बायलाइन | बाज़ार हैंड्सअप नहीं कहता सो आला-ए-नक़ब नदारद है
कबूतर, खरहा, गदहा, घड़रोज या अनार, आम, इमली, ईख के साथ उल्लू और ऊंट पढ़कर बड़ी हुई पीढ़ियों को क से कविता या कथा पढ़ना शायद वैसा अटपटा न लगे जैसा कि क से कोडिंग पढ़ना. हालांकि क से कमीना और कपटी भी होता है मगर जाने क्यों इस तरह लिखा-पढ़ा नहीं जाता.
वर्षों पहले जब संचार के माध्यम ग्राहम बेल की तकनीकी के वारिस हुआ करते थे, कई बार इसी तरह समझाने का जतन करना पड़ता. फ़ोन पर बोले हुए तमाम लफ़्ज़ दूसरे छोर वाले कान तक साफ़ नहीं पहुंच पाते थे. ननकू हलवाई वाली गली का पता बताने के लिए वर्णमाल का सहारा ही लेना पड़ता था – एन फ़ॉर नागपुर, ए फ़ॉर अलाहाबाद, नागपुर, कानपुर, यूएफ़ओ…अरे यू..यू..ओफ़्फ़ो यार..उड़नतश्तरी (तब तक ऊबर वजूद में नहीं आई थी, यू फ़ॉर अम्ब्रेला पढ़ते थे). यह भी अंग्रेज़ीदां लोगों के ही पल्ले वाला इंतज़ाम था. ए ऐज़ इन अलाहाबाद हिंदी वाले को क्या ख़ाक समझ में आएगा. हिंदी में तो इलाहाबाद ही लिखा-बोला जाता है.
तो ब से बाज़ार की सारी कल्पनाशीलता और ऊर्जा फ़िलहाल मौलिक-सी लगने वाली वर्णमाला गढ़ने में लगी हुई है. जो भी पुराना है, परंपरा का हिस्सा रहा है, बाज़ार उसे झाड़-पोंछ कर नए पजामे और शेरवानी में तो कभी नए सूट और टाई में पेश करके अपनी मौलिकता की धाक जमाता आया है. एक बड़ा तबका ऐसा कल्पना-लोक रचने वाले बाज़ार की बलैया लेता फिरता है और देखादेखी नक़ल और उस पर अमल भी.
उस रोज़ लाला ने चहकते हुए इत्तेला दी कि नया च्यवनप्राश आया है. फिर बोले – ले जाओ, बड़े काम का है. इम्युनिटी का डबल बूस्टर. लगा कि च्वयनप्राश के विज्ञापन की कॉपी याद करके बैठे हों. फिर एक डिब्बा आगे बढ़ाते हुए बोले – इसमें चीनी नहीं है, यह गुड़ से बना है तो ज़्यादा मुफ़ीद है. तुलसी वाला भी आ गया है.
कोरोना की आवक के बाद से इ से इम्युनिटी बाज़ार की ताज़ा ईजाद है. अलग बात है कि अंग्रेज़ी में यह आई से इम्युनिटी होगा मगर इन दिनों हिंदी बोलकर जेब से बटुआ निकाल लेने का चलन है. अब तो फ़िल्मों के विलेन वगैरह भी पिस्तौल सटाकर ‘हैंड्स अप’ नहीं कहते. आई से इंटरनेट कनेक्शन सलामत रहे, आला-ए-नक़ब या नश्तर की ज़रूरत ही नहीं.
आयुर्वेद के इस सीधे-सादे अवलेह के इतने वैरिएंट बन गए हैं, जितने मोबाइल या मोटरों के भी नहीं हैं. आप आलू की तरकारी इतनी तरह से नहीं बना सकते, जितनी तरह के च्यवनप्राश भाई लोगों ने बना डाले हैं. ऋ से ऋषि वाले च्यवन की रेसिपी बक्से में बंद करके मज़बूत ताला डाल दिया है. सेहत और कल्याण के नाम पर बाज़ार रोज़ नई रेसिपी लिख रहा है. यह सोचने की भी किसे पड़ी है कि च्यवन के ज़माने में चीनी-गुड़ भी इसके अवयव रहे होंगे या नहीं.
इलाहाबाद में संजय बनौधा ने किसी वैद्य के बारे में बताया था कि कुछ परिचितों के लिए च्यवनप्राश वह ख़ुद तैयार करते हैं. तमाम साफ़-सफ़ाई के साथ उपले की मद्धिम आंच पर शुद्ध घी में मिट्टी की हांडी में घंटों तक पकाते हैं. बाज़ार वाले से ज़्यादा क़ीमत का पड़ता है और ज़ाइक़ा भी अलग होता है. अपन कोई आयुर्वेदाचार्य नहीं, मगर बाज़ार के टोटके समझने के लिए इतनी साधना की ज़रूरत भी नहीं.
अब ग्वारपाठा को ही ले लीजिए. जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ने वाला ग्वारपाठा तब तक हिकारत से देखा जाता था, जब तक बाज़ार ने इसे अंग्रेज़ी नाम से नहीं पुकारा था – अलो वेरा. पिछली सदी के आख़िर तक क्रीम के डिब्बों पर इसकी तस्वीर छपने लगी थी और अब तो मेट्रो से लेकर मामूली शहरों में सवेरे-सवेरे सेहत वाला जूस बेचने वालों के ठिकानों पर साक्षात दिखाई देने लगा है. इसके गुणों का इतना बखान कि ख़ुद बेचारे ग्वारपाठा को भी मालूम नहीं होगा कि इतने काम का है.
