बायलाइन | किताबों के धंधे में पाठक की हैसियत

  • 8:44 pm
  • 31 January 2021

कल एक परिचित का फ़ोन आया. अपनी नई किताब के बारे में राय जानने के लिए. कुछ रोज़ पहले ही मिली उनकी किताब अभी पूरी नहीं पढ़ सका हूं तो क्या बताता? तो अब तक जितना पढ़ सका, उसके बारे में बता दिया. वायदा किया कि किताब ख़त्म करके विस्तार से ज़रूर बताऊंगा.

उनसे बात करते हुए ‘लूज़ टॉक’ का रू-नुमाई वाला वह एपिसोड ज़रूर याद आता रहा, जिसमें किताब के विमोचन के मौक़े पर बात करने पहुँचे मेहमानों को हॉल में बैनर लगने तक न तो किताब का नाम मालूम था और न ही शायर का. उसे देखते हुए बार-बार लगता रहा था कि किताबों-लेखकों का रसूख और किताबों पर बातचीत के ऐसे आयोजनों को लेकर हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक-दूसरे के कितने क़रीब हैं.

नोएडा में रहते हुए सिनेमा पर एक किताब के विमोचन समारोह का न्योता मिला तो वक्ताओं के नाम पढ़कर उन्हें सुनने के लालच में सारे काम छोड़कर दिल्ली चला गया था. अब तक याद है कि जिन लोगों को सुनने का उत्साह लेकर गया था, किताब पर उनकी बातचीत ने बहुत निराश किया.

हाँ, कुछ आयोजक समझदार होते हैं तो कार्यक्रम के संचालन के लिए ऐसे गुनी को चुनते हैं, जो वक्ता के माइक से हटने के बाद उसकी बातों के गूढ़ार्थ इस तरह समझाते हैं कि सुनने वालों को तो छोड़िए, कई बार वक्ता भी उन्हें सुनकर ही समझ पाते हैं कि अभी-अभी उन्होंने दरअसल कहा क्या था. विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ के समय कालिदास की तरफ़ बैठकर उनके इशारों का भाष्य करते विद्वजनों की तरह.

किताब के बारे में या यों कहें कि किताब की तारीफ़ सुनने की लेखक की बेसब्री देखता हूँ तो कई बार ख़ुद ही शर्मसार हो जाता हूँ कि आख़िर इस लायक़ क्यों न हुआ कि उनके भरोसे की रक्षा कर पाता. ऐसी बेसब्री आमतौर पर वहाँ ज़्यादा देखता हूँ, जहाँ पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर खुद लेखक ही होते हैं वरना भिश्ती-खर का ज़िम्मा प्रकाशक भी उठाते ही हैं.  

फ़िल्मों से मशहूर हुए एक अभिनेता-कवि हैं, जिन्हें अपने प्रकाशक की योग्यता पर हमेशा संदेह रहता है. सो किताब छपने पर येन-केन-प्रकारेण प्रकाशक को राज़ी करके वे कुछ शहरों की हवाई यात्रा ज़रूर कर डालते हैं. हवाई यात्रा की शर्त इसलिए कि रेलगाड़ी वाले शहरों में ज़रूरी नहीं कि फ़ाइव स्टार होटल मिल ही जाएं.

उनका अक़ीदा है कि किताबों के बेचने में सिनेमा के पर्दे वाली उनकी छवि ज़्यादा कारगर है. ऐसा होता भी है. बस यह नहीं समझ आता कि हज़ार-ग्यारह सौ प्रतियों के संस्करण छापने वाला प्रकाशक उनकी इन यात्राओं का ख़र्च किताबों की बिक्री से किस तरह निकाल पाते होंगे?                   

पुरानी बात है. उन दिनों इंटरनेट-सोशल मीडिया वजूद में न थे. लिखने वालों की शोहरत पढ़ने वालों की मुंतज़िर हुआ करती थी. बरेली कॉलेज में चल रही कला-प्रदर्शनी में वकील साहब मिल गए. तस्वीरें देखना ख़त्म किया ही था कि उन्होंने इसरार किया कि चाय के लिए हमें उनके घर चलना चाहिए. ‘पास ही तो है. पैदल की दूरी पर.’ चंद्रप्रकाश शुक्ल साथ थे. ‘फिर कभी’ का हमारा बहाना काम न आया.

गर्मी के दिन थे. पैदल चलना भी यों आसान न था मगर उनकी उम्र और आग्रह का मान रखने के लिए हमें जाना ही पड़ा.

