पुस्तक अंश | अरसलान और बहज़ाद

  • 12:18 am
  • 2 October 2025

प्रो.ख़ालिद जावेद के कुछ अर्सा पहले छपे उर्दू उपन्यास ‘अरसलान और बहज़ाद’ का हिंदी अनुवाद राजकमल प्रकाशन से छपकर आ रहा है. बरेली में 4 अक्टूबर से शुरू होने वाले किताब उत्सव में इस उपन्यास का लोकार्पण होगा और इस पर बातचीत भी होगी. उपन्यास का अनुवाद इक़बाल हुसैन ने किया है. यहाँ हम इस उपन्यास का एक अंश दे रहे हैं. – सं

संगीतकार, अगर वह एक वास्तविक संगीतकार है, तो उसे शब्द कभी पसन्द नहीं आएँगे. संगीत हमेशा अमूर्त होता है. इसे सन्नाटा अपनी ओर बुलाता है. हर वाद्य, हर राग, हर सुर, यह सब सन्नाटे के कपड़ों को बहुत पहले से पहनकर तैयार होकर वाद्य यंत्र में समा जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे फाँसी के तख़्ते पर जाने वाला व्यक्ति मृत्यु का वह विशेष वस्त्र पहन लेता है, जो उसे जेल प्रशासन उपहार के रूप में पेश करता है. संगीत को शब्द पसन्द नहीं होते, यद्यपि भिन्न-भिन्न अक्षरों से निकली हुई कुछ आवाज़ें उसकी नींव में ज़हरीले साँप की भाँति विद्यमान होती हैं, जिसकी फुफकार को संगीत अपनी लय और राग में अर्थहीन करके रख देती है, किन्तु अर्थपूर्ण शब्द बेवजह उसकी दुनिया में ख़लल डालते रहते हैं. जैसे बिन बुलाए मेहमान के लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है, वैसे ही संगीत को भी अपनी प्रकृति और स्वभाविक झुकाव के विरुद्ध न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है. शब्द अक्सर षड्यंत्रकारी होते हैं और हमेशा निजी होते हैं. प्रसंग ही वह दीवारें है जहाँ इन भूतों को क़ैद किया जा सकता है. सन्दर्भ से बाहर आते ही शब्द इनसान पर आसेब की तरह सवार हो जाते हैं और फिर इनसानों को उसी तरह इस्तेमाल करने लगते हैं जैसे एक तेज़ धार वाला बेशर्म उस्तरा लालची और नकलची बन्दर को.

वास्तविक संगीत एक सपने जैसा होता है या सपना ही संगीत होता है. सपने संगीत की तरह हमसे कुछ ऐसा कहते हैं जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन प्रभावित होते हैं, इतनी बुरी तरह प्रभावित कि कोई भयानक सपना देखकर हम पसीने में शराबोर हो सकते हैं, और यहाँ तक कि अगर सही समय पर आँख न खुले तो हमारे दिल की हरकत बन्द हो सकती है. संगीत अगर इस हद तक नहीं, तो भी हमें बेहद उदास भी कर सकता है और ख़ुश भी.

‘Magic Flute’ देख और सुनकर तो ख़ैर बहुत से लोगों को दिल का दौरा पड़ ही चुका है. वे लाख थिएटर सही लेकिन हमारी इन्द्रियों, स्नायुओं पर जो चीज़ सबसे ज़्यादा असर डालती है, वह उसका संगीत ही है. शायद संगीत पूरी तरह से मनुष्य से सम्बन्धित नहीं है. उसका सम्बन्ध ख़ुदा से भी नहीं है क्योंकि ख़ुदा भी अपने पवित्र ग्रंथों में बहरहाल बोलता है. संगीत एक रहस्य है. इसलिए हो सकता है कि वह सिर्फ़ मरे हुए लोगों से सम्बन्धित हो.

