गर्म हवा | सथ्यू का रचा कालजयी रूपक

  • 9:37 pm
  • 6 July 2020

‘इंडिया टाइम्स मूवीज़’ ने सन् 2005 में हिन्दी की 25 सर्वकालिक फ़िल्में चुनीं तो ‘गर्म हवा’ को इस सूची में जगह मिली. वही ‘गर्म हवा’ जो 1974 में ‘कांस फ़िल्म फेस्टिवल’ में गोल्डन पॉम के लिए और भारत की ओर से ‘ऑस्कर’ के लिए भी नामित हुई. तीन ‘फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड’ पाने वाली वही फ़िल्म जो डायरेक्टर के तौर पर एम.एस.सथ्यू की पहली फ़िल्म थी. बलराज साहनी की कुछ यादगार भूमिकाओं में जिस फ़िल्म का ज़िक्र ज़रूर आता है और जो उनकी आख़िरी फ़िल्म भी साबित हुई. वही फ़िल्म जो रिलीज़ के चालीस साल बाद रेस्टोर करके फिर रिलीज़ हुई और ख़ूब पसंद भी की गई.

बंटवारे के रूप में मिली देश की आज़ादी और इस आज़ादी ने इंसानी रिश्तों का, समझ और संवादनाओं का किस क़दर बंटवारा कर डाला? देश दो हिस्सों में बंट गया. बड़े पैमाने पर लोगों का एक जगह से दूसरी जगह पलायन हुआ. हिन्दुस्तानी मुसलमानों के सामने बंटवारे के बाद जो सबसे बड़ा संकट पेश आया, वह उनकी पहचान को लेकर था. आज़ाद हिन्दुस्तान में उनकी पहचान क्या होगी? यह वही सवाल था, जो आज़ादी से पहले भी उनके दिमाग़ को मथ रहा था. मुल्क के बंटवारे के बाद जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान के बजाय हिन्दुस्तान को चुना और यहीं रहने का फैसला किया, उन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा क़ीमत चुकानी पड़ी. देखते ही देखते अपने ही मुल्क में वे पराए हो गए. मानो बंटवारे के क़सूरवार, सिर्फ़ वे ही हों. पहचान का संकट और परायेपन का दंश आज भी उनके पूरे अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख देता है. यही वजह है कि ‘गर्म हवा’ अपनी प्रासंगिकता अब भी बनाए हुए है.

फ़िल्म का नाम एक रुपक है – साम्प्रदायिकता का रुपक ! यह साम्प्रदायिकता की गर्म हवा जहां-जहां चलती है, वहां-वहां हरे-भरे पेड़ों को झुलसा कर रख देती है. फ़िल्म के एक सीन में सलीम मिर्ज़ा और तांगेवाले के बीच का अर्थपूर्ण संवाद है, ‘‘कैसे हरे भरे दरख़्त कट जा रहे हैं, इस गर्म हवा में.’’ फ़िल्म की शुरुआत रेलवे स्टेशन से होती है, जहां फ़िल्म का हीरो सलीम मिर्ज़ा अपनी बड़ी आपा को छोड़ने आया है. एक-एक कर उसके सभी रिश्तेदार, हमेशा के लिए पाकिस्तान जा रहे हैं. सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदारों को लगता है कि बंटवारे के बाद अब उनके हित हिन्दुस्तान में सुरक्षित नहीं. बेहतर मुस्तक़बिल की आस में वे अपनी सरजमीं से दूर जा रहे हैं. पर सलीम मिर्ज़ा इन सब बातों से ज़रा भी इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते. वे अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि को ही अपना मुल्क मानते हैं.

