पुस्तक अंश | अपनी धुन में

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रस्किन बॉन्ड का शुमार हिन्दुस्तान के नायाब और नामचीन लेखकों में हैं. 1950 के दशक की शुरुआत से उन्होंने लिखना शुरू किया और हर उम्र के पाठकों के लिए उपन्यास, संस्मरण, कहानियाँ, निबंध और कविताएं लिखीं. ‘द रूम ऑन द रूफ़’, ‘अ फ़्लाइट ऑफ़ पिजन्स’ और ‘डेल्ही इज़ नॉट फ़ार’ उनके मशहूर उपन्यास हैं; नॉन-फ़िक्शन कृतियों में ‘अ बुक ऑफ़ सिंपल लिविंग’, ‘रेन इन द माउंटेन्स’ और ‘लैंढोर डेज़’ शामिल हैं. ‘टाइम स्टॉप्स एट शामली’, ‘ नाइट ट्रेन एट देवली’ और ‘आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन देहरा’ चर्चित कहानी संग्रह हैं; ‘आई वॉज़ द विंड लास्ट नाइट’ और ‘ए लिटिल नाइट म्यूज़िक’ उनकी कविताओं के संग्रह है; बच्चों के लिए उन्होंने ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ और ‘फ्रेंड्स इन वाइल्ड प्लेसेज़’ जैसी किताबें लिखी हैं. उन्होंने दो किताबों का सह-सम्पादन भी किया है – ‘हिमालय: एडवेंचर्स, मेडिटेशन्स, लाइफ़’ नमिता गोखले के साथ और ‘प्रैंकेंस्टीन: द बुक ऑफ़ क्रेज़ी मिसचिफ़’ का सह-संपादन जेरी पिंटो के साथ. भारत सरकार ने 1999 में रस्किन बॉन्ड को पद्म श्री और 2014 में पद्म भूषण से सम्मानित किया. उनकी आत्मकथा ‘लोन फ़ॉक्स डांसिंग’ का हिंदी अनुवाद ‘अपनी धुन में’ हाल ही में राजकमल प्रकाशन से छपा है. आत्मकथा के पन्नों से एक अंश हम यहाँ छाप रहे हैं. -सं
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो यह खोजने के लिए अपनी वंशावली खँगालते रहते हैं कि उनकी एक परदादी रूस के ज़ार की रिश्तेदार थीं और एक परनाना के भाई तो शायद महारानी विक्टोरिया के महबूब ही थे. मैं यह स्वीकार करके ख़ुश हूँ कि मेरे दादा बॉन्ड एक उम्दा फ़ौजी थे (वे ड्रिल सार्जेंट के ओहदे से रिटायर हुए थे) और मेरे नाना क्लर्क ने उत्तर रेलवे के लिए रेलगाड़ी के मज़बूत डिब्बे बनाने में मदद की थी. दादा अपनी रेजिमेंट के साथ जब इंग्लैंड से आए थे, उनकी उम्र सत्रह साल थी. नाना की पैदाइश डेरा इस्माइल ख़ान में हुई थी, जो सरहद की चौकी वाला इलाक़ा था. वहाँ उनके पिता कमिश्नर के दफ़्तर में क्लर्क थे. उस समय मि. डूरंड वहाँ कमिश्नर हुआ करते थे. ये वही शख़्स थे, जिन्होंने भारत (वह हिस्सा जो अब पाकिस्तान है) और अफ़गानिस्तान के बीच डूरंड रेखा खींची थी.
