किताब | ग्लोबल गाँव के देवता

  • 4:35 pm
  • 5 February 2025

उस गहरे भूरे रंग की तस्वीर में धूसर वनस्पतियाँ हैं, पहाड़ और चट्टानें हैं और खेतिहरों की ज़िंदगी में आधुनिकता की नुमांइदगी करने वाला एक ट्रैक्टर भी, इस विराट भू-दृश्यावली के एक कोने में गोलबंद होकर बैठी कुछ इंसानी छवियाँ हैं और इन सबके ऊपर उड़ते एरावत पर सवार एक शख़्स है, जिसके सिर पर अंकल सैम की तरह का लाल धारियों वाला ऊंचा टोप है. यह रणेंद्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का कवर है, कथावस्तु की बानगी पेश करती भारती की इस तस्वीर को हम उपन्यास का ट्रेलर कह सकते हैं.

पिछले साल छपा यह उपन्यास असुर आदिवासियों के वजूद पर सदियों से मंडराते आए संकट के सघन होते जाते जाने की मर्म छूने वाली कहानी है, खनिज सम्पदा का दोहन करने वाली कम्पनियों, लालची दबंगों और सत्ता के गंठजोड़ को रेखांकित करने के साथ ही यह राजसत्ता की ताक़त के बूते लगातार पीछे धकेले जाने वाले आदिवासियों के संघर्ष की गाथा है, तमाम संघर्षों के बावजूद जंगल और ज़मीन से बेदख़ल होते जाने और उनकी सभ्यता और संस्कृति के नेस्तनाबूद होने का शोक-गीत भी है. ऐसा ही एक गीत उपन्यास में इस तरह आया है—एक जख़्मी हिरण/ अपने पीछे आते हुए/ शिकारी की आवाज़ सुनकर/ अपने आप को/ अपनी पूर्ण मृत्यु के लिए/ तैयार कर रहा है.

बाक्साइट की खदानों वाले एक छोटे-से पहाड़ी आदिवासी गाँव में अवस्थित इस उपन्यास का वितान बड़ा है, झारखंड और बिहार के वनों से लेकर ओटावा और वर्जीनिया प्रांत तक, बाणासुर और बकासुर की आन-बान से शुरू करके रेड इंडियन्स के मुखिया राजा मैटकोम और राजा पोवातन की जद्दोजदह तक, और यह सारा कुछ इतनी तेज़ रफ़्तार से निगाहों के सामने आता और गुज़र जाता है कि इसे पढ़ना ख़त्म करके ही भाव और प्रतिक्रिया को सहेजने-व्यवस्थित करने की मोहलत मिलती है. जो लोग किसी आदिवासी समाज और उनकी ज़िंदगी से थोड़ा-बहुत वाक़िफ़ हैं, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ पढ़ते हुए बहुतेरी घटनाएं और किरदार और व्यवस्था की भूमिका उन्हें पहचानी हुई ज़रूर मालूम होगी.

वैदिक काल के सप्तसिंधु के इलाक़े से लगातार पीछे हटते हुए आज़मगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर होते हुए कीकट, पौंड्रिक, कोकराह या चुटिया नागपुर के वन-प्रांतर तक पहुँचने का ब्योरा पढ़ते हुए मुझे याद आया कि गोरखपुर में असुरन नाम का एक मोहल्ला अब भी आबाद है. कहते हैं कि उस इलाक़े में कभी असुर आदिवासी रहा करते थे. उस मोहल्ले के नामकरण की तफ़्तिश करने के क्रम में मैने पहली असुर आदिवासियों के बारे में जाना था. उपन्यास में जंगल के आदिवासी गाँवों को ख़ाली कराके भेड़िया अभयारण्य बनाने की सरकारी मंशा का ज़िक्र आता है तो राजाजी नेशनल पार्क बनने के बहुत पहले से वहाँ के जंगलों में आबाद गुज्जरों के डेरे हटाने और उन्हें खदेड़ने के वाक़ये ज़ेहन में कौंध जाते हैं, और गोरखपुर में तो असुरन के ऐन पीछे वाला पॉश इलाक़ा भेड़ियागढ़ ही कहा जाता है.