अपने घर के ड्राइंगरूम के बाहर हमें रोककर दरवाज़ा खोलने वह ख़ुद अंदर चले गए. पसीने में सराबोर हम इंतज़ार कर रहे थे और दरवाज़ा था कि अब तक नहीं खुला. अंदर से खटर-पटर की आवाज़ें अलबत्ता सुनाई दे रही थीं. कुछ देर में दरवाज़ा खुला और हम अंदर पहुंचे. पंखे के नीचे पहुंचकर कुछ राहत मिली.

चंद्रप्रकाश को उन्होंने जिस सोफ़े की तरफ़ बैठने का इशारा किया, निगाह पड़ी तो वहाँ साइड टेबिल पर एक किताब रखी दिखाई दी. पसीना टपकाने वाली उस गर्मी में चाय पीने का मन हम दोनों का ही नहीं था तो किसी तरह टाला. वह अलग क़िस्सा है. मगर हमारे उठने के पहले अचानक वह तिपाई पर रखी किताब की ओर लपके और उसे उठाकर चंद्रप्रकाश की ओर बढ़ाते हुए कहा – मेरा यह उपन्यास आपके लिए.

फिर दौड़कर क़लम ले आए. जितनी देर में उन्होंने दस्तख़त करके किताब सीपी को पकड़ाई, मैं दीवार पर लगी आलमारियाँ देखता रहा. देखा कि आलमारी के ऊपर एक तरफ़ रस्सी से बंधे बंडल उसी किताब के थे. धूल की परत में ढंके बंडल. हमारे लिए दरवाज़ा खोलने से पहले उन्होंने इन्हीं में किताब की एक प्रति निकालने और झाड़कर रखने का जो जतन किया था, उसी में वक़्त लगा.

फिर भी हम तुरंत बाहर नहीं आ सके. अब मेरी बारी थी. वकील साहब ने मुझसे मुख़ातिब होकर शिकायत की कि मैंने अब तक उनके उपन्यास के बारे में राय नहीं दी है. अर्से पहले वह दफ़्तर आए थे तो अपना वह उपन्यास मुझे भी भेंट कर गए थे. कहा था कि उसे पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया लिखकर उन्हें भेज दूँ.

बक़ौल वकील साहब, मेरी लिखी ख़बरों के वह क़ायल थे मगर एक शिकायत भी थी और वो यह कि ख़बरों में लोगों के नाम लिखते हुए मैं कंजूसी बहुत बरतता हूँ और उनका नाम आते ही आदि-आदि लिख देता हूँ. इस वायदे पर छूटा कि उनके उपन्यास के बारे में लिखकर ज़रूर भेजूंगा.

सेल्फ़ पब्लिशिंग का ज़िम्मा जब से लेखकों के बजाय कंपनियों ने संभाल लिया है, लिखने-पढ़ने के इस कारोबार में शिकवे वगैरह की गुंजाइश ख़त्म हो गई है. सब कुछ बहुत प्रोफ़ेशनल तरीक़े से अंजाम दिया जाता है. कंपनियों ने सोशल मीडिया पर ग्रुप बना रखे हैं, इन्हीं में वे ‘समीक्षक’ भी शामिल हैं, जो अपना वक़्त देने और कई बार अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ लिखने का दाम वसूल कर लेते हैं. सारी पार्टियाँ ख़ुश-ख़ुश और मज़े में रहते हैं.

किताबें लिखकर ख़ाली हुए लेखक भी बाक़ायदा किताब की बिक्री की मुहिम का हिस्सा बने दिखाई देते हैं. सोशल मीडिया में कवर पोस्ट करते हैं, किताब प्रोमोट करते हैं, और यहाँ-वहाँ किताब के बारे में जो कुछ लिखा मिलता है, उसे रीपोस्ट करते हैं. किताब के बारे में लाइव विमर्श के बाद जो वक़्त बच जाता है, उसमें ऐसी पोस्ट या लेख लिख डालते हैं जिसमें तर्कों के साथ साबित करते हैं कि लेखकों के मार्केटिंग करने में कोई बुराई नहीं? साथ ही ऐसे लेखकीय दायित्वों का निर्वहन न करने वालों को धिक्कारते भी हैं.

और वो जो ‘कंटेट इज़ द किंग’ कहने का फ़ैशन में है, वह जाए भरसांय में.       

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