पुस्तक अंश | धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर

  • 7:33 pm
  • 31 October 2023

(भारत में बीबीसी के संवाददाता के तौर पर जितनी शोहरत मार्क टली ने पाई, उतनी शायद किसी और ने नहीं. उन्होंने भारत पर कई किताबें लिखी हैं, जिनमें इंडिया इन स्लो मोशन, नो फ़ुल स्टॉप्स इन इंडिया, द हार्ट ऑफ़ इंडिया, डिवाइड एंड क्विट, लास्ट चिल्ड्रेन ऑफ़ द राज, फ़्रॉम राज टू राजीव-40 ईयर्स ऑफ़ इंडियन इंडिपेंडेंस और अमृतसर: मिसेस गाँधीज़ लास्ट बैटल ख़ास हैं. अपकंट्री टेल्सः वंस अपऑन ए टाइम इन द हार्ट ऑफ़ इंडिया पूर्वांचल की क़स्बाई ज़िंदगी पर लिखी उनकी सात कहानियों का संग्रह है. धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर नाम से राजकमल प्रकाशन ने हाल ही में इन कहानियों का हिंदी अनुवाद छापा है.-सं)

हरी झंडी हिलाते हुए गार्ड ने सीटी बजाई, ड्राइवर पैट थॉमस ने एहतियात के साथ धीरे-धीरे
रेगुलेटर घुमाया, फ़ायरमैन ने बड़ी सफ़ाई से बेलचे में कोयला भर-भर के गुलाबी-लाल लपटों से
दहकते फ़ायरबॉक्स में झोंकना शुरू किया, और शहंशाह अकबर से मिले नाम वाला वह इंजन,
लोकोमोटिव नम्बर 2071, आहिस्ता-आहिस्ता फ़रीदपुर जंक्शन से आगे बढ़ने लगा. यह ‘ट्रेन
नम्बर 410 सन्तनगर फ़ास्ट पैसेंजर’ थी. यह 1986 की बात है, और फ़रीदपुर-सन्तनगर ब्रांच
लाइन पर चलने वाली रेलगाड़ियों में लगे स्टीम इंजन इस बात की गवाही थे कि भारतीय रेलवे
की प्राथमिकता में यह रूट बहुत महत्त्व का नहीं था. इस रूट पर मीटर गेज़ का ब्रॉड गेज़ में
नहीं बदला जाना भी इसी बात की पुष्टि करता था. फिर भी इस लाइन पर रोज़ चलने वाली दो
ट्रेनें मुसाफ़िरों के लिए बड़ी नियामत थीं.

