मुक्केबाज़ी का मुक़ाबलाः अहम् के फेर में खेल भावना को चोट

हमारे जीवन के सद्भावना, मैत्री, प्रेम और सहयोग के सबसे ख़ूबसूरत दृश्य खेल मैदानों से ही आते हैं. क्रिकेट में कतारबद्ध होकर एक दूसरे से हाथ मिलाते खिलाड़ी, बॉक्सिंग और कुश्ती में गले मिलते खिलाड़ी, फुटबॉल में तो एक क़दम और आगे जाकर अपनी जर्सियों की अदला-बदली करते खिलाड़ी, यहां तक कि एथलेटिक्स में विजेता को बधाई देते खिलाड़ी.

खेल ख़त्म होने के बाद हाथ मिलाना और गले मिलना सामान्य लेकिन सबसे वांछित दृश्य हैं. खेल के दौरान खिलाड़ियों में, दर्शकों में, प्रशंसकों में प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष की जो भावना घनीभूत होती है और उसकी वजह से जिस तनाव की व्याप्ति होती है, उसे ख़त्म करने में या फिर कम से कम उसे कुछ हद तक तरल करने में ये दृश्य सहायक होते हैं. सही अर्थों में यही खेल की वो मूल भावना होती है जिसे हम खेल भावना के नाम से जानते हैं. लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर बार ऐसा ही होता हो. कई बार स्थापित परंपराओं में विचलन होता है, भले ही वो वांछित हो या न हो. कल राजधानी के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में एक बार फिर विचलन हुआ. एक बार खेल भावना फिर आहत हुई.
कल यहाँ चीन में होने वाली ओलंपिक क्वालीफाइंग प्रतियोगिता के लिए मुक्केबाजी के ट्रायल मुक़ाबले चल रहे थे. इन मुक़ाबलों में सबसे प्रतीक्षित और महत्वपूर्ण मुक़ाबला निसंदेह 51 किलोग्राम वर्ग के फ़ाइनल का था, जो दो बहुत ही प्रतिभावान मुक्केबाज़ों के बीच होना था. ये मुक़ाबला अनुभव और युवा जोश के बीच होना था. ये मुक़ाबला एम सी मेरीकॉम और निखत ज़रीन के बीच होना था.

एक तरफ़ 36 साल की वेटेरन मुक्केबाज मेरीकॉम थीं जिन्होंने अब तक भारत के लिए विश्व प्रतियोगिताओं में छह स्वर्ण सहित 8 पदक जीते हैं. यह विश्व रिकॉर्ड है. आज तक कोई भी मुक्केबाज़ विश्व मुक्केबाज़ी प्रतियोगिता में इतने पदक नहीं जीत सका है. यहां तक कि मुक्केबाज़ी की नर्सरी और मुक्केबाज़ों की खदान कहे जाने वाले देश क्यूबा का कोई मुक्केबाज़ भी इतने पदक नहीं जीत सका है. इन पदकों के अलावा 2012 के ओलंपिक में कांसे का एक पदक, एशियाड में एक स्वर्ण सहित दो पदक, एशियाई मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में पांच स्वर्ण सहित छह पदक और कॉमनवेल्थ प्रतियोगिता में एक स्वर्ण पदक उन्होंने जीता है. निःसंदेह वे भारत की सबसे महान खिलाड़ियों में से एक हैं. ये उपलब्धियां इस तथ्य से और भी ज़्यादा चमकदार हो जाती हैं कि वे उत्तर-पूर्व के निर्धन किसान परिवार से हैं. ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों के बाद वे इस मुक़ाम पर पहुंची. सबसे बड़ी बात तो ये कि उन्होंने ये उपलब्धियां उस उम्र में हासिल कीं. जिस उम्र में विवाह के बाद लड़कियां अपनी इच्छाओं को परिवार के लिए क़ुर्बान कर देती हैं, अपनी उम्मीदों को दादी-नानी की तरह मन के ट्रंक की सबसे निचली तहों में पोटली बांधकर रख देती है और अपनी महत्वाकांक्षाओं को घर के पिछले कमरे में किसी खूंटी पर पुराने कपड़ों की तरह उतार कर टांग देती हैं.

