पाठकीय प्रतिक्रिया | पैबंद की हंसी
जिस दौर में हम जी रहे हैं, लिखने वालों का एक तबका ख़ासे मशीनी ढंग से लिखे जा रहा है, इसमें अख़बारी लेख-विश्लेषण से लेकर कविता-कहानी सब शामिल हैं. और ऐसी कविताएं संवेदना के अर्थ में तो मशीनी लगती ही हैं, उनकी तादाद भी इसी बात की ताईद करती है. वाद के सांचे तो ख़ैर पुराने हुए, मगर जितनी तेज़ी से और जिस तरह ये लिखी जा रही हैं, उसे पढ़कर कोई श्रेणी तय कर पाना सचमुच आसान नहीं लगता. कविता लिखने के लिए महसूस करने की ज़रूरत भी ख़त्म मान ली गई लगती है. यह ग़ौर करना भी ख़ासा दिलचस्प है कि इन कविताओं पर दाद देने वाला पाठकों का वर्ग भी तैयार हो चुका है. सोशल मीडिया के असर में दाद देने वालों का गोल अब हर किसी को मयस्सर है. बाक़ी ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस’ ज़िंदाबाद.
ऐसे में ‘पैबंद की हंसी’ पढ़ना अलग क़िस्म का तजुर्बा है. डॉ.कविता अरोरा के इस पहले संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए कई बार महसूस होता है कि कोई भी बात कहने के लिए तजुर्बा क्यों ज़रूरी है, अपनी दुनिया और समाज को, समय को, समय के सवालों की शिनाख़्त क्यों महत्व की है. क़लम के साथ ही वह निगाह भी क्यों चाहिए, जो सिर्फ़ देखकर गुज़र न जाए, दिमाग़ पर दर्ज भी करती रहे. देखे हुए को महसूस करने का शऊर होगा तो ज़ाहिर है कि कहन में तासीर पैदा करेगा, उसे पुरअसर बना डालेगा. फिर चाहे आप कहानी लिख रहे हों, कविता कर रहे हों या कि भाषण!
इस संग्रह की कविताओं में प्रकृति है, मौसम है, मायूसी और ग़ुस्सा है, ज़माने के तक़ाज़े हैं, उनसे पैदा होने वाली घुटन और बेचारगी है, और कुछ परेशान करने वाले सवाल भी. इनके मायने झट से नहीं खुलते, कविता के किरदार कई बार सोचने-महसूस करने का वक़्त देते हैं, और जब तक ये आप पर ज़ाहिर न हो जाएं, बराबर साथ बने रहते हैं – पहली दफ़ा मैंने/ समन्दर देखा/ या समन्दर ने मुझे/ हैरतें दोनों की/ उबाल पर थीं/ लहरें लपक कर दौड़ीं/ गले लगाने को/ शायद/ इक नदी को छूना था/ वापस अपना गाँव/ जहाँ के जंगलों से गुज़रते थे/ उनके भी रास्ते.
इन कविताओं से गुज़रना इस मायने में भी तसल्ली देता है कि वे तेज़ी से भागने की आदी हो चुकी ज़िंदगी और कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदलती फ़ितरतों के बीच रवायतों के ऐसे बिम्ब रचती हैं, जो अमूमन पुराने माने जा चुके हैं, लिखने-पढ़ने वालों की निगाहों से भी ओझल हो चुके हैं. इन्हीं बिम्बों के हवाले से डॉ. कविता इंसानी सरोकार, उसकी उलझनें, उहापोह, बेचैनी और छटपटाहट के असर वाली बातें कहती हैं. इसे ‘बल्लीमारान’ के हवाले से, ‘कलावे’, ‘तरक़्क़ी’ या ‘चौराहे’ शीर्षक से लिखी गई दो कविताओं से बख़ूबी समझा जा सकता है.
