लखनऊ पर युसूफ़ी का जुमला और क़ाज़ी अब्दुल सत्तार का बखान

  • 9:10 am
  • 29 October 2023

(पद्मश्री क़ाज़ी अब्दुल सत्तार को उपन्यासकार और आलोचक के तौर पहचाना जाता है, उन्होंने कहानियाँ भी लिखी हैं. ज़ाती तौर पर अपने जानने वालों के बीच वह बेहद बेबाक़ और ख़रे शख़्स के तौर पर जाने जाते रहे. कथाकार प्रेम कुमार ने उनकी शख़्सियत पर एक किताब लिखी है – बातों-मुलाक़ातों में क़ाज़ी अब्दुल सत्तार. लखनऊ की बाबत मुश्ताक अहमद युसूफ़ी की एक टिप्पणी पर क़ाज़ी साहब की प्रतिक्रिया का यह प्रसंग इसी किताब से है. -सं)

सुबह हुए देर हो चुकी थी. चूँकि दिन दिसम्बर के आख़िरी हिस्से का था इसलिए धूप निचुड़ी-टपकी बूँदों की तरह जैसे-तैसे ज़मीन तक आ पा रही थी. धूप के हिसाब से कुर्सियाँ आगे-पीछे खिसके जा रही थीं. लखनऊ का ज़िक्र हो और क़ाज़ी अब्दुल सत्तार सिहर-मचल न उठें, यह नहीं हो सकता. अपने दिलों के लखनऊ तक पहुँचने में उन्हें ज़रा भी तो देर नहीं लगती. लखनऊ की संस्कृति-तमीज़-तहज़ीब की बातें करते वे भावुक हो जाते है- वहीं तब से अब तक के आ चुके बदलावों को लेकर उद्विग्न-आवेशित भी. तब वे अपने समय के अदीबों और वहाँ के अदबी माहौल का ख़ुश-ख़ुश, जोश भरे-से अंदाज़ में बयान कर रहे थे. काज़ी साहब कुछ लिखें, बोलें या सुनाएँ, कुछ है कि उसमें इतिहास अपने आप आकर मिलने लगता है- और उनकी वह अभिव्यक्ति अफ़साना तो होती ही होती है.

बोलते-बोलते अचानक जिस तरह से वे तन-सँभल कर बैठे अनुमान हो गया था कि अब ज़रूर अपनी रग को किसी के द्वारा दुखाए जाने का उन्हें ध्यान हो आया है. शब्द तीखे-नुकीले से हो चले थे अनायास – ‘नहीं -उर्दू का नहीं- यूँ कहें कि पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रोज़ राइटर -मुश्ताक अहमद युसूफ़ी- उन्होंने कहीं लिखा है कि जब लखनऊ का ख़्याल आता है तो उनको चारपाई, इक्का, रसावल, अरहर की दाल और लगी हुई-ज़रा जली हुई खीर का ख़याल आता है. चेहरे पर शोले जैसी एक लपक दिखी है, ‘इसे पढ़कर मुझे बहुत अफ़सोस हुआ. उर्दू का इतना बड़ा अदीब ऐसी छोटी बात कैसे लिख गया.’ ज़रा-सी उस ख़ामोशी के बाद काज़ी साहब की बड़ी परिचित, प्रसिद्ध-सी वह मुस्कान उनके होठों पर नाचने लगी जो विपक्षी का काम-तमाम कराने के लिए किसी दिव्यास्त्र की तरह स्वयं आ उपस्थित होती है. ‘फिर ख़्याल आया कि युसूफ़ी किसी इक्के पर सवार होकर किसी भटियारी की सराय में पहुँचे होंगे. वहाँ खुर्री चारपाई पर बैठकर अरहर की दाल, रसावल और जली हुई खीर खाई होगी. वो शायद नहीं जानते कि लखनऊ क्या है…? आइए, हम बताते हैं आपको लखनऊ के बारे में थोड़ा-सा कुछ!’

