कलकत्ते के मारवाड़ी कहते – फ़िदा हुसैन ने ले लो तो लाख रुपिया लगा देस्यूँ
क़रीब आधी सदी तक पारसी थिएटर से वाबस्ता रहे फ़िदा हुसैन नरसी उस दौर के रंग-संसार का चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडियो थे. संस्कृतिकर्मी प्रतिभा अग्रवाल ने बातचीत के हवाले से उनकी आत्मकथा लिखी है – पारसी थिएटर में पचास वर्ष. एक तरह से यह किताब फ़िदा हुसैन के संस्मरणों का संग्रह है. थिएटर में अभिनय, गायन, निर्देशन से लेकर कंपनी के मालिक की भूमिकाएं निबाहने वाले फ़िदा हुसैन नरसी की ज़िंदगी की मुख़्तसर-सी झांकी,
अगले दिन हम बैठे तो बात मूनलाइट थिएटर में आने से शुरू की. फ़िदा हुसैन साहब ने 20 वर्षों तक मूनलाइट थिएटर, कलकत्ता में काम किया और सन् 1968 में जब छोड़ा तो मालिकों ने थिएटर ही बन्द कर दिया. फ़िदा हुसैन सन् 1948 में कलकत्ता मूनलाइट में आए. उस समय मूनलाइट को चालू हुए कई साल हो चुके थे. मूनलाइट के मालिक मेहरोत्रा चार भाई थे. उनमें सब से छोटे थे गोवर्धन बाबू. उन्हीं के चलते मूनलाइट चला. मूनलाइट की बात पूछने पर फ़िदा हुसैन ने सबसे पहले चर्चा छेड़ी गोवर्धन बाबू की.
“थे तो भाइयों में सबसे छोटे लेकिन बड़े भाई भी उनके सामने नहीं बोल सकते थे. कोई बात हो तो लाला हमेशा धौंस देता था – ‘हम जापान चले जाएंगे.’ तो उस वक़्त उन्होंने कम्पनी का एक छोटा प्रोग्राम तैयार करवाया जिसमें एक पिक्चर और आधे घन्टे का डांस, क़व्वाली, ग़ज़ल और कॉमिक का सीन रखते थे. वह ख़ूब चला. चार-चार शो होते थे. दस साल तक 15 हज़ार रुपये से कम नहीं बचता था उन्हें खर्चा निकाल करके. उसी से मिल वग़ैरह सब ख़रीदकर लाई गईं. भारत वूलेन मिल जो क़ायम हुई वह मूनलाइट की कमाई से ही. उसके बाद जब उन्होंने हमारी शोहरत सुनी तो उनकी बहुत चाहत हुई कि मैं उसमें आऊं क्योंकि छोटी कम्पनी में भी उन्होंने बड़े से बड़े आटिस्ट को नहीं छोड़ा था. पेशेन्स कूपर को भी कज्जन को भी ख़ूब पैसा देकर ले आए. पेशेन्स कूपर बड़ी ख़ूबसूरत थी. तीन बहनें थीं, एंग्लो इण्डियन.
“हां, तो हम जब शाहजहां कम्पनी के साथ थे तो बात शुरू हो गई. कम्पनी करते-करते कराची पहुंची. वहां कम्पनी बन्द हो गई. गोवर्धन बाबू को जब बम्बई में मालूम हुआ कि कम्पनी बन्द हो गई, फ़िदा हुसैन उसमें हैं तो वे बम्बई से कराची पहुंचे. उनको धुन थी कि अपनी कम्पनी को बढ़ायेंगे लेकिन प्रोग्राम उनका वही चलता था छोटा – एक पिक्चर साथ में. कम टिकट. बड़े से बड़ा टिकट एक रुपये या बारह आने का था.
मूनलाइट के अन्दर गैलेरी मिला करके 750 सीटें थीं. आगे का टिकट तीन आने का होता था. उसमें बेंचे होती थीं. बाकी और. उनका चलता बहुत अच्छा था…वार का ज़माना था, कलकत्ता में तमाम फ़ौज भरी थी. चार-चार शो होते थे. ख़ैर, वो बम्बई से कराची पहुंचे. तो हमको बुलवाया होटल में. हम तो बेकार थे, कम्पनी बन्द थी. माणिकलाल आने नहीं देते थे. कहते थे कि आप चले जाएंगे तो और सब भी भाग जाएंगे. कुछ होगा इस आशा पर दिन गुज़ारे थोड़े पर कितने दिन तक बैठा रहता?