फ़रीदपुर क़स्बा एक ज़िले का मुख्यालय था और इस तरह नौकरशाही और अदालती कामकाज
की गतिविधियों का केन्द्र था. सन्तनगर, जंगलों के किनारे की तरफ़ आबाद, किसी बहुत बड़े
गाँव की तरह का, छोटा-सा ख़ुशनुमा क़स्बा था, जहाँ एक सन्त का मन्दिर था. ऐसे में सन्तनगर
के बहुतेरे लोगों को फ़रीदपुर तक जाना ही पड़ता था, वहाँ ज़िला कलेक्टर के किसी मातहत के
पाँव पकड़कर वे अपनी फ़ाइल आगे बढ़ाने की गुहार करते. उन दिनों सीधे कलेक्टर से मिल
पाना हर किसी के बस की बात नहीं थी. मुक़दमेबाज़ लोगों के इस देश में अदालतों के पास ख़ूब
काम होता है, सो सन्तनगर के वादियों और प्रतिवादियों—दोनों को रेलगाड़ी की ज़रूरत
पड़ती. सरकारी दफ़्तरों के बाबू, फ़रीदपुर में दूध बेचने वाले दूधिए, और थोड़ी ताज़ी सब्ज़ी
बेचने निकले कुँजड़ों के साथ ही क़स्बे के स्कूल-कॉलेज में पढ़ने के लिए जाने वाले बच्चे और
नौजवान ट्रेन के नियमित मुसाफ़िर थे. इन सबके अलावा सन्त के मन्दिर पर जाने वाले
श्रद्धालुओं की भीड़ भी होती. यों आम दिनों में इस क़दर भीड़ होती कि दूधियों में लगेज वैन पर
क़ब्ज़ा करने की होड़ रहती, और भीड़-भाड़ वाले ख़ास मौक़ों पर तो डिब्बों की छतों पर भी
जगह कम पड़ जाती. बाबुओं को आराम से बैठने की जगह ज़रूर मिल जाती. उनके बैठने की
कुछ ख़ास बेंचें मुकर्रर थीं, और उनकी ताक़त की हनक इतनी थी कि दूसरे लोग वहाँ बैठने की
हिमाक़त नहीं करते थे. भारत के सरकारी तंत्र में बाबू लोग सबसे निचली पायदान पर होते हैं
पर रसूख के मामले में उन साहबों पर भी भारी पड़ते हैं, जिनकी वे मातहती करते हैं. आख़िर
फ़ाइलें तो उन्हीं के क़ब्ज़े में रहती हैं. यह तो बाबू ही तय करते हैं कि कौन-सी फ़ाइल आगे
बढ़ानी है, कौन-सी फ़ाइल रोकनी है और कौन-सी फ़ाइल गुम हो जानी है. वे अपने साहबों से
भले नहीं डरते मगर भगवान से डरते हैं, सो अपने काम पर जाने के लिए निकले ये लोग भजन
गा-गाकर अपना सफ़र काटते.

ट्रेन में भीड़ की वजह से होने वाली असुविधा के बावजूद रोज़ वाले मुसाफ़िर सवारी के दूसरे
साधनों के बजाय इसी को तरज़ीह देते. बसें टूटी-फूटी थीं, सड़कों के गड्ढों से होकर गुज़रने से
ख़स्ताहाल इन बसों की रफ़्तार तो धीमी होती ही थी, रास्ते में कहीं भी ख़राब हो जातीं. जीप-
टैक्सी की सवारी करना तो बस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा हौलनाक और असुविधाजनक था
क्योंकि उनके ड्राइवर तब तक नहीं चलते थे, जब तक कि गाड़ी के दोनों तरफ़ सवारियाँ लटकने
न लगें और देर से आने वाले गाड़ी की छत का कोई हिस्सा पकड़कर पीछे के बंपर पर झूलने
नहीं लगें. रही-सही कसर सड़क के गड्ढों को लेकर इन जीप-ड्राइवरों के लापरवाह रवैये से पूरी
हो जाती. ठिकाने तक पहुँचने की हड़बड़ी में गड्ढों से बचकर निकलने की कोशिश करने के
बजाय वे गाड़ी सीधे गड्ढों में उतार दिया करते थे, हालाँकि इस चक्कर में गाड़ी का धुरा अक्सर
टूट भी जाता. अफ़सोस कि ख़ासी सस्ती और इत्मीनान की सवारी ताँगों के दिन लद चुके थे.
लेकिन एक और अजीब गाड़ी चला करती थी, जिसमें चेसिस पर लकड़ी का चौड़ा तख़्ता कसा
होता और यह पंपिग सेट में इस्तेमाल होने वाले मोटर से चलती. इलाक़े में उपलब्ध सार्वजनिक
वाहनों में ये सबसे सस्ती मगर सबसे दुखदायी भी थी, क्योंकि इस जुगाड़ के डिज़ाइनरों ने
इसमें स्प्रिंग के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं समझी थी.

