बायलाइन | मौलिक कॉमेडी की नज़ीर बन गए फ़ूड व्लॉग
भेड़ियाधसान वाले इस दौर में कॉमेडी-शो देख-देखकर अगर बोर हो गए हों तो इत्ते सारे फ़ूड व्लॉग आप ही के लिए हैं. और ख़ास बात यह कि अभिनय सबका एकदम मौलिक. मालिक सबका एक – दे लाइक.
सोशल मीडिया में इन दिनों खाने-खिलानेवालों की धूम है और उन्हें देखकर संतोष करने वालों की तादाद लाखों में. ऐसा कोई वीडियो देखते हुए कक्का अक्सर याद आ जाते हैं. यों उनका नाम संतराम था, मगर हम उन्हें कक्का बुलाते. कुड़वार से आए कक्का खेती-घर का काम करते हुए तो दिखाई देते मगर हमने उन्हें खाते हुए कभी नहीं देखा. वजह यह कि अपनी थाली लेकर वह रसोई और उसके साथ लगे उपले वाले कमरे के कोने की जगह में दीवार की ओर मुंह करके खाने बैठते. और खाना ख़त्म करके ही वहाँ से हटते. इस बीच में हमने उन्हें कभी बोलते हुए नहीं सुना. बहुत बार के कहने पर भी उन्होंने अपना यह आचार कभी नहीं छोड़ा. और ऐसा वह खाने के साथ ही नहीं करते थे, चाय भी वह इसी तरह पीते. इस तरह खाने के बारे उनकी किसी तरह की राय हम कभी नहीं जान पाए.
लक्खी दर्शकों वाले वीडियो मुझे इस लिहाज़ से ख़ूब मज़ेदार लगते हैं कि डोसा, पकौड़ा, इमरती, समोसा या चाट से लेकर किसिम-किसिम की सब्ज़ी, कचौड़ी, बिरयानी, पुलाव, मछली-कबाब आदि बनाने का तरीक़ा तो पता चल जाता है, कैमरे के सामने बैठकर खाते हुए शख़्स की शक्ल देखने के बावजूद उसके स्वाद का पता नहीं चलता. हालांकि स्वाद बताने की उन्हें इतनी जल्दी रहती है कि टीवी पर ख़बरें पढ़ने वालों की तरह ही तमाम फ़ूड व्लॉगर खोंचे वाले के हाथ में दोना पकड़ते ही बताना शुरू कर देते हैं – “इनकी दही देखिए कितनी गाढ़ी है, इनके दही-भल्ले बहुत टेस्टी होते हैं. भइया, ये दही आप जमाते हो या ख़रीदकर लाते हो.”
माइक्रोफ़ोन चूंकि अपने हाथ में ही रखते हैं इसलिए दुकानदार का कहा हुआ दोहराते रहते हैं, “भइया कह रहे हैं कि मदर डेयरी का दही लाते है. बहुत गाढ़ा दही है और ये देखिए ये आ गए भल्ले…और ये लाल चटनी…वाह इसमें किशमिश भी पड़ी हुई है और ये अदरक और धनिया.” इस बीच स्क्रीन पर भइया के ठिकाने का नाम-पता और फ़ोन नम्बर भी चमकने लगता है. और जब वह सजा हुआ दोना या प्लेट हाथ में आते हैं तो देखने वालों को ललचाने के लिए उसे कैमरे के क़रीब लाते हैं ताकि क़्लोज अप में किशमिश वगैरह साफ़ देखी जा सकें.
व्यंजन की ख़ूबसूरती पर बात करते-करते चम्मच से उठाकर मुंह में रखते ही ‘वॉओ’ का उद्घोष करने के तरीक़े अलग-अलग होते हैं मगर वॉओ के सिवाय स्वाद की तारीफ़ में कुछ और नहीं सुन पाता. अपने पंडिज्जी के ठेले पर जुटने वाले लाला के लौंडे एक कुल्हड़ दाल या एक पत्ता आलू में कितनी बार चटनी, पापड़ी, मसाला, चना और अदरक-मूली के लच्छे डलवाते हैं, ये व्लॉगर अगर देख पाते तो वॉओ उच्चारने के पहले दस बार सोचते. दाल का कुल्हड़ थोड़ा ख़ाली करके उसमें आलू या छोले डलवाने वाले या आलू के दोने में सोंठ वाली पापड़ी मांगने वालों का ज़ाइक़ा तो हर बार बदलता ही होगा न पर मजाल है जो कभी वॉओ किया हो. वीडियो वाले वॉओ का आप जो चाहें मतलब निकाल सकते हैं.