सिर आरामकुर्सी के उस धारीदार निवाड़ से आ टिका. पैर फैले. आँखें आसमान की ऊँचाई तक ऊपर उठीं- और निगाह चश्मे के शीशों की बंदिशों को पार कर आसमान में परवाज़ के इरादे से दौड़ गई- “पहले तो इक्का ले लीजिए. जब मैं 1950 में वहाँ गया तो पुराने लखनऊ में दो-चार इक्के नज़र आते थे. इक्के पर जोश का जुमला बहुत मशहूर है कि सिकंदर आज भी इक्के पर बैठा हो तो किसी देहाती रंडी का भड़ुआ मालूम हो. लखनऊ के क़रीब के शहरों से भी इक्के बहुत जल्दी गायब हो गए. यूसुफ़ी ने रसावल का ज़िक्र किया है और रसावल जाड़ों की चीज़ है. इसलिए यक़ीन है कि वो जाड़ों में आए होंगे. पर लखनऊ तो जाड़ों में अपनी बहार पर होता था. चौक के मशहूर होटल ग़ुलाम रसूल के यहाँ बाकरख़ानी ऐसी मिलती थी-सिर्फ़ चार आने में एक- कि नॉर्मल आदमी का पेट भर जाता था. शीरमाल से दो गुनी बेहतर! एक आने का ताख़्तान मिलता था. दो ताख्तान और एक छटाँक बालाई- चार आने की…जो काग़ज़ पर मिलती थी- और ऐसी जमी हुई कि कहीं और मिलेगी ही नहीं. छह आने में बेहतरीन नाश्ता! कश्मीरी चाय-दो आने की एक प्याली. ऐसी कि हम लोग, जाड़ों की रात में पीते थे तो पसीना आ जाता था. समनक का हलुआ, नानखताई- ये लखनऊ की बेहतरीन चीज़ें थीं. यूसुफ़ी ने इनका जिक्र भी नहीं सुना- वरना लिखते ज़रूर!” शब्द-शब्द में से गर्व छलक रहा है और रौशनी बिखेरता-सा इल्म! यूँ वे प्रवाह में थे उन्हें उस बारे में मेरे जानने-न जानने की ज़रा भी चिंता नहीं थी. फिर भी मैं ख़ुद यह क्योंम कहता कि इनमें से कई चीज़ों के तो मैंने भी नाम नहीं सुने थे अब तक- और कइयों का स्वाद तक नहीं चखा. जब मेरी यह स्थिति है तो पिज्जा-बर्गर के ज़माने में आँख खोलने वाली पीढ़ी को क्यात तो ख़बर होगी- और क्योंकर कोई चिंता? जैसे कुछ और ख़ास बताना था- झट से घुटनों पर हाथ रखकर बैठ गए. निगाहों ने मेरी आँखों में का कुछ पढ़ना भी चाहा था और इच्छित कुछ बताना भी- ‘नमश तो कहीं होती ही नहीं सिवाय लखनऊ के’ कहकर बिना मेरी प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए तुरंत आरामकुर्सी की निवाड़ से पीठ टिकाकर लेटे-से हो गए.