दादा बॉन्ड पैदल सिपाही थे, इसलिए हमेशा एक छावनी से दूसरी छावनी सफ़र करते रहते, जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके चारों बच्चे अलग-अलग जगहों पर पैदा हुए. मेरे पिता का जन्म 24 जुलाई, 1896 को गर्मी और धूल-धक्कड़ वाले शहर शाहजहाँपुर में हुआ था. उनका बपतिस्मा शाहजहाँपुर के उसी छावनी चर्च में हुआ था, जहाँ क़रीब चालीस साल पहले, 1857 में विद्रोह भड़कने के बाद बाग़ियों ने प्रार्थना के लिए जुटे सभी लोगों को मार दिया था. मेरे पिता के दो भाई थे, जो अपनी कोई अलग पहचान नहीं बना पाए; लेकिन मेरे पिता अच्छे विद्यार्थी थे, और ख़ूब पढ़े-लिखे और जानकार. सनावर मिलिट्री स्कूल से पढ़ाई ख़त्म करने के बाद उन्होंने लवडेल (नीलगिरि) में शिक्षक का प्रशिक्षण पूरा किया. फिर तमाम नौकरियाँ करते हुए वह देश-भर में ख़ूब घूमे, इसमें तब के त्रावणकोर-कोचीन (अब केरल) में मुन्नार के एक चाय बाग़ान में असिस्टेंट मैनेजर के तौर पर नौकरी भी शामिल है. और इस दौरान वह तितलियाँ, डाक टिकट, पिक्चर पोस्टकार्ड, हिन्दुस्तानी रियासतों के राजचिह्न इकट्ठे करते रहे और ऐसा कुछ भी, जो उन्हें संग्रहणीय लगता. अपने शिक्षण-कौशल का इस्तेमाल करके उन्होंने कई रियासतों में ट्यूटर की नौकरी की, जहाँ वह शाही ख़ानदान के बच्चों को अंग्रेज़ी बोलना और लिखना सिखाते ताकि वे अंग्रेज़ी पब्लिक स्कूलों में भेजे जाने लायक़ तैयार हो सकें. जिन दिनों वह मेरी माँ से मिले उन दिनों, वह अलवर रियासत में नौकरी कर रहे थे.
एक महीने की छुट्टी लेकर वह मसूरी के एक बोर्डिंग-हाउस में रह रहे थे. मसूरी देहरादून के ऊपर एक चोटी पर बसा लोकप्रिय हिल-स्टेशन है. यह सन् 1933 की गर्मियों की बात है. तब वह छत्तीस साल के थे. मेरी माँ अठारह वर्ष की थीं, और ‘गन हिल’ की ओट में बने कॉटेज अस्पताल में नर्स का प्रशिक्षण ले रही थीं. यह अस्पताल उनके पुराने स्कूल से ज़्यादा दूर नहीं था. वहीं वे मिले, और उनकी उत्कट व गर्मजोशी-भरी मुलाक़ातों का नतीजा यह कि जल्दी ही मैं वजूद में आ गया.
हम अगर ख़ुशनसीब होते हैं तो हम दिल और देह दोनों से समग्रता में प्रेम करते हैं, और मुझे यह सोचकर अच्छा लगता है कि मेरे माता-पिता ख़ुशनसीब थे. हालाँकि, उन दोनों में से किसी ने इसे कोर्टशिप जैसा कभी नहीं माना, और जब मैं सोचता हूँ कि मेरे कोख में आने से पहले उन्होंने एक-दूसरे के साथ कितना कम वक़्त बिताया तो मैं भी इसे कोर्टशिप नहीं कह पाता हूँ. जज़्बा-ए-इश्क़ मौसम की ज़रूरत थी, और उन्होंने एक-दूसरे को खोज लिया था; इसलिए मेरी पैदाइश में इत्तिफ़ाक़ की भूमिका दूसरे लोगों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा थी.
भावुक—और अक्सर वक़्ती तौर वाले रिश्ते मसूरी में बहुत आम थे; दरअसल इस हिल स्टेशन पर आनेवाले सैलानियों से ऐसे रिश्तों में पड़ने की काफ़ी उम्मीद की जाती थी. ब्रिटिश इंडिया की गर्मियों की राजधानी, शिमला, अमूमन हाकिम-हुक्काम और प्रशासनिक सेवा के महत्त्वाकांक्षी नौजवानों से भरी रहती थी. संयुक्त प्रान्त की राजधानी नैनीताल का हाल भी ऐसा ही था. लेकिन मसूरी ग़ैर-सरकारी क़िस्म का ठिकाना था. यह ऐसी जगह थी, जहाँ लोग अपने बड़े अफ़सरों की हिक़ारत-भरी निगाहों से दूर अपनी निजी ज़िन्दगी जीने चले आते थे. हिमालय के आगोश में आबाद मसूरी, शिमला के मुक़ाबले छोटी जगह थी, और देवदार के पेड़ों की छाँव में पिकनिक के बहाने गुपचुप प्रेम के लिए माकूल भी.