तो गोबर्धन बाबू जब पहुंचे तो उनसे बातचीत हुई और डेढ़ सौ रुपया हमारी तनख़्वाह सेटल हो गई. उन्होंने पूछा – “कितना रुपया चाहिए आपको?” ख़ैर, हमको डेढ़ सौ देकर वो कलकत्ते आ गए. पर हमने माणिक लाल को सच बात नहीं बताई, बहाना किया. कहा – “हम आ जाएंगे लौटकर घर पर ज़रा बहुत ये है… ” मतलब प्राइवेट रखी वो चीज़. सुलताना साथ में थी, अमिता की मां वग़ैरह हैदराबादी नूरजहां की बहन – ये सब थीं वहां पर.
हम तो बहाना करके नौकर को लेकर चले आए. छब्बीस रुपये किराया लगा कलकत्ते का कराची से. एक ही टिकट मिलता था – ट्रेन चेंज हुई बीच में लेकिन टिकट एक मिलता था. वहां से कलकत्ते आए. मूनलाइट में बुलाया उन्होंने मिलने के लिए. कलकत्ते में आकर देखा – तो देखा सड़क पर बहुत दूर तक लाइन लगी हुई थी पब्लिक की. लेकिन ये सब बीड़ी वाले और लुंगी वाले.
हमारी लुंगी वाली पब्लिक नहीं थी. मारवाड़ी समाज का एक आदमी भी वहां पे नहीं दीख रहा था. सब में चटकल के मजदूर और बीड़ी वाले थे. तो मन में कहा – बड़ी मुश्किल है. अंदर गए. बहुत ख़ातिर की हमारी. हमने कहा – “मुझे कुछ कहना है.” बैठे हुए थे बोले – “कहिए क्या बात है? ” मैंने कहा – “मैं यहां काम नहीं कर सकूंगा.” चुप. एक मिनट चुप रहे फिर बोले – “अच्छा ठीक है, कोई बात नहीं, कोई बात नहीं.”
तो मैंने कहा -“आप का रुपया मैं… ” बोले – “नहीं, रुपया हम नहीं लेंगे. आबोदाना होगा तो फिर देखेंगे.” माने रुपये नहीं लिए मुझसे. वैसे मेरे पास रुपया उतना था भी नहीं. उनसे कह दिया था तो साधन कोई हो ही जाता पर मेरे पास उतना रुपया था नहीं. सो इस तरह पहली बार मूनलाइट के लिए कलकत्ता आकर भी मूनलाइट में रहना नहीं हुआ. वह हुआ इसके सात-आठ साल बाद. पर इस बीच बहुत कुछ मैंने किया सो पहले वह सब क़िस्सा सुनिए.
मूनलाइट में तो मैं उस समय नहीं गया पर कलकत्ता में ही और लोग पीछे पड़े. उन दिनों मारवाड़ी नाटक चल रहा था ग्रेस में. इसमें भरत व्यास ‘रामूचरना’ कर रहे थे. कलकत्ता के मारवाड़ी पैसा लिए हुए घूम रहे थे पीछे हमारे कि “फ़िदा हुसैन ने साथ ले लो तो मैं लाख रुपया लगा देस्यूँ, लाख रुपिया.” मारवाड़ी प्रोग्राम के लिए. बिरजी चंद बात कर रहे थे कानपुर से, जे.के. वाले पदमपत सिंहानिया, कमलापत सिंहानिया के लिए.
नरसी मेहता के वो आशिक़ थे. इतने आशिक़ थे वो और उनकी मां कि जब तक कम्पनी कानपुर में रही तब तक, आएं न आएं उनका एक सोफ़ा रिज़र्व रहता था, पैसा पहले आता था. उनकी मां मेरे मार्फ़त भगवान कृष्ण के पैर छूती थीं. कहती थीं – “नरसी जी म्हने मिलवा दो” ऐसी उनकी श्रद्धा थी. गनपत बनता था कृष्ण. तो वो इतनी ख़ातिर करती थीं कि पूछिए मत. सर्दी के दिन आ गए तो हमको और कृष्ण को बहुत अच्छा कम्बल प्रेज़ेन्ट किया ला कर के. याने सर्दी लगती होगी भगवान जी को, नरसी जी को.