इसलिए ट्रेन बेहद लोकप्रिय थी. फ़ास्ट पैसेंजर की रफ़्तार के बारे में जब कोई रेलवे के अफ़सरों
से शिकायत करता, तो उसे जवाब मिलता, “यह है तो फ़ास्ट ट्रेन, सिर्फ़ चलती धीमे है.” फिर
भी यह कम से कम आराम की सवारी थी. ट्रेन को तरजीह मिलने की यह एक और वजह थी.
लेकिन इसका एक फ़ायदा और भी था. किसी और सवारी से आने-जाने वालों को किराया देना
पड़ता था जबकि ट्रेन की सवारी एकदम मुफ़्त थी. तीस मील के सफ़र का किराया बहुत मामूली
था, सो पिछले कुछ सालों से रेलवे ने टिकटों की जाँच करनी ही छोड़ दी थी. टिकटों की जाँच के
लिए सन्तनगर फ़ास्ट पैसेंजर पर तैनात टीटीई सरकारी बाबुओं के साथ बैठे उनके भजनों का
आनन्द लिया करते.

अपने इंजन की तरह ही ड्राइवर पैट थॉमस भी गुज़रे ज़माने की निशानी थे. वह उन एंग्लो-
इंडियन मुलाज़िमों में से एक थे, जो तरक़्क़ी पाकर मेल ट्रेन के ड्राइवर के ओहदे तक पहुँचे थे.
अंग्रेज़ों ने रेलवे में एंग्लो-इंडियंस की भर्ती इस ख़याल से की क्योंकि उन्हें लगता था कि राज के
प्रति उनकी वफ़ादारी असन्दिग्ध होगी, हालाँकि इस ख़याली वफ़ादारी के इनाम के तौर किसी
एंग्लो-इंडियन को कोई बड़ा ओहदा नहीं मिला. भारत की आज़ादी के बाद उनमें से कई लोग
देश छोड़कर चले गए, मगर पैट हमेशा कहते कि चाहे कुछ हो जाए, भारत उनका देश है. रेलवे
में अपनी हैसियत पर उन्हें नाज़ था, कि अगर वे ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या एंग्लो-इंडियन
अप्रवासियों को क़बूल करने वाले किसी और मुल्क में चले जाते, तो वहाँ उन्हें कौन पूछता.
लम्बा क़द, मज़बूत बदन, और लम्बे रंजीदा चेहरे पर साफ़-सुथरी टूथ-ब्रश मूँछों वाले पैट की
पहचान एक चिड़चिड़े शख़्स की थी. साथ काम करने वाला फ़ायरमैन उनकी ऊँची कसौटी पर
खरा नहीं उतरता, इसलिए फ़ौज़ी तरीक़े की पुराने फ़ैशन वाली अंग्रेज़ी ज़बान में अक्सर डाँट
खाता. वह हमेशा नीले रंग की डांगरी और इंजन-ड्राइवर की पारम्परिक काली टोपी पहनते थे.
रेलवे में स्टीम इंजन जब चलन से बाहर होना शुरू हुए तो उन्हें बताया गया कि डीज़ल इंजन
चलाने के लिए उन्हें फिर से ट्रेनिंग लेनी होगी, मगर उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया,
“मैं घटिया बस ड्राइवर नहीं बनना चाहता. किसी स्टीम मैन को मालूम होना चाहिए कि अपने
इंजन से बेहतरीन काम लेने के लिए उसे क्या करना है. उसे चार आँखें चाहिए, दो आगे और दो
पीछे. उसे आगे की लाइन और पटरियाँ देखनी होती हैं, फ़ायरबाक्स की आग और टेंडर में
कोयले पर भी निगाह रखनी होती है. डीज़ल के ड्राइवर को क्या करना होता है—एक बटन
दबाओ, इंजन चालू और फिर आगे बढ़ जाओ—साला एकदम बस ड्राइवर के माफ़िक़.” जैसे-जैसे
स्टीम इंजन ग़ायब होते गए, पैट थॉमस के लिए लाइन खोजना मुश्किल, और बहुत मुश्किल
होता गया, यही वजह थी कि मेन-लाइन ट्रेनों को छोड़कर उन्हें सन्तनगर ब्रांच-लाइन जैसे
महत्त्वहीन रूट पर आना पड़ा.