लेकिन गोपनीयता की यह एहतियात हमेशा ज़रूरी नहीं थी; दस्तूर अगर टूटे, भांडा फूटा और बदनामी हुई तो पहाड़ों की रानी उन सारे प्रसंगों को अपने समाजी सलीक़े में शामिल कर लेती. बहुत पहले सन् 1884 में, यहाँ आया कलकत्ता स्टेट्समैन का एक रिपोर्टर, यहाँ के ‘समाज की बदचलनी’ से इस क़दर ख़ौफ़ज़दा हुआ कि उसने दर्ज किया कि ‘चर्च से निकलने के बाद औरतों और मर्दों की भीड़ ने एक शराबख़ाने का रुख़ किया और वहाँ बैठकर एक-दो पेग नहीं, बल्कि ख़ूब छककर शराब पी.’ और यह कि ‘एक फ़ैंसी बाज़ार में एक मोहतरमा कुर्सी पर खड़ी हो गईं और मर्दों को पाँच-पाँच रुपये में चुम्बन देने की पेशकश करने लगीं.’
सन् 1930 के दशक में मसूरी के माहौल में ज़िन्दादिली अपने चरम पर थी. उन्हीं दिनों की बात है कि एक चैरिटी शो में एक और मोहतरमा खड़ी हुईं और उन्होंने अपने एक चुम्बन की नीलामी की. जिसके लिए एक शख़्स ने 300 रुपये की बोली लगाई—उन दिनों इतनी रक़म से शायद एक छोटा कॉटेज ख़रीदा जा सकता था. यही वह साल था, जब मेरे माँ-पिता की मुलाक़ात हुई. बाद में मेरी माँ ने मुझे बताया था कि मेरे पिता की मित्रता उनकी बड़ी बहन एमिली से थी, अक्सर देहरादून आते-जाते हुए जिन्हें वह कुछ वर्षों से जानते थे. मगर बात बनी नहीं.
निजी ज़िन्दगी का यह थोड़ा जटिल इतिहास, और उनके बीच उम्र का फ़ासला भी मेरे माँ-पिता को दाम्पत्य सूत्र में बँधने से नहीं रोक सका, हालाँकि उनकी शादी का कोई दस्तावेज़ मुझे कभी नहीं मिला. लेकिन अगले ही साल कसौली में जारी हुए मेरे बपतिस्मा सर्टिफ़िकेट के लिए यक़ीनन वे मिस्टर और मिसेज़ बॉन्ड बने; इस सर्टिफ़िकेट में सबके पूरे नाम लिखे गए हैं : पिता ऑब्रे अलेक्ज़ेंडर बॉन्ड; माँ एडिथ डोरोथी; शिशु पुत्र ओवेन रस्किन बॉन्ड.
मुझे बाद में मालूम हुआ कि रस्किन नाम मेरे पिता ने ही चुना था. कौन जाने कि मन ही मन उनकी ख़्वाहिश रही हो कि मैं विक्टोरियन जॉन रस्किन जैसा लेखक और चित्रकार बनूँ? इस बाबत मुझे कभी पता नहीं चल पाया. और दूसरा फ़ालतू का नाम, ओवेन, भी उन्हीं का विचार था. वेल्श भाषा में ओवेन का अर्थ ‘योद्धा’ है तो शायद वह चाहते थे कि मैं कलाकार और सैनिक दोनों बनूँ! ख़ैर, एक तरह का कलाकार तो मैं बन गया. मगर मैं बहादुर इनसान बिलकुल नहीं हूँ, और न ही कभी रहा हूँ. मैं अक्खड़ हूँ और अड़ियल तो शर्तिया हूँ, मगर बहादुर हरगिज़ नहीं. तो यह ठीक ही हुआ कि ओवेन को किसी ने ख़ास तवज्जो नहीं दी; और जल्दी ही यह नाम भुला दिया गया.