शार्ट में बात यह कि मुझे कानपुर का निमंत्रण मिला. उस समय एमरजेन्सी एरिया था कलकत्ता. हम ग्रेस में ‘कंकावतीर घाट’ देख रहे थे, महेन्द्र गुप्त थे. वह चल रहा था बड़े जोरों से. बहुत अच्छा चला वह ड्रामा. इन्टरवल में जो बाहर निकले तो ‘कैलकटा एमरजेन्सी एरिया’ स्टेट्समैन का टेलिग्राम निकला था. उस पर पब्लिक का जो हाल हुआ पूछिए मत, बेहद घबरा गई. गर्वनर का आर्डर था.
यह सन् 42 की बात है जब जापान का ख़ौफ़ हुआ था. अब वहां से भगदड़ मची, …ऐक्टर भी घबरा गए. सब की मेरे कमरे पे दृष्टि. हम छह-छह महीना, तीन-तीन साल तक नहीं आए पर किराया देते रहे, कमरा बंद रहता था. मंदिर स्ट्रीट 1 नम्बर. मूनलाइट के पास ही. कमरे में जो ऐक्टर आता वह यही कहता हुआ आता कि – “अरे मेरे बाप, यहां से निकालो. अरे, यहां बम गिरने वाला है, बचाओ.” पेशेन्स कूपर भी. सब परेशान.
पेशेन्स कूपर थिएटर रोड पर रहती थी हसन इरफ़ानी के पास. मुझे बुलवाया – “मास्टर, आप ही मदद कर सकते हैं नहीं तो सब ऐक्टर भूखा मरेगा. देखिए यहां से निकल चलिए.” कलकत्ता में यह हाल था. ऐसे में कानपुर का प्रस्ताव आया तो झट से मंज़ूर कर लिया. बहुत सारा स्टाफ भर्ती किया. मूनलाइट से बहुत सारे आदमी लिए और तै कर लिया कि सामान लेना है. माणिकलाल की कम्पनी इसी मूनलाइट के ज़माने में बनी थी. केशरदेव चमड़िया को लेकर के.
उस समय एक नाटक के लिए उन्होंने चालीस-पचास हज़ार रुपये फूंका था. कम्पनी चली नहीं और सामान पैक करके उनके गोदाम में पड़ा था. अच्छा सामान था. सीन-सीनरी, ड्रेस वग़ैरह सभी थे. तो उस सामान के लिए हम उनके पास गए. केशरदेव चमड़िया हमको बहुत मानते थे. उनके पास गए कि सामान… तो बोले, “अरे भाया, मेरी तीन सौ रुपये की गोदाम घिरी है. गोदाम ख़ाली कर दे, फ़्री ले जा.” मैंने धीरे से पूछा – “कितना पैसा देना पड़ेगा?” तो बोले, “अरे, म्ह कहं हूं न, तू फ़्री ले जा, मेरी गोदाम ख़ाली करवा दे.”
तो साहब एक हज़ार रुपये में हमने सामान ले लिया. कम से कम चालीस हज़ार रुपये का सामान था. वो तो निकालना चाहते थे.. सामान लेकर के, वैगन में पैक करके, नवाब मिस्त्री, पेंटर मूनलाइट से, सब को लेकर के कानपुर काफ़िला चला. अपनी कम्पनी का नाम रखा नरसी थिएट्रिकल कम्पनी. मैं ही मालिक था उसका. पैसा उनसे ले लिया था, पांच हज़ार रुपया दिया था कैलाश बाबू सिंहानिया ने. पांच हज़ार पहले लिया और सात हज़ार एक दफ़ा और लिया.
फिर तो कम्पनी चालू हो गई और ख़ूब चली कम्पनी. तीन महीने के बाद वहां पर भी भगदड़ शुरू हुई. लड़ाई का सामान वहीं कानपुर में बन रहा था. वहाँ इण्डस्ट्री थी. लेकिन वहां के जो कोतवाल थे ख़ान बहादुर बशीर और डी.एम.था. कलक्टर के बंगले पर आना-जाना था मौली डांसर और कूपर की वजह से. तो उन्होंने कम्पनी की मदद यह की कि महीने में तीन शो पुलिस के लिए ले लिए.
उन तीन शो के अन्दर ऐक्टरों को जितना पेमेन्ट करना होता था, उतना दे देते थे. टिकट काफ़ी बेचते थे. आठ महीने कम्पनी चली कि गांधीजी का सन् 42 का आंदोलन शुरू हो गया. तो यह मालूम हो गोया 57 का ग़दर हो गया, इस तरह का माहौल बन गया. फिर कम्पनी बंद की और पैसा उनसे लेकर सबको किराया देकर रवाना कर दिया. सामान वहीं पर रख दिया. मैं मुरादाबाद आ गया.
