आंखिन देखी | सिंघम के कारनामे के जवाब में चच्चा की ललकार

  • 12:19 pm
  • 6 May 2020

‘ख़ाकी वारियर्स’ के हाथ लगाए बग़ैर अपने मुल्क में यूं भी कोई काम पूरा नहीं होता. फिर यह तो लॉक डाउन है. उस रोज़ उतरसिया मोहलिया से मिली शिकायत के बाद भुड़िया कॉलोनी चौकी के वारियर्स गांव पहुंचे और एक नौजवान को तबियत से धुन दिया. बाक़ायदा सिंघम वाली स्टाइल में. सिंघम जब हाथ दिखाता है, तो रिवाज़ है कि बाक़ी लोग घरों में दुबक जाएं. यहां भी ऐसा ही हुआ. डर के मारे पूरे गांव ने घरों के दरवाज़े बन्द कर लिए. वह नौजवान मार खाता और चीख़ता रहा. आख़िरकार उसकी कातर पुकार ने उसके चाचा पर असर किया, तो उसने घर के अंदर से ही ‘सिंघम-वारियर’ को ललकारा. किसी भी बहादुर के लिए तो वह ललकार डूब मरने वाली बात थी. नौजवान को पीटना बंद करके बहादुर ने उस तरफ़ दौड़ लगा दी, जिधर से उसे ललकारा गया. मगर चाचा तो ललकारने के बाद जाने कहां छुप गया. झल्लाया ‘सिंघम’ जल्दी ही वापस आकर सबक सिखाने की धमकी देकर चला गया.

थोड़ी वक़्त गुज़रा कि चौकी के दो दरोगा और दो सिपाहियों के साथ ‘सिंघम’ सचमुच लौटकर गांव आ गया. बस्ती के बीच सड़क पर खड़े होकर गालियों की बौछार लगा दी. गालियों के कई राउण्ड चल चुके थे कि अपने दरवाज़ों-खिड़कियों से झांकते हुए लोगों ने क्या देखा कि हाथ में दरांती लिए हुए चाचा नमूदार हुआ. उसने दरांती से सड़क पर लाइन खींची और वारियर्स की पूरी टोली को ललकारा – यह है लक्ष्मण रेखा. अगर हिम्मत है तो इसे लाँघो और फिर देखो. फाड़कर न रख दूं तो कहियो.

फ़िल्म का सीन अब बदल चुका था. दूर खड़े पुलिस वाले उससे दरांती फेंक देने को कहते रहे. एक दरोगा ने पिस्तौल निकालकर गोली मारने की धमकी दी, तो चचा ने अपना सीना खोल दिया. यह सीन देर तक चला. चच्चा ने उम्र भर में जितनी तरह की गालियां सीखी-सुनी थीं, लक्ष्मण रेखा के बॉर्डर पर खड़े-खड़े सुना डालीं, लेकिन ‘ख़ाकी वारियर्स’ टस से मस नहीं हुए. इतने में ‘प्रधान जी’ आ गए. ‘प्रधान जी’ ने चच्चा को समझा-बुझा के घर के अंदर भेजा और पुलिस वालों को वापस चौकी. ख़ाकी की ख़ासी इज़्ज़त अफ़ज़ाई हो ही चुकी थी. तो उन्होंने ‘प्रधान जी’ से कहा कि चच्चा को चौकी तक ले आएं. भरोसा भी दिया कि उसे ले आएं, कुछ कहेंगे नहीं. बड़ी बेइज़्ज़ती हुई है, वह सिर्फ़ माफी मांग ले. ‘प्रधान जी’ ख़ुद तो चौकी पहुंचे, लेकिन चच्चा को नहीं पाए. पुलिस से कह दिया – वह आ नहीं रहा, जाकर पकड़ लाओ. मगर सीन के रीटेक का रिस्क़ न लिया गया किसी से.

सुबह के सात बजने को हैं. तहसील के क़रीब झुग्गियों की बस्ती में हंगामा बरपा था. दरयाफ़्त की तो मालूम चला कि रात को जुटने वाली कच्ची की महफ़िल को लेकर तूफ़ान उठा है. रात की इस महफ़िल में बिला नागा शिरकत करने वाले एक साहबज़ादे के बाप का ग़ुस्सा मेज़बानों पर उतर रहा था.