मुझे नहीं पता कि मुझे जन्म देने के लिए मेरी माँ देहरादून में अपनी माँ के घर जाने के बजाय कसौली क्यों चली गई थीं. मेरे ख़याल से इसकी एक ठीक वजह मुझे गोपनीयता लगती है. बहरहाल, उनका यह फ़ैसला शायद ठीक ही था क्योंकि शिमला के क़रीब शान्त और छोटा-सा हिल स्टेशन कसौली बच्चे को जन्म देने के लिहाज़ से बढ़िया जगह थी, और मेरी माँ की दूसरी बहन भी वहाँ रह रही थीं. उनके पति डॉक्टर थे और पाश्चर इंस्टीट्यूट में काम करते थे. वहाँ से थोड़ी ही दूर सनावर मिलिट्री स्कूल था, जहाँ कुछ वर्षों तक मेरे पिता ने पढ़ाई की थी. कसौली में उनके कई दोस्त भी थे, जिनमें चर्च के पादरी रेवरेंड मैकेंज़ी भी शामिल थे. उन्हीं के चर्च में मेरा बपतिस्मा हुआ था, और इस मौक़े पर सारे परिचित जुटे थे.
मेरे पिता के अनेक शौक़ थे जिनमें एक फ़ोटोग्राफ़ी भी थी, और वे तसवीरें मेरे पास अब भी महफ़ूज़ हैं जो उन्होंने अपने रोलीकॉर्ड कैमरे से खींची थीं, जिनमें जन्म के कुछ घंटे बाद के रस्किन की तसवीर है, एक दिन, दो दिन और एक महीने का रस्किन, और इसी तरह की तमाम तसवीरें. मिलिट्री अस्पताल में नर्स की बाँहों में या घर पर माँ या मौसी या पादरी की पत्नी श्रीमती मैकेंजी के साथ मेरी तसवीर. जब मैं एक महीने का हो गया तो हम कसौली से लौट आए. हमें वहाँ रोकने लायक़ कुछ ख़ास था भी नहीं. वह तो बस बच्चे को जन्म देने के लिहाज़ से माकूल जगह थी. कसौली से मेरे माँ-पिता देहरादून आ गए ताकि मेरे नाना-नानी के साथ कुछ वक़्त बिता सकें.
मेरे पिता को जामनगर रियासत में नौकरी मिल गई, और कुछ हफ़्तों बाद वे वहाँ चले गए. मेरी माँ और मैं कुछ महीनों तक देहरादून में रहे, फिर हम लोग भी जामनगर चले गए. मेरे पास एक तसवीर है जिसमें मैं ‘प्रैम’ में लेटे हुए फूलों और ग़ुलदस्तों से घिरा हुआ हूँ, यह शायद, देहरादून के ही किसी फ़ोटो स्टूडियो में ली गई होगी. इसके पीछे एक छोटा-सा नोट दर्ज है : ‘तुम्हारे बेटे नन्हे ओवेन की तरफ़ से प्यार और एक मीठी चुम्मी.’ मेरी माँ की लिखावट में यह नोट मेरे पिता को सम्बोधित है. आत्मीय स्नेह का जो स्वर इसमें है, उससे अछूता रह जाना मुमकिन नहीं; इसमें एक सुखद अन्तरंगता का भाव है.
मेरे पास माँ की एक तसवीर है, जिसमें उनके पोर्ट्रेट को फूलों से सजाकर मेरे पिता ने फिर से फ़ोटो खींचा है, और फिर उसे उन्होंने अपने हाथ से रँगा भी है. यानी वह पहला साल घर में आनन्द, उमंग और प्रेम का समय रहा होगा. लेकिन यह सब महसूस करने के लिए उस समय मैं बहुत छोटा था.
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किताबः अपनी धुन में
लेखकः रस्किन बॉन्ड
विधाः आत्मकथा
अनुवादकः प्रभात सिंह
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन

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