बायलाइन | सूरत भोली और पाँव में चाकू

  • 1:11 pm
  • 28 February 2021

‘इसे ग़ौर से देखिए. इसकी भोली सूरत पर न जाइए. मासूम-सा दिखने वाला यह मुर्ग़ा वही मुर्ग़ा है, जिसने अपने मालिक की जान ले ली. पुलिस ने इसे मुर्ग़ को गिरफ़्तार कर लिया. और जब मीडिया में मुर्गे की गिरफ़्तारी की ख़बरें आईं तो पुलिस ने मुर्ग़े की गिरफ़्तारी से साफ़ इन्कार कर दिया. पुलिस अब कह रही है कि मुर्ग़े को थाने ज़रूर लाया गया था मगर गिरफ़्तार नहीं किया गया. हिफ़ाज़त के लिहाज से उसे एक पोल्ट्री फ़ार्म में रखा गया है.’

तेलंगाना के एक गाँव गोलापल्ली से आई एक ख़बर पढ़ने के बाद टीवी के किसी सनसनीख़ेज़ शो के लिए लिखी गई यह स्क्रिप्ट मेरी कल्पना है. टीवी मैं नहीं देखता तो मुझे मालूम नहीं कि यह ख़बर किस तरह पेश की गई होगी. पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के तहत प्रतिबंधित होने के बावजूद तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और कर्नाटक में मुर्ग़ों की लड़ाई के आयोजन आम हैं. मुर्ग़ों की ऐसी ही लड़ाई के दौरान उसके पाँव में बंधा चाकू उसके मालिक थानुगुला सतीश की जाँघ में लग गया और इतना ख़ून बहा कि अस्पताल पहुँचाने के बाद भी वह बच नहीं पाया.

कोडी काठी क़रीब तीन इंच का तेज़ धार वाला दाँतेदार चाकू होता है, जो ख़ासतौर पर मुर्ग़े की लड़ाई में ही काम आता रहा है. दो साल पहले विशाखापट्टनम एयरपोर्ट पर वाई.एस.जगन मोहन रेड्डी पर हुए हमले की ख़बर याद आई, जिसके बाद कोडी काठी पर इतनी ख़बरें, मीम और चुटकुले बने कि चाकू की इस क़िस्म के बारे में ज़माने भर को मालूम चला.

कल वाली ख़बर पढ़ते हुए मुझे फ़्रेच मुर्ग़ मॉरीस की याद भी हो आई, जिसके बांग देने से ख़फ़ा पड़ोसी कुनबे ने मुक़दमा दर्ज करा दिया था और जिस मुक़दमे को लेकर फ़्रांस के लोगों का मुख़्तलिफ़ नज़रिया सामने आया था. एक तबक़ा मॉरीस और उसके बांग देने की आज़ादी के पक्ष में था और दूसरा उसके ख़िलाफ़. और आख़िर में कोर्ट ने मॉरीस के हक़ में फ़ैसला देकर उसकी आज़ादी बरक़रार रखी थी.

गोलापल्ली वाली ख़बरों में मुर्ग़े के नाम का कोई ज़िक़्र नहीं आया है. जिस मुर्ग़े को लड़ाके के तौर पर तैयार किया गया हो, मुझे यक़ीन है कि उसके मालिक ने उसका कोई नाम ज़रूर रखा होगा मगर सनसनी और कौतुक पैदा करने के लिए प्रशिक्षित अख़बारनवीसों की हमारी बिरादरी को शायद लगा हो कि जो तासीर मुर्ग़ा और चाकू, हत्या और गिरफ़्तारी से पैदा होगी, मुर्ग़े का नाम देने से उसमें हल्कापन आ सकता है. और नाम में भला रक्खा ही क्या है, असल चीज़ तो हत्यारे मुर्ग़े की गिरफ़्तारी है.

बक़ौल पुलिस, येलम्मा मंदिर में चोरी-छिपे होने वाली मुर्ग़ों की लड़ाई में शामिल होने के लिए सतीश जब अपने मुर्ग़े के साथ गया तो पकड़ से छूटने या पैर में कोडी काठी बंधे होने की वजह से ख़ुद को मुक्त करने के लिए मुर्ग़ा छटपटाया और इसी चक्कर में कोडी काठी सतीश की जाँघ में धंस गया. पुलिस अब उन पंद्रह लोगों को तलाश कर रही है, जो आयोजन में शरीक थे और घटना के बाद से भागे हुए हैं. इति मुर्ग़ कथा.

बंधन नेह का होता है, ग़ुलामी का भी. इसे साधने और सहने की एक सीमा होती है. इसे परिभाषित नहीं कर सकते क्योंकि हर किसी के लिए यह अलग-अलग होती है, समय और परिस्थिति के हिसाब से तय होती है. गुज़रे ज़माने में सीधेपन के लिए ‘गऊ की तरह’ की उपमा इस्तेमाल करते थे. यों सबसे ख़ामोश और सीधा जानवर गधा है मगर चूंकि वह गधा है इसलिए सीधेपन की उपमा से उसे बेदख़ल रखा गया है. गऊ माता है, उसके बछड़े के हिस्से का दूध पीकर हम बलवान होते हैं, दुश्मन के छक्के छुड़ा देते हैं, वगैरह-वगैरह. मगर गऊ भी कभी-कभी खूंटा तुड़ाकर भागती है, ज़रूरत हो तो सींग मारती है या फिर लात भी मारती है. अपनी उपमा आप अपने पास ही रखिए. मामला सहने की सीमा का है.

कल ही सोशल मीडिया पर मेरठ का एक वीडियो देखने को मिला. सरोकार की आड़ में कोडी काठी बाँधकर मैदान में लड़ाने के लिए भेजे जाने वाले योद्धा का बंधन. इस वीडियो में एक हमबिरादर को क्षोभ और ग़ुस्से में बोलते हुए सुना – लात मारता हूँ मैं ऐसी नौकरी को. नहीं, उस हमपेशा ने सचमुच किसी को लात नहीं मारी, न ही उनके पाँव में कोडी काठी बंधी थी. उनके लात मारने से किसी का ख़ून भी नहीं बहा. लात मारना उन्होंने उपमा के तौर पर इस्तेमाल किया था. मगर उनकी बातों में ख़ुद को बंधनों से आज़ाद करने की बेइंतहा बेकली और छटपटाहट ज़रूर दिखाई दी.

उनकी वह ललकार किसी घटाटोप में बिजली की चमकार-सी सुनाई देती है.

किसी की टाइमलाइन पर पढ़ी हुई वह सूक्ति लिखने का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूँ, जिसे पढ़ते हुए हल्का-सतही माना था. ‘मुर्ग़ इस दुनिया में सबसे ज़्यादा मारा जाने वाला जीव है. यह इस बात की नज़ीर भी है कि दुनिया को जगाने की कोशिश का हस्र क्या हो सकता है.’

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