बायलाइन | हाथी घूमै गाँव-गाँव जेकर हाथी ओकरै नाँव

  • 12:01 am
  • 21 February 2021

उस रोज़ महराजगंज से आई एक फ़ोटो में किसी को हाथी की पूंछ पर लाल-पीले रंग के रिफ़्लेक्टर बांधते देखा. पहले तो लगा कि कोई चुहल कर रहा होगा मगर उस तस्वीर में कौतुक का तत्व भी था. सो कैप्शन खोजकर पढ़ा तो मालूम हुआ कि ट्रैफ़िक इंस्पेक्टर हैं. और उनकी मंशा यह कि पूंछ देखकर लोग ट्रैफ़िक सुरक्षा के प्रति जागरूक होंगे.

बहुत साल पहले पढ़ी हुई एक ख़बर याद हो आई. विलायत में किसी होनहार को तरक़ीब सूझी तो लोकल में सफ़र करने वाले गंजों को काम मिल गया था. उनका काम बस इतना-सा था कि सफ़र के दौरान वे अपने घुटनों पर फैलाकर अख़बार पढ़ते रहें. उनके केशविहीन सिर पर विज्ञापन चिपका दिए जाते ताकि जब वे अख़बार पढ़ें तो विज्ञापन दूसरे मुसाफ़िरों के एकदम सामने हों.

मुझे बिल्कुल अंदाज़ नहीं कि लोगों में सुरक्षा की चेतना फैलाने के इरादे से हाथी की पूंछ का इस्तेमाल करने वाले इंस्पेक्टर ने भी वह ख़बर पढ़ रखी थी या कि यह उनकी मौलिक सूझ है मगर जिस मुल्क में सड़क चलते लोगों को भैंस की पूँछ नहीं दिखाई देती, वहाँ ऊंचाई पर टंगी हाथी की पूँछ उन्हें कोई प्रेरणा दे सकती है, इसमें मुझे शक है.

जहाँ चौराहों पर लगी ट्रैफ़िक लाइट्स के रंगों का मतलब समझाने के लिए लट्ठ लेकर खड़े होना पड़ता हो, जहाँ ज़ेब्रा क्रॉसिंग की हैसियत सड़क पर बने डिज़ाइन से ज़्यादा न हो और डिज़ाइन भी ऐसी कि उसे देखने के लिए लोग हर बार उसी पर खड़े होते हों, जहाँ तेज़ रफ़्तार मोटरें आए दिन राहगीरों को उछाल देने का शगल रखती हों, जहाँ साल भर जुर्माने की रसीद लिए चौराहों पर खड़े होने वाले कई बार पूरे दिन जेब से क़लम निकाले बग़ैर जुर्माने की रक़म जेब में रखकर घर लौट जाते हों, दुपहिया चलाते वक़्त हेलमेट न लगाने वालों को जुर्माने से बचाने के लिए सड़क किनारे हेलमेट-फड़ सजते हों और ख़ाकीधारी धड़ल्ले से बिना हेलमेट के हवा से बातें करते गुज़रते जाते हों, वहाँ हाथी की पूँछ दिखाकर यह उपक्रम किसकी चेतना जगाने के लिए होगा, नहीं जानता.

सड़कों के किनारे बने फ़ुटपाथ कभी पैदल चलने वालों की सुरक्षा हुआ करते थे मगर स्मार्ट होते शहरों में सड़कें फ़ुटपाथ की क़ीमत पर चौड़ी होने लगी हैं. फ़ुटपाथ नहीं होंगे तो ज़ाहिर है कि पैदल राहगीर और साइकिल सवार भी उन्हीं सड़कों पर होंगे, जिन पर भों-भों करते ट्रक-बस, सर्र-सर्र मोटरें, धड़-धड़ करते ऑटो रिक्शा और ख़ामोश मगर ऱफ़्तार वाले ई-रिक्शा गुज़रते हैं. और इन सबके बीच दाएं-बाएं रास्ता बनाकर निकलते स्कूटर-बाइक वाले, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, साइकिल रिक्शा, ट्रैक्टर-ट्राली, बारह फ़ीट का सामान ढोने वाली छह फ़ीट की गाड़ियाँ. ऐसी सड़कों से गुज़रते हुए लोगों की निगाह हाथी पर तो पड़ सकती है पर उसकी पूँछ पर भी ग़ौर करने लगे तो ख़ुद किसी अस्पताल में होंगे. शर्तिया.

