पुस्तक अंश | वैशाली की नगरवधू

  • 9:38 am
  • 16 August 2021

आचार्य चतुरसेन ने चालीस के क़रीब उपन्यास लिखे हैं, पर ‘वैशाली की नगरवधू’ उनके सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है. इस उपन्यास के बारे में उन्होंने ख़ुद कहा था, ‘मैं अब तक की सारी रचनाओं को रद्द करता हूं और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं.’ इसी उपन्यास का यह अंश…

वैभवशालिनी वैशाली का जो ‘श्रेष्ठि-चत्वर’ नामक बाज़ार था, उसके उत्तर कोण पर एक विशाल प्रासाद, जिसके गुम्बजों का प्रकाश रात्रि को गंगा पार से भी दीखता था. बाहर का सिंहद्वार विशाल पत्थरों का बनाया गया था, जिसे उठाना और जोड़ना दैत्यों का ही काम हो सकता था. इन पत्थरों पर स्थापत्य कला और शिल्प की सूक्ष्म बुद्धि खर्च की गई थी. ड्‌योढ़ी पर गहरा हरा रंग किया हुआ था और ऊंचे महराबदार फाटक पर फूलों की गुंथी हुई सुन्दर मालाएं लटक रही थीं.

पहले आंगन में प्रवेश करने पर श्वेत अट्टालिकाओं की पंक्ति दीख पड़ती थी. उनकी दीवारों पर कांच की तरह चमकदार श्वेत पलस्तर किया गया था. सीढ़ियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के खुदरंग बहुमूल्य पत्थर लगे थे, और खिड़कियों में बिल्लौर के किवाड़ थे, जिनमें श्रेष्ठि-चत्वर की बहार बैठे-ही-बैठे दीख पड़ती थी. दूसरे आंगन में गाड़ी, बैल, घोड़े, हाथी बंधे थे और महावत उन्हें चावल-घी खिला रहे थे. तीसरे आंगन में अतिथिशाला तथा आगत जनों के ठहरने का प्रबंध था. यहां बहुत सुन्दर विशाल पत्थरों के खम्भों पर मेहराब खड़े हुए थे…

चौथे आंगन में नाट्यशाला और गायनभवन था. पांचवें आंगन में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्पकार और जौहरी लोग नाना प्रकार के आभूषण बना और रत्नों को घिस रहे थे. छठे आंगन में भिन्न-भिन्न देश के पशु-पक्षियों का अद्भुत संग्रह था. सातवां आंगन बिल्कुल श्वेत पत्थर का बना था, और उसमें सुनहरा काम हो रहा था. इसमें दो भीमकाय सिंह स्वर्ण की मेखलाओं से दृढ़तापूर्वक बंधे थे और चांदी के पात्रों में पानी भरा उनके निकट धरा था. गृहस्वामिनी अम्बपालिका इसी कक्ष में विराजती थी.

संध्या हो गई थी. परिचारक और परिचारिकाएं दौड़-धूप कर रही थीं, कोई सुगंधित जल आंगन में छिड़क रही थी, कोई धूप जलाकर भवन को सुवासित कर रही थी, कोई सहस्र दीप-गुच्छ में सुगन्धित तेल डालकर प्रकाशित करने में व्यस्त थी. बहुत-से माली तोरण और अलिन्द पर ताज़े पुष्पों के गुलदस्ते और मालाओं को सजा रहे थे. अलिन्द में दंडधर अपने-अपने स्थानों पर भाला टेक स्थिर भाव से खड़े थे. द्वारपाल तोरण पार अपने द्वार-रक्षक दल के साथ सशस्त्र उपस्थित था.

क्षण भर बाद प्रासाद भांति-भांति के रंगीन प्रकाशों से जगमगा उठा. भांति-भांति के रंगीन फव्वारे चलने लगे और उन पर प्रकाश का प्रतिबिम्ब इन्द्रधनुष की बहार दिखाने लगा. धीरे-धीरे प्रतिष्ठित नागरिक कोई पालकी में, कोई रथ पर और कोई हाथी पर चढ़कर प्रथम तोरण पार कर आने लगे. परिचारकगण दौड़-दौड़कर अतिथियों को सादर उतारकर भीतरी अलिन्द में पहुंचाने तथा उनकी सवारियों की व्यवस्था करने लगे. हाथी-घोड़े, रथ, पालकी आदि वाहनों का तांता लग गया. उनकी भीड़ से बाहर का विशाल प्रांगण भर गया.

