर निगाह पड़ी. वह ट्यूब वॉल्व में इस्तेमाल होने वाली रबर थी. मैंने वह पूरी ट्यूब ख़रीद ली. उस ट्यूब और माचिस की तीलियों को मिलाकर मैंने मैचस्टिक मॉडल्स बनाए. उनके ज़रिये बच्चों को बहुत कुछ समझाया जा सकता है.’
मैचस्टिक मॉडल का उनका तजुर्बा कामयाब रहा. और यह सिलसिला चल पड़ा- पुराने काग़ज़, रद्दी अख़बार, माचिस की डिब्बी, जूस के ख़ाली पैकेट, स्ट्रॉ, बेकार सिरिंज यानी कुछ भी जो कूड़ा है, उनके हाथों में आकर जीवंत और काम का हो जाता है, ख़ाली करतब ही नहीं करने लगता, कहानी भी कहता है. और यही कहानी कहते जाना, ज़रूरतमंद बच्चों को सुनाना उनका मक़सद बन गया.
स्कूलों में, ख़ासतौर पर सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए विज्ञान की कार्यशालाएं तो वह करते ही हैं, लिखते हैं, अनुवाद करते हैं और ढेर सारी किताबें इंटरनेट पर अपलोड करते हैं ताकि वे दुनिया भर में तमाम ज़रूरतमंदों तक पहुंच सकें. उनकी किताब ‘मैचस्टिक मॉडल्स’ का आधा दर्जन से ज़्यादा ज़बानों में तर्जुमा हुआ है और पांच लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. आर्काइव डॉट ओआरजी पर उनका पेज देखें तो मालूम होगा कि वह क़रीब 16 हज़ार किताबें अपलोड कर चुके हैं. बताते हैं कि हर रोज़ बच्चों की एक किताब का अनुवाद करते हैं.
उनकी धुन की बानगी बातचीत में आए एक और प्रसंग में मिली. वह बता रहे थे – स्कूल के दिनों फ़िल्में देखने का बड़ा शौक़ था मगर उससे कहीं गानों का शौक़ हुआ करता था. फ़िल्म देखने जाता था, तो दस पैसे वाली गाने की किताब भी ख़रीद लाता था. उसमें हिन्दी के साथ ही उर्दू में भी गाने छपे होते थे. उर्दू में छपे गाने देखता तो कसक होती कि उन्हें पढ़ नहीं सकता.
बस, दो आने का क़ायदा ख़रीद लाया. पापा के साबुन कारख़ाने में एक गार्ड थे – धर्मदत्त मिस्त्री, उन्हें उर्दू आती थी. तो उन्हें उस्ताद बना लिया और उर्दू सीख ली.
बच्चों की किताबों के बारे में बात करते हुए निरंकारदेव सेवक को उन्होंने बहुत आत्मीयता से याद किया. बताया कि जब कभी बरेली आते, उनसे मिलने ज़रूर जाते थे. बच्चों को लेकर अपने समकालीनों में उनका काम सबसे अलग औऱ महत्व का था, मगर शहर ने उनकी वैसी क़द्र नहीं की, जिसके वह हक़दार थे.
वह मानते हैं कि उनकी सोच गढ़ने में माँ का योगदान सबसे ज़्यादा है. वह बेहतर पढ़ाई की हामी ज़रूर थीं, मगर इससे ज़्यादा और कुछ नहीं. बच्चे स्कूल से आकर घूम रहे हैं, गली में खेल रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं. उन्हें हमेशा इसी में संतोष मिलता कि बच्चे ख़ुश हैं. ‘मैं आईआईटी में था या आईटीआई में, माँ को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. उन्होंने न तो कभी खेलने पर टोका और न ही पढ़ने पर कोई ज़ोर दिया.उन्होंने हमसे ख़ुश रहने के अलावा कभी कोई उम्मीद नहीं की.’
वह कहते हैं – बच्चे पढ़ना नहीं चाहते, खेलना उन्हें अच्छा लगता है. तो खेल-खिलौनों के ज़रिए उन्हें समझना-सिखाना कहीं ज्यादा आसान है. और हम यही करते आए हैं.
मैंने उनकी प्रतिबद्धता के इतने लंबे सफ़र के हासिल और वैज्ञानिक चेतना के माहौल में बदलाव के बारे में पूछा तो उन्होंने झट-से जवाब दिया, ‘हमारा काम समंदर में बूंद के बराबर है. इसके उलट अवैज्ञानिकता के प्रसार में जुटे लोग ज़्यादा साधन सम्पन्न हैं. कोशिश हमने फिर भी नहीं छोड़ी है, लगातार काम कर ही रहे हैं, इस उम्मीद में कि हम और हमारी बात जहाँ तक पहुंच सके, साइंस की रोशनी शायद वहां पहुंचती रहे.’
अरविंद गुप्ता मानते हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ बदलने वाला नहीं, इसीलिए वह हमेशा कुछ न कुछ करते रहने के हामी हैं.
कवर | अरविंद गुप्ता के खिलौने/ prabhatphotos.com
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