बिना शब्दों के किसी वस्तु का प्रतिनिधित्व करना वास्तव में हमें इस दुनिया के बारे में सच्चा और वास्तविक ज्ञान देने के बराबर है. यह एक प्राचीन पाठ है जिसे हमने भुला दिया है. ठहरिए, यह कहा जा सकता है कि सपनों में शब्द होते हैं, मगर जाग जाने के बाद हम जान जाते हैं कि इन शब्दों के कोई अर्थ नहीं थे. वे सिर्फ़ आवाज़ें थीं. वे किसी मूर्त वस्तु का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे. इसके बावजूद सपनों से हमने जो कुछ सीखा है, जो कुछ हासिल किया है, वह हमें सारी दुनिया के शिक्षण संस्थान मिलकर भी प्रदान करने से असमर्थ हैं.

अरसलान अभी-अभी सोकर उठा है. पचास वर्षीय अरसलान, मजबूत अंगों का मालिक, लम्बे कद वाला अरसलान, जिसके पैर पलंग के बाहर निकले हुए हैं. पलंग उसके कद से लम्बाई में छोटा पड़ जाता है. वह हमेशा चित् लेटकर सोता है. उसने आज तक कभी सोते में अपनी करवट नहीं बदली. नवम्बर का महीना शुरू हो गया था. नवम्बर का महीना शुरू होते ही उसके दिल पर जैसे एक लुढ़कता हुआ पत्थर आकर गिर जाता है, फिर वह पत्थर वहाँ से हिलता नहीं. नवम्बर का महीना अजीब महीना है. यह कोई महीना नहीं है,उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है. यह बस दिसम्बर की आने वाली काली सर्दियों और अँधेरी रातों के स्वागत में तीस दिन पहले से ही हाथ जोड़े खड़ा है और तत्काल इसका काम सिर्फ़ यह है कि सुबह और शाम की हवाओं को थोड़ा ठंडा करता रहे, वह हवाएँ जिन पर अभी गुज़रे हुए दिनों के पसीने की नमी हैं. खिड़की से ऐसी ही हवा का एक झोंका अन्दर आ गया. अरसलान ने इसे अपने माथे और चादर से निकले हुए अपने पैरों के पंजों पर महसूस किया. वह उठकर बैठ गया है और अपनी उन आँखों को मसलने लगा है जिनसे अभी-अभी एक सपना निकलकर सुबह की हवा और रोशनी में विलीन हो गया है. सपने में उसने कोई संगीत रचा था, लेकिन अब याद नहीं आ रहा कि वह क्या था. वह अपना माथा रगड़ने लगा.

एक सप्ताह से लगातार यही हो रहा है जब से उसे वह पत्र प्राप्त हुआ है. वह इस पत्र को किसी घनिष्ठ मित्र का मज़ाक़ समझता है, या कोई चुटकुला. वह इस पत्र को गम्भीरता से ले ही नहीं सकता. लेकिन इस लतीफ़े के बाद एक बदलाव तो आया है. उसे सुबह उठकर अपने सपने याद करने की झक सवार हो गई है. यही नहीं वह उन सपनों को भी याद करना चाहता है जो उसने कभी देखे थे. बचपन के सपने और उसके बाद के सपने. मगर अफ़सोस कि उसे कोई सपना याद नही रहता था. न कल रात का देखा हुआ और न पुराना. इस कोशिश में उसके सिर के बाएँ ओर दर्द रहने लगा है. उसकी आँखों की रोशनी भी पहले से कमज़ोर हो गई है. एक हफ़्ते पहले अरसलान अपनी आँखों की जाँच करवाने डॉक्टर के पास गया था. डॉक्टर ने आँखों का निरीक्षण करने के बाद उसे चश्मे के नये नम्बर का कार्ड देते हुए हँसकर कहा था :
“कोई बात नहीं, नम्बर ज़्यादा नहीं बढ़ा. आप संगीतकार हैं. संगीतकार और घड़ीसाज़ की दूर की नज़र नित् कमज़ोर होती है.”