मुरादाबाद आने के दूसरे ही दिन दिल्ली से बाबू रोशनलाल का मैनेजर आया किशन लाल भाटिया. बोला, “बाबू साहेब ने आपको बुलाया है.” बाबूजी भी बहुत दिनों से मेरे लिए अरमान लगाए बैठे हुए थे. वहाँ गए. उनकी कम्पनी बीस साल से चल रही थी मगर पब्लिक कोई नहीं जाती थी. उनका शौक़ था. मगर हिन्दू पब्लिक का उधर कोई इन्टरेस्ट नहीं था. ‘लैला मजनूं’ होता था दो दिन और हाउसफुल जाता था. उसी में कम्पनी चलती थी.
मैंने नरसी मेहता निकाला. त्तीन सौ नाइट वहां नरसी मेहता हुआ – देहली में. उसी में डी.पी.श्रीवास्तव, सर जगदीश और जुगल किशोरजी बिड़ला आए. कितने ही लोगों ने बीस-बीस॑ मर्तबा देखा, डेढ़ सौ मेडल मिले मुझे. सोने के जो थे उन्हें लड़कियों ने निकाल लिया, पहन लिया. चांदी के पड़े रह गए. चाँदी के मेडल का मुझे क्या करना था. मैंने उन्हें गलवा दिया. चौदह सौ रुपये की चाँदी निकली. मैं कह रहा हूं, छोटी सी बात है. मेडल काम के नहीं थे. मुझे ये शौक़ नहीं था कि मेडल लगाऊं. चाँदी के कप वग़ैरह हमको मिले थे. हाँ, भरतपुर रियासत का मेडल, पटियाला महाराज का कप, बावन टौंक का मेडल और जैपुर का मेडल वो सब रखे हुए हूँ.
“वहां तीन साल रहे. जो अख़बारों के बहुत सारे फ़ोटो वग़ैरह हैं, वो उसी ज़माने के हैं. वैसे तो कराची के अख़बार, लाहौर के अख़बार, बाम्बे के अख़बार, गुजराती के अख़बार सब में हमारी तारीफ़ निकली. बनारस के, इलाहाबाद के, लखनऊ के नेशनल हेराल्ड वग़ैरह में भी. तीन साल के बाद हमारी उनसे…. हमको बहुत मानते थे मालिक जो थे. लेकिन तीन साल के बाद मैं बहुत कमज़ोर हो गया था. मेहनत कर-करके बहुत दुबला हो गया था.
हां, इसी बीच ‘कृष्ण सुदामा’ड्रामा निकाला. दो शो इतवार को होते थे. मुझे सीने में दर्द था, तकलीफ़ थी तो मैंने सनीचर के रोज़ उनको बुलाकर के कहा, “कल दो शो मत रखिए. तबीयत ठीक नहीं है.” क्यों कि सारा ड्रामा तो मेरे ऊपर था. उन्होंने कहा – “बहुत अच्छा साहब.” बाहर आकर उन्होंने अपने डेरे में -तम्बू लगा हुआ था – मैनेजर को बुलाकर कहा – “भाई देखिए, अब ये ऐक्टरों वाली बात है. फ़िदा हुसैन साहब भी गोया नखरा करने लगे.”
कृष्ण चन्द्र भाटिया वैसे तो उनके नौकर थे, उनके रिश्तेदार थे, उनके बेटे बने हुए थे लेकिन उनसे ज्यादा मुझको ईमानदारी से मानते थे. उनको बड़ा रंज हुआ. बहरहाल, किसी तरह बात मुझ तक पहुंची. जब बात पहुंच गई तो दूसरे दिन लिखकर मैंने उनको दे दिया कि मैं काम नहीं कर सकूंगा.
उसके बाद तो उन्होंने बड़ा तूफ़ान मचाया, हाथ भी जोड़े, लोगों से भी कहलवाया, कई दोस्त थे दिल्लीा में मेरे… उनको बुलवा लिया लेकिन बात जो मुंह से निकल गई वापिस नहीं हुई.
“छोड़ने के बाद हम बॉम्बे जाने वाले थे कि इतने में तो राजा इंदरगढ़ साहब आ गए देहली में. और तवकली साहब को घेरा कि कम्पनी बननी चाहिए, मास्टरजी को बुलाइए. तो ग़रज यह कि श्री मोहन थिएट्रिकल कम्पनी के नाम से कम्पनी बनी परेड रोड में. उसके लिए सामान लाए चरखारी से. चालीस लाख रुपये का सामान हमको उस वक़्त सात हज़ार में मिल रहा था. चालीस लाख रुपया बर्बाद हुआ है उस रियासत का उस कम्पनी के पीछे.