उपन्यास के बाबा का चरित्र और कंठी अभियान में मांस-मदिरा त्यागने के उनके आग्रह को पढ़ते समय मुझे श्रावस्ती में थारू आदिवासियों के उस गाँव की याद भी आई, जहाँ वर्षों से कितने ही धर्मों के प्रचारक थारुओं को अपना अनुयायी बनाने का अभियान छेड़े हुए हैं. उन्हें अपने में मिला लेने की मंशा लेकर जब-तब वहाँ पहुंचने वाले धर्माचार्यों के लिए दरअसल थारू ऐसी कोरी स्लेट की तरह हैं, जिस पर वे अपनी पहचान दर्ज करना चाहते हैं. एक थारू बुजुर्ग़ ने बताया था कि हरिद्वार से आए कुछ लोगों ने उनसे कहा कि वे शराब पीना और मांस खाना छोड़ दें, उन्हें एक मंत्र दिया और हवन करना सिखाया. वे लोग तीन दिनों तक रुके, गाँव के लोगों ने उनका कहा मान लिया. फिर वे लौट गए और जब धान की रोपनी का मौक़ा आया तो थारुओं ने अपनी रवायत के मुताबिक़ सूअर की बलि दी और गुरुवा ने सबको उसका गोश्त प्रसाद के तौर पर बाँट दिया. वे वापस अपनी दुनिया में लौट आए थे.

पलिया के एक थारू गाँव में नगालैण्ड से आए एक दम्पति को यीशु की कथा सुनाते हुए देखने का मौक़ा मिला था, कथा सुनने के लिए जुटे लोग पुजारी दम्पति को भेंट करने के लिए अपने घर से कटोरे में सीधा (आटा, दाल या चावल) साथ लेकर आए थे. बलरामपुर की एक थारू बस्ती में मिल गए कुछ लोगों ने बताया कि एक बार एक घर के दरवाज़े पर क्रॉस लगा देखकर उन्हें मालूम हुआ कि उस घर के लोग मिशनरियों के प्रभाव में आ गए हैं. पंचायत बुलाई गई और जब उस घर का मालिक वहाँ पहुँचा तो लोगों ने उसे पटक कर पीटा, दरवाज़े से क्रॉस उखाड़कर फेंक दिया. और मेरे यह पूछने पर कि फिर क्या हुआ, उन्होंने जवाब दिया था—वो फिर से थारू हो गया और क्या? पिछले तीस वर्षों में जब-तब थारू गाँवों में जाते रहने के अपने तजुर्बे के हवाले से मैं जानता हूँ कि उनकी ज़िंदगी में बड़ा बदलाव आया है, विकास के नाम पर उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिशों की कई संगठनों और सरकारों की कामयाबी ने उनसे जंगल और उनका थारूपन छीन लिया है.

कंठी बाबा के झांसे में आए उपन्यास के असुर पात्रों ने भी अपनी रीतियाँ छोड़ दीं, खान-पान बदल लिया और काले रंग को अशुभ मानकर सारे काले जानवर औने-पौने दाम में हाट जाकर बेच आए. उनकी पहचान पर यह हमला, उस हमले से बिल्कुल अलग नहीं लगता जो कंपनियों के अफ़सर, सरकारी अमला और राजनेताओं की साझेदारी में उनकी अस्मिता छीन लेने पर आमादा है. उपन्यास में आदिवासियों को शुद्ध करने के निमित्त कंठी आंदोलन के क़िस्सों के साथ ही दूसरे तमाम ऐसे प्रसंग आते हैं, जिन्हें हम अपने आसपास की दुनिया से जोड़कर तुरंत पहचान लेते हैं. कितने ही मिथक और किंवदंतियां हैं, जो लोहा पिघलाने और लोहा पी जाने वाले पुरखों की स्मृतियों के साथ ही शोषण, दमन, छल और क्रूरता से उन्हें हराने का आख्यान हैं. और इन सबके बीच ही उनके समाज में प्रचलित मान्यताओं, रीति-रिवाज़ों और अंधविश्वासों का पता भी मिलता है.

उपन्यास में कई जगह अमेरिका के मूल निवासियों यानी रेड इंडियन्स के दमन और उनकी ज़मीन से उन्हें बेदख़ल करने के ऐतिहासिक प्रसंग यह भी रेखांकित करते हैं कि आदिवासी दुनिया में कहीं भी हों, सभ्य कहे जाने वाले समाज से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझते रहना उनकी नियति बन गया है. इस लिहाज़ से ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ असुरों के संघर्ष के हवाले से दुनिया भर के आदिवासियों के संघर्ष की नज़ीर बन जाता है.

    उपन्यासः ग्लोबल गाँव के देवता
    लेखकः रणेन्द्र
    प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स
    क़ीमतः 250 रुपये
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