कैप उतार कर स्टूल पर रखी. सिर खुजाते हुए मौसम की तब्दीली पर ख़ुश हुए – ‘आज धूप कुछ गर्म है.’ लगा कि अब मौसम ही कहीं हावी न होने लगे उन पर. पर नहीं उन्हें यूसुफ़ी का कहा अब भी चुभे जा रहा था- ‘यूसुफी ने अरहर की दाल का ज़िक्र किया है. अरहर की दाल- जो लखनऊ के उमरा-रईस खाते थे- उसका नाम था- बंजारी दाल! उसका नुस्ख़ा था- पाव भर दाल, पाव भर नमक और पाव भर घी– दर्जन भर मसाले- जिनके नाम मुझे नहीं मालूम…’ कहना चाहा कि जितना मालूम है वह जब इतना है तो नहीं मालूम वाला भी यदि मालूम होता तो क्या होता. लगा कि जैसे मैं पाकशास्त्र के किसी पंडित के सामने बैठा हूँ जिसके दिमाग़, जिसकी ज़बान और उँगलियों में कमाल-कमाल के व्यंजन स्वाद, नुस्ख़े और हुनर छिपे हैं. हँसी आई यह सोचकर कि मेरी जगह इस समय यदि काज़ी साहब के सामने युसूफ़ी बैठे होते तो उन पर क्यास गुज़रती- ‘और ये चार-छह घंटे में पकती थी. ये है अरहर की दाल! एक दाल और होती है. मियाँ-सुल्तानी दाल. वो-जिसे आप कहते हैं उड़द की दाल. यह इस तरह पकती है कि दाल को अगर दबा दीजिए तो नमकीन घी निकलगा.’ सीधा पैर बाएँ पैर के घुटनों पर आ लेटा है. पंजे ने हिलना शुरू किया ही था कि चिहुँकते-से बोले- ‘ लखनऊ की एक और चीज़ होती है लहसुन की खीर. मैंने जिन लोगों को खिलाई उनमें से तक़रीबन सब मर गए… सिर्फ़ अंग्रेज़ी के रिज़वान हुसेन ज़िंदा हैं. उनसे पूछ लीजिए कि खीर कैसी होती है. मैं क्या बताऊँ? अब ये सब खाने के बाद लखनऊ वाले गिलौरी खाते थे. कत्था गुलाब में बसता था. चूने में बालाई पड़ती थी. डली-सुपारी-के दोहरे मसाले से रंगे हुए होते थे. इलायची के दाने रंगीन! लखनऊ के जो पुराने बूढ़े होते थे, उनके पट्टे सिर्फ़ लखनऊ में नज़र आते है. अब भी नज़र आ जाएँगे. ग़रीब भी छींट के रुईदार सलूके और फ़र्गुल-गाउन … पहने सिर पर तिरछा पल्ला रक्खे, एक हाथ में बटुआ, दूसरे में छड़ी लिए कड़कड़ाती सरदी में चले जा रहा है. बटुए में चुनौटी वगैरह तो होती ही है- उसे क्यां बताऊँ. लखनऊ के जाड़ों में जामावार नज़र आती है. यह कपड़ा सिर्फ़ हिन्दोस्तान में होता था- होता है. दुनिया के किसी मुल्क़ में नहीं होता. जी-जी-उसी तरह… जैसे जमधर सिर्फ़ हिन्दोस्तान का हथियार है… जी हाँ-जैसे सरोही और बाँक हिन्दोस्तान के अलावा और कहीं नहीं मिलता. ‘ शायद मेरा आश्चर्य, कुछ पल को जागा गौरव का -सा वह एक भाव उन्होंने जान लिया है. अब वह लेखक से अधिक अध्यापक हो गए है- ‘जामावार तीन क़िस्म की होती है. अव्वल क़िस्म के कपड़े बनते हैं-फ़र्गुल, शेरवानी, कोट, सदरी वगैरह. दूसरे दर्जे के जामावार के रज़ाई, तोशक, लिहाफ़! कश्मीर वगैरह में बड़े लोगों के कमरों में तीसरे दर्ज की जामावार दीवारों पर मढ़ी होती है. चूँकि जाड़ों का ज़िक्र है इसलिए मैं चिकन और जामदानी का ज़िक्र नहीं करूंगा-वो फिर कभी. हाँ-लखनऊ के जूते-सलीमशाही-जो बारह आने तक के मिलते थे और उनका वजन तोलों में होता था. काश, यूसुफ़ी ने उन चीज़ों को देखा होता- बरता होता- तो ये जुमला न लिखते.’

आवाज के साथ ऐसी एक हँसी हँसे जो किसी अदीब के ज्ञान के स्तर की किसी दयनीयता पर ही हँसी जा सकती है. लगा था कि उनकी कमचियों में से कोई अनटूटी नहीं बची है. पर नहीं – पतली – भीगी-सी कमची से छात्र को उसके अज्ञान और ऊधम की सज़ा देते अध्यापक के अंदाज में तुरंत वो फिर शुरू हो चुके थे- ‘हैरत है कि उन्होंने चारपाई का ज़िक्र भी किया है. हिन्दोस्तान का कश्मीर के अलावा शायद ही कोई हिस्सा हो-जहाँ चारपाई न होती हो! खाट, खटिया, मसेहरी… चाहे उसके पाये बाँस के हों या शीशम के- या पीतल के या चाँदी के- है वो चारपाई! चारपाई पर बच्चा पैदा भी होता है और चारपाई पर जनाज़ा भी उठता है. चारपाई से नज़ात कब है?’

चुप होकर भी वो हँसे जा रहे थे. उनकी खिली-खुली, मस्त-मदमाती-सी तरंगों में बहता- उतराता-सा मैं सोच रहा था कि जब इस देश के एक शहर को लेकर केवल एक अदीब-व्यक्ति के पास इतनी ऐसी जानकारी और ऐसे-ऐसे अनुभव हैं…तो…तो… पूरे अपने देश के हर हिस्से के बारे में सारे देशवासियों के अनुभवों-जानकारियों की सीमा और संख्या क्या होगी?

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