चौराहे पर पहली कविता में एक सवाल है – इन पोटलियों की/ गाँठों में ही तो हैं/ लानतें/ नेस्तियां/ बुरी नज़र/ बद्दुआयें/ और तमाम वजह/ इनके दुखों की/ फिर क्यूँ/ इन रवायती औरतों की/ फ़िक्रें/ कम नहीं होतीं ? इसे पढ़ते हुए आप उन औरतों का तसव्वुर कर सकते हैं, जिनका अक़ीदा है कि ये टोटके फ़्रिक्र से उनकी निजात का रास्ता हैं. ये लाल कपड़े की पोटलियाँ या मिट्टी की हाँडी से कहीं ज़्यादा मुश्किलों से पार पाने की उम्मीद हैं. इंसानी ज़िंदगी में तकलीफ़ों के कितने ही तो रंग हैं. और अगर आपने उनको कभी ख़ुद देखा है तो बेसाख़्ता वे चेहरे आपके ज़ेहन में उभर आएंगे. सुबह घर से बाहर निकल कर चौराहे से गुज़रते हुए वहाँ रखी हुई कोई पोटली, धूप-फूल और सिंदूर की छवियाँ याद आ जाएंगी. चित्रकार सिद्धार्थ कहते हैं कि ठोकर में भी मिल गए पत्थर पर अगर सिंदूर लगाकर रख दें तो हमारी चेतना उससे शक्ति पाने लगती है. मगर उनका क्या, जो इसे माथे पर लिए घूमती हैं?
कुछ कविताओं को छोड़ दें तो इस संग्रह की तमाम कविताओं के केंद्र में स्त्री है. बचपन से लेकर बड़ा होने तक या यों कहें कि साँस रहने तक स्त्री-जीवन के तमाम शेड्स इन कविताओं में मिलते हैं. वह कहती हैं – जितनी हो/ उतनी तो बचो. या फिर – देवी के दर्जे में अब/ कोई जान नहीं है. ‘एय मेरी नन्हीं परी’ का आह्वान है – तू बढ़ और छा जा/ सदियों की काली रवायत पर/ कि घिसी पिटी क़वायद पर/ हम बहुत चल चुके.
हालांकि इन कविताओं को सिर्फ़ स्त्री सरोकार तक सीमित करके देखना ज़्यादती होगी, ये तो अपने समय को दर्ज करती आगे बढ़ती हैं. ‘जेब’, ‘चुनाव’, ‘इन दिनों’, ‘चाय’ और ‘चनाब’ में हमारे आसपास की दुनिया और दुनियादारी के आग्रहों की झलक है. ख़ूब जुटा मजमा/ ख़ूब बजी बीन/ बीन पर/ पूँछ के सहारे खड़े खड़े/ कुछ साँपों के क़द/ अचानक से बढ़ गये.
ये कविताएं जगह-जगह ‘नॉस्टेलजिया’ रचती हैं मगर इनकी ज़बान नए ज़माने की है, एकदम अवामी ज़बान – हिंदी-उर्दू के साथ ही थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी भी – विक्टिम, डिस्कशन, इंजेक्ट, डिसाइड, वैल्यू, क्राइम, माइथॉलॉजी, एक्सरों. भाषाई शुद्धता के आग्रह को दरकिनार करके ख़ुद को अभिव्यक्त करने की आज़ादी इन कविताओं का एक और रंग है.
कविता-संग्रह की शुरुआत में क़रीब चालीस पन्नों में फैली कविताओं का विश्लेषण करती टिप्पणियाँ अलबत्ता अखरती हैं. ये टीपें कविता पढ़ने-समझने के लिए पाठकों को कुंजी जैसा फ़्रेम मुहैया करती हैं. यह पाठकीय विवेक को चुनौती की तरह लग सकती हैं. ये पन्ने अगर संग्रह का हिस्सा नहीं होते तो भी कोई हर्ज़ नहीं था. मुझे लगता है कि कविताओं के साथ अगर उनका रचना-काल भी दर्ज होता तो बेहतर रहता. एक लिहाज़ से यह रचनाकार के क्रमिक विकास का पता देता. कहीं-कहीं प्रूफ़ की गलतियां रह गई हैं. हालांकि हमारे दौर में यह जैसे किताबों का किरदार बन गया है.
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