राजा के शौक़ की कम्पनी थी. उसमें शरीफा को भी… कोंरथियन तीन लाख में ख़रीदी थी उसने और वो नहीं चला सका. दो लाख तो दे दिया रुस्तम जी को और तीसरे लाख में वो कम्पनी दे दी वापिस उनको. उस कम्पनी में दस कम्पनियों का सामान था. एक सौ दस पर्दे थे, चार सौ विंग्स थे. वशिष्ठ के ओढ़ने का दुशाला दो-दो हज़ार रुपये का था, सोना और जरी लगा हुआ था उसमें. राजगुरू थे न!
और रशीदा का जो ड्रेस था, तुर्की हूर का. उसकी लड़की-एक्ट्रेस-पहन ही नहीं सकती थी. उसमें तो बीस सेर वज़न था. बीस सेर वज़न था ड्रेस का. आप को यक़ीन आना चाहिए. और जूते थे. इतने बड़े-बड़े संदूक़ थे दो. उसमें कुछ नहीं तो एक हज़ार जोड़ी जूते थे. ड्रेस भी ऐसे ही. इतना सामान था कि जब हमने पांच हज़ार रुपया लगाया तो अहमुद्दीन बिगड़ गया. राजा को तो गद्दी से अलग कर दिया था. वही देख-भाल करता था.
बड़ा सख़्त डण्डेबाज़ दीवान था. तो बोला – “यह क्या ग़ज़ब करते हो फ़िदा हुसैन, कोई अंधेर है? कितना रुपया बर्बाद हुआ है पता है? लाओ रजिस्टर.” बिगड़ गया. बड़ा रौब था उसका. इंग्रेज़ की तरफ़ से रखा गया था उसको. रजिस्टर आया तो बोला – “देख, अपनी आंखें फोड़. यह देख, इसमें क्या लिखा है.” चालीस लाख रुपया बर्बाद हुआ था उस कम्पनी पर.
आग़ा साहिब भी थे वहां. पचास हज़ार रुपया तो सीता बनवास लिखवाने का दिया था. तीस हज़ार रुपया नगद दिया और बीस हज़ार रुपया खर्चा बैठा है उनका शराब का. पूरी दुनिया जानती है यह. जिस प्रेस में छपा था वहां फ़ौज का पहरा था चारों तरफ़ ताकि चोरी न हो जाए. ये सब उस वक़्त के नख़रे थे. आग़ा साहब की पोज़ीशन क्या थी आप जानते हैं? हिज़ हाइनेस उनको बाबा कहते थे. बड़े-बड़े महाराजा उनको मानते थे.
सर सी.वाई.चिन्तामणि थे न जिनका लीडर अख़बार निकलता था. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने आग़ा के सिवा और किसी का ड्रामा नहीं देखा. हम जब उनको बुलाने गए तो कहा – “भाई आग़ा का ड्रामा करो तो हम आएंगे.” बहुत क़द्र थी उनकी. सर मिर्ज़ा इस्माइल और….
आग़ा की कितनी इज़्जत थी इसका एक क़िस्सा सुनाऊं. रात को ड्रामा था. महल से निकलकर के बाहर की तरफ़ से मोटर आती थी राजा की. उनकी तो मोटर उधर से आ रही थी, लाइट पड़ रही थी. आग़ा साहब नशे में थे. रेशमी लुंगी. पेशाब खड़े होकर कर रहे थे. तो उसने दूर से सर्च लाइट में देखा तो तुरन्त लाइट बन्द करवाई – “रोक दो गाड़ी, रोक दो. बाबा डिस्टर्ब न हों.” ऐसी इज़्जत थी.
एक बार वो सिगरेट देने जा रहे थे. आग़ा साहब ने दरवाज़ा जो खोला तो राजा साहब के सिर में लगा. गुमड़ा पड़ गया मगर कुछ नहीं बोला. राजा था वो, हिज़ हाइनेस था. रियासत छोटी थी तो भी क्या हुआ, राजा तो था. पर कुछ न बोला. कहते का मतलब यह कि सात लाख की रियासत थी और चालीस लाख रुपये बर्बाद किया था थिएटर पर. ज़िद्दी था राजा. जब हमने सात हज़ार रुपये नहीं दिए तो नहीं दिया.
हम सामान छोड़कर चले आए.
कवर | प्रभात
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