उसका बस चलता तो वह सपनों को अपनी मुट्ठी में कस कर जकड़ लेता, मगर सपने तो बिलकुल चिकनी मछली की तरह थे. वे पकड़ में नहीं आते थे और कुछ पलों के बाद धुएँ की तरह उसके दिमाग़ की दीवारों से छन-छनकर ग़ायब हो जाते थे. उसे यह भ्रम पहले कभी नहीं हुआ था, मगर अब एक सप्ताह से लगातार हो रहा है कि जब रात में वह सपने देखता है तो वास्तव में दुनिया को वह भी उतना ही प्रदूषित करता है जितना कि दुनिया उसे. वह सपना देखते समय रात के उस पेड़ की तरह हो जाता है जो अँधेरे में ज़हरीली जानलेवा कार्बन डाइऑक्साइड गैस छोड़ता है. वह एक बदबूदार घाव को साथ लिए-लिए चल रहा है. यह घाव शायद दिल के ऊपर बाईं ओर है. घातक गैस का ज़हरीला सोता यहीं हो सकता है.

अरसलान ने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा मगर उसकी आँखों पर चश्मा न था. घड़ी के अंक नज़र आए मगर सूइयाँ नहीं. दोनों में यही तो अन्तर है. अंक हमेशा पारदर्शी और ईमानदार होते हैं, और सूइयाँ द्वेषी. वह केवल मुश्किल से नज़र आने, जादू-टोना करने और चुभोने के लिए बनाई गई हैं. लेकिन फिर उसे याद आया कि यह नवम्बर का ज़माना है. यह सिरे से समय ही नहीं है, यह समय के महान और अनन्त समुद्र से कटा हुआ कोई बदनसीब द्वीप. यह वह दिन हैं जब समय को घड़ी में देखने का कोई अर्थ नहीं होता.

अरसलान के वाद्य यंत्र कमरे में चारों ओर बिखरे हुए थे. वह बिस्तर से उठकर उन्हें क़रीने से लगाने लगा. उन पर धूल जमी हुई थी. पिछले एक हफ़्ते से उसने उन्हें हाथ भी नहीं लगाया था और म्यूज़िक क्लासेज़ भी नहीं ली थी. खिड़की से हवा का एक झोंका फिर अन्दर आया, इस बार थोड़ा तेज़ था. मेज़पोश और पर्दे धीरे-धीरे हिल रहे थे. ठीक उसी समय अरसलान को लगा जैसे सारंगी बोल उठी हो. उसने सारंगी को उठाया, ध्यान से देखा. सारंगी उसकी उँगलियों के स्पर्श के बिना गूँगी थी. ये एक के बाद एक भ्रम मुझे होने लगे हैं, अरसलान ने सोचा. वह सारंगी को अपनी गोद में लिए खड़ा रहा. सारंगी ज़्यादा भारी नहीं थी. यह जिस लकड़ी की बनी थी वह बहुत उत्तम रही होगी. अरसलान की गोद में वह एक छोटे बन्दर के समान थी. अरसलान ने सारंगी का पेट सहलाया, जिसकी चमड़ी के नीचे भेड़ की खाल मंढी हुई थी. फिर उसने सारंगी के उस उभरे हुए हाथी की शक्ल जैसे जोड़ पर हाथ फेरा जो पेट और छाती को आपस में जोड़ता है और ऊँट की हड्डी से बना है. फिर अरसलान ने धीरे से सारंगी के सिर या मग़ज़ को छुआ, क्या तुमने भी सपना देखा. तुम भी सपने याद करने में इनसानों की तरह नाकाम हो. अरसलान ने निराशा के साथ सोचा.