तो दूसरी तरफ युवा 23 साल की निखत ज़रीन थीं जो 2011 की जूनियर विश्व चैंपियन होने के अलावा इसी साल एशियाई बॉक्सिंग प्रतियोगिता में कांसे का पदक जीत चुकी हैं. वो एक ऐसे समाज से आती हैं, जहां कई देशों में खेलना तो दूर स्टेडियम में खेल देखने की आज़ादी नहीं है, कई बार इस तरह के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने पर सजाए मौत मुक़र्रर कर दी जाती है. कहीं अगर खेलने की आज़ादी है भी तो सिर तक हिजाब से ढांकने के बाद. लेकिन यह भारतीय समाज और उनके परिवार की आज़ादख़्याली और उनकी ख़ुशकिस्मती थी कि वे खेलों में अपने कॅरिअर को आगे बढ़ा सकीं. नहीं तो भारत में भी उनके और सानिया मिर्ज़ा के अलावा और कितने नाम हैं जो गिनाए जा सकते हैं. पिछले दिनों जब अन्तर्राष्ट्रीय मुक्केबाज़ी संघ ने महिलाओं के लिए पोशाक पहनने के नियमों में कुछ ढील दी थी तो ज़रीन ने उम्मीद जताई थी कि अब अधिक लड़कियां बॉक्सिंग में आ सकेंगी.

दोनों ही खिलाड़ियों ने महिलाओं के सामने आने वाली मुश्किलों और बाधाओं को कुछ हद खुद झेला होगा और शिद्दत से महसूस किया होगा. उसके प्रति एक आक्रोश भी उनके मन के किसी कोने में ज़रूर ही पनपा होगा और उस आक्रोश को ही उन्होंने अपनी और अपने खेल की ताक़त बनाया होगा. जब भी वे दोनों रिंग में उतरती होंगी तो शायद उन्हें रिंग की वे रस्सियां बंधन नज़र आती होंगी जिन्हें तोड़ने को वे बेताब रहती होंगी और ये बेताबी अपने विपक्षी पर जोरदार प्रहार करने की प्रेरणा देती होगी.

मगर कल जब वे दोनों रिंग में उतरीं तो शायद जीत के लिए वो आक्रोश और ज़ज़्बा नहीं बल्कि उनके वे ‘अहम’ उन्हें परिचालित कर रहे होंगे, जो पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम से उपजे थे. तभी यह मुक़ाबला उन ऊंचाइयों पर नहीं पहुंच पाया, जहां उसे पहुंचना चाहिए था. और शायद इसीलिए ये बॉक्सिंग से ज़्यादा रेसलिंग का मुक़ाबला होने वाला था. हुआ दरअसल यह था कि कुछ माह पूर्व भारतीय मुक्केबाज़ी संघ ने 51 किलोग्राम वर्ग में मेरीकॉम के पिछले प्रदर्शन के आधार पर ट्रायल से छूट देकर सीधे चयन कर लिया था. ज़रीन इसी फ्लाईवेट कैटेगरी में खेलती हैं और उन्होंने उनको ट्रायल से छूट देने पर आपत्ति दर्ज कराई. इससे दोनों के बीच रिंग से बाहर तनातनी हो गई. अंततः भारतीय मुक्केबाज़ी संघ ने मेरीकॉम को भी ट्रायल में शामिल करने का निर्णय किया. उम्मीद के मुताबिक दोनों के बीच फ़ाइनल हुआ जिसमें मेरीकॉम ने ज़रीन को 9-1 अंकों से हरा दिया.

निःसंदेह यह मुक़ाबला जीतकर मेरीकॉम ने ट्रायल से छूट के औचित्य को सिद्ध किया. 36 साल की उम्र में उनका ये हौसला, जज़्बा और जीत का जुनून ही उन्हें विशिष्ट बनाता है. लेकिन इस मुक़ाबले के दौरान रिंग के अंदर-बाहर जो कुछ हुआ वह तो हरगिज़ वांछित नहीं था. मुक़ाबला ख़त्म होने के बाद जब ज़रीन ने परंपरा के अनुसार हाथ मिलाना चाहा तो मेरीकॉम ने हाथ मिलाने से इनकार कर दिया. मेरीकॉम बेहद परिपक्व खिलाड़ी हैं. मुझे लगता है कि उन्हें अपनी जूनियर खिलाड़ी के सामने अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए था, भले ही ज़रीन से उन्हें कितनी भी शिकायतें क्यों न हों? हाथ मिलाना वो न्यूनतम शिष्टाचार है, जिसे दोनों खिलाड़ियों को निभाना चाहिए होता है. ऐसी घटनाओं से केवल एक खिलाड़ी के क़द पर ही असर नहीं पड़ता, बल्कि प्रशंसक आहत होते हैं, खेल आहत होता है, खेल की मूल भावना आहत होती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह घटना अपवाद भर होगी और इसकी पुनरावृति नहीं ही होगी.

कवर फ़ोटोः मैरीकॉम के फ़ेसबुक पेज से साभार


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