बारडोली आंदोलन से सरदार बने वल्लभभाई पटेल

  • 4:10 pm
  • 31 October 2020

यह बात 1928 की है, जब किसानों के लगान में बेतहाशा बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ बारडोली से आंदोलन की शुरुआत हुई. इस आंदोलन के अगुवा वल्लभभाई पटेल थे. बारडोली आंदोलन का नतीजे में सरकार को लगान घटाना पड़ा. वल्लभभाई को इस जीत का श्रेय देते हुए वहाँ की महिलाओं ने उन्हें सरदार की उपाधि दी. यह उपाधि इतनी माकूल थी कि हमेशा के लिए उनके नाम के साथ जुड़ गई – सरदार वल्लभभाई पटेल. जंगे-आज़ादी के अहम् सिपाही, अखण्ड भारत के आर्किटेक्ट और देश के पहले गृहमंत्री.

भौगोलिक रूप से हम अपने देश का जैसा स्वरूप पाते हैं, सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम के बिना शायद वह संभव नहीं था. वही थे, जिन्होंने छोटे-छोटे रियासतों और राजघरानों को एकसूत्र में बांधा. उनकी मजबूत इच्छा शक्ति और नेतृत्व के चलते ही 565 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय हुआ. बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, सरदार पटेल ने भी वैसे ही आज़ाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में योगदान किया. इस योगदान की वजह से ही वह लौह पुरूष कहलाए. आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तरह ही वह नेतृत्वकारी भूमिका में रहे.

लंदन से बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अहमदाबाद में वकालत करने लगे थे. महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित हुए और स्वतंत्रता आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे. खेड़ा, बरसाड़ और बारडोली के किसानों को इकट्ठा करके उनकी समस्याओं को लेकर उन्होंने जो आंदोलन किए, उसने उन्हें देश और कांग्रेस के कद्दावर नेताओं की क़तार में ला दिया. बाद में दो बार वह कांग्रेस के सभापति रहे. स्वतंत्रता आंदोलन में सरदार पटेल ने पहली महत्वपूर्ण भूमिका खेड़ा संघर्ष में निभाई. गुजरात का खेड़ा खण्ड उन दिनो भयंकर सूखे की चपेट में था. अकाल के हालात थे और किसानों को खाने के लाले पड़े हुए थे. किसानों ने अंग्रेज़ सरकार से लगान से छूट की मांग की. सरकार ने उनकी मांग मंज़ूर नहीं की तो सरदार पटेल और महात्मा गांधी ने किसानों को लगान नहीं देने के लिये प्रेरित किया. किसानों का यह संघर्ष रंग लाया और आख़िरकार हुकूमत को उनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा. किसानों को उस साल लगान से राहत मिली. सरदार पटेल की यह पहली कामयाबी थी.

1928 में हुआ बारडोली आंदोलन भी ऐसे ही महत्व का किसान आंदोलन था. तब प्रांतीय सरकार ने लगान तीस फ़ीसदी तक बढ़ा दिया था. पटेल ने एक बार किसानों को साथ लेकर लगान वृद्धि का विरोध किया. पहले तो सरकार ने यह आंदोलन कुचलने के लिए कठोर क़दम उठाए, लेकिन फिर उसे झुकना पड़ा. एक न्यायिक अधिकारी बूमफील्ड और राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने सारे मामलों की जांच कर तीस फ़ीसदी लगान वृद्धि को गलत बताया और इसे घटाकर 6.3 फ़ीसदी कर दिया. किसान संघर्ष और स्वाधीनता संग्राम के अंतर्संबंधों की व्याख्या, ख़ास तौर से बारडोली के संदर्भ में करते हुए गांधी ने कहा था,‘‘इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुंचा रही है और हम सबको स्वराज की मंजिल तक पहुंचाने में ये संघर्ष सीधे स्वराज के लिए संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं.’’ उनकी यह बात सही साबित भी हुई.

देश को आज़ादी मिलने के बाद गृहमंत्री बने सरदार पटेल के सामने बड़ी चुनौती छोटी-छोटी रियासतों को एक करने की थी. जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय रियासतों के विलय की यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी. रियासतों के प्रति नीति स्पष्ट करते हुए पटेल ने कहा,‘‘रियासतों को तीन विषयों सुरक्षा, विदेश तथा संचार व्यवस्था के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा.’’ सच तो यह है कि उन्होंने आजादी के ठीक पहले से ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देशी रियासतों को भारत में शामिल होने के लिए राज़ी करने का काम शुरू कर दिया था. पटेल और मेनन ने देशी राजाओं को समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना मुमकिन नहीं होगा. नतीजा यह कि हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर बाकी सभी रियासतों ने भारत में विलय का प्रस्ताव मान लिया.

जूनागढ़ के नवाब का जब बहुत विरोध हुआ, तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ भी भारतीय गणराज्य का हिस्सा हो गया. सबसे ज्यादा दिक़्क़त हैदराबाद के विलय में आई. हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव नामंज़ूर कर दिया. इस सीधी बगावत का पटेल पर कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने फ़ौज भेजकर निज़ाम को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया. चार दिन के संघर्ष के बाद 1948 में हैदराबाद का विलय भी हो गया.

गृहमंत्री रहते हुए पटेल ने ही भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इसे भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आईएएस) बनाया. अपने एक संदेश में उन्होंने कहा था, ‘‘यह हर एक नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे की उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है. हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है. उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं.’’

सरदार पटेल का यह संदेश अब भी इसलिए प्रासंगिक बना हुआ है कि हम इसे अमल में नहीं ला पाए हैं. कई विद्वानों का मानना है कि पटेल बिस्मार्क की तरह थे. लेकिन ‘लंदन टाइम्स’ की राय इन सबसे जुदा थी. अख़बार ने पटेल के निधन के बाद लिखा, ‘‘बिस्मार्क की सफलताएं, पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं.’’

आज़ाद भारत की पहली सरकार में विदेश विभाग हालांकि नेहरू के पास था, लेकिन कई बार उपप्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में सरदार पटेल को भी जाना होता. पटेल बड़े दूरदर्शी थे और उनकी दूरदर्शिता का फ़ायदा उस समय लिया गया होता तो आज की कई समस्याएं नहीं होतीं. नेहरू और पटेल के बीच पत्र-व्यवहार से यह बात और साफ़ मालूम होती है. 1950 में उन्होंने नेहरू को लिखे पत्र में चीन और उसकी तिब्बत नीति से सावधान करते हुए चीन के रवैये को कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बताया था. अपने पत्र में उन्होंने चीन को देश का दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था. उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा. पटेल की यह सभी बातें बाद में सही साबित हुईं.

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