कहीं वॉओ टीम होती है तो कहीं बंदा अकेले ही दोना और गोरिल्ला पॉड संभाले हुए होता है. टीम में सहूलियत रहती है मगर जिसके दोनों हाथ फंसे हुए हों, वह टिकाने के लिए कोई ठिकाना तलाशकर कैमरा जमाता है और सामने बैठकर वॉओ करते हुए दुकान या ठेले के माथे पर लगा बोर्ड पढ़ने लगता है या फिर ज़माने को नादान मानकर ऐलान करता है – बेस्ट वड़ा पाव ऑफ़ इंडिया. हालांकि तीस सेकेंड पहले ही वह बता चुका होता है कि ज़िंदगी में वह पहली बार वड़ा पाव खा रहा है.
एक विलायती व्लॉगर ने दक्षिण भारत के किसी रेस्तरां में फ़ेमिली डोसा ऑर्डर किया. अपने काफ़ी बड़े आकार की वजह से भी विलायती फ़ॉलोअर्स के लिए वह कौतूहल की चीज़ लगती है. डोसा परोसने के बाद बेयरा ‘चौकड़े’ में चटनियाँ भी रख गया. पता नहीं क्यों व्लॉगर ने चटनी अपनी प्लेट में निकालने के बजाय डोसा तोड़कर चौकड़े से ही चटनी लगाकर खाया और वॉओ करते हुए ख़ुशी जताई.
खाने के बारे में जानने-बताने के लिए संस्कृति की समझ कितनी ज़रूरी है, यह वीडियो उसी की नज़ीर था. हिंदुस्तानी शहरों, यहाँ के बाशिंदों और तहज़ीब के बारे में सात-आठ मिनट में सब कुछ दुनिया को बताने के लिए जितने व्याकुल विलायती व्लॉगर दिखाई देते हैं, ज़माने भर के चटख़ारे वाले ठिकानों के बारे में देसी व्लॉगरों की आतुरता उससे ज़रा भी कम नहीं. ब्योरा देने का सलीक़ा दोनों का ही एक जैसा होता है – जब अमरूद पेड़ पर होता है तो आलू का भी पेड़ होता ही होगा टाइप.
उनके दिए हुए ब्योरे से आज तक यह नहीं समझ सका कि किसी दोने या थाली में जो कुछ कैमरे के सामने दिखाई देता है, उसका स्वाद आख़िर है कैसा! हिंदुस्तानी ज़बान में किसी चीज़ का ज़ाइक़ा और उसकी ख़ूबियाँ बताने वाले बेशुमार विशेषण हैं – खट्टा, मीठा, नमकीन, फीका, तीता, कसैला, कड़ुवा, खटकिराहिन, दुधाहिन, सुवासित, सुगंधित, गंधहीन, कड़ा, नरम, मुलायम, कुरकुरा, मखमली, तितछौं, बोदा आदि-आदि. रायते को सन्नाटा बनाने की ख़ूबी दुनिया में और कहाँ पाई जाती है, किसी को मालूम तो बताएं. अब ये व्लॉगर अगर पाइनएपिल रायता और सन्नाटा दोनों को चखकर वॉओ करेंगे तो किसी की समझ में भला क्या आएगा? रूप, रंग और आकार से ख़ूबियाँ बखानने वाले तो शायद ही जान पाएं कि इनके साथ ही स्वाद, गुण, गंध, स्पर्श से ही ख़ूबियाँ मुक़म्मल होती हैं.
एक विलायती दम्पत्ति ने भारत के गाँवों में घूम-घूमकर रसोई के वीडियो बनाए हैं. दस्तूर के हिसाब से उनका एक फ़िक्सर है, जो उनके पहुंचने से पहले रसोई का तमाम सामान जुटाकर उन घरों में दे आता है, जहाँ उन्हें भारत का पारंपरिक भोजन करना है और उसके पहले वीडियो बनाना है. नई कड़ाही चूल्हे पर चढ़ाने से पहले घर की स्त्री उस पर लगा ब्रांड वाला स्टीकर तो हटा देती हैं मगर प्लेट पर लगे स्टीकर, घी-मक्खन और तेल के बंद डिब्बे कैमरे के सामने ही खुलते हैं. वीडियो में उन महिला के सिवाय उनका चूल्हा और खेत से उखाड़कर लाई हुई सब्ज़ियाँ ही ओरिजिनल मालूम देती हैं, बाक़ी सब कुछ गढ़ा हुआ. मने जब गढ़ना ही है तो उसके लिए इतनी ज़हमत का मतलब ही क्या? कुछ मनबढ़ क़िस्म के व्लॉगर हैं, जो अपना कैमरा लिए-दिए तंग रसोई में दाख़िल हो जाते हैं और कैमरे के ज़रिये जो कुछ दिखाई दे रहा होता है, उसके बारे में उन्हें कुछ नहीं मालूम होता.
दोना है तो लाइक है, लाइक है तो जीवन है. इसमें भोजन को निमित्त मात्र समझा जाए.
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