सातवें तोरण के भीतर श्वेत पत्थर के एक विशाल सभा-भवन में अम्बपालिका नागरिक युवकों की अभ्यर्थना कर रही थी. वह भवन एक टुकड़े के 64 हरे रंग के पत्थर के खम्भों पर निर्मित हुआ था, और इस पर रंगीन रत्नों को जड़कर फूल-पत्ती, पक्ष तथा वन के दृश्य बनाए गए थे. छत पर स्वर्ण का पत्तर मढ़ा था, जहां पर बारीक़ खुदाई और रंगीन मीना का काम हो रहा था. इस विशाल भवन में दुग्ध-फेन के समान उज्ज्वल वर्ण का अति मुलायम और बहुमूल्य बिछावन बिछा था.

थोड़े-थोड़े अन्तर से बहुत-सी वेदियां, पृथक् बनी थीं, जहां कोमल उपधान, मद्य के स्वर्ण-पात्र और प्यालियां, जुआ खेलने के पासे तथा अन्य विनोद-सामग्री, भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रन्थ, बहुमूल्य चित्र तथा अन्य बहुत-सी मनोरंजन की सामग्री थीं. महाप्रतिहार अलिन्द तक अतिथि युवकों को लाता, वहां से प्रधान परिचारिका उसे कक्ष तक ले आती. कक्ष-द्वार पर स्वयं अम्बपालिका साक्षात् रति के समान आगत जनों का हाथ पकड़कर स्वागत करती, एक वेदी पर ले जाकर बैठाती, सुगन्ध और पुष्प-मालाओं से सत्कार करती तथा अपने हाथों से मद्य डालकर पिलाती थी.

उस स्वर्ग-सदन में, रूप, यौवन और जीवन के आलोक में अर्द्धरात्रि तक नित्य ही माधुर्य और आनन्द का प्रवाह बहता था. सैकड़ों दासियां दौड़-धूप करके याचित वस्तु तत्काल जुटा देतीं. फिर कुछ ठहरकर संगीत-लहरी उठती. कोमल तन्तु-वाद्य गम्भीर मृदंग के साथ वैशाली के श्रेष्ठि पुत्रों, राजवर्गियों और कुमारों के हृदय को मसोस डालता था. वाद्य की ताल पर मोम की पुतली के समान कुमारियां मधुर स्वर से स्वर-ताल और मूर्च्छनामय संगीत-गान करतीं, और नर्तकियां ठुमककर नाचती थीं. उस स्वप्न-सौन्दर्य के दृश्य को युवक सुगन्धित मद्य के घूंट के साथ पीकर अपने जन्म को धन्य मानते थे.

अम्बपालिका अब 20 वर्ष की पूर्ण युवती थी. उसका यौवन और सौन्दर्य मध्याकाश में था. और लिच्छवि गणतन्त्र के राजा ही नहीं, मगध, कोशल और विदेह के महाराजा तक उसके लिए सदैव अभिलाषी बने रहते थे. इन सभी महानृपतियों की ओर से रत्न, अस्त्र, हाथी आदि भेंट में आते रहते थे और अम्बपालिका अपनी कृपा और प्रेम के चिह्न-स्वरूप कभी-कभी ताज़े फूलों की एकाध माला तथा कुछ गंध द्रव्य उन्हें प्रदान कर दिया करती थी.