अकबर उस रोज़ फ़रीदपुर के बाहरी इलाक़ों से आगे निकलकर, 40 किलोमीटर प्रति घंटे की
गति से ग्रामीण इलाक़ों के किनारे से गुज़र रहा था, तभी ट्रेन को झटका लगा और वह ठहर गई.
ड्राइवर थॉमस के मुँह से गाली निकली. “ये स्साले चेन पुलर्स!” उनके फ़र्स्ट फ़ायरमैन नदीम
ख़ान ने कहा, “यह तो अजीब बात है. मैं जानता हूँ कि ज़ंजीर हमेशा कहाँ खींची जाती है, यहाँ
तो ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. शायद ट्रेन में सचमुच कुछ गड़बड़ है, शायद आग. या शायद
कोई गिर गया है.”

“बकवास,” ड्राइवर थॉमस ने कहा. “आँखें खोलकर देख, यार. कुछ बेहूदों ने अपने गाँव के पास
ट्रेन रोकने के लिए ज़ंजीर खींची है. उधर देख, वे खेतों में भाग रहे हैं और बेवकूफ़ दूधिये उनके
पीछे हैं, उन्हें लगता है कि ज़ंजीर खींचना उन्हीं की बपौती है. वे अगर उनको पकड़ पाते हैं तो
शर्तिया सिर फुटौवल होगी. मगर उनकी दादागिरी मैं अभी भुलाए देता हूँ.” फिर ड्राइवर
थॉमस ने रेगुलेटर खोल दिया, लगातार सीटी बजाते हुए ट्रेन आगे बढ़ने लगी. अकबर ने धीरे-
धीरे जैसे ही गति पकड़ी, दूध वाले मुड़े और खेतों से होकर ट्रेन में सवार होने के लिए दौड़ लगा
दी.

“हरामी कहीं के,” ड्राइवर थॉमस बड़बड़ाया. “मैंने जब नौकरी शुरू की थी, उन दिनों ट्रेनों में
चलने वाली रेलवे पुलिस ऐसे ज़ंजीर खींचने वालों के सिर तोड़ दिया करती थी, या फिर गार्ड
उन्हें पकड़कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर देता था. अब तो रेलवे में कोई इसकी परवाह ही नहीं
करता, और रेलवे ही क्यों, भगवान भरोसे चल रहे इस देश में किसी को क़ायदे-क़ानून का कोई
डर ही नहीं रह गया है.”

क़ायदे से इस ट्रेन का सिर्फ़ एक ठहराव है, सूरापुर नाम का एक छोटा-सा स्टेशन. उस रोज़
ज़ंजीर खींचने के वाक़ये की वजह से अकबर रोज़ के समय से भी दस मिनट की देरी से खड़ंजे
वाले उस छोटे स्टेशन में दाख़िल हुआ. हमेशा की तरह दूधिए वहाँ उतरे और ट्रेन के डिब्बों की
खिड़कियों पर झालर की तरह टँगे हुए दूध के अपने डिब्बे उतारकर इंजन की तरफ़ बढ़ गए.
ड्राइवर थॉमस ने इंजन का खौलता हुआ पानी उनके डिब्बों में भर दिया ताकि वे विसंक्रमित हो
जाएँ. फिर साइकिल पर चढ़कर वे अपने घरों को निकल गए. हालाँकि सूरापुर में ट्रेन का
ठहराव सिर्फ़ दो मिनट का था, मगर इस भाईचारे में ट्रेन पन्द्रह मिनट तक खड़ी रही, लेकिन
किसी मुसाफ़िर ने इस पर कभी एतराज नहीं किया.

