एक ख़ंजर पानी में | फंतासी में हक़ीक़त का अक्स

  • 2:12 pm
  • 28 September 2022

अपने उपन्यास ‘एक ख़ंजर पानी में’ का त’अर्रुफ़ कराते हुए ख़ालिद जावेद ने लिखा है कि ये किताब दरअस्ल बहते हुए वक़्त और पानी की किताब है. जो लोग उनके लिखे हुए से वाक़िफ़ हैं, वे उनकी इस बात की भी ताईद करेंगे कि ज़ुबान का एक काम चीज़ों की नुमांइदगी करना ज़रूर है. मगर किसी रचनात्मक आख्यान में शब्द महज़ बाह्य या आंतरिक सच की नुमांइदगी नहीं करते. वरना इस तरह तो हर कला एक दूसरे दर्जे की वस्तु बनकर रह जाएगी. यानी नुमाइंदगी करने का महज़ एक माध्यम रचनात्मक भाषा में शब्द आपस में मिलकर जो आख्यान रचते हैं, उसे अपने आप में एक मुकम्मल और पूर्ण दुनिया होना चाहिए. आत्मनिर्भर और सोद्देश्य सच्चाई.

उनके इस लेखकीय वक्तव्य की रोशनी में ‘एक ख़ंजर पानी में’ पढ़ते हुए हमेशा लगता है कि हम दुनिया के स्याह और सफ़ेद के बीच स्याह हिस्से में सियाही से लिखी हुई हैरत-नाक़ दुनिया की दास्तान से गुज़र रहे हैं. हमारे समय, समाज और इंसानी किरदार के स्याह हिस्से देखने की हिम्मत या यों कहें कि हिमाक़त से समझदार लोग अक्सर बचकर ही निकलते हैं. काजल की कोठरी से दूर रहने का मशविरा बुजुर्ग़ों ने दिया ही है. और उनका लिखा पढ़ते हुए हमेशा यह भी लगता रहा है कि दर्शन की उनकी पढ़ाई कथाकार पर हावी रहती है. उनके लिखे की जटिलता, उनके मेटाफ़र और अहसासात की सघनता के मूल में यही तत्व ज़्यादा समझ आता है. शायद यही वजह है कि उनकी कहन दस्तूर का अतिक्रमण करती चलती है.

‘एक ख़ंजर पानी में’ भी इस लिहाज से अलग नहीं है. हालांकि इस किताब पर हुई चर्चाओं में किसी ने इसे राजनीतिक नज़रिये से व्याख्यायित किया है तो किसी ने अस्तित्ववादी तजुर्बे के तौर पर देखने का मशविरा दिया है, मगर एक पाठक के तौर पर मुझे लगता है कि यह हमारे समय के ऐसे विषय का दस्तावेज़ है जिसे विस्तार से दर्ज करने की ज़रूरत महसूस करने की बजाय बहुतेरों ने उसे केवल ख़बरों का विषय मानकर किनारा कर लिया. और एक ख़ास तरह का पैना व्यंग्य उनकी कहन से अलहदा धार देता है. सियाही या परछाइयों के बावजूद इस धार की चमक में ही मौज़ू जगह-जगह साफ़ और चटख़ होकर दिखाई देने लगते हैं.

अर्सा पहले एक कहानी पढ़ी थी, शहर में ज़मीन के भीतर बिछी पाइपलाइन से पानी की चोरी करके पानी का धंधा करने वाले किरदार से तभी पहचान हुई थी. उस वक़्त इसे लेखक की कल्पनाशीलता मानने से ज़्यादा कुछ सोच नहीं पाया था मगर हाल के वर्षों में ऐसी ख़बरें भी पढ़ीं कि पानी चोर की वह कहानी हक़ीक़त मालूम हुई. ख़ालिद जावेद के उपन्यास में पानी की कहानी दौर-ए-हालिया की हक़ीक़त का बयान ही है, ख़ाम-ख़याली बिल्कुल नहीं.

ज़र्द रंग पूरे उपन्यास में हावी है – पीली धुंध, पीली आँधी, पीला ग़ुबार, पीली आँखें, पीला आसमान, लाइफ़ अपार्टमेंट के पीले पुते हुए मकान, पीला पानी, पीला शरीर और यहाँ तक कि ख़ून के रंग में भी मिला हुआ पीलापन है. तो इस क़दर ज़र्द नज़र आती दुनिया में ख़ालिद जावेद जो कहानी कहते हैं, उसमें दुनिया के तमाम रंग झलकने लगते हैं. अलग-अलग सोसाइटी के फ़्लैट नम्बर 13 में आबाद इंसानों की ये कहानियाँ रेखांकित करती हैं कि पूरी क़ायनात में इंसान के वजूद और कहीं कोई ज़रा-सी की कमी आने से पैदा हुई ख़लिश किस तरह इंसान का किरदार बदल कर रख देती हैं. और अगर वह शै पानी हो तो कहीं ज़्यादा.

आम आदमियों के अलावा इस कहानी में अफ़सर, नेता, डॉक्टर और मीडिया के जिन चेहरों से मुलाक़ात होती है, वे दरअसल बदले हुए दौर में अपने-अपने पेशे की अस्ल नुमांइदगी करते लगते हैं. ख़ालिद जिस तरह उनकी शख़्सियत बयान करते हैं, वे हमें अपने आसपास के मालूम होते हैं. और यहीं वह चमक दिखाई देती है, जिसका ज़िक़्र मैंने पहले किया था.
हाल ही में दुनिया महामारी के जिस दौर से गुज़री है, यह उपन्यास उस दौर की मुख़्तसर दास्तान है. यह ऐसी फंतासी है, जिसमें हम हक़ीक़त देख पाते हैं.

हालांकि ख़ालिद जावेद कहते हैं कि दिल्ली और कभी-कभी बरेली में पानी नदारद होने की मुश्किलों के तजुर्बे के हवाले से उन्होंने कुछ बरस पहले इसे लिखने का इरादा किया था. फिर कोविड का दौर आया तो पुराने तजुर्बे कहीं ज़्यादा सघन हो गए. इस बारे में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि तमाम हिंदुस्तानी ज़बानों, ख़ासतौर पर बंगला और मराठी, में गुज़रे दौर की महामारियों पर ढंग से लिखा गया है मगर हिंदी-उर्दू में बहुत पढ़ने को नहीं मिलता. फ़ख़रुन्निसा नादिर जहाँ बेग़म के ‘अफ़साना नादिर जहाँ’ के हवाले से वह अवध में फैले लाल बुख़ार के ब्योरे का ज़िक़्र करते हैं, साथ ही कहते हैं कि उर्दू में इसके सिवाय उन्हें कुछ और पढ़ने को नहीं मिला.

अब जब दुनिया रफ़्ता-रफ़्ता कोविड के असर से बाहर आ चुकी है, उस दौर के तमाम ख़ौफ़नाक अनुभवों पर वक़्त की गर्द पड़ने लगी है, ‘एक ख़ंजर पानी में’ पढ़ना उस ख़ौफ़ को दोबारा जीने जैसा, ख़ासा उलझाने और परेशान करने वाला तजुर्बा है.

इस उर्दू उपन्यास का हिंदी अनुवाद रिज़वानुल हक़ ने किया है और सेतु प्रकाशन ने छापा है.

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