बाज़ार ने इंसानी कमज़ोरियां पकड़ ली हैं और इनमें से एक बाज़ार पर उसका एतबार भी है. कई बरस पहले अचानक बाज़ार ने बताया कि सरसों के तेल में भटकटैया के बीज की मिलावट से फीलपाँव की बीमारी फैल रही है, सो डॉक्टरों ने भी रिफ़ाइंड की हिमायत शुरू कर दी. सरसों का तेल बेचारा हुआ. रिफ़ाइंड और ओलिव और ब्रायन की फ़सल काट लेने के बाद बाज़ार और डॉक्टर फिर से सरसों पर लौट आए हैं.
इसी तरह ग्रीन-टी के चलन ने ज़ोर पकड़ा. और जब ग्रीन-टी की हरियाली थोड़ी मद्धिम पड़ने लगी तो लौंग, इलायची, तुलसी, अदरक, दालचीनी वाली चाय फ़ायदे की बताई जाने लगी. और यह सब मसालेदानी में तलाशने की ज़हमत नहीं उठानी. डिब्बे में ही बंद होकर आते है न! इसकी महक से पड़ोसियों को और ज़ाइक़े से घर में सास को आसानी से इंप्रेस भी कर सकते हैं.
अभी दो रोज़ पहले पढ़ा कि कलकत्ते में एक टी-स्टॉल पर सौ तरह की चाय बिकती है और एक ख़ास चाय हज़ार रुपये की एक प्याली मिलती है. चायख़ाना या टी-हाउस पुरातन है, ओल्ड फ़ैशंड मगर मॉल और महंगे ठिकानों पर टी कैफ़े या टी बार के बोर्ड वाले स्टॉल हैंगआउट के मुफ़ीद ठिकाने हो सकते हैं. खोखे पर कुल्हड़ की चाय आम आदमी की और कैफ़े में वही कुल्हड़ फ़ैशन स्टेटमेंट.
अपने वजूद के समय से ही मधुमक्खियाँ को क़ुदरत की तरफ़ से यह आज़ादी थी कि वे जिस फूल पर चाहें बैठें, जिसका चाहें रसपान करें. मोटापे के मारे आदमी को इल्हाम हुआ कि नीबू-शहद पीने से निजात ज़रूर मिलेगी. हालांकि मैं कई मोटों को जानता हूँ जिन्होंने पूरी पाबंदी से मधुमक्खियों की लाखों घंटे की मेहनत पर गुनगुना पानी फेरा है मगर उनकी पतलून का साइज़ वहीं का वहीं बना हुआ है.
मगर बाज़ार मधुमक्खियों को उनके हाल पर कैसे छोड़ देता भला! तो अब शहद के वैरिएंट लीजिए, फ़लां फूलों का या भला फ़्लेवर वाला शहद. यों सुनीता नारायन की टीम ने ख़ासी मेहनत करके ज़माने को यह बताया कि तमाम ब्रांड वाली बोतलों में बिकने वाला शहद दरअसल शहद है ही नहीं, वह तो चीन से मंगाकर मिलाई गई मिठास का घोल है. यह रिपोर्ट आते ही सारी कंपनियाँ यह साबित करने पर पिल पड़ी कि रिपोर्ट झूठ है, उनका शहद असली.
एक डॉक्टर दोस्त हैं. कई बार देखा है कि मर्ज़ बताते वक़्त मरीज़ ने अगर कहीं अलो वेरा या गिलोय का नाम ले लिया या फिर आयुर्वेद का अपना ज्ञान बघारा तो वे नाराज़ हो जाते हैं. ज़िद्दी क़िस्म के एकाध मरीज़ को वापस लौटाते भी देखा है. वह कहते हैं कि सात साल की पढ़ाई और तीस-पैंतीस साल की प्रैक्टिस एलोपैथी की है, गिलोय की फ़ितरत से वाक़िफ़ नहीं हूँ तो उसकी हिमायत कैसे कर सकता हूँ?
उनके इस तर्क से असहमत होने की कोई वजह नहीं. वह गिलोय की तौहीन नहीं करते, वह अपने अध्ययन और परीक्षण पर भरोसा करते हैं. वह डॉक्टर हैं, उत्पाद बनाने या बेचने वाले नहीं. विज्ञान पढ़ा है, तो केवल विज्ञापन पढ़कर भरोसा क्यों करें भला? वह व्लॉगर भी नहीं हैं. कल देखा कि गुड़ बनाने की विधि बताने वाला एक वीडियो एक करोड़ लोग देख चुके हैं. आज ऐसा वीडियो भी मिला जिसमें गुड़ से गन्ने का जूस बनाने की विधि बताई गई है, इसे भी 23 लाख से ज़्यादा लोगों ने देखा है. गाँव में लोटे में चोटा घोलकर जो बनाते थे, उसे शरबत कहते थे, जूस नहीं इसलिए वह रेसिपी हमने बिसार दी है.
ब से बाज़ार की नई वर्णमाला में ग से गदहा बरक़रार है, उ से उल्लू भी. च से बाज़ार का अभिष्ट क्या होगा, इतना तो आप भी समझते ही होंगे न!
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