ट्रेन सन्तनगर पहुँची, तो झक सफ़ेद वर्दी और आधिकारिक टोपी पहनकर प्लेटफ़ार्म पर खड़े
स्टेशन मास्टर राम कृष्ण ने अगवानी की. गार्ड चलकर उनके पास आया और कहा, “स्टेशन
मास्टर साहब, रास्ते में एक छोटी-सी घटना हुई है, आज किसी ने नई जगह पर ज़ंजीर खींच
दी. मुझे नहीं लगता कि हमें इसकी रिपोर्ट करने की ज़रूरत है, आप क्या कहते हैं? खामखाह
का बवाल होगा, ट्रेनें समय पर चलाने की मंत्री की मुहिम के चक्कर में कौन जाने जाँच-वाँच शुरू
हो जाए.”
“अरे, वह सब छोड़ो,” स्टेशन मास्टर ने रुखाई से कहा. “मेरे पास इससे बड़ी ख़बर है, बहुत बुरी
ख़बर.”
“क्या ख़बर है?”
“यह लाइन बन्द होने जा रही है.”
“बन्द? यह सम्भव नहीं है! अब आप ऐसे ही कोई लाइन बन्द नहीं कर सकते. इसके ख़िलाफ़
क़ानून हैं.”
“क़ानून हो या न हो, दिल्ली से आज मेरे एक दोस्त का फ़ोन आया था, वह रेल भवन में बाबू है.
उसका अफ़सर रेलवे बोर्ड में है इसलिए उसे पता रहता है कि अन्दरख़ाने वहाँ क्या चल रहा है.
उसी ने बताया कि हमारी लाइन को लेकर बड़ा बवंडर मचा हुआ है और चेयरमैन ने इसे फ़ौरन
बन्द करने का आदेश दिया है.”

हालाँकि गार्ड और स्टेशन मास्टर दोनों को इस बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था कि उनकी यह
मामूली ब्रांच-लाइन रेलवे बोर्ड के ग़ौर करने लायक़ कोई मुद्दा भी हो सकती है—रेलवे बोर्ड के
ज़िम्मे 6,59,000 किलोमीटर ट्रैक का विशाल नेटवर्क है, जिनसे होकर हर रोज़ 14,300 ट्रेनें
गुज़रती थीं—पर ख़बर सच्ची थी. और यह सब फ़रीदपुर के सांसद संजय सिंह राय का किया-
धरा था. इस लाइन पर मँडरा रहे ख़तरे के ज़िम्मेदार वही थे.

राय के बहुत तरह के धंधों में लोकल बस का कारोबार भी शामिल था, जिसमें केवल उन्हीं के
नाम का डंका बजता. उनके इस एकाधिकार को अकेली चुनौती ट्रेन ही थी, जिसकी लोकप्रियता
की वजह से सन्तनगर की बस-सेवा में उन्हें घाटा उठाना पड़ता. सांसद ने इसे अपनी बेइज़्ज़ती
के रूप में लिया. बीस सालों से वह इस सीट पर चुनाव जीतते आए हैं, और आज तक किसी ने
उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दी थी. और यह छोटी-मोटी, टूटी-फूटी पिद्दी-सी रेलवे लाइन
उनकी बस-सेवा को धता बताकर उन्हें उल्लू बना रही थी.