इधर जब से तालाबंदी हुई है, कच्ची की शान और भाव दोनों में इज़ाफ़ा हुआ है. कोल्ड ड्रिंक की बोतलें लेकर आए डिलेबर बाबू पौने दो सौ में पाव भर भराकर ले गए थे, यह बात भी आज ही पता चली. उन्हें सटीक ठिकाना मालूम था. उस लड़के से ज़िद कर बैठे कि कहीं से भी इंतज़ाम कराए, पउए के बिना तो वह टलने वाले नहीं. उसस कहा कि ‘भाई साहब’ ने कहा था कि तुम ही इंतज़ाम करा सकते हो. ‘पराधीन सुख सपनेहुं नाहीं..’ का भावार्थ समझकर तमाम फार्म वालों ने तो अपना इंतज़ाम ख़ुद ही कर लिया. शहरी शौक़ीनों ने इन दिनों गांवों के अपने परिचितों को ख़ूब याद किया. कुछ का सहारा दोस्त बने. महफ़िलों में इन दिनों ‘हाऊ टू रीच देयर..’ वाली गाइड का ही चर्चा होता रहा है.

नज़राने का भाव अलबत्ता चढ़ गया. मगर तिजारती यह देखकर संतोष कर लेते हैं कि पांच वाला गुटखा पच्चीस में और पांच वाली सुरती की पुड़िया भी तो तीस में मिल रही है. हाल-ए-शहर यह है कि रोज़ाना सुबह थोक वाली दुकानों पर गुटखा-तम्बाकू की तलाश यूं होती है, जैसे कि तालाब में मछली. पिछले दिनों ही दो गाड़ी माल आया था और उतर भी गया.

और परसों का दिन तो सेहरा में समंदर की ख़बर सा गुज़रा. सवेरे से ही क्या पीर, क्या फक़ीर, सब ऐसे जुटे कि बरसों के बिछड़े से गले मिलने निकले हों. सौहार्द के लिहाज़ से आंखों को बहुत सुकून देने वाला मंज़र. बिग बी के वालिद-ए-मोहतरम ने तो जाने कब कह दिया था – बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला.

बहुतों के लिए लॉकडाउन के दिन नींद के थे, नींद थी तो ख़्वाब भी थे – विधायकी के ख़्वाब, चेयरमैनी के, ज़िला परिषद और नहीं तो प्रधानी के ख़्वाब. नींद से जागते ही दावा करते कि अपने इलाक़े में किसी को भूखा नहीं सोने देंगे. पहली फुरसत में झोले जुटाए, झोलों पर अपना नाम छपाया. झोला जब साथ रहेगा, उनकी याद बनी रहेगी. यहां-वहां झोला भेंट करती फोटुयें भी सनद रहेंगी. झोला देने के साथ आगे उनका ख़्याल रखने की मार्मिक अपील भी. अपने सिर पर हाथ भी रखा ले रहे हैं. वोट उन्हीं को देने का मौन क़ौल. उनके झोले में वही सरकारी माल है, जो ग़रीबों को बांटने के लिए सरकार ने कोटेदारों को दिया. जितना ये ले आए, कोटेदार ने उतना ही कम बांटा. मने ग़रीब को जो मिलना था, वही मिला. ज़रिया भर बदल गया. थैले पर नाम छपाने का ख़र्च तो नेता ने उठाया ही न!

रिछा में एक ठेले पर केले सजे हुए. पड़ोस में ही 112 नम्बर की गाड़ी. ठेले पर आए एक शख़्स ने कुछ केले मांगे और फल वाले ने पैसे. वह बोला – पैसे नहीं हैं, घर में कुछ खानको नहीं बचा. बच्चा केला खाने की ज़िद कर रहा है, क्या करूँ? फल वाला अपनी मजबूरी बताता है. कुछ देर की बातचीत के बाद वह शख्स केले की एक हत्थी उठाकर आगे बढ़ जाता है. फल वाला उसके पीछे-पीछे शोर मचाता भागा. 112 वाली गाड़ी के सिपाही ने उतरकर मामला पूछा फिर उस शख्स को दर्जन भर केले दिलाकर भेज दिया. भूखों की मजबूरी और बेबसी का यह सिर्फ़ एक वाक़या भावी का कोई संकेत तो नहीं!

आवरण पेंटिंग | अनन्त

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