बदलते हालात में भी उनका यक़ीन ज़रा सा भी नहीं डगमगाता. अपने इस यक़ीन पर वे ज़िंदा हैं, ‘‘गांधीजी की कुर्बानी रायगा नहीं जाएगी, चार दिन के अंदर सब ठीक हो जाएगा.’’ बहरहाल पहले उनकी बड़ी बहिन, फिर भाई और उसके बाद उनका जिगर का टुकड़ा बड़ा बेटा भी हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चले जाते हैं. तब भी वह हिम्मत नहीं हारते. हर हाल में वे ख़ुश हैं. हालांकि दुःखों के पहाड़ उन पर टूटते रहते हैं. अपने उनसे जुदा हुए तो हुए, साम्प्रदायिक दंगों की आग में जूतों का उनका क़ारखाना जलकर तबाह हो जाता है. पुरखों की हवेली पर कस्टोडियन का कब्ज़ा हो जाता है. और तो और ख़ुफिया महकमा उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम भी लगा देता है, जिससे बाद में वह बाइज्जत बरी होते हैं. इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सलीम मिर्ज़ा को आस है कि एक दिन सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा. जिंदगी के संघर्ष में वे उस वक्त पूरी तरह टूट जाते हैं, जब उनकी जान से प्यारी बेटी आमना ख़ुदकुशी कर लेती है.

बेटी की ख़ुदकुशी के बाद वह फ़ैसला कर लेते हैं कि अब यहां नहीं रुकेंगे, कुनबे समेत पाकिस्तान चले जाएंगे. अब आख़िर यहां बचा ही क्या है! पर फ़िल्म यहां ख़त्म नहीं होती, बल्कि यहां से एक नई करवट लेती है. फ़िल्म के आख़िरी सीन में सलीम मिर्ज़ा अपना मुल्क छोड़कर उसी तांगे से स्टेशन जा रहे हैं, जिस तांगे से उन्होंने अपनों को पाकिस्तान जाने के लिए स्टेशन तक छोड़ा था. तांगा रास्ते में अचानक एक जुलूस देखकर ठिठक जाता है. जुलूस मजदूर, कामगारों और बेरोजगार नौजवानों का है, जो ‘‘काम पाना हमारा मूल अधिकार!’’ की तख्तियां लिए नारेबाज़ी करता हुआ आगे जा रहा है. सिंकदर अपने अब्बा से आंखों ही आंखों में कुछ पूछता है. सलीम मिर्ज़ा, जो अब तक सिंकदर की तरक्कीपसंद बातों को हवा में उड़ा दिया करते थे, कहते हैं, ‘‘जाओ बेटा, अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. इंसान कब तक अकेला जी सकता है ?’’ सिकंदर, जुलूस की भीड़ में शामिल हो जाता है.

सलीम मिर्ज़ा इस जुलूस को देखते-देखते यकायक ख़ुद भी खड़े हो जाते हैं और अपनी बेगम से कहते हैं, ‘‘मैं भी अकेली ज़िंदगी की घुटन से तंग आ चुका हूं. तांगा वापस ले लो.’’ यह कहकर वे भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं, जो अपने हक़ के लिए संघर्ष कर रही है. बेहतर भविष्य का सपना और उसके लिए एकजुट संघर्ष का पैगाम देकर फ़िल्म अंजाम तक पहुंचती है.

फ़िल्म निर्देशन के साथ-साथ एम.एस.सथ्यू को बजट की तंगी की वजह से फ़िल्म बनाने में आ रही तरह-तरह की मुश्किलों से पार भी पाना था. आगरा में ही शूटिंग के फ़ैसले के पीछे भी यही वजह थी. दोस्त होमी सेठना से मांगा हुआ एरीफ़्लेक्स कैमरा, एक लेंस और छह लाइटें. आगरा के पीपलमंडी में आर.एस.लाल माथुर की हवेली ही दरअसल मिर्ज़ा मैसन के काम आई है. कितनी ही बार फ़िल्म के विरोध मे जुटे लोगों को गच्चा देने की स्कीमें बनानी पड़तीं. और बक़ौल सथ्यू, “उस शहर में इस क़दर शोर है कि पूरी फ़िल्म की डबिंग हमें बंबई लौटकर आर.के.स्टुडियो में करनी पड़ी.”

बाधाएं अपनी जगह मगर इस्मत चुगताई की कहानी, कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी की स्क्रिप्ट और कैफ़ी के संवाद और वारसी ब्रदर्स की यादगार कव्वाली भी फ़िल्म को मक़बूल बनाने में योगदान करती है.

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