वैसे तो यह सब जानते है कि भारतीय संगीत में जितने भी वाद्ययंत्र हैं वह इनसानी आवाज़ के विकल्प के रूप में उपयोग किये जाते हैं और कोमल वेदना की दशा को व्यक्त करते हैं. उदाहरण के लिए, यदि हम सन्तूर को बजते हुए सुनें तो बिलकुल ऐसा लगता है जैसे सीने के अन्दर से दिल के अनगिनत टुकड़े टूट-टूटकर बाहर गिर रहे हों. इसके विपरीत, सितार की ध्वनि कुछ ऐसी है जैसे कोई आत्मा के घावों पर धीरे-धीरे मरहम लगाता है. ठंडा मरहम जिससे घाव नहीं भरते बस कुछ देर के लिए उनकी जलन ग़ायब या कम हो जाती है और जहाँ तक तबले का सवाल है, उसकी थाप और धमक कानों से होकर दिल तक पहुँचती है, मगर वहीं नहीं रुक जाती. दिल से वह पाताल में उतर जाती है और हमें ऐसा लगता है जैसे धरती हिल रही है, भूकम्प के झटकों की तरह नहीं, बल्कि जैसे किसी नशे में धीरे-धीरे झूमती हुई शून्य में घुल रही है.

शहनाई, सरोद, तानपुरा, मृदंग, बाँसुरी, ये सब मनुष्य की ध्वनियाँ हैं जो लकड़ी की खोखली फुकनियों में सरसराती हुई हवा की मोटी चादर में लिपटी हुईं आराम से सो रही हैं, मगर मनुष्य के होंठ, उसकी साँस और उसकी उँगलियों के पोरों और नाख़ूनों का एक हल्का स्पर्श भी उन्हें जगा देता है. शहनाई जिसमें मनुष्य की सांसें, उसके दुख और सुख आवाज़ में आत्मसात् करके दूर-दूर तक बिखेर देती हैं, मगर जिसमें सिर्फ़ दो ही सुर हैं.

मगर सारंगी, अरसलान ने सोचा. उसने छोटे बन्दर को अपनी गोद से उतार कर फ़र्श पर एक कोने में रख दिया. अरसलान ने एक सिगरेट निकाल कर सुलगाया. सुबह का पहला सिगरेट, जिसके बाद फेफड़े प्रतिदिन के जीवन की कालिख को मिटाकर पैरों में नया ताज़ा ख़ून भर देते हैं और आदमी अपने परेशान करने वाले सपनों के बारे में सोचना बन्द कर देता है. अरसलान को फिर लगा जैसे सारंगी धीरे-धीरे हँसी थी.

यद्यपि सारे वाद्ययंत्र इनसानी आवाज़ों के विकल्प हैं, मगर सारंगी तो जैसे बाक़ायदा इनसानी आवाज़ों की नक़ल करने के लिए पैदा हुई है. विशेष रूप से,गहरे दुख में दिल से निकलने वाली आवाज़, जो गले, तालू, जीभ और जबड़ों से गुज़र कर उदास स्पन्दन के साथ मुँह से बाहर आती है और जिसे कोई नहीं सुनता, सिवाय चीड़ों के जंगल के. सारंगी को मालूम नहीं कैसे इन आवाज़ों का पता चल गया. जवान औरत की उदास आह से लेकर एक बूढ़े आदमी के कराहने तक और युद्ध के मैदान में घायल की चीख़ से लेकर मासूम सोते हुए बच्चे के मुँह से निकली सिसकी तक. सारंगी जासूस है. इनसान के कष्टों और उसके घावों की जासूस. हर किसी को कभी न कभी एक जासूस की ज़रूरत ज़रूर पड़ती है. प्रेम स्वयं एक जासूस है, वह जिसके लिए होता है उसका कुछ भी प्यार से छिपा नहीं होता. दो प्रेमी, लम्बा समय गुज़र जाने के बाद एक दूसरे के लहज़े और आवाज़ की नक़ल करने लगते हैं. उनके बीच की दीवारें कब टूटकर गिर जाती हैं, उन्हें ख़ुद पता नहीं चलता.