विधाता ने मानो उसे स्वर्ण से बनाया था. उसका रंग गोरा ही न था, उस पर सुनहरी प्रभा थी–जैसे चम्पे की अविकसित कली में होती है. उसके शरीर की लचक, अंगों की सुडौलता वर्णन से बाहर की बात थी. उस सौन्दर्य में विशेषता यह थी कि समय का अत्याचार भी उस सौन्दर्य को नष्ट न कर सका था. जैसे मोती का पर्त उतार देने से नई आभा, नया पानी दमकने लगता है, उसी प्रकार अम्बपालिका का शरीर प्रतिवर्ष निखार पाता था. उसका कद कुछ लंबा, देह मांसल और कुच पीन थे. तिस पर उसकी कमर इतनी पतली थी कि उसे कटिबंधन बांधने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी. उसके अंग-प्रत्यंग चैतन्य थे, मानो प्रकृति ने उन्हें नृत्य करने और आनन्द-भोग करने को ही बनाया था.

उसके नेत्रों में सूक्ष्म लालसा की झलक और दृष्टि में गज़ब की मदिरा भर रही थी. उसका स्वभाव सतेज था, चितवन में दृढ़ता, निर्भीकता, विनोद और स्वेच्छाचारिता साफ़ झलकती थी. उसे देखते ही आमोद-प्रमोद की अभिलाषा प्रत्येक पुरुष के हृदय में उत्पन्न हो जाती थी.

जैसा कहा जा चुका है, उसकी रंगत पर एक सुनहरी झलक थी, गाल कोमल और गुलाबी थे, ओंठ लाल और उत्फुल्ल थे, मानो कोई पका हुआ रसीला फल चमक रहा हो. उसके दांत हीरे की तरह स्वच्छ, चमकदार और अनार की पंक्ति की तरह सुडौल, कुच पीन तथा अनीदार थे. नाक पतली, गर्दन हंस जैसी, कंधे सुडौल, बाहु मृणाल जैसी थी. सिर के बाल काले, लंबे, घुंघराले तथा रेशम से भी मुलायम थे. आंखें काली और कंटीली, अंगुलियां पतली और मुलायम थीं. उन पर उसके गुलाबी नाख़ूनों की बड़ी बहार थी. पैर छोटे और सुन्दर थे. जब वह ठसक के साथ उठकर खड़ी हो जाती तो लोग उसे एकटक देखते रह जाते थे. उसकी भुजाओं और देह का पूर्व भाग सदा खुला रहता था.

वैशाली में बड़ी भारी बेचैनी फैल गई. अश्वारोही दल-के-दल नगर के तोरण से होकर नगर के बाहर निकल रहे थे. प्रतिहार लोग और किसी को न बाहर निकलने देते थे और न भीतर घुसने देते थे. तोरण के इधर-उधर बहुत-से नागरिक सेना का यह अकस्मात् प्रस्थान देख रहे थे. एक पुरुष ने पूछा-क्यों भाई, जानते हो यह सेना कहां जा रही है? उसने कहा-न, यह कोई नहीं जानता. अश्वारोही दल निकल गया. पीछे कई सेना-नायक धीरे-धीरे परामर्श करते चले गए.

क्षण-भर में संवाद फैल गया. मगध के प्रतापी सम्राट शिशुनागवंशी बिम्बसार ने वैशाली पर चढ़ाई की. गंगा के दक्षिण छोर पर दुर्जय मगध सेना दृष्टि के उस छोर से इस छोर तक फैली हुई थी. इस सेना में 10 हज़ार हाथी, 50 हज़ार अश्वारोही और पांच लाख पैदल थे.

वैशाली के लिच्छवि-गणतंत्र का प्रताप भी साधारण न था. गंगा के उत्तर कोण पर देखते-देखते सैन्य-समूह एकत्रित हो गया. लिच्छवियों के पास 8 हज़ार हाथी, 1 लाख अश्वारोही और 6 लाख पैदल थे.

तीन दिन तक दोनों दल आमने-सामने डटे रहे. तीसरे दिन लिच्छवि लोगों ने देखा, उस पार डेरों की संख्या कम हो गई है. निपुण सहस्रों सैनिक घाट से पार आने की तैयारी कर रहे हैं, यह समझने में देर न लगी. दोपहर होते-होते मगध-सेना गंगा पार करने लगी. लिच्छवि-सेना चुपचाप खड़ी रही. ज्यों ही कुछ सेना ने भूमि पर पांव रखा त्यों ही वैशाली की सेना जय-जयकार करते बढ़ चली, मानो सहस्र उल्कापात हुए हों. मेघ-संघर्षण की तरह घोर गर्जना करके दोनों सेनाएं भिड़ गईं. मगध-सेना की गति रुक गई. बाण, बर्छे और
तलवारों की प्रलय मच गई. उस दिन, दिन-भर संग्राम रहा. सूर्यास्त देख, दोनों सेनाएं पीछे को फिरीं.

दो मास से नगर का घेरा जारी है. बीच-बीच में युद्ध हो जाता है. कोई पक्ष निर्बल नहीं होता. नगर की तीन दिशाएं मगध-शिविर से घिरी हैं. बीच में जो सबसे बड़ा डेरा है, उसके ऊपर सोने का गरुड़ध्वज अस्त होते सूर्य की किरणों से अग्नि की तरह दमक रहा है. उसके आगे एक स्वर्ण-पीठ पर गौरवर्ण सम्राट विराजमान हैं. निकट एक-दो विश्वासी पार्षद हैं. सम्राट अति सुन्दर, बलिष्ठ और गम्भीरमूर्ति हैं. नेत्रों में तेज और स्नेह, दृष्टि में वीरत्व और औदार्य तथा प्रतिभा में अदम्य तेज प्रकट हो रहा है. सम्राट आधे लेटे हुए कुछ मंत्रणा कर रहे हैं. एक कर्णिक नीचे बैठा उनके आदेशानुसार लिखता जाता है. एक दंडधर ने आगे बढ़कर पुकारकर कहा–महानायक युवराज भट्टारकपादीय गोपालदेव तोरण पर उपस्थित हैं. सम्राट ने चौंककर उधर देखा और भीतर बुलाने का संकेत किया. साथ ही कर्णिक और मन्त्री को विदा किया.

गोपालदेव ने तलवार म्यान से खींच शीश से लगाई और फिर विनम्र निवेदन किया–महाराजाधिराज की आज्ञानुसार सब व्यवस्था ठीक है. देवश्री पधारने का कष्ट करें. सम्राट के नेत्रों में उत्फुल्लता उत्पन्न हुई. वे उठकर वस्त्र पहनने के लिए पट-मंडप में घुस गए.

वैशाली के राजपथ जनशून्य थे, दो प्रहर रात्रि जा चुकी थी, युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था. कहीं-कहीं प्रहरी खड़े उस अंधकारमयी रात्रि में भयानक भूत-से प्रतीत होते थे. धीरे-धीरे दो मनुष्य मूर्तियां अन्धकार का भेदन करती हुई वैशाली के गुप्त द्वार के निकट पहुंचीं.

एक ने द्वार पर आघात किया, भीतर प्रश्न हुआ–संकेत?

मनुष्यमूर्ति ने कहा–अभिनय!

हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया. दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़, अंधेरी गलियों की अट्टालिकाओं की परछाईं में छिपती-छिपती आगे बढ़ने लगीं. एक स्थान पर प्रहरी ने बाधा देकर पूछा–कौन? एक व्यक्ति ने कहा–आगे बढ़कर देखो. प्रहरी निकट आया. हठात् दूसरे व्यक्ति ने उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया. दोनों फिर आगे बढ़े. अम्बपालिका के द्वार पर अन्ततः उनकी यात्रा समाप्त हुई. द्वार पर एक प्रतिहार मानो उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. संकेत करते ही उसने द्वार खोल दिया और आगन्तुकगण को भीतर लेकर द्वार बंद कर लिया.

आज इस विशाल राजमहल सदृश भवन में सन्नाटा था. न रंग-बिरंगी रोशनी, न फव्वारे, न दास-दासी गणों की दौड़-धूप. दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रतिहार के साथ जा रहे थे. सातवें अलिन्द को पार करने पर देखा, एक और मूर्ति एक खम्भे के सहारे खड़ी है. उसने आगे बढ़कर कहा–इधर से पधारिए श्रीमान्! प्रतिहार वहीं रुक गया. नवीन व्यक्ति स्त्री थी और वह सर्वांग काले वस्त्र से ढांपे हुए थी. दोनों आगन्तुक कई प्रांगण और अलिंद पार करते हुए कुछ सीढ़ियां उतरकर एक छोटे-से द्वार पर पहुंचे जो चांदी का था और जिस पर अतिशय मनोहर जाली का काम हो रहा था और उसी जाली में से छन-छनकर रंगीन प्रकाश बाहर पड़ रहा था.

द्वार खोलते ही देखा, एक बहुत बड़ा कक्ष भिन्न-भिन्न प्रकार की सुख-सामग्रियों से परिपूर्ण था. यद्यपि उतना बड़ा नहीं, जहां नागरिकजनों का प्रायः स्वागत होता था, परन्तु सजावट की दृष्टि से इस कक्ष के सम्मुख उसकी गणना नहीं हो सकती थी. यह समस्त भवन श्वेत और काले पत्थरों से बना था. और सर्वत्र ही सुनहरी पच्चीकारी का काम हो रहा था. उसमें बड़े-बड़े बिल्लौर के अठपहलू अमूल्य खम्भे लगे थे, जिनमें मनुष्य का हूबहू प्रतिबिम्ब सहस्रों की संख्याओं में दीखता था.

बड़े-बड़े और भिन्न-भिन्न भावपूर्ण चित्र टंगे थे. सहस्र दीप-गुच्छों में सुगन्धित तेल जल रहा था. समस्त कक्ष भीनी सुगन्ध से महक रहा था. धरती पर एक महामूल्यवान् रंगीन बिछावन था जिस पर पैर पड़ते ही हाथ भर धंस जाता था. बीचोंबीच एक विचित्र आकृति की सोलह-पहलू सोने की चौकी पड़ी थी, जिस पर मोर-पंख के खम्भों पर मोतियों की झालर लगा एक चंदोवा तन रहा था और पीछे रंगीन रेशम के परदे लटक रहे थे, जिसमें ताज़े पुष्पों का शृंगार बड़ी सुघड़ाई से किया गया था. निकट ही एक छोटी-सी रत्नजटित तिपाई पर मद्य-पात्र और पन्ने का बड़ा-सा पात्र धरा हुआ था.

हठात् सामने का परदा उठा और उसमें वह रूप-राशि प्रकट हुई जिसके बिना अलिंद शून्य हो रहा था. उसे देखते ही आगन्तुकगण में से एक तो धीरे-धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया, दूसरा व्यक्ति स्तम्भित-सा खड़ा रहा. अम्बपालिका आगे बढ़ी. वह बहुत महीन श्वेत रेशम की पोशाक पहने हुए थी. वह इतनी बारीक़ थी कि उसके आर-पार साफ़ दीख पड़ता था. उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी. पर यह कमर तक ही था. वह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी. इसलिए उसकी
कमर के ऊपर के अंग-प्रत्यंग साफ़ दीख पड़ते थे.

विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था. हमारी तो यह धारणा है कि कोई चित्रकार न तो वैसा चित्र ही अंकित कर सकता था और न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था.
उस भुवन-मोहिनी की छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई. गहरे काले रंग के बाल उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कंधों पर लहरा रहे थे. स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गुथा हुआ आभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था. उसकी काली और कंटीली आंखें, तोते के समान नुकीली नाक, बिम्बफल जैसे अधर-ओष्ठ और अनारदाने के समान उज्ज्वल दांत, गोरा और गोल चिबुक बिना ही शृंगार के अनुराग और आनन्द बिखेर रहा था. अब से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व की वह वैशाली की वेश्या ऐसी ही थी.

मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी और इसलिए उसका उन्मत्त कर देनेवाला मुख साफ़ देखा जा सकता था. वह अपनी पतली कमर में एक ढीला-सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी. हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी और गोरी-गोरी गोल कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हुई थी. उस मकड़ी के जाले के समान बारीक उज्ज्वल परिधान के नीचे, सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घाघरा था, जो उस प्रकाश में बिजली की तरह चमक रहा था. पैरों में छोटी-छोटी लाल रंग की उपानत् थीं, जो सुनहरे फ़ीते से कस रही थीं.

उस समय कक्ष में गुलाबी रंग का प्रकाश हो रहा था. उस प्रकाश में अम्बपालिका का मानो परदा चीरकर इस रूप-रंग में प्रकट होना आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण-सा प्रतीत हुआ. वह अभी तक स्तब्ध खड़ा था. धीरे-धीरे अम्बपालिका आगे बढ़ी. उसके पीछे 16 दासियां एक ही रूप और रंग की मानो पाषाण-प्रतिमाएं ही आगे बढ़ रही थीं.

अम्बपालिका धीरे-धीरे आगे बढ़कर आगन्तुक के निकट आकर झुकी और फिर घुटने के बल बैठ, उसने कहा–परमेश्वर, परम वैष्णव, परम भट्टारक, महाराजाधिराज की जय हो. इसके बाद उसने सम्राट के चरणों में प्रणाम करने को सिर झुका दिया. दासियां भी पृथ्वी पर झुकी गईं.

आगन्तुक महाप्रतापी मगध-सम्राट बिम्बसार थे. उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपालिका को ऊपर उठाया. अम्बपालिका ने निवेदन किया–महाराजाधिराज पीठ पर विराजें. सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका, वे पीठ पर विराजमान हुए. अम्बपालिका ने नीचे धरती पर बैठकर सम्राट का गन्ध, पुष्प आदि से सत्कार किया. इसके बाद उसने अपनी मद-भरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा–महाराजाधिराज ने बड़ी अनुकंपा की, बड़ा कष्ट किया.

सम्राट ने किंचित् मोहक स्वर में कहा–अम्बपाली! यदि मैं यह कहूं कि केवल विनोद के लिए आया हूं तो यह यथार्थ नहीं. तुम्हारे रूप-गुण की प्रशंसा सुनकर स्थिर नहीं रह सका, और इस कठिन युद्ध में व्यस्त रहने पर भी तुम्हें देखने के लिए शत्रुपुरी में घुस आया, परन्तु तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है.

अम्बपालिका–(लज्जित-सी होकर ज़रा मुस्कराकर) मैं पहले ही सुन चुकी हूं कि देव स्त्रियों की चाटुकारी में बड़े प्रवीण हैं.

सम्राट-चाटुकारी नहीं, अम्बपालिके! तुम वास्तव में रूप और गुण में अद्वितीय हो!

अम्बपालिका–श्रीमान्, मैं कृतार्थ हुई. इसके बाद वह अपने मुक्तावनिंदित दांतों की छटा दिखाते हुए सम्राट की सेवा में खड़ी हुई. सम्राट ने प्याला ले और उसे खींचकर बगल में बैठा लिया. संकेत पाते ही दासियों ने क्षणभर में गायन-वाद्य का संरजाम जुटा दिया. कक्ष संगीत-लहरी में डूब गया और उस गम्भीर निस्तब्ध रात्रि में मगध के प्रतापी सम्राट उस एक वेश्या पर अपने साम्राज्य को भूल बैठे.

बुलन्दशहर के चांदौख गाँव में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई थी. पढ़ाई पूरी करने के बाद आयुर्वेद के स्वाध्याय के बूते वैद्य बने और 1917 में लाहौर के डी.ए.वी. कॉलेज में आयुर्वेद के शिक्षक हुए. कुछ अर्से बाद अजमेर आ गए. इस सब के बीच लिखना-पढ़ना बना रहा. बम्बई में रहते हुए उन्होंने पहला उपन्यास ‘हृदय की परख’ लिखा, जो सच्ची घटना पर आधारित था. आचार्य चतुरसेन ने चार सौ से ज़्यादा कहानियाँ और दो दर्जन से ज़्यादा उपन्यास लिखे. कुछ नाटक भी लिखे. इसके अलावा वह इतिहास, राजनीति, धर्म, शिक्षा, समाज और स्वास्थ्य-चिकित्सा सरीखे अलग-अलग विषयों पर भी लगातार लिखते रहे. ‘गोली’, ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘सोमनाथ’, ‘वयं रक्षाम:’ और ‘सोना और ख़ून’ उनके मशहूर उपन्यासों में शामिल हैं.
जन्म | 26 अगस्त, 1891
निधन | 2 फरवरी, 1960

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