किताब | मिट्टी की भीत पर जिंदगी की इबारत
‘मिट्टी की तरह मिट्टी’ सीरज सक्सेना और राकेश श्रीमाल के बीच संवाद की ऐसी किताब है जो सीरज के कला और सृजन संसार के साथ ही उनके जीवन, सपनों और संघर्षों को भी दर्ज करती है. आमुख में अरुण देव ने इस किताब के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि हिन्दी समाज की सांस्कृतिक और वैचारिक साक्षरता के लिए यह ज़रूरी है कि कला और सामाजिक अनुशासनों की मौलिक किताबें हिन्दी में छपें. किताब के 39 सवालों में से एक सवाल और उसका जवाब,
आप मिट्टी में भी साधिकार काम करते रहे हैं. लेकिन यहाँ सवाल उस माध्यम पर नहीं है. वह यह है कि चित्र बनाने की प्रक्रिया में, भूदृश्य को रचते हुए या रंगों का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी में काम करने के अनुभव इनमें भी साझा होते हैं क्या?
चित्र बनाते हुए जब सफ़ेद कैनवस पर रंग लगते हैं तब मुलायम गीली सतह मिट्टी की मुलायम तरलता का आभास देती है. फिर सोचता हूँ तो पाता हूँ कि यह कैनवस, रंग, पानी सब कुछ तो ज़मीन से ही आया है. सब कुछ मिट्टी ही से आई…मिट्टी की माया है. मनुष्य भी धरती का ही एक प्राणी है और इस तरह अनेकों (अनगिनत) प्रजातियों जीव-जन्तु, जलचर/नभचर आदि हैं जिनकी जानकारी अभी भी अधूरी है या यूँ कहें कि मनुष्य की आँखें अभी तक उन तक पहुँच नहीं सकी हैं. मिट्टी में काम करते हुए माटी आकार को घूमकर तीनों दिशाओं से देख पाना सम्भव है पर चित्रकला में तीनों नहीं बल्कि चारों दिशाएँ अपने सामने बिछी सतह पर ही उकेरता हूँ. रंगों से तो कभी रूप और रेखाओं से सतह के भीतर गहरे उतरने का सुख, रहस्य रोमांचकारी है. मिट्टी की यह सजगता कि हम मिट्टी हैं हमारे आसपास सब मिट्टी का ही रूप है. और यही आकर्षक रोमांच है कला का भी, कलाकारी का भी और मिट्टी होने की लाचारी का भी. पर यह कला दृष्टि पश्चिमी कला दृष्टि से भिन्न है. रंगों की परत चित्र में सहजता से चढ़ती है इसे हम मिट्टी की भाषा में ग्लेज़िंग कहते हैं. जो कि विशुद्ध रासायनिक क्रिया है. जिसमें गहरे उतरने की मेरी रुचि कभी नहीं रही है.
पर कैनवस पर रंग ज़मीन पर हरियाली (तमाम रंगीन अनुभव) की तरह बढ़त लेता है. हर रंग की अपनी एक ख़ुशबू होती है. रंग के सूखने के साथ ये ख़ुशबू भी जम जाती है कैनवस पर. फिर उसे अनुभवी आँखें महसूस करती हैं. ये आँखें (देखना) अब देश और काल की सीमा से परे हैं. मिट्टी के थोड़ा सूखने और फिर शिल्प की बढ़त का अभ्यास यहाँ भी रंग के सूखने और फिर उस पर दूसरे रंग के चढ़ने की ही तरह है. रंग पर जब रंग चढ़ता है तो वह अपनी छाया भी ख़ुद रंग में ही बनाता है (कभी एक तीसरे रंग में) वहाँ मिट्टी के शिल्प पर जब कोई अन्य आकार चढ़ता है तो रोशनी की परछाईं मिट्टी की सतह पर उभरती है. रोशनी के बदलने से यह परछाईं भी बदलती है. रोशनी का महत्त्व दोनों ही सतह पर है. दोनों का आभास भी भिन्न और अनूठा होता है.
चित्र रचते हुए रंगों और रेखाओं के बहाव और उनकी नर्मी में देह के भीतर का जल भी छलकता है और जिस तरह हाथों की ऊष्मा से मिट्टी शनै:-शनै: कठोर होती है उसमें शामिल जल की विरक्ति ही मिट्टी के रूप को पूर्णता देती है, उसी प्रकार गीले रंगों का जल जैसे ही सूखता है कैनवस पर चित्र पूर्ण होता है. यह जल अनुभव और उसका विरह दोनों ओर समान है. जल का विलोप ही दोनों ओर कला को पूर्णता देता है. जल ही चित्रारम्भ के लिए एक बेहद ज़रूरी घटक भी है. जैसे, जल एक तरल कल्पना का प्रतीक हो. चित्ररत रहते हुए इस जल का भी भान होना बेहद ज़रूरी है; यह पाठ मैंने मिट्टी से सीखा है. मिट्टी को सूखने के पहले ही उसे शिल्प में तब्दील करने या उसके जड़ होने के पहले ही उसे एक शिल्प के रूप में पुनर्जीवित करने की ही चुनौती कलाकार का असली संघर्ष है. देह के भीतरी जल और जल रूपी वाहन पर सवार रंग के कैनवस पर अवतरण होने और उसके लुप्त होने के बीच ही कलाकार अपनी रचना करता है. पर सभी कलाकार इस बात के प्रति सजग और सचेत हों ये ज़रूरी नहीं. मिट्टी में काम करने का यह फल है कि मैं इस जल तत्त्व के प्रति सचेत रहता हूँ. अपने भीतर के जल को भी पोषित करता हूँ ताकि जल सूख न जाए और ख़ुद भी जड़ न हो जाऊँ. कबीर ने कहा ही है –
बिन पानी सब सून
पानी केरा बुलबुला
अस मानस की जात.
यह भी किसी ने कहा है. मिट्टी और पानी का सम्बन्ध मृतिका कला में साफ़ नज़र आता है पर चित्रकला में यह थोड़ा गौण ही होता है. शायद इसका कारण है पानी में घुलकर जब रंग कैनवस पर आता है तब उस रंग की यथार्थ उपस्थिति और आकर्षण बहुत गहरा होता है. हमारी आँखें सिर्फ़ रंग की ही परिधि में गुम हो जाती हैं. यह रंग की ऊर्जा और शक्ति का कमाल है. जबकि मिट्टी में काम करते हुए हम पाते हैं कि मिट्टी अमूमन धूसर, लाल या काली आदि रंग की होती हैं. मिट्टी को हम रंगहीन भी कह सकते हैं और इसी वजह से
मिट्टी में काम करते हुए त्रिज्यामितीय रूपाकार गढ़ने में ही कलाकार रमा होता है. मिट्टी में मिट्टी की छुअन इस रंग की कमी को मुखर नहीं होने देती वह मनुष्य के संवेदन को जगाती है. यह उत्तेजना भी अद्भुत है जबकि चित्र रचने में रंग का आकर्षण चित्रकार को उत्तेजित (मुग्ध) रखता है. चित्र बनाते हुए यह ध्यान नहीं रहता है कि हम कुछ कर रहे हैं बल्कि जैसे रंग की तरलता में डूब जाते हैँ और समय खड़ा कैनवस को अपलक ताकता रहता है.
(सेतु प्रकाशन से छपी यह किताब इस साल की शुरुआत में आई.)
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