जिन शहरों-क़स्बों में किसी मजबूरी के चलते फ़ुटपाथ बचे रह गए हैं, वहाँ चलने की गुंजाइश नहीं क्योंकि वहाँ तो कारोबार चलता है. किसिम-किसिम के ठेले-खोखे-फड़. कितने ही लोगों का रोजगार. और रोजगार के इस तरीके पर निज़ाम मेहरबान. सड़क चलने वालों के लिए मंत्र – अपनी हिफ़ाज़त अपने हाथ मने हिफ़ाज़ते-ख़ुद.

हमारे यहाँ यानी सूबा-ए-उत्तर प्रदेश में एक वक़्त आया जब लोगों को अचानक लगा कि निज़ाम को उनकी ख़ासी फ़िक्र है. काहे से कि शहर-शहर साइकिल ट्रैक खींच दिए गए. सड़क किनारे डेढ़ साइकिल जगह पक्की करके उनके किनारे साइकिल की तस्वीर वाले बोर्ड लगे ताकि लोग वहाँ दाख़िल होने में संकोच न करें. जगह-जगह पहले से जमे पाकड़-पीपल, मठिया-चबूतरे जहाँ ट्रैक के रास्ते में आए, वहाँ ट्रैक ख़त्म मान लिया गया. कपड़े, जूस, चाय, पान, संतरा-केला बेचने वालों को सुभिता हो गया. उबड़-खाबड़ खड़ंजे पर ठेला खींचने में रोज़ ज़ाया होने वाली उनकी मेहनत बची.

जिस ज़माने पर सड़कों पर साइकिलों का राज होता था, उन दिनों पीछे वाले मडगार्ड पर दो अंगुल का गोल रिफ़्लेक्टर और आगे वाले मडगार्ड के ऊपर बत्ती जड़ी हुआ करती थी. और इनकी अनुपस्थिति क़ानून का उल्लंघन समझी जाती थी, उन दिनों में ऐसे तमाम लोग शाम को साइकिल लेकर सड़क पर निकलने से बचते जिनकी साइकिल का डायनेमो ख़राब होता यानी आगे वाली बत्ती नहीं जल रही होती थी. वजह क़ानून और जुर्माने का डर हो या फिर उसूल मगर ऐसे कुछ लोगों को तो मैं ही जानता हूँ.

साइकिलों के उस ज़माने में चौराहों पर बने गोल चक्कर काफ़ी होते थे – बत्ती-ओत्ती की ज़रूरत नहीं थी. सड़कें सपाट होतीं, स्पीड ब्रेकर के नाम पर स्पाइन ब्रेकर-सी शै के बारे में लोग नहीं जानते थे. ऐसा नहीं कि वे लोग तरक़्क़ी के बारे में सोचते नहीं थे मगर तेज़ी मने रफ़्तार का तरक़्क़ी से ऐसा गहरा रिश्ता है, सचमुच नहीं जानते थे.

और चौराहे या डिवाइडर पर सो रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ा देने की ख़बरें जिनकी संवेदना पर असर करती हैं, उन्हें सुरक्षा नियमों के बारे में अलग से समझाने की ज़रूरत शायद ही पड़े. इस जमात को तो तब भी तकलीफ़ होती है, जब ऐसे हादसों के ज़िम्मेदार अपने रसूख़ के चलते सज़ा पाने की बजाय साफ़ बच निकलते हैं.

रिफ़्लेक्टर की ज़रूरत अमूमन किसी वाहन या किसी बाधा की मौजूदगी का पता देने के लिए पड़ती है ताकि दूसरे उससे बचते हुए चल सकें, ख़ासतौर पर रात में. और जहाँ तक मुझे मालूम है कि अंधेरे में हाथी लेकर सड़क पर निकलने की ज़रूरत शायद ही किसी को पड़ती हो. और दिन में उसकी पूँछ पर बँधे रिफ़्लेक्टर तमाशे से ज़्यादा कुछ और क्या लगेंगे भला!

वैसे भी पुरनिया कह गए हैं – हाथी घूमै गाँव-गाँव जेकर हाथी ओकरै नाँव.

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