अपने आहत अभिमान पर मरहम लगाकर, राय ने सबसे पहले तो फ़रीदपुर के स्टेशन मास्टर
को यह जानने के लिए चारा डाला कि ट्रेन से हर रोज़ कितनी आमदनी होती है और यह
जानकर वह ख़ुश हुए कि राजस्व शून्य है क्योंकि मुसाफ़िरों से भाड़ा वसूल ही नहीं किया जाता.
फिर उन्होंने केन्द्रीय रेल मंत्री से मिलने के लिए समय माँगा. मंत्री भी उन्हीं की तरह कांग्रेस
पार्टी के सदस्य थे. संसद में वह मंत्री के दफ़्तर में उनसे मिले. बातचीत की शुरुआत कुछ अच्छी
नहीं रही. ठंडी मगर भेदक आँखें और बेदर्दी से भिंचे हुए होंठों वाले मंत्री निष्ठुर शख़्स थे. ख़ासी
अधीरता में उन्होंने यह कहते हुए बात शुरू की, “मुझे उम्मीद है कि आप भी ऐसा कोई फ़िज़ूल
प्रस्ताव लेकर मेरा वक़्त बर्बाद करने नहीं आए हैं कि आपके निर्वाचन क्षेत्र के लिए कोई नई ट्रेन
चला दी जाए, या किसी एक्सप्रेस का ठहराव आपके लोकल स्टेशन पर होना चाहिए, जहाँ न
कोई चढ़ता है और न ही उतरता है. जाने क्यों हर एमपी को लगता है कि रेलवेज़ केवल उन्हीं
के लिए बनी है. आपको पता है कि असम से दिल्ली तक सांसदों ने कह-कहकर तिनसुकिया मेल
के इतने स्टॉप बनवा लिये कि लोग उसे दिनदुखिया मेल कहने लगे हैं. अभी मैंने उसके कम से
कम बीस स्टॉप काटे हैं, तब जाकर ट्रेन समय से चलने लगी है, या कम से कम कभी-कभी तो
समय पर चल पा रही है.”

राय के चेहरे पर फैली चौड़ी मुस्कुराहट से उसके फूले हुए गालों पर सिलवटें खिंच गईं. अपनी
कुर्सी पर पीछे की तरफ झुकते हुए बड़े सन्तुष्ट भाव से उसने थोड़ा लम्बा खींचकर ‘अच्छा’ का
उच्चारण किया, फिर कहा, “तब तो मंत्री जी, आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि मैं ऐसे किसी
काम से आपके पास नहीं आया हूँ. और मैं आपसे कुछ माँगने नहीं, आपको बताने आया हूँ कि
एक लाइन और उसके स्टेशन बन्द कर दीजिए.”
मंत्री ने झटके से निगाह ऊपर की. “इसका क्या मतलब हुआ कि आप मुझे बताने आए हैं? मत
भूलिए कि मंत्री मैं हूँ.”
फिर मन ही मन सोचा, ‘ये सांसद अपने आपको समझते क्या हैं, मंत्री को हुक्म दे रहे हैं.
गुस्ताख़ कमीने. इसे मेरे पाँव छूने चाहिए थे और कोई तोहफ़ा लेकर आना चाहिए था, कम से
कम ग़ुलदस्ता ही लाता.’
राय पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ. शान्त भाव से उन्होंने कहा, “इतना ग़ुस्सा मत
कीजिए, मंत्री जी. शान्त हो जाइए. सारा मामला सुनेंगे तो समझ जाएँगे कि मेरी बात पर
अमल क्यों आपके ही भले की बात है.”
“मुझे यह लफ़्ज़ पसन्द नहीं है, श्री संजय सिंह राय. मैं सिर्फ़ अपने फ़ैसलों पर अमल करता हूँ.
लेकिन आप बताइए.”

राय ने बताना शुरू किया कि उन्हें पता चला है कि फ़रीदपुर-सन्तनगर लाइन न केवल घाटे में
चल रही है, बल्कि इससे कोई राजस्व भी नहीं मिलता है. फिर उन्होंने बड़ी चतुराई से यह भी
बताया कि इस बाबत अगर वह संसद में सवाल उठाते हैं तो बेवजह धन की बर्बादी होगी, और
रेल मंत्री को भी ख़ासी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी. मंत्री को यक़ीन था कि लाइन बन्द करने की
राय की इस माँग के पीछे कोई व्यक्तिगत कारण है. उनके पूछने पर सांसद राय ने बेझिझक बता
भी दिया कि रेलवे की वजह से उनकी बस-सर्विस को घाटा हो रहा है. मामला देखने की मंत्री
की रज़ामन्दी के साथ बैठक ख़त्म हो गई.

(इस किताब के हार्ड बाउण्ड और पेपरबैक संस्करण अमेज़न पर भी उपलब्ध है)

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