मगर सपना, किसी के सपने तक पहुँचा तो जा सकता है, उसे समझा भी जा सकता है, उसकी ताबीर भी बताई जा सकती है, मगर उसे याद नहीं रखा जा सकता. कोई भी जासूस यह काम नहीं कर सकता कि दूसरों के सपनों में छुप-छुपकर जासूसी करता फिरे. आख़िर वह अपने सपनों को कब देखेगा. अफ़सोस इस बात का है कि अच्छे सपने कभी याद नहीं रहते. वे बर्फ़ के टुकड़ों की तरह होते हैं जो थर्मस से निकालते ही पिघल कर बह जाते हैं. यहाँ सपनों का मामला असल ज़िन्दगी से बिलकुल उलट है क्योंकि कहा जाता है कि इनसान कड़वी और दर्द भरी बातें ज़्यादा दिन तक याद नहीं रख सकता नहीं तो पागल हो जाएगा. वह अच्छी और मीठी यादों के सहारे ही जीवन गुज़ारता है. यहाँ वह इनसान भी हो सकता है और उसकी बुद्धि भी. क्योंकि वास्तव में पागल तो केवल बुद्धि ही होती है, या आत्मा. शरीर को पागल हो जाने में कोई दिलचस्पी नहीं. मगर केवल बुरे और डरावने सपने ही ज़्यादा याद रहते हैं. कभी-कभी तो कुस्वप्नों का एक लगातार सिलसिला ही हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है मगर अरसलान को अपने सपने याद नहीं. उसे तो डरावने सपने या उनकी परछाइयाँ भी याद नहीं. उसे कोई सपना नहीं आता. इसलिए वह सारंगी से यह उम्मीद करता है कि वह उसके पुराने सपनों में निकली हुई आवाज़ों, सिसकियों, कराहों और चीख़ों की नक़ल करे, मगर सारंगी सिर्फ़ हँसती है क्योंकि वह जानती है कि अरसलान की उँगलियों के स्पर्श मिले बिना वह किसी आवाज़ की नक़ल नहीं कर सकती. भले ही वो आवाज़ें सपने की आवाज़ें ही क्यों न हों.

क्या सपने में शरीर होता है? अरसलान बचपन से ही यह सवाल करता आया था. मगर शरीर तो बिस्तर पर ख़र्राटे ले रहा था. ये बातें अरसलान की समझ में न तब आती थीं और न अब. अरसलान ने सिगरेट को फ़र्श पर मसल दिया और केतली का सुइच ऑन करके चाय के लिए पानी उबालने लगा.

अरसलान बेचैन स्वभाव का तो हमेशा से था और कुछ ऐसी स्थिति में गिरफ़्तार रहने वाला जिसे आसानी से अवसाद और घृणा दोनों का नाम दिया जा सकता है, मगर सम्भव है कि यह कोई और अवस्था हो. कुछ स्थितियाँ अपने मुँह पर हमेशा मुखौटा लगाए रहती हैं. ये झूठ एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं, लेकिन इन स्थितियों के वास्तविक चेहरे अलग-अलग हैं. अरसलान ख़ुद नहीं जानता कि उसके साथ क्या हो रहा है. बस इतना पता है कि यह ख़ब्त या पागलपन उस दिन के बाद ही पैदा हुआ है जब डाकिये ने उसे वह लिफ़ाफ़ा लाकर दिया था. लिफ़ाफ़ा, जिसमें एक पत्र था. और जिसे आज एक हफ़्ता बीत जाने के बाद भी अरसलान भुला नहीं सका, यद्यपि वह इस चिट्ठी को एक मज़ाक़ या लतीफ़े से ज़्यादा महत्त्व नहीं देता.

सम्बंधित

मैं तफ़रीह के लिए नहीं लिखता, न चाहता हूं कि लोग इसे तफ़रीहन पढ़ेंः ख़ालिद जावेद


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.