किताब | देवदास की नहीं, नमिता गोखले की पारो
शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास ‘देबदास’ (1917) में पारो के किरदार का असली नाम पार्वती है. ये वो पार्वती है, जिसका प्यार परवान न चढ़ सका, उन चंद लम्हों के लिए भी नहीं, जब देवदास उसके घर के बाहर आख़िरी साँसें गिन रहा था. प्रेम और विरह के दर्द की अद्भुत कहानी तीन किरदारों की है – देवदास, उसके बचपन की दोस्त पारो यानी पार्वती और पेशे से तवायफ़ चंद्रमुखी की.
देवदास के अज़ीम किरदार और उसकी इस कहानी पर हिंदी में तीन फ़िल्में बन चुकी हैं. हालांकि पार्वती या पारो और चंद्रमुखी के किरदार भी कुछ कम नहीं हैं, फिर भी फ़िल्म बनाने वालों ने हर बार पुरुष प्रधान फ़िल्म ही बनाई. इसके बावज़ूद फ़िल्म देख कर जब आप बाहर आतें हैं तो चंद्रमुखी या पारो के बारे में ही बात कर रहे होते हैं, हर पल अपने को मौत की तरफ़ धकेलता हुआ देवदास मर चुका होता है.
‘कौन कम्बख़्त है जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है, मैं तो पीता हूँ के बस साँस ले सकूँ… ‘ फ़िल्म पहली बार 1936 में कुंदन लाल सहगल, दूसरी बार 1955 में दिलीप कुमार और 2002 में शाहरुख़ ख़ान को केंद्र में रखकर बनीं. इस उपन्यास को आए 107 साल और आख़िरी देवदास फ़िल्म को आए हुए भी 22 साल हो चुके हैं. कुछ ऐसा है कि इस कहानी में कि हम इसे भूलना नहीं चाहते. इश्क़ की टीस और इस बुझते अलाव में चिंगारियों को ज़िंदा रखना चाहते हैं. तीनों फ़नकार ट्रेजेडी किंग माने जाते हैं, फिर भी पार्वती या पारो की ट्रेजेडी फ़िल्म की ट्रेजेडी है.
यों आपका दिल किस पारो पे लुटा था?
एक पारो और है. इस पारो की ट्रेजेडी भी शरत चंद्र की पारो कम नही. अदब या साहित्य की दूसरी पारो. नमिता गोखले के अंग्रेज़ी नॉवेल ‘पारो’ वाली पारो. नमिता जी ने अपनी पारो के किरदार को पार्वती की लाग-लपेट से दूर रखा. ये पारो 80 के दशक की दिल्ली से है, शरत चंद्र के भद्र लोक से दूर. इस पारो को अवतरित हुए भी 40 बरस हो चुके हैं. पहली बार यह क़िताब 1984 में छपी थी. इस पारो को मैं कल दोबारा मिला.
21वीं सदी के माहौल में पारो ने एक और उत्तेजक अंगड़ाई लेकर ढ़ीली चड्डी वाले दिल्ली के मर्दों की फिर से आज़माइश करने की ठानी है. कहीं रूमानी, कहीं आशिक़ाना और कहीं कामुकता के हर परदे को उठाती पारो ऊपरी सतह पर तैरती समाज की हर असलियत और कमज़ोरी को बीच-बीच में सामने लाती है.
हर औरत के अंदर छुपी एक पारो है, ज़रूरी नहीं कि उसके सपने लालसा और वासना से भरे हुए हों पर वह भी अमीरों और पहुंचे हुए तबके की दुनिया को देखना चाहती है, छूना और महसूस चाहती है, उसका सुख लेना चाहती है. वो जानना चाहती है कि देखते ही देखते दूसरी औरत कैसे मध्यम वर्ग से उच्च वर्ग में अपनी पहचान बना लेती है और यह समाज कितनी आसानी से सब देख कर भी अनदेखा कर देता है, मक्खी निगल लेता है. पारो की कहानी में प्रिया बताती है, दिल्ली और बम्बई के समाज के बारे में, जहाँ कोई देवदास नहीं होता, फिर भी प्रेम ट्रेजेडी ही बनकर रह जाता है.
पारो के नए संस्करण और किताब के 40 साल के सफ़र पर नमिता गोखले से अम्ब्रीश सात्विक की रोचक बातचीत कल शाम यानी 24 अगस्त को दिल्ली के हैबिटैट सेंटर में हुई, जिससे लेखक और किताब के बारे में कुछ नई बातों का पता चला. इसी साल, 2024 में, पेंगुइन ने इसे अपनी क्लासिक श्रंखला में छापकर ‘पारो’ को गौरव ग्रन्थ या आला दर्जे का क़रार दिया है. पारो यक़ीनन एक क्लासिक है, पढ़कर देखिए, आपको भी यक़ीन हो जाएगा.
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पुस्तक अंश | धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर
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