जिगर को पगड़ी पहनाने की ख़ुमार बाराबंकवी की शरारत
‘जो मिले’ दामोदर दत्त दीक्षित के संस्मरणों की किताब है. इस किताब में उन बीस शख़्सियतों के संस्मरण हैं, लेखक ने जिन्हें क़रीब से जाना, उनकी विशिष्टताओं को महसूस किया और जिनसे उनका गहरा आत्मीय नाता रहा है. ख़ुमार बाराबंकवी पर उनके संस्मरण का एक अंश हम यहाँ छाप रहे हैं.
ख़ुमार साहब के पास फ़िल्मी दुनिया की यादों का ख़ज़ाना है. वह स्वयं पुरलुत्फ़ इन्सान हैं, उनका ‘सेन्स ऑफ़ ह्यूमर’ ज़बर्दस्त है. बहुत पुरानी बात है. मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक होमी वाडिया के भाई जे.बी.एच. वाडिया ने बिस्मिल्लाह ख़ाँ, विलायत ख़ाँ, अली अकबर ख़ाँ जैसे मशहूर संगीतकारों और मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी पर वृत्तचित्र बनाने का इरादा किया. जिगर मुरादाबादी के वृत्तचित्र की शूटिंग चल रही थी. जब जिगर साहब पर एक ग़ज़ल फ़िल्माई जा चुकी, तो ‘मोनोटोनी’ दूर करने के लिए सेट बदला जाने लगा. इसी बीच वाडिया साहब स्टूडियो में आए कुछ मेहमानों से मिलने चले गए.
ख़ुमार साहब भी शूटिंग के समय मौजूद थे. वह जिगर साहब के पास जाकर बोले, “जिगर साहब, वाडिया साहब कह रहे हैं कि फ़िल्म में यक्सानियत (मोनोटोनी) बहुत बुरी मालूम पड़ती है. इसलिए दूसरी ग़ज़ल आप टोपी पहनकर नहीं, पगड़ी बाँधकर पढ़ दीजिए.”
जिगर साहब बालदार टोपी पहना करते थे. वह अलफ़ हो गए, “लाहौल बिलाक़ूवत, मैं शायर हूँ कि भाँड़ हूँ. मैं पगड़ी-वगड़ी नहीं बाँधता.”
“जिगर साहब, वाडिया साहब एक हज़ार रुपये नज़र कर रहे हैं आपको…” ख़ुमार साहब ने कहा.
“लानत है ऐसे पैसे पर. मैं पढूँगा, तो टोपी पहनकर, जो मेरा लिबास है.” जिगर साहब ने तमतमाकर कहा.
ख़ुमार साहब ने कहा, “यह स्टूडियो है. यहाँ तरह-तरह की पगड़ियाँ हैं, अभी सब मँगाए देता हूँ. आप उनमें कोई भी पसन्द कर लीजिए.”
जब जिगर साहब का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया, तो ख़ुमार साहब ने वाडिया साहब को उनके पास भेजा. उनके पहुँचते ही जिगर साहब कहने लगे, “वाडिया साहब, मैं टोपी ही पहनूँगा. पगड़ी-वगड़ी नहीं बाँध सकता.”
वह बेचारे हैरान! कहने लगे, “जिगर साहब, समझा नहीं?”
“आपने अभी जो कहलवाया है कि पगड़ी बाँधकर ग़ज़ल पढ़ँ, उस बाबत बात कर रहा था.”
“मैंने कहलवाया?”
“क्यों, ख़ुमार से कहलाया नहीं आपने?”
वाडिया साहब ख़ुमार साहब के मज़ाकिया स्वभाव से वाक़िफ़ थे. बोले, “जिगर साहब, आप जानते नहीं ख़ुमार साहब को? मैंने ऐसा कुछ नहीं कहलवाया.”
जिगर साहब अपने अज़ीज़ ख़ुमार साहब की शरारत पर मुस्करा पड़े.
एक बार की बात है. मशहूर गीतकार शकील बदायूँनी और ख़ुमार बाराबंकवी बम्बई के पास एक पिकनिक स्पॉट पर छुट्टी मना रहे थे. वहीं दो क़व्वाल आए. वह शकील बदायूँनी को पहचानते थे. वे उनसे दो ग़ज़लें देने की फ़रमाइश करने लगे. शकील बदायूँनी उठकर काटेज के भीतर चले गए और ग़ज़लें नक़ल करने लगे.
इधर खुमार साहब ने क़व्वालों से पूछा, “कितनी ग़ज़लें लिखवा रहे हो?”
“दो ग़ज़लें.”
“तब आप सस्ते छूट जाएँगे. आप जानते ही होंगे, क़व्वालों से ये बीस रुपये फ़ी ग़ज़ल लेते हैं.”
उनके कान खड़े हो गए, “क्या?”
“यह तो मशहूर बात है. आप हज़ारों पैदा करते हैं इनकी ग़ज़लों से, ये तो बीस रुपये फ़ी गज़ल ले लेते हैं. परसों एक क़व्वाल अहमदाबाद से आया था. उसे भी नहीं मालूम था. पाँच ग़ज़लें लिखवायीं और रो-रो के सौ रुपये देकर ग़ज़लें ले गया.”
कुछ समय बाद पसीने से तरबतर शकील बदायूँनी आए और क़व्वालों को ग़ज़लों का पर्चा थमाने लगे. उनमें से एक क़व्वाल बोला, “हुजूर, आज माफ़ कर दीजिए. कल ले जाएँगे गज़लें.”
शकील बदायूँनी को गुस्सा आ गया, “अमाँ, इस गर्मी में कितनी मेहनत से नक़ल करके लाया हूँ. अब लो. क्यों नहीं लेते हो?”
“आपकी मेहनत बेकार नहीं होगी. कल आकर हम लोग ले जाएँगे.”
शकील बदायूँनी द्वारा ज़्यादा ज़ोर दिए जाने पर वे दोनों भाग निकले. उन्होंने कहा, “ख़ुमार, ये पागल थे क्या?”
“नहीं, क़व्वाल थे.” ख़ुमार साहब बोले.
“मैं तुमसे बात कर रहा था. छोड़कर चला गया. यह देखो कितना ख़ुशख़त लिखकर लाया हूँ और वे साले चले गए भागकर.”
ख़ुमार साहब ने उनसे कहा, “भई, हम लोग अच्छी-अच्छी बातें कर रहे थे. तुम्हें इतनी शोहरत मिली हुई है. तुम आसानी से कह सकते थे, फिर आ जाना. पर तुमने जो सस्तापन दिखाया, वो अच्छा नहीं था. मैंने तुम्हें सज़ा देने के लिए उनसे कह दिया था कि तुम फ़ी ग़ज़ल बीस रुपये लेते हो!”
शकील बदायूँनी भावावेश में लिपट गए और ख़ुमार साहब से कहने लगे, “ख़ुमार, तुमने बदनाम कर दिया. ये साले सब जगह जाकर कहेंगे कि मैं बीस रुपये फ़ी ग़ज़ल लेता हूँ.”
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