तनहा लोमड़ी का रक़्स

  • 1:13 pm
  • 7 March 2025

रस्किन बॉन्ड की आत्मकथा ‘लोन फ़ॉक्स डासिंग’ के हिंदी में अनुवाद करने के प्रस्ताव के साथ एक शर्त यह भी थी कि अगर मैं अनुवाद न करना चाहूँ तो कोई बात नहीं, पर मुझे भेजी गई किताब की प्रति लौटा ज़रूर दूँ. और बॉन्ड की कहानियाँ पढ़ते, अपने और दोस्तों के बच्चों को पढ़ाते रहने के अपने बरसों तजुर्बे की बिना पर मैंने हामी भर दी थी. अनुवाद के लिए कुछ प्रसंगों, पन्नों को कई बार पढ़ने के दौरान तमाम तरह के नए अनुभवों से गुज़रा हूँ. यह सही है कि वह आला दर्जे के क़िस्सागो हैं, मगर उनकी ज़िंदगी के पन्ने पलटते हुए जिस बॉन्ड से हम मिलते हैं, वह अपनी तरह के धुनी और ज़िद्दी और बेतरह नाज़ुक मिज़ाज इंसान भी हैं.

यों आत्मकथा पढ़ना कोई बढ़िया पीरियड फ़िल्म देखने जैसा, या फिर टाइम मशीन में बैठकर अतीत के सफ़र जैसा तजुर्बा हो सकता है पर अगर यह रस्किन बॉण्ड सरीखे क़िस्सागो की आत्मकथा हो तो आप ऐसी चीज़ों के नाज़ुक और ला-सानी ब्योरों से भी दो-चार होते हैं, जो अपनी निगाह से देखते वक़्त छूट भी सकते हैं. इस क़िस्म के ब्योरे ज़ाहिर हैं, और पोशीदा भी और दोनों ही सूरतों में असर रखते हैं. वे लोग जो रस्किन बॉण्ड की कहानियाँ या उपन्यास पढ़ते आए हैं, उनको यह आत्मकथा पढ़ते हुए कई जगह ऐसा लग सकता है कि यह प्रसंग तो पहले कहीं पढ़ा हुआ लगता है, और यह अहसास दरअसल इस बात की गवाही है कि उनके क़िस्सों के किरदार, और वाक़ये भी, कितने सच्चे हैं, और कैसे ज़िंदगी से निकलकर उनकी कहानियों का हिस्सा बनते आए हैं.

यह आत्मकथा पढ़ना उनकी कहानियाँ पढ़ने से ज़रा भी कम दिलचस्प नहीं है, अपनी ज़िंदगी की कहानी सुनाते हुए भी वह चौंकाते हैं, भावुक और द्रवित करते हैं, हालात की मंज़रकशी और हाज़िरजवाबी के अपने हुनर से गुदगुदाते हैं, रहस्य रचते हैं, रहस्योद्घाटन भी करते हैं और बड़ी बेबाकी से अपना मन खोलकर पढ़ने वालों के आगे पेश करते हुए यह डिस्क्लेमर भी दर्ज करते चलते हैं कि ज़रूरी नहीं कि ज़िंदगी का हर कोना-अंतरा साझा करने के लायक़ ही हो. फिर भी, कहानियों-किताबों के उनके विपुल-समृद्ध संसार को समझने के बहुतेरे सूत्र यहाँ मिल जाते हैं.

आमफ़हम ज़बान में क़िस्से कहने का उनका सलीक़ा हिंदुस्तान के घरों में नानी-दादी के कहानी सुनाने से बहुत अलग नहीं है और इस लिहाज़ से देखें तो कितनी ही पीढ़ियों के लिए वह घर के बुज़ुर्ग की भूमिका निभाते आ रहे हैं. और यह बात भी हम जानते ही हैं कि सरल-सहज लिखना थोड़ा मुश्किल भरा काम है. तो ऐसी सादा ज़बान कहानी के अनुवाद में रवानी और सादगी क़ायम रखना कुछ मशक़्क़त भरा तो है ही. और उनकी उस कविता ‘लोन फ़ॉक्स डासिंग’ का, जो अंग्रेज़ी में इस आत्मकथा का शीर्षक भी है, अनुवाद करते हुए कई दिनों तक पस-ओ-पेश में रहा. गद्य की तरह उसे हिंदी में ले आना मुझे गुनाह लगता था और पद्य में बात कहने का सलीक़ा मुझे आता नहीं, फिर भी बड़े संकोच के साथ यह जतन किया. ऐसा नहीं कि इस आत्मकथा में दर्ज उनकी दूसरी कविताओं का भावानुवाद कुछ आसान तजुर्बा रहा. नज़ीर के तौर पर मूल स्वरूप में उनकी दो कविताएं और उनका अनुवाद देखिए,

परिंदों और पेड़ों के नामों में स्थानीयता का मेरा आग्रह भी ऐसी ही एक वजह रही. मुझे लगता था कि हिंदी अनुवाद में अगर परिंदों के गढ़वाली में प्रचलित नाम आ सकें तो ज़्यादा मुनासिब रहेगा. अब गढ़वाली की कौन कहे, कुछ परिंदे तो ऐसे निकल आए जिनके हिंदी नामों को लेकर भी कई शब्दकोश और किताबें खंगालनी पड़ीं. ऐसे में दीपेंद्र जी याद आई, दीपेंद्र सिवाच ने अर्से तक देहरादून आकाशवाणी में काम किया है, उन दिनों वह वहीं थे. उन्होंने रिटायर्ड डीएफ़ओ नरेंद्र सिंह से बात की, और जिन पाँच-सात नामों को लेकर मैं ख़ासी उलझन में था, उनसे बात करके झट समाधान मिल गया.

हॉलीवुड की अभिनेत्री ब्रुक शील्ड के साथ रस्किन बॉन्ड का नाम जोड़कर सुनाया जाने वाला निर्दोष क़िस्म का एक मौलिक लतीफ़ा हमारे स्कूल के दिनों की याद है. बॉन्ड को पढ़ने वाले हमारी क्लास के एक लड़के ने सुनाया था—रस्किन के ब्याह करने के प्रस्ताव पर रज़ामंदी के बाद ब्रुक शील्ड ने इस डर से इन्कार कर दिया कि लोग उसे मिसेज़ ब्रुक बॉण्ड कहना शुरू कर देंगे. उस ज़माने में ऐसे लतीफ़े भी लुत्फ़अंदोज़ किया करते थे. फिर भी रस्किन के ताउम्र कुँवारे रह जाने को लेकर बहुतेरे वयस्क पाठकों की जिज्ञासा का जवाब इन पन्नों में मिल जाता है, और यह भी कि रस्किन बॉन्ड होना जेम्स बॉन्ड होने से किस तरह मुख़्तलिफ़ है!

यह किताब एक ज़िंदादिल, जुझारू और कल्पनाओं के चितेरे हिंदुस्तानी की ज़िंदगी का दिल-फ़रेब बयान है, लेखक के तौर पर, जो हर पढ़ने वाले को अपना-सा लगता है. वह अंग्रेज़ी में लिखते हैं मगर हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के पढ़ने वालों के भी हम-कलाम हैं. इस आत्मकथा के अनुवाद के दौरान रस्किन की सृजन की दुनिया को क़रीब से देखने के साथ ही मैंने सिनेमा-संगीत-साहित्य की अनूठी दुनिया की फ़ौरी नागरिकता भी हासिल की, कई ऐसे किरदारों से मिल सका जिनसे पहले कभी वाक़फ़ियत नहीं रही. मेरे लिए यह ख़ासा दिलकश